Book Title: Prasad Mandan
Author(s): Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 259
________________ प्रासादमण्डने Tin AM विभक्ति चौबीसवीं। ५६-वीरविक्रम-महीधरप्रासाद चतुस्वीकृते क्षेत्रे चतुर्विशतिभाजिते । कर्णस्त्रिभागिको ज्ञेयः प्रतिकर्णश्च तत्समम् ॥१२१।। कणिका नन्दिका भागा भद्रा च चतुष्पदम् । श्रीवत्सं केसरी चैव सर्वतोभद्रमेव च ॥१२२॥ रथे वर्षे च दातव्य-मष्टो प्रत्यङ्गानि च । भद्रे चोरुचत्वारि कर्णिकायां भृकोसमम् ॥१२३॥ वीर विक्रमनामोऽयं प्रासादो जिनवल्लभः ।। महीधरश्च नामायं पूजिते फलदायका ॥१२४॥ इति श्री महावीरजिनवल्लभो धीरविक्रमप्रासादः ॥५३॥ प्रासाद की समचोरस भूमिका चोवीस भाग करें। उनमें कोण और किनारी तीन तीन ग, कोशीको नीम एक भाग और भद्रार्ध चार भाग रमखें । कोण और प्ररथ के ऊपर केसरी और सर्वतोभद्र थे दो क्रम और एक श्रीवत्सQग चढायें, भद्र के ऊपर चार उरुग, तथा कोशो और नंदी के ऊपर एक श्रीवस्सशृग और मा प्रत्यंग चढ़ावें । ऐसा वीरविक्रम नाम का प्रासाद जिनदेव को प्रिय है ।।१२१ से १२४॥ शृगसंख्याकोणे ६०, प्ररथे १२०, प्रत्यंग ८, भद्रे १६, कोणी पर नंदी पर ८, एक शिखर, कुल २२१ शृंग। ५७-अष्टापवासाब तद्रपे च प्रकर्तव्ये को तिलकं न्यसेत् । अष्टापदश्च नामायं प्रासादो मिनबल्लभः ॥१२॥ द्वत्यष्टापवासादः ॥५४॥ वीर विक्रम प्रासाद के कोरो के पर एक एक तिलक भी चढावें तो प्रष्टापद नामका प्रासाद होता है । वह जिनदेव को प्रिय है ।।१२।। wnaemonam शृंग संख्या-पूर्ववत् २२१ । तिलक-४ कोरों के ऊपर।

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