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उपोद्घात
___ अब्रह्म- मन, वचन और काया से कामवासना का सेवन करना, शीलभंग करना या मैथुन करना अब्रह्मचर्य है। यह भी अधर्म का मूल, महादोषों की जीवन में वृद्धि करने वाला, आत्मा के पतन का जनक एवं श्रेयोमार्ग (मोक्षपथ) में बड़ा विघ्न है । पाँचों इन्द्रियों में स्पर्शनेन्द्रिय महा-बलवान है। जिन महापुरुषों ने इसे अपने वश में कर लिया, वे जगद्वन्द्य हुए हैं। जगत् का उद्धार भी उन्हीं पूर्ण ब्रह्मचारियों द्वारा हुआ है।
यही कारण है, कि साधु मुनियों को इस अब्रह्मचर्य का मन, वचन और काया से कृत, कारित, अनुमोदित रूप से सर्वथा त्याग करना अनिवार्य होता है। लेकिन गृहस्थ इसका सर्वथा त्याग नहीं कर सकता। उसे इसकी मर्यादा करनी जरूरी है। यानी वह स्वदारसंतोष परदारविरमण के रूप में इस (ब्रह्मचर्य) व्रत का पालन करता है । विधिवत् जिसके साथ पाणिग्रहण किया है, उसके सिवाय समस्त स्त्रियों के साथ वह मैथुन सेवन का त्याग करता है। अपनी धर्मपत्नी के साथ भी अमर्यादित रूप से वासना सेवन नहीं करता । इस प्रकार आंशिकरूप से इस आश्रव को छोड़कर मर्यादित ब्रह्मचर्य का पालन करके गृहस्थ श्रावक भी परम्परा से मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। - परिग्रह-किसी पदार्थ का मूर्छा-ममतापूर्वक ग्रहण करना या उस पर ममत्व रखना परिग्रह है।
परिग्रह के मुख्य दो भेद हैं - अन्तरंग और बाह्य । आत्मा की शुद्ध परिणति के सिवाय जितने भी विकार भाव, (मिथ्यात्व, राग, द्वेष, कषाय, मोह आदि) हैं, वे सब अन्तरंग परिग्रह हैं। इस शरीर और शरीर से सम्बद्ध जितने भी बाह्य पदार्थ हैं—फिर वे चाहे जड़ हों या चेतन (स्त्री, पुत्र, दास-दासी,धन, धान्य, मकान, सोना, चांदी, लोहा आदि धातु, नकद रूपये आदि) वे सब बाह्य परिग्रह हैं ।
आत्मा को संसार में जन्म-मरण के चक्कर दिलाने वाला वस्तुतः परिग्रह ही है। संसार में जन्म, मृत्यु, बुढापा आदि से होने वाले दु:खों से संतप्त होकर साधुमुनिवर पाप-पोषक व पाप-परम्परावर्द्धक इस परिग्रह आश्रव का सर्वथा त्याग करते हैं।
यद्यपि' साधु मुनिराज भी अपने संयम-निर्वाह, लज्जा-निवारण आदि के
१ जंपि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुच्छणं ।
तंपि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति य ।। न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ॥
–दशवैकालिकसुत्र अ. ६, गा. २०, २१