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शब्द की परिभाषा का ज्ञान नहीं होगा तो क्या समझेंगे ? और, प्रवचन के दौरान पारिभाषिक शब्दों के अर्थ समझाते रहेंगे तो प्रवचन नीरस बन जायेगा। इसलिए श्रोता ऐसे चाहिए कि जिनको जैन पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान हो । इन्हीं को सुधियः कहे हैं । मान लो कि प्रवचन के दौरान परिभाषा को समझायें भी, परंतु जो बुद्धिमान होंगे, वे ही समझ पायेंगे । परिभाषा को समझना भी सरल नहीं होता । मंदबुद्धि लोग, अल्पबुद्धि लोग नहीं समझ सकते । भले ही वे उम्र में बड़े हो । उम्र में छोटे हों, परंतु जो बुद्धिमान लड़के होते हैं, वे पारिभाषिक शब्दों को अच्छी तरह समझ लेते हैं ।
इसलिए विशिष्ट तत्त्वज्ञान का उपदेश बुद्धिमानों को देना चाहिए । सामान्य धर्मोपदेश सभी को दिया जा सकता है । जिसमें अर्थ का अनर्थ होने की संभावना नहीं होती है । दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न :
बुद्धिमानों को भी उपाध्यायजी दो प्रश्न पूछते हैं । बड़े महत्त्वपूर्ण हैं ये दो प्रश्न ! 'शान्तसुधारस सुनना है तो मेरे दो प्रश्नों का उत्तर दो ! __ पहला प्रश्न पूछते हैं : 'तुम्हारा चित्त, भवभ्रमण की थकान से उद्विग्न हो गया है क्या ? अब मुझे संसार में जन्म-मृत्यु नहीं पाना है, अनन्त परिभ्रमण से मैं थक गया हूँ... अब नहीं भटकना है संसार की चार गतियों में, ऐसा निर्णय किया है क्या ? __दूसरा प्रश्न पूछते हैं : अनन्त सुखमय मोक्ष पाने के लिए तुम्हारा मन तत्पर बना है क्या ?' 'अब तो मोक्ष ही पाना हैं - ऐसा मनोमन निर्णय कर लिया है क्या ?
उपाध्यायजी का यह कैसा निःस्पृह भाव है ? 'मैंने कितना अच्छा संस्कृत महाकाव्य बनाया है, मैं लोगों को सुनाऊँ...लोग मेरी भरपूर प्रशंसा करेंगे...महाकाव्य का उच्च मूल्यांकन करेंगे...' वगैरह स्पृहा उनके मन में थी ही नहीं । अपनी कीर्ति का, अपनी प्रशंसा का कोई ध्येय नहीं था । वे तो स्पष्ट कहते थे -- तुम भवभ्रमण से थक गये हो ? तुम्हें अनन्त सुखमय मोक्ष पाने की तत्परता है ? तो ही आइये और शान्तसुधारस सुनिये । _ केवल टाइम पास करने के लिए सनना नहीं है, कर्णप्रिय लगता है, इसलिए नहीं सुनना है । महाराज साब बहुत अच्छा गाते हैं, सुनने में मजा आता है...' इस प्रकार श्रवणेन्द्रिय की तृप्ति के लिए नहीं सुनना है । इसलिए सुनना है कि
शान्त सुधारस : भाग १
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