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चाहिए वैसा सुख नहीं मिलता, सुखाभास मिलता है... परिणाम स्वरूप दुःख ही मिलता है । वास्तविक सुख खोजते खोजते थक गये... निराश हो गये...। अब इस संसार में सुख पाने के लिए नहीं भटकना है...। संसार में परम सुख, शाश्वत् सुख मिल ही नहीं सकता । क्षणिक सुखों के पीछे अब भटकना नहीं है ।"
ऐसा कुछ मन में होता है क्या ? अनादि भूतकाल में ज्ञानदृष्टि से कभी गये हो ? नहीं गये हो न ? चलो, आज ले जाता हूँ अपने अनन्त भूतकाल में...।
हम अनन्तकाल ‘अव्यवहार राशि की निगोद में रहे । वहाँ हम एकेन्द्रिय थे । मात्र स्पर्शनेन्द्रिय थी । चेतन होते हुए भी अचेतन जैसे... मूच्छित अवस्था में थे। जैसे जैसे संसार में से जीव मोक्ष में जाते रहे, हम अव्यवहार राशि की निगोद में से निकल कर 'व्यवहार राशि की निगोद में आते रहे। ऐसा शाश्वत् नियम है कि एक जीव मोक्ष में जाता है तब एक जीव अव्यवहार राशि में से व्यवहार राशि में आता है । अनन्तकाल यह सिलसिला चलता रहता है ।
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निगोद - अवस्था में जीवों को अति दुःख होता है । सुख का स्पर्श लवलेश नहीं होता है । 'व्यवहार राशि की निगोद में भी दुःख ही दुःख होता है । हमारा संसार - परिभ्रमण निगोद से शुरू होता है । सर्वप्रथम हम एकेन्द्रिय थे । मूच्छित थे । दुःखी थे ।
बाद में 'बेइन्द्रिय' जीव बने थे । हमारी स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय ये दो इन्द्रियाँ थी । मन तो होता ही नहीं । बिना मन जीव की स्थिति की कल्पना करना । फिर भी बेइन्द्रिय जीवों को सुख-दुःख की संज्ञा होती है ।
हम अनेक बार बेन्द्रिय जीव बने । जन्म-मृत्यु किये, बाद में तेइन्द्रिय जीव बने । स्पर्श, रस के बाद हमें घ्राणेन्द्रिय मिली । तीन इन्द्रियाँ मिली । तेइन्द्रिय जीव योनि में भी हमने अनेक जन्म-मृत्यु किये । दुःख सहते रहे और चउरिन्द्रिय जीवों की योनी में हमारा जन्म हुआ। स्पर्श, रस, घ्राण के बाद हमें चौथी चक्षुरिन्द्रिय मिली; परंतु मन नहीं मिला । चउरिन्द्रिय के जन्मों में भी दुख ही दुःख पाया । अनेक जन्म-मृत्यु करने के बाद पंचेन्द्रिय- योनि में हमारा जन्म हुआ । स्पर्श, रस, गंध, चक्षु के बाद हमें श्रवणेन्द्रिय मिली । कान मिले । परंतु मन नहीं मिला । पशु-पक्षी की योनि मिली । वहाँ पर भी हम दुःख ही दुःख भोगते रहे ।
बाद में हमें पाँच इन्द्रियों के साथ मन भी मिला । परंतु अविकसित मन, निर्बल मन । यहाँ तक, यानी एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक लाखों योनियों में जन्म
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शान्त सुधारस : भाग १
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