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भवसंसार से चित्त की विरक्ति बढ़ाना है और अनन्त सुखमय मोक्ष की ओर चित्त की अनुरक्ति बढ़ाना है । संसार - विरक्ति और मोक्ष-अनुरक्ति की दृष्टि से शान्तसुधारस' का श्रवण करना है। शुभ भावनाओं का अमृतरस-पान करना है । इस ग्रंथ - श्रवण का कौन अधिकारी है, यह समझ गये न ? 'भवभ्रमण' को समझते हो ?
आपको 'शान्तसुधारस' सुनना है न ? योग्यता प्राप्त कर सुनना है न ? सभा में से : ग्रंथकार जिस योग्यता की अपेक्षा रखते हैं, वह योग्यता तो हम में नहीं है...
महाराज श्री : अभी योग्यता भले ही न हो, परंतु योग्यता पाना तो है न ? योग्यता पाने का प्रयत्न करेंगे तो योग्यता प्राप्त कर सकोगे । इसलिए सर्वप्रथम 'भवभ्रमण' को समझना होगा । अपनी आत्मा कब से और कहाँ-कहाँ भटकी है यह बात समझोगे तो तुम्हारा मन संसार - परिभ्रमण से नफरत करने लगेगा | संसारवास से विरक्त बनेगा । दूसरी बात यह सोचने की है कि 'हमारी आत्मा संसार की चार गतियों में क्यों भटक रही है ?' हम भटक रहे हैं, परंतु सोचते नहीं कि क्यों भटक रहे हैं ? क्या पाने के लिए भटक रहे हैं ?
एक पुरुष थका हुआ निराश होकर बैठा था । उसको पूछा गया: 'भाई, तुम क्यो निराश होकर बैठे हो ?' वह कहता है : 'मेरा पुत्र खो गया है, उसको कितने दिनों सें खोज रहा हूँ... भटक रहा हूँ... गाँव-गाँव और वन-वन खोजा... भटका... परंतु लड़का नहीं मिला...अब निराश हो गया हूँ... थक गया हूँ...अब आशा छोड़ दी है...।'
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दूसरा एक पुरुष निराशा के सागर में डूबा हुआ, शून्यमनस्क होकर बैठा था । उसको पूछा गया भाई, तुम क्यों निराश होकर बैठे हो ?' वह कहता है : 'इस शहर में बीस साल से आया हूँ... बहुत परिश्रम किया करता हूँ... परंतु पैसे नहीं मिलते | थोड़े रुपये मिलते हैं तो टिकते नहीं... दरिद्र का दरिद्र ही रहा हूँ । जितने बाजार हैं, सभी बाजारों में धंधा किया... मेहनत की... मजदूरी की ... परंतु कुछ नहीं मिला... क्या करूँ ? थक गया हूँ...! अब तो मौत की राह देखता हूँ...'
वैसे “हमारी आत्मा परम सुख पाने के लिए अनन्त काल से, अनादिकाल से संसार की गतियों में भटक रही है, परंतु परम सुख नहीं मिला है । शाश्वत सुख नहीं मिला है । सुख मिलता है परंतु टिकता नहीं, चला जाता है । जैसा
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