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प्रासाबमएडने
नक्षत्रे वसुभिर्ययोऽपि भजिते हीनस्तु लक्ष्मीप्रदः,
तुल्यायश्च पिशायको ध्वजमृते संवद्धितो राक्षसः।' राजव००३ प्रासाद अथवा गृह बनाने को भूमि की लंबाई और चौड़ाई के नाप का गुणाकार करने से जो गुणनफल हो, वह क्षेत्रफल कहा जाता है। इसको पाठ से भाग देने से जो शेष बचे, वह ध्वज प्रादि प्राय कहलाती है । क्षेत्रफल को पाठ से गुणा करके, गुणनफल को सत्ताईस से भाग दें जो शेष बचे वह अश्विनो प्रादि नक्षत्र होता है। नक्षत्र को जो संख्या सावे, उसमें पाठ का भाग देने से जो शेष बचे वह व्यय कहलाता है । प्राय से व्यय कम हो तो लक्ष्मी को प्राप्त करने वाला है। प्राय और व्यय दोनों बराबर हो तो पिशाब नाम का व्यय और ध्वज प्राय को छोड़कर दूसरी पायों से व्यय अधिक हो तो वह राक्षस नाम का ध्यय कहलाता है। प्रायों की संज्ञा और विशा
"ध्वजो धूमश्व सिन्हश्च श्वानो वृषखरी गजः ।
ध्वाक्षश्चेति समुहिष्टाः प्राचादिषु प्रदक्षिणाः ।।" अप० सू०६४ ध्वज, धूम्र, सिंह, श्वान, वृष, खर, गज और बांक्ष, 2 माह प्रायों के नाम हैं। वे अनुक्रम से पूर्व प्रादि दिशानों के स्वामी हैं। प्रासाद के प्रशस्त प्राय----
ध्वजः सिंहो वृषमजी शस्यते सुरवेश्मनि ।
प्रधमाना खरध्वाक्ष-धूमश्यानाः सुखावहाः ।।" अप० ० ६४ ध्वज, सिंह, वृष और गज ये चार पाय देवालय में शुभ हैं। तथा खर, ध्वाला धूम और वान ये चार प्राय अधम जातिवालों के घरों में सुखकारक है। व्यय संज्ञा
"शान्तः पौरः प्रद्योतश्च श्रियानन्दो मनोहरः । श्रीवत्सो विभवश्व चिन्तात्मा च ध्ययाः स्मृताः॥ समो व्ययः पिशाचश्च राक्षसस्तु ख्ययोऽधिकः ।
व्ययो न्यूनो यक्षश्चैव धनधान्यकरः स्मृतः ।।" अप० सू० ६६ शान्त, पौर, प्रद्योत, श्रियानन्द, मनोहर, श्रीवत्स, विभव और चिन्तामा, ये व्ययों के आठ नाम हैं। प्राय और व्यय समान हो तो पिशाच नाम का व्यय, प्राय से व्यय अधिक हो तो राक्षस नाम का व्यय और प्राय से ध्यय कम हो तो यक्ष नाम का व्यय होता है। यह घन धान्य की वृद्धि करने वाला है। (१) विशेष जानने के लिये देखो मेरा मनुवादित राजवल्लभ मडन ग्रंथ