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शान्तसुधारस' ग्रंथ सुन सकते हो। प्रश्न : ग्रंथ सुनने में भी योग्यता चाहिए क्या ?
उत्तर : हाँ, योग्यता चाहिए । आत्मविशुद्धि का श्रेष्ठ लक्ष्य लेकर इस ग्रंथ की रचना की गई है । मात्र जनरंजन के लिए रचना नहीं की गई है । एक साधुपुरुष की, एक महर्षि की यह रचना है । उनको श्रोताओं से धन की अपेक्षा नहीं है, प्रशंसा की अपेक्षा नहीं है । उनको इन दो बातों की अपेक्षा है । मन को भवभ्रमण से पराङ्गमुख करो, अनन्त सुख के सन्मुख करो । उपसंहार :
उपाध्यायजी इस तीसरे श्लोक में तीन बातें बताते हैं । सर्वप्रथम वे श्रोताओं को 'सुधियः' कहते हैं । यानी वे श्रोताओं को अच्छी बुद्धिवाले चाहते हैं । अच्छी यानी निर्मल बुद्धिवाले । जो वक्ता के अभिगम को अच्छी तरह समझ सके । दूसरी बात यह होती है कि कवि को, महाकवि को काव्यज्ञ और काव्यप्रिय श्रोता प्रिय होते हैं । शान्तसुधारस महाकाव्य है । शास्त्रीय रागों में इसकी रचना हुई है, तो काव्यपाठ करनेवाले महाकवि का उल्लास बढ़ता है । । दूसरी बात उन्होंने बतायी है : श्रोता भवभ्रमण से थका हुआ...विरक्त चाहिए । जिनको भवभ्रमण से उद्वेग नहीं हुआ है, उनके लिए यह ग्रंथ सुनना विशेष अर्थ नहीं रखता है । अब मुझे संसार की चार गतियों में भटकना नहीं है, जन्म-मरण नहीं करना है, इस प्रकार निर्णय कर लिया हो, ऐसा विरक्त पुरुष चाहिए इस ग्रंथ के श्रोता ।
तीसरी बात विनयविजयजी ने कही है : जो मनुष्य अनन्त सुख पाने के लिए, पूर्णानन्द पाने के लिए तत्पर बना हो, वह मुमुक्षु ही इस ग्रंथ का श्रोता चाहिए । अनन्त सुख की ओर जिसकी दृष्टि खुल गई हो ।
यह शान्तसुधारसं ग्रंथ मुझे आपको सुनाना है। आपको कैसी योग्यता संपादन करनी होगी, आप समझ गये होंगे । यदि ऐसी योग्यता नहीं है अभी, परंतु ग्रंथ सुनते-सुनते योग्यता प्राप्त हो जायेगी, तो भी चलेगा । भवविरक्ति और मोक्षानुरक्ति - ये दो बातें आ जाये तो भी यह जीवन सफल हो जायेगा । दृढ़ निश्चय के साथ यदि श्रवण करोगे, तो आशा है कि ये दो बातें आप प्राप्त कर लोगे।
आज बस, इतना ही।
प्रस्तावना
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