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पक्षियों को परतंत्रता का दुःख होता है । पराधीनता बड़ा दुःख होता है न ?
मनुष्यों को भी सुख कितना मिलता है ? ज्यादातर मनुष्य दुःखी ही होते हैं। थोड़े मनुष्य भौतिक दृष्टि से सुखी होते हैं, परंतु मानसिक दृष्टि से दुःखी होते हैं । भौतिक सुख क्षणिक और विनाशी होते हैं । वे सुख भी सभी प्रकार के नहीं मिलते हैं । मनपसंद नहीं मिलते हैं । कुछ अधुरे सुख मिलते हैं । प्राप्त सुख के साधन कभी भी चले जा सकते हैं ।
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प्रश्न : इस मनुष्य-जीवन पूर्ण होने पर पुनः क्या हम तिर्यंच योनि में ... विभिन्न योनियों में पैदा हो सकते हैं ?
उत्तर : हाँ, इस जीवन में ज्यादा हिंसादि पाप करने पर हम नरक में, तिर्यंच गति में, निम्नतर मनुष्य गति में उत्पन्न हो सकते हैं । 'निगोद' में भी जा सकते हैं, यानी साधारण वनस्पतिकाय में उत्पन्न हो सकते हैं । अब मुझे आपसे पूछना है : इस प्रकार संसार में अनन्तकाल से जन्म-मरण करते हुए थके हो क्या ? अब इस प्रकार नहीं भटकना है, ऐसा आत्मसाक्षी से निर्णय कर लिया है ? संसार के प्रति निर्वेद पैदा हुआ है क्या ?
उपाध्यायजी यह निर्वेद चाहते हैं आपसे । यदि आपके मन में निर्वेद होगा, तो 'शान्तसुधारस' सुनने में आप तल्लीन बन जाओगे । आपकी आत्मा संतृप्ति प्राप्त करेगी । इस महाकाव्य का एक-एक शब्द आत्मा को स्पर्श करेगा । अब आप समझ गये होंगे कि ग्रंथकार ने पहला प्रश्न क्यों पूछा है ? 'अनन्त सुख को समझे हो ?
उपाध्यायजी ने दूसरा प्रश्न पूछा है : 'आपका चित्त अनन्त सुख पाने को तत्पर बना है ?'
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अनन्त सुख ! बिना अन्त का सुख । ऐसा सुख कि जो एक बार मिलने के बाद चला नहीं जाये । नष्ट न हो । कभी वह सुख कम न हो, ज्यादा न हो । परिपूर्ण सुख हो । वह सुख मिलने के बाद कभी कोई अन्य सुख की अपेक्षा ही नहीं रहे । अनन्त सुख कहो या पूर्ण सुख कहो ! वैसा सुख मिल जाने पर प्राप्त करने को कुछ भी शेष नहीं रहता है ।
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अनन्त सुख के साथ अनन्त आनन्द जुड़ा हुआ होता है । पूर्णानन्द... पूर्ण सुख... ... पाने की आपके चित्त में इच्छा पैदा होनी चाहिए । तत्परता उत्पन्न होनी चाहिए | 'मुझे पूर्णानन्दी होना है, मुझे पूर्ण सुख ही चाहिए, अपूर्ण सुख नहीं चाहिए,' ऐसा आपका दृढ़ निर्णय होना चाहिए ।
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शान्त सुधारस : भाग १
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