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दिन तक चलता रहा। परमहंस को कुछ शंका हुई। उसने जैन धर्म की अधिष्ठायिता अंबिकादेवी का स्मरण किया। अंबिकादेवी ने कहा : परमहंस, परदे के पीछे, घडे में मँह रखकर, बौद्धमत की अधिष्ठात्री तारादेवी वाद कर रही है, इसलिए तू परदा हटाकर प्रतिवादी को कह दे कि वह तेरे सामने आ कर वाद करें ।
दूसरे दिन ही परमहंस ने अंबिकादेवी के कथनानुसार बौद्धाचार्य को ललकारा : यदि तेरे में शक्ति हो तो अब परदा हटाकर मेरे सामने आ कर वाद कर। परंतु आचार्य मौन रहा । परमहंस ने परदा हटा दिया और लात मार कर उस घड़े को फोड़ दिया। बौद्ध आचार्य का तिरस्कार कर के कहा : तुम अधम पंडित हो... अब मेरे साथ वाद करो।
परमहंस ने आचार्य को पराजित कर दिया। राजा सुरपाल ने घोषित कर दियावाद-विवाद में परमहंस की विजय हुई है ।
परमहंस निर्भय बन, चित्रकूट पहुँच गया । गुरुदेव हरिभद्रसरिजी के चरणों में वंदना की और वह फट-फटकर रो पड़ा । रोते-रोते उसने हंस की मृत्यु की बात सुनायी... बात कहते-कहते उसका हृदय बंद पड़ गया... और वहाँ ही उसकी मृत्यु हो गई।
हंस-परमहंस, हरिभद्रसूरिजी के प्रिय शिष्य थे। दोनों प्रज्ञावंत थे, विद्वान् थे और युद्धवीर थे । इस प्रकार दोनों की अकाल मृत्यु से हरिभद्रसूरिजी अति उद्विग्न...दुःखी और संतप्त हुए । बौद्ध आचार्य के प्रति उनके मन में प्रचंड रोष पैदा हुआ । बदला लेने की अदम्य इच्छा पैदा हुई । गुरुदेव की आज्ञा लेकर वे राजा सुरपाल के नगर में पहुंचे।
राजा ने हरिभद्रसूरिजी का स्वागत किया। आचार्यदेव ने राजा को कहा : हे राजेश्वर, तुमने मेरे शिष्य परमहंस को शरण देकर उसकी रक्षा की, इसलिए मैं तुम्हें लाख-लाख धन्यवाद और धर्मलाभ देता हूँ। तुम शरणागत-वत्सल हो । तुमने क्षत्रियकुल की शोभा बढ़ायी है। राजा सुरपाल ने परमहंस की अद्भुत वादशक्ति की प्रशंसा की, तब आचार्यदेव की आँखें आँसुओं से भर आयी... उन्होंने कहा : वह मेरा प्रिय शिष्य... बात करते-करते मौत का... आचार्य रो पड़े। राजा सुरपाल भी परमहंस की मृत्यु की बात सुनकर स्तब्ध हो गया और बोला : बहुत बुरी बात हुई...' _ 'राजन्, मैं उन दुष्ट बौद्ध भिक्षुओं से वाद-विवाद करूँगा, पराजित करूँगा और मौत का बदला मौत से लूँगा।
शान्त सुधारस : भाग १
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