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ने हंस - परमहंस की यह क्रिया देख ली और आचार्य को बोल दिया । आचार्य ने कहा : 'प्रज्ञावंत पुरुष देव के मस्तक पर पैर नहीं रखते । इसलिए उन दो छात्रों ने जनेउ का चिह्न किया वह उचित है । वे दो छात्र परदेशी हैं, तुम धैर्य रखो। मैं दूसरे प्रकार से उनकी परीक्षा लूँगा ।
उस
रात्रि के समय, जिस कमरे में हंस- परमहंस दूसरे छात्रों के साथ सोये थे, कमरे के ऊपर के भाग में, आचार्य ने मिट्टी के घड़े रखवाये और उन घड़ों को कमरे में पटकवाये । घड़े एक के बाद एक फूटने लगे। सभी छात्र जग गये और अपने-अपने इष्टदेव के नाम लेने लगे । हंस-परमहंस के मुँह से 'नमो अरिहंताणं' मंत्र निकल गया ! बौद्ध गुप्तचरों ने निर्णय किया- 'ये दो जैन हैं ।'
हंस- परमहंस भी सावधान हो गये । वे अविलंब विद्यापीठ को छोड़कर, नगर को छोड़कर भागने लगे। आचार्य ने नगर के बौद्ध राजा को सारी बात बता दी और हंस - परमहंस को पकड़कर वापस लाने के लिए कहा। राजा ने सैनिकों को दौड़ाये । हंस - परमहंस ने सैनिक घुड़सवारों को अपने निकट आते देखा | हंस ने परमहंस को कहा: “तू अपने गुरुदेव के पास पहुँच जाना और उनकी आज्ञा का पालन नहीं कर सके, उसका 'मिच्छामि दुक्कड' कहना | तू अभी क्षत्रिय राजा सूरपाल के पास जाना । वह राजा शरणागत की रक्षा करेगा। मैं यहाँ खड़ा रहूँगा। बौद्ध सैनिकों को यहाँ रोकूँगा... उनसे युद्ध करूँगा... तू राजा के पास पहुँच जाना ।"
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परमहंस रो पड़ा । हंस के चरणों में प्रणाम कर वह चल पड़ा । हंस ने बौद्ध राजा के सैनिकों के साथ युद्ध करना शुरु किया । तब तक युद्ध जारी रखना था, जब तक परमहंस राजा सूरपाल के पास पहुँच न जायं !
युद्ध में हंस की मृत्यु हो गई । परमहंस राजा सुरपाल की शरण में पहुँच गया । सुरपाल ने शरण दी । बौद्ध सैनिक भी सुरपाल के पास गये और बोले : 'परमहंस हमें सौंप दो ।' राजा ने कहा : वह मेरा शरणागत है, मैं उसे सौंप नहीं सकता, कुछ भी हो जायं ।
बौद्ध सुभटों के बहुत आग्रह करने पर राजा ने परमहंस से परामर्श कर के कहा : 'तुम्हारे बौद्धाचार्य और परमहंस का यहाँ मेरी राजसभा में वाद-विवाद हो । यदि परमहंस हार जाये तो उसको ले जा सकोगे अन्यथा वह अपने स्थान पर चला जायेगा !'
बौद्धाचार्य के साथ परमहंस का वाद-विवाद प्रारंभ हुआ। वाद-विवाद बहुत
प्रस्तावना
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