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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्रं
लिए कुछ धर्मोपकरण रखते हैं, किन्तु वे परिग्रह में शुमार नहीं हैं। क्योंकि परिग्रह तो ममता, मूर्च्छा होने पर होता है, साधुजन उन पर ममत्त्व नहीं रखते । अतः निर्द्वन्द्व, निर्भीक, निराकुल और निश्चित रहते हैं । वे असीम सुखशान्ति का अनुभव करते हैं। उन्हें इष्ट वस्तु के वियोग और अनिष्ट वस्तु के संयोग में बेचैनी नहीं होती । उन्हें किसी बात का भय और खतरा नहीं होता । वे किसी धनिक और सत्ताधारी की गुलामी या चापलूसी नहीं करते । वे स्व-पर कल्याण साधना में रत रहते हैं । ऐसे नि:स्पृह और निष्परिग्रही साधु ही परिग्रह के दलदल में फँसे हुए अशान्त और व्याकुल प्राणियों को ममता से समता की ओर लाकर स्थायी सुखशांति से लाभान्वित कर सकते हैं । वे गृहस्थ श्रावकों को परिग्रह का परिमाण (मर्यादा - सीमा ) करने की प्रेरणा देते हैं ।
वास्तव में देखा जाय, तो धनादि वस्तुओं में लुब्ध सांसारिक लोगं धनादि साधन जुटाने, बढ़ाने, रक्षा करने तथा भविष्य में उन वस्तुओं की प्राप्ति की लालसा में एवं जिनके पास अधिक परिग्रह है, उनसे ईर्ष्या करने, कलह करने आदि में अनेक प्रकार से हिंसा करते हैं, असत्य बोलते हैं, बेईमानी और अनीति करते हैं, चोरी, डकैती, लूट, झूठ, फरेब आदि करते हैं । धन, सत्ता आदि वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए वे नीति अनीति, कर्तव्य - अकर्तव्य, धर्म-अधर्म की परवाह न करते हुए अनेक प्रकार के हथकंडे रचते हैं, रात-दिन इसी धुन में लगे रहते हैं । फिर चाहे उन्हें इस प्रकार धनादि साधन जुटाने में अहर्निश चिन्ता, दुःख, रोग, कलह, वैमनस्य, भय और अप्रतिष्ठा का सामना ही क्यों न करना पड़े । वे यह नहीं सोचते, कि धन, सत्ता या अन्य जितने भी सुखसाधन प्राप्त हुए हैं, वे सब पूर्वोपार्जित पुण्य के फल हैं । पुण्य क्षीण होते ही वे सब बादलों की छाया के समान अदृश्य हो जायेंगे। हम प्रत्यक्ष देखते हैं, कि जो कल करोड़ों की सम्पत्ति का मालिक था, वही आज दर-दर का भिखारी बना हुआ है; जो आज राष्ट्र के शासन सूत्रों को संभाले हुए है, कल पद के समाप्त होते ही उसे कुर्सी से उतार दिया जाता है, तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है । आज जो स्वस्थ, सुन्दर और सुडौल शरीर पर इतराता है, कल वही शरीर के रोगग्रस्त, घिनौना और दयनीय बन जाने पर आंसू बहाता है।
जैन सिद्धान्त की दृष्टि से सोचा जाय तो धन, सुख के साधन, स्वस्थ शरीर आदि सब पूर्वकृत पुण्य से प्राप्त होते हैं । परन्तु जब पुण्य समाप्त हो जाता है या होने लगता है, और दानधर्मादि करके नया पुण्य भी उपार्जित नहीं होता है, तो इन सब इष्ट वस्तुओं का या तो वियोग हो जाता है या ये ही वस्तुएँ अनिष्ट रूप में बदल जाती हैं। धन खत्म होने लगता है या धन के कारण मुकद्दमेबाजी, चिन्ता, जान को खतरा, चोरी-डकैती आदि के भय लग जाते हैं । फिर मनुष्य उसे लोहे की बड़ी