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उपोद्घात
विषय के भेद से हिंसा के ४ प्रकार हो सकते हैं—(१) संकल्पजा, (२) आरम्भजा, (३) उद्योगिनी और (४) विरोधिनी ।
. जानबूझकर किसी खास इरादे से कषाय-वश प्राणियों का प्राणवध करना संकल्पजा हिंसा है।
चूल्हा, चक्की, भवन निर्माण आदि के आरम्भ से जो हिंसा होती है, उसे आरम्भजा हिंसा कहते हैं।
उद्योग-धंधे, खेती, व्यापार आदि करने में सावधानी रखते हुए भी कभी न कभी त्रस जीवों की हिंसा हो जाती है। इसे ही उद्योगिनी हिंसा कहते हैं।
यदि कोई दुरात्मा अनीतिमार्ग का अनुसरण कर किसी के जान, माल, एवं अन्य साधनों पर, तथा शील आदि धर्म पर, या अपने आश्रित जीवों पर आक्रमण करने के लिए उद्यत हो रहा है, कहने-सुनने पर भी अपवी दुर्नीति को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता, उस समय वह गृहस्थ अपने जान, माल, शील आदि धर्म या आश्रित जनों आदि की रक्षा के लिए सशस्त्र प्रत्याक्रमण करता है, सामना करता है, यहां तक कि युद्ध करने के लिए डट जाता है, उसमें जो हिंसा होती है, उसे विरोधिनी हिंसा कहते हैं।
___ इन चारों प्रकार की हिंसा का साधु-मुनिराज सर्वथा त्रिकरण-त्रियोग से त्याग करते हैं । लेकिन गृहस्थ श्रावक इन सबका सर्वथा त्याग नहीं कर सकता। वह केवल निरपराध त्रस जीवों की कषायवश होने वाली संकल्पजा हिंसा का त्याग कर सकता है। क्योंकि अपनी गृहस्थी चलाने के लिए उससे कई बार आरम्भजा, उद्योगिनी और विरोधिनी हिंसा हो जाती है । यद्यपि स्थावर (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय इन पांच एकेन्द्रिय) जीवों की हिंसा से वह यथासम्भव बचता है, फिर भी वह इनका सर्वथा त्याग नहीं कर सकता। लेकिन त्रस (चल फिर सकने वाले द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय) जीवों की संकल्पजा हिंसा का त्याग करना उसके लिए अनिवार्य है।
मृषा-असत्य वचन बोलना, असत्य आचरण करना और असत्य व दम्भकपट युक्त व्यवहार करना मृषा है । असत्य बोलना महापाप है। असत्य बोलने वाले का संसार में कोई विश्वास नहीं करता। असत्यवादी के साथ कोई लेन-देन का या जिम्मेवारी सौंपने आदि का व्यवहार नहीं करता। मोक्ष रूप कल्पवृक्ष को काटने के लिए असत्य कुल्हाड़े के समान है। इसीलिए मुनिवर इसका सर्वथा त्याग करते हैं । और गृहस्थ श्रावक इसका आंशिक त्याग करते हैं। वे ऐसा असत्य नहीं
१. त्रिकरण - करना, कराना और अनुमोदन । २. त्रियोग = मन, वचन, काया ।