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परिशिष्ट नं. २
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अथ जिनेन्द्रप्रासादाध्यायः।
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जय उवाच
शृणु तात ! महादेव ! यन्मया परिपृच्छयते ।
प्रासादांश्च जिनेन्द्राणां कथयसि कि मां प्रभो ॥१॥ हे महादेव ! पिता मैंने आपको जिनेन्द्र के प्रासादों का वर्णन करने का कहा था, उसको हे भगवन् ! भाप सविस्तार कहेंगे ? ॥१॥
किं तले किश्च शिखरं कि द्विपञ्चाशदुत्तमाः । समोसरणं किं तात! किं स्यादष्टापदं हि तत् ॥२॥ .
महीधरो मुनिपरो द्विधारिणी सुशोभिता । है तात ! उत्तम बावन जिनालय किस प्रकार के हैं ? तथा उनके तथा शिखरों की रचना कैसी है । समवसरण, अष्टापद, महीधर, मुनिवर और शाभायमान द्विधारिणी प्रासादों को रचना कैसी है ? उसका प्राय वर्णन करें ॥२॥ श्रीविश्वकर्मोवाच
शृणु वत्स ! महाप्राज्ञ यन्त्रया परिपृच्छयते ।
प्रासादांश्च जिनेन्द्राणां कथयाम्पहं तच्छ एणु ।।३।। श्री विश्वकर्मा अपने जयनाम के पुत्र को सम्बोधन करके कहते हैं कि--हे महा बुद्धिमान पुष ! तुमने जिनेन्द्रों के प्रासादों का वर्णन के लिये पूछा, उसको विस्तार पूर्वक कहता हूँ, सुनो ॥३॥
प्रासादमध्ये मेवो भद्रप्रासादनागराः ।
अन्तका द्राविडाश्चैव महीधरा लतिनास्तथा ॥४॥ उत्तम जाति के प्रासादों में मेरुप्रासाद, नागर जाति के भद्रप्रसाद, अंतकप्रासाद, द्राविड प्रासाद, महीधर प्रासाद और लतिन जाति का प्रासाद, ये उत्तम जाति के प्रासाद है ।।४।।