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है। यश कीर्ति की प्राप्ति यशःकीर्ति नाम-कर्म के उदय से होती है और अपयशबदनामी होती है अपयश नाम-कर्म के उदय से ! शारीरिक आरोग्य की प्राप्ति शाता-वेदनीय कर्म के उदय से होती है और सभी रोगों का मूल अशाता-वेदनीय कर्म का उदय होता है !
मोह-विष से भ्रान्त बना हुआ मनुष्य, ये तात्त्विक विचार नहीं कर पाता है । वह अतात्त्विक-अयथार्थ विचार ही करता रहता है । जब शरीर रोगग्रस्त बनता है, अनेक औषधोपचार करने पर भी शरीर निरोगी नहीं बनता है, तब उसकी व्याकुलता बढ़ जाती है । उसको मृत्यु का भय सताने लगता है । रोगों से बचने के लिए कैसा भी अनुचित और हिंसा-प्रचुर उपाय करता है । पाप-पुण्य का विचार भी नहीं आता है ।
रोगग्रस्त स्थिति में यदि स्वजन-परिजन उसकी सेवा नहीं करते हैं, उसकी देखभाल अच्छी तरह नहीं करते हैं... तो वह रोष से, रीस से और क्रोध से भर जाता है । वह कटु वचन बोलता है, वह तीव्र आक्रोश करता है और तीव्र अशांति का भोग बन जाता है । मोह-विषाद के जहर का यह दुष्प्रभाव होता है । संसार में मोह-विषाद का जहर व्याप्त है, उस संसार में सुख हो ही नहीं सकता है, शान्ति मिल ही नहीं सकती है । सुख-शान्ति का एक ही उपाय - भावनाएँ : __ सभा में से : हम लोग संसार में ही है, संसार मोह-विष से व्याप्त है, तो फिर हम सुख-शान्ति कैसे पा सकते हैं ?
महाराजश्री : भावनाओं से ! इस शान्तसुधारस ग्रंथ के श्रवण-मनन से । आप लोग सुख और शान्ति पा सको इसलिए तो इस ग्रंथ पर मुझे प्रवचन देने हैं । इस महाकाव्य को गाना है । मानसिक सुख-शान्ति पाने का एक और अद्वितीय उपाय है भावनाओं से आत्मा को भावित करने का !
कितना भी पुण्यकर्म का उदय होगा, कितने भी भौतिक सुख के साधन होंगे, परंतु भावनाओं का मन में चिंतन नहीं होगा, तो शान्ति नहीं मिलेगी ! एक बड़े साधुपुरुष हैं, बड़े तपस्वी हैं... परंतु मन में शान्ति नहीं ! हजारों लोग उनकी तपश्चर्या की प्रशंसा करते हैं, गुणगान गाते हैं... परंतु वे स्वयं में अशान्त हैं । जीवन की कुछ विषमताएँ उनको अशान्त बनाये रखती हैं ! चूँकि तप वे करते हैं, परंतु भावनाओं से आत्मा को भावित नहीं करते !
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प्रस्तावना
२७ ।
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