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जहर फैला हुआ है । और जीवों के अपने-अपने पापकर्म एवं पुण्यकर्म होते हैं । कर्मों के उदय के अनुसार सुख-दुःख के प्रसंग उपस्थित होते रहते हैं । ऐसे प्रसंगों में सामान्य मनुष्य स्वस्थ नहीं रह सकता है । वह तीव्र हर्ष-शोक में, रागद्वेष में उलझ जाता है । भावनाओं का चिन्तन नहीं होता है, भावनाओं से आत्मा भावित नहीं होती है, तो वह प्रशम-उपशम का आनन्द नहीं पा सकता है ।
श्रमण भगवान महावीर स्वामी के धर्मशासन में जो अनेक ज्ञानी, श्रुतधर आचार्य, उपाध्याय, मुनिराज हो गये, उनके प्रथम पंक्ति के ज्ञानी आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी हो गये । उन्होंने अपने जीवन में १४४४ धर्मग्रंथों की रचना की थी। याकिनी महत्तरा' नाम की साध्वी के वे धर्मपुत्र थे । उनके जीवन में एक बहुत बड़ी दुर्घटना घटी थी और वे क्रोध से...द्वेष से पागल से बन गये थे। विद्वान् थे, शास्त्रज्ञ थे...फिर भी उस एक दुर्घटना ने उनको अति विह्वल, अति चंचल...अति रोषायमान बना दिये थे । संक्षेप में वह दुर्घटना बताता हूँ । विक्रम की आठमी शताब्दी का समय था ।
आचार्यश्री हरिभद्र के दो भानजे थे। दोनों रणवीर और शूरवीर थे । युद्धकला में पारंगत थे । किसी निमित्त से वे दोनों संसार से विरक्त बने और अपने मामा हरिभद्रसूरिजी के पास गये । उन्होंने आचार्यदेव को कहा : 'गुरुदेव, हम दोनों गृहवास से विरक्त बने हैं ।
आचार्यदेव ने कहा : यदि तम्हें मेरे प्रति श्रद्धा हो तो विधिपूर्वक दीक्षा ले लो। हंस और परमहंस ने दीक्षा ले ली। दोनों प्रज्ञावंत शिष्यों को आचार्यदेव ने जैनागम पढ़ाये । न्यायदर्शन और वैदिक दर्शन का भी अध्ययन कराया । बौद्ध दर्शन का अध्ययन करते-करते हंस और परमहंस के मन में विचार आया कि बौद्धशास्त्रों का बोध प्राप्त करने, बौद्ध आश्रम में जाकर बौद्धाचार्य से अध्ययन करें । दोनों ने अपनी इच्छा गुरुदेव के सामने व्यक्त कर दी। गुरुदेव ने शिष्यों की इच्छा जानने के बाद अपने ज्ञान के आलोक में दोनों शिष्यों का भविष्य देखा । उन्होंने कहा : वत्स, वहाँ बौद्धमठ में जाने में मझे तुम्हारा भविष्य अच्छा नहीं लगता । इसलिए तुम वहाँ जाने का विचार छोड़ दो। यहाँ दूसरे भी अपने आचार्य हैं, विद्वान् हैं, बौद्ध दर्शन के ज्ञाता हैं, तुम उनके पास अध्ययन कर सकते हो ।
हंस ने कहा : गुरुदेव हमारी इच्छा तो बौद्ध आचार्य से ही बौद्धमत का अध्ययन करने की है... । । प्रस्तावना
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