________________
.............
• प्रासादमडने
.
...
मेढ़ (लिंग) स्थान पर इन्द्र और इन्द्र जय देव स्थित हैं। बायें हाय पर रुद्र और रुद्रदास देव स्थित हैं । इस प्रकार कुल पैंतालीस देवमय वास्तुपुरुष का शरीर है ॥११॥ वास्तुमंडल के कोने की पाठ वेधियां---
ऐशान्ये चरकी बाह्य पीलीपीछा च पूर्वदिक् । विदारिकाग्निकोणे च जम्मा याम्यदिशाश्रिता ॥११२॥ नैऋत्ये पूतना स्कन्दा पश्चिम वायुकोणके ।
पापराक्षसिका सौम्येऽयमेवं सर्वतोऽर्चयेत् ॥११॥ वास्तुमंडल के बाहर ईशानकोने में उत्तर दिशा में चरको और पूर्व में पोलीपीच्या. अग्निकोने में पूर्व में विदारिका और दक्षिण में जम्मा देवी, नैऋत्यकोने में दक्षिण में पूतना और पश्चिम में स्कन्दा, वायुकाने में पश्चिम में पापराक्षसिका और उत्तर में प्रर्यमा देवी का भ्यास करके पूजन करे ॥११२-१सा
देवीः करान यमादींश्च भाषान्नैः सुरयामिषैः । अपरान् घृतपक्वान्नैः सर्वान् स्वर्णसुगन्धिभिः ॥११४||
___इति वास्तुपुरुषविन्यासः । देवियों को और यम आदि क्रूर देवों को माषाम, सुरा और आमिष से और बाकी के सब देवों को प्रत, पक्यान, सुबर्ण और सुगंधित पदार्थों से पूजना चाहिये ।।११४।। शास्त्र प्रशंसा_एकेन शास्त्रेण गुणाधिकेन,
विना द्वितीयेन पदार्थसिद्धिः । तस्मात् प्रकारान्तरतो विलोक्य,
____ मणिगुणात्योऽपि सहायकाक्षी ॥११॥ इस ग्रन्थ के कर्ता श्रीमानसूत्रधार का कहना है कि-शिल्पशास्त्र अनेक हैं। उनमें यह एक ही शास्त्र अधिक गुणवाला होने पर भी दूसरे शिल्पशास्त्र देखे बिना पदार्थ की सिदि नहीं होती, इसलिये प्रकारान्तर से दूसरे शिल्पग्रन्थ भी देखने चाहिये । जैसे-अकेला मरिंग थधिक गुरगवाला होने पर भी इतनी शोभा नहीं देता मिलनी सुवादि अन्य पदों के साथ मिलाने से देता है। इसी प्रकार शिल्प के अनेक शास्त्र देखने से शिल्पी शिल्पशास्त्र का विद्वान् होता है ।।११५}}