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प्रासाद मंडन
आशीर्वाद एवं प्रेरणा :
मुनि श्री सुधासागर जी महाराज क्षु. श्री गम्भीरसागर जी महाराज क्षु. श्री धैर्यसागर जी महाराज
पुण्यार्जक
प्रकाशन/प्रकाशक :
आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र ब्यावर (राज.)
एवं
श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र मंदिर संधी जी सांगानेर, जयपुर (राज.)
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प्रस्तावना
भारतीय प्राचीन स्थापत्यकला के सुन्दर कलामय देवालयों, राजमहलों, किलामों, जलाशयों, यंत्रों मोर मनुष्यालयों प्रादि अनेक मनोहर रचनाओं को देखकर अपना मन पतीव प्रानन्दित होता है। यही 'वास्तुशिल्प' हैं ।
area की उत्पत्ति के विषय में अपराजिता के सूत्र ५३ ले ५५ तक में विस्तारपूर्वक न लीला है। उसका सारांश यह कि प्राचीन समय में धकासुर नाम के राक्षस का विनाश करने के लिये महादेव को संग्राम करना पड़ा। उसके परिश्रम से महादेवजी के कपाल में से पसीना का एक बिन्दु भूमि पर अग्निकुण्ड में गिरा। इसके योग से वहां एक बड़ा भयंकर विशालकाय भूत उत्पन्न हुआ, उसको दोश्रो ......पटक: करके उसके विशालकाय शरीर के ऊपर पेंतालीश देव और ग्राम देवियां ऐसे कुल ५३ देष बैठ गये और निवास करने लगे । जिसे पं० सू० ५५० १२ में कहा है कि 'frame after वास्तु arrat faदुः । पर्यात् ये देवोंका निवास होने से महाकाय भूग वास्तुपुरुष कहा जाता है। इसका इस ग्रंथ के प्राध्याय में इलोक ६६ से ११४ तक किया गया है ।
यह प्रासाद मण्डन ब्रांच शिल्पिवर्ग में अधिक प्रास्त है, इसके आधार पर आधुनिक सोमपुरा ब्रा जातीय शिल्प देवालय बांधने का कार्य अपनी वंशपरंपरा से करते आये है । यही इस ग्रंथ की विशेष महत्वता है और देवालयों की मुख्य चौदह जाति बतलाई हैं | देखो प्रध्या० १ श्लोक ६ का अनुवाद), इनमें से मगर जाति के देवालय का यह प्रशस्त व माना जाता है। इसमें देवालयों के गुणदोष और
माप पूर्वक बांधने का सविस्तर वर्णन है ।
देवालय बनाने का महत्व -
sier का की हैं।
मंदिर अथवा राजमहल होता है। उनमें से यह ग्रंथ देवमंदिर के निर्माण विषय का कारण शास्त्रों में लिखा है कि-
"सुरालयो विभूत्यर्थं भूषणार्थं पुरस्य तु ।
नराणां भूक्तिमुक्त्यर्थं सत्यार्थं चैव सर्वदा ॥
लोकानां धर्महेतुश्च क्रीडाहेतुश्च स्वभु बाम् ।
कीर्त्तिरायुर्यशोऽर्थं च राज्ञां कल्याणकारकः ।" अप० सू० ११५
मनुष्यों के ऐश्वर्थ के लिये, नगर के भूषशारूप श्रृंगार के लिये मनुष्यों को अनेक प्रकार की मो सामग्री को और मुक्तिपद को देनेवाला होनेसे, सब प्रकार की सत्यता की पूर्णग के लिये, मनुष्यों को धर्म का कारणभूत होने से, देवों को क्रोडा करने की भूमि होने से, कीसि मायुष्य we as को वृद्धि के लिये और राजाधों का कल्याण के लिये देशलय बनाया जाता है ।
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नधार स्थपति
देवालय गृह मादि वास्तुशिल्प के काम करने वाले को सूत्रधार अबका कति कहा जाता है। पौवह राबलोक के देवोंने इकट्ठहोकर शिवलिंग के भाकारवाली महादेवजी की अनेक प्रकार से पूजा की, जिससे प्रासाद को वौवह जाति उत्पन्न हुई इन प्रत्येक में चोरस, लंबवोरस, गोल, खगोल और मष्टान्न (भा कोना पाली ) ये पांच प्राकृतियाले प्रासाद शिवजी के कश्नानुसार ब्रह्माजी ने बनायें । व प्रत्येक में भोरस माहिवाले प्रासाद को ५८८, संरचोरम प्रासाद की ३००, गोल प्रासाद की ५०, बमोल धासाय को १५० पोर मष्टास्त्र प्रसाद की ३५० जाति भेद हैं। इसमें मिश्र जाति के प्रासाद के ११२और मिलाने से दो हमार जाति के प्रासाद होते हैं। इन प्रत्येक के एचौस पचीस व होने पास हमार भेद होते हैं। इस प्रत्येक की प्राउ मा विमस्ति होने से कुल चार लाख भेद प्रासाद के होते हैं। कहा सपिरत परम्न जानने वाले को शास्त्रकारने स्पति ( सूत्रधार ) कहा है।
प्रासाद की श्रेष्ठता
भारतीय संस्कृति में प्रासाव का प्रत्यधिक मादर किया जाता है, जसमा ही नहीं परन्तु पूजनीय भी माना जाता है । इसका एक कारण यह हो सकता है कि प्रासाद को शिक्षिय का स्वरूप माना गया है . असे शिवलिंग को पीठिका है, जैसे भासाद को भी जगतीरूप पीलिका है. RATE का जो चोरस भाग है, वह ब्रह्म भाग है, उसके ऊपर का जो मष्टान भाग है, वह विषाणुमाग है और उसके ऊपर का यो पोल शिखर का भाग है, वह साक्षार शिवलिंग स्वरूप है।
दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि---प्रासाद के प्रत्येक अंग और उपांगों में देव और नीयों का विन्यास करके देव प्रलिष्ठा के समय उसका. अभिषेक किया जाता है। इसलिये प्रासाद सर्व देवमम बन जाता है।
सोसरा कारण यह भी हो सकता है कि प्रासाद के मध्य भूतस से भारिणी शिला के ऊपर से एक नाली ( जिसको शास्त्रकार योगनाल अथवा ब्रह्मानाल कहते हैं और आधुनिक शिल्पी एप्रनाल कहते हैं) देब के सिंहासन तक रखने का विधान है। इसका कारण यह मामा जाता है कि प्रासाद के गर्भगृह के मध्य भाग से जलपर जीवों की पाकृतिवाली धारणी नाम की शिला भीक में स्थापित की मासी, उसके ऊपर सूवर्ण प्रथमा मांधी का धर्म (नया) रख कर योगनाल रखी जाती है। इसका कारण यह हो सकता है कि...यह धारणी शिक्षा के पर अलबर जीवों की भातियों होने से यह शिक्षा क्षीर समुद्र में शेषशायी भगवान स्वरूप माना गया, इसके नाभिकमल से उत्पन्न हुमा कमलरंड मल्प योगनास है, इसके ऊपर ब्रह्मा की उत्पति स्वरूप प्रतिष्ठित देव है। इत्यादि कारणों सा का अधिक प्रादर किय जाता है।
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प्रासाद के निर्माण का फल
"खशक्त्या काष्टमृदिष्टकाशैलधातुरलजम् । देवतायसनं कुर्याद् धर्मार्थकाममोक्षदम् ॥" ०१. श्लो० ३३
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weat after के अनुसार लकड़ी, मिट्टी, ईंट, पाषाण, धातु प्रचचा रत्न, इन पदार्थों में से किसी भी एक पदार्थ का देवालय बनायें तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
देवालय erect बनायें तो करोड़ गुना नाटीका बनायें तो दस करोड़ गुना, इंट का बनायें तो सौ करोड़ सुना और पावाखका बनायें तो अनंत गुना फल मिलता है।
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मीक्षा
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refer के इमारती काम करने के लिये शिल्पीयों के पास मुख्य पाठ सूत्र पाये जाते हैं। उनमें प्रथम दृष्टि पूरा हस्त ( गण ) सूत्र, तीसरा सुज की रस्सी चौधा सूख का डोरा, पांच घड़ा का होना, सानो साथी ( रेल ) और आठ प्रकार है । इसका परिचय के लिये देखीये नीचे का रेलर भित्र ।
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इनमें जो मूर्ति मावि वस्तुओं का नाप करने के लिये दूसरा हस्तसूत्र है, यह तीन प्रकार के माप का है । उसको जानने के लिये माप की तालीका इस प्रकार है----
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धनुष
१ गोकर्ण
- १ बिलाद, साल, बिस्ता,
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० १ श्लो० ३५
१ उद्दिष्ट, पाद,
१ रत्नि,
१ मलि, हाथ, दो फुट का गज
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१ कोस
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२ कोस १ सब्बूत ४ गत - १ योजन,
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१ काम, पुरुष,
१ धनुष, नाडीयुग,
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ठयवोदरका एक अंगुल माप लीखा है, यह तीन प्रकार का माना जाता है। जैसे
आठ यवोदर का एक मंल यह ज्येष्ठ माप का सात यवोदर का एक प्रंशुल यह मध्यम भाप का मोर छह सोदर का एक मंल यह कनिष्ठ मानका मेगुल माना जाता है। इन तीन प्रकार के भलों में से जिस २४ अंगुल के नाप का हाथ बनाया जाय तो यह हाथ भी ज्येष्ठ, मध्यम मोर कनिष्ठ भागका होता है । जैसे मनोदर का एक अंगुल ऐसे २४ अंगुल का एक ज्येष्ठ हाम, सात यबोदर का एक अंशुल, ऐसे
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2-साथ
आठ प्रकार के सूत्र
१-दृष्टि सूब
६-गुणियां
३- मुंज की होरी ४-मूलकीहारी । अवलंब
८-प्रकार
-
-
.
.
७-लेबल
जुलीब्लाक नयपुर
वास्तुशिल्प के पाठ सूत्र
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५.
२४ मं का एक मध्यम हाम और छह यवोदर का एक अंगुल ऐसे २४ अंगुल का एक afrष्ठ हाथ माना जाता है।
इन तीन प्रकार के हाथों में से गांव नगर वन, बगीचा, किला, कोस, योजन ग्रादिका नाप मान के हाथ से 'प्रासाद ( राजमहल और देव मंदिर ), प्रतिमा, लिंग, जगतीपीठ मंडप और सब प्रकार के मनुष्यों के घर ये सब मध्यम मान के हाथ से और सिंहासन, शय्या, दर्शन, छत्र, शस्त्र घर सब प्रकार के वाहन भादि का नाम कनिष्ठमान के हाथ से नापने का विधान है ।
हाथ की बनावट
हाब में सीम तीन मंडल की एक २ पर्व रेखा माना है, उसके स्थान पर एक २ पुष्प की प्राकृति किया जाता है। ऐसे पाठ पर्व रेखा होती है। दीयो पर्व रेखा हाथ का मध्य भाग समझा जाता है, इस मध्य भाग से मागे पांव चंल का दो भाग तीनका भर
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भाग किया जाता है ।
८.
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हाथ के प्रत्येक अंगुल के कापा का एक २ देव है, जिसे २४ अंल के २३ काय होते हैं, इनके देवों के नाम राजवल्लभमंडन प्र० १ श्लो० ३६ में लिखा है । परन्तु पर्व रेखा के पुष्प का याय और एक आदि ऐसे नव देव मुख्य माने हैं
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हुताशो ब्रह्मा कालस्तोयपः सोमविष्णु "
हाथ के
तीसरे
भाग का देव रुद्र, प्रथम पुष्प का देव बायु, दूसरे पुष्प का देव विश्वकर्मा, पुष्प का दिन बोथे पुष्प का देव ब्रह्मा पांच पुष्प का देव यम, घट्ट पुष्प का देव वरुण, सातवे पुष्प का देव सोम और आठवें पुष्पा देव विष्णु है। इन नव देवों में से कोई भी देव हाथ उठाते समय शिल्पी के हाथ से दब जाय तो अशुभ फलदायक माना है। इसलिये विस्पयों को हाथ के दो फूलों के बीच से उठना चाहिये। इसका फल समरांगण सूत्रधार में लिखा है कि
हाथ (ज) को रुद और वायु देव के मध्य भाग से उठायें तो धन की प्राप्ति और कार्य की fafa होवे । वायु और विश्वकर्मा देव के मध्य भाग से उठावें तो इच्छित फल की प्राप्ति होवे । Freea और अग्निदेव के मध्य भाग से उठावें तो काम की तरह पूर्ण होवे । अऔर के मध्य भाग से उठायें तो पुत्र की प्राप्ति मौर कार्य की सिद्धि होवे । ब्रह्मा और यमदेव के मध्य भाग से उठाती की हानि होवे | यम पौर वरुण देव के मध्य भाग से उठावें तो मध्यम फलदायक जानना । वरुण पौर सोमदेन के मध्य भाग से उठा तो मध्यम फल जानना । सोध और विष्णु देव के मध्य भाग में उठावें सो ude प्रकार की सुख समृद्धि होने
१ समरांगण सूत्रधार ग्रंथ में ज्येष्ठ हाथ से नापने का लीखा है।
२ देखो राजमंडन प्रध्याय १ लोक ३३ से ३६ तक
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ईप, फुट योर गज प्रादिका माप प्रीटीका सानाश्म से हुआ है। इसलिये इतका प्रसारको तक कला पा रहा है । प्राधुनिक पिाल्पी गुल को एक इंच और हाय को दो फुट मार के कार्य करते हैं। ग्रंथकार
भासाद का निर्मागा करने के लिये यह प्रासाद अंडन नाम का प्रकार विद्वान् 'मम' नाम के सूत्रधारा के महाराणा कुकर. अम्बरा है। इस विषय में बतानुर्वक वर्णन सुरक्षित विद्वदल्न डॉ. बासुदेव शरणजी अप्रवाल अध्यक्ष-कला और वास्तुविभाग, काशी विश्वविद्यालय की लिसी हुई बिस्तृत भूमिका है, इसमें विस्तार पूर्वक लिखा गया है।
ग्रंथविषय
इस ग्रंथ में पाठ अध्याय है । प्रथमायाप में प्रसाद की १४ जाति, भूमि परीक्षा, सातमुहूर्त, परसा, आय, व्यय, नक्षत्र प्रादिमा परिणत, विकसाधन, लातविधि कूर्ममान, मारिएर मावि शिला का नाप और देवालय बांधने का फल इत्यादि विषयों का वर्णन है।
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दिकसाधन
वास्तु शिल्पग्रंथों में ध्रुव को उत्तर दिशा मान करके दिक्साधन करने का विधान है, परन्तु माधुनिक वैज्ञानिक दिक्साधन यंत्र जिसको कुतुबनुमा कहते हैं, इससे देखने से मालूम होता है कि धूम ठीक उत्तर दिशा में नहीं है, पश्चिम दिशा तरफ लगभग बीस डीग्री हटा हुआ मालूम होता है। जिसे भूध को उतर दिशा मान करके दिशा का साथन किया जाय तो वास्तविक दिशा कामान नहीं होगा।
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दिन में दिक्सापन बारह अंगुल के भाव वाला शंकु से करने का विधान है। परन्तु सूर्य प्रतिदिन ... एक ही बिन्दु के ऊपर उदय नहीं होता है । जिसे शंकु की छाया में विषमता होती है। इसलिये इसमें भी अमुक अंशों के संस्कार की पारश्यकता रहती है । एवं धधरण, कृतिका, किया मोर स्वाति नक्षत्र भी बराबर पूर्व दिशा में उदय नहीं होते हैं, जिसे इससे भी प्रास्तविक दिशा का कान नहीं होता।
इस शिकसाधन के आमत रिसर किया आय तो प्राधुनिक प्रशानिक दिक्सामन यंत्र द्वारा ही करना अधिक अच्छा रहेगा । शास्त्रों में लिखे हुए प्रमाण उस समय बराबर होंगे, परन्तु सैंकड़ों वर्ष भरतीत होनेसे : नक्षत्र और वाराणों की स्थिति में परिवर्तन होगाते हैं।
खात मुहर्स के बाबत में शेषनाग चक देखा आता है, उसमें भी अधिक मतमतांतर है। कोई मास्क पोषजाग की स्थिति मष्टि क्रम से मानते हैं तो कोई शास्त्र विलोम क्रम से मानते हैं। इसमें भी ज्योतिष शास्त्र और वास्तुशास्त्र में बहूत मतांतर है । इसका विशेष बुलासा मेरा अनुवादित राजयक्षम मेडन ग्रंथ में लिया है।
दूसरे अध्याय में जगती (प्रासाद बनाने की मर्यादित भूमि ) का वर्णन है । तथा देवों के वाहन का स्थान और उसका उक्ष्य, जिन प्रासाद के माप का क्रम, देव के सामने अन्य देव स्थापित करने का विषय, विशा के देव, शिबस्नानोदक का विधार, प्रदक्षिणा, परनाल पौर देवों के प्रायतनों का बयान है।
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...
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कितनेकानिक शिल्पी जगती पीठका वास्तविक स्वरूप को जानते हैं, ऐसा प्रतीत नहीं होता, क्योंकि पागल जो मवीन प्रासाद प्रभवा महाप्रासाद बनते हैं, उनमें जगती पीठ का प्रभाव ही मालुम होता है। ऐसा लियाम प्रसाद को शास्त्रकार उदयकारक नहीं मानते हैं। शिव स्नानबल--
शिवजी के नाम का जल इशिगोचर होने से एवं उसका उल्लंघन करने से दोष लगता है, ऐसा समासम पग्लिाम है। जिसे शिवलिंग की पीठिका की नाली के नीचे बंडनाथ गणको स्थापना की जाती है । तब स्वासजल बंडगरा के मुख में जाकर वापस गिरता है, उसको उच्छिष्ट (जूला) मान लिया जाता है। ऐसा शिवस्माम जस का लांघन होजाय तो दोष नहीं माना जाता । पंचनाथ गण की स्थापना की प्रथा मुझे किसी शिवालय में देखने नहीं मिली यह वास्तु कार का प्रचार न होना समझना चाहिये।
नाभिवेष---
एक धेन के सामने दूसरे देव स्थापित किया जाय अपवा एक देवालय के सामने दूसरा देवालय जनवाया था तो उसको शास्त्रकार माभिवेध होना मानते हैं, यह अशुभ है, परंतु स्वजातीय देव मापस में सम्मुख हो तो मानिदेष का दोष नहीं माना जाता।
माभिवेध के निषेध का कारण यह हो सकता है कि-एक देव का दर्शन करते हुए दर्शक की पीस दूसरे देश के सामने रहती है । दूसरा कारह यह भी है कि...देव की दृष्टि का अबरोध होना दीषित माना है।
....... तीसरे प्रध्याय में रशिया, मिट्ट, पीठ, मंडोवर (दीवार), देहली, द्वारमान, सपा नि, पंथ, सप्त और नवशाला मादिका पर्शन है।
माधुनिक कितनेक शिल्पी देवालय की पीड छोटी रखते हैं, जिसे देवालय दबा हुआ मालूम होता है भौर पीठ मान से न्यून होने से वाहन का विनाश होना शास्त्रकार लिखते हैं, पीठ न्यून रखने के विषय में बीपार्शवभको सम्पादकीय टीप्पनी पेज नं. ५३ मैं 'शास्त्रीयमान जो माया हो उसमें से भी फिर प्रभाग के मान का पीठ मनाना लिखा है।' यह सदन प्रशास्त्रीय मनः कल्पित है। मेलमंटरोवर--
प्रासाद की दीवार में दो अंधा के ऊपर एक छज्जा होये, उसको 'मेरुमंडोवर' कहा जाता है। क्षीराम ग्रंथकार लिखते हैं कि-मेरुमंडोवर को बारह अंधा और छह छम्मा बनाया जाता है, इस हिसान से दो दो अंधा के ऊपर एक एक कुश्मा रखा जाता है। प्रस्तुत ग्रंथ में प्रबम माल में दो अंधा मोर एक अजा, तना दूसरे मास में एक बघा और एक खुला बनाना लिखा है । इसी प्रकार पाबू के और राणकपुर के जिनालयों में देखा जाता है । अपपुर प्रान्तीय भामेर में जगत् शिरोमणि के मंदिर में प्रत्येक अंधा के ऊपर छम्जा रखा गया है । दीपार्णव में प्रशंषीन देवालयों के तीन बार कोद्र में पीठ और 'रमा रहित लिखा है, यह नजर एक से लिखा मालूम होता है । पीठ तो सबको है, और अपना का निर्गम नहीं होने से धम्मा होम मासूम होता है।
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उदुम्बर (देहली)----
देवालय के द्वार की देहली मोर स्तंभ को कुम्भीरों की ऊंचाई मंडोबर के मुम्भर घर को अमाई के बराबर करना लिखा है। परन्तु कभी बड़े प्रासादों में कुम्मा की ऊंचाई पक्षिक होती है, तो देहली की ऊँचाई भी अधिक होती है । ऐसे समय में देहली को नीचा उतारना शास्त्र में लिखा है। इस विषय में शिल्पियो में मतभेद चल रहा है । कोई शिल्पी कहते हैं कि..... 'देहली नीवी की नाप तो उसके हाथ स्तंभ की कुम्भियां भी देहली के बराबर नीची की जाय' और कोई शिल्पी देहली नोबी करते हैं, परन्तु स्वभ की कुम्भियां नीची नहीं करते । इस मतभेद में जो शिल्पी देहली के साथ कुम्भिया भी नीषी करता है, उसका मत शास्त्र की दृष्टि से प्रामाणिक मालूम नहीं होता है । कारण अपराजित पृच्छा सूत्र १२६ श्लोक में सो कुरभीनों से देहली लीची उतारता लिखते हैं, तो कुम्भीनों नीचे कैसे उतरे ? से क्षीराव में तो स्पष्ट लिखा है कि-"उदुम्बरे हते (क्षते) कुम्भी स्तम्भ तु पूर्ववत् भवेत् ।" कभी दहली नीची किया जाय तो भी स्तंभ और उसकी कुम्भिया पहले के शास्त्रीय नाप के बराबर रखना चाहिये । इससे स्पष्ट मालूम होता है कि जो शिला चेहली के साथ कुम्भोनों नीची करमा मानते हैं....यह प्रामाणिक नहीं है। .
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द्वार की शाखा के विषय में भी शिल्पीनों में मतभेद मालूम होता है। स्तंभ शाखा के दोनों तरफ..... एक एक कोणी बनाई जाती है, उसको शिल्परत्नाकर के सम्पादक शाखा मामते नहीं है और बीमार्णव के सम्पादक गाखा मानते हैं । देवो दीपाद पेज नं०६१ में द्वारशाखा का रेखा चित्र है। उसमें संभ के दोनों तरफ की कोणिवों को शाख मान करके त्रिशाखा द्वार को पंच शाखा द्वार लिखा है, एवं पेज नं० ३६६ और ३६६ के बीच में डारशाखा का लोकपा है, यह चित्र शिल्परत्नाकर का होने से बीच में विशाखा द्वार रूपा है और नीचे उसके खंडन रूप से पंथ शाखा धार लिखा है। इसीसे स्पष्ट मालूम होता है कि स्तंभ शाखा की कोरिणयों को दीपागन के सम्पादक शाखा मानते हैं, जिसे उसके मत से नवशाखा बाला र में दो स्तंभ शाखा होने से तेरह शाखा वाला द्वार माना जाय तो यह प्रशास्त्रीय हो जाता है। क्योंकि शास्त्रकार स्तंभ शाखा के दोनों तरफ कोग्गियां बनाना लिखते हैं, परन्तु जसको शाखा नहीं मानते। इसलिये स्तंभ की दोनों तरफ की फोगियों को शाखा मानने वाले शिल्पीनों का मत प्रशास्त्रीय होने से प्रामाणिक नहीं माना जाय।
चतुर्थ अध्ययन में मूर्ति और सिंहासन का नाप, गर्भगृह का नाप, देवों की दृष्टि, देवों का पद स्थान, उस गो का कम, रेखा विधार, शिखर विधान, मामलसार, कलश, शुकनाशा, कोली मंडप का विधान, सुबर्णपुरुष की रचना, बजादंड का मार और उसका स्थान फ्रादिका वर्णन है। देवदृष्टि स्थान--
देवों की दृष्टि द्वार के किस विभाग में रखा जाय, इस विषय में शिल्पियों में मतभेद है। कितनेक शिल्पी शास्त्र में कहे हुए एक भाग में दृष्टि नहीं रखते, परन्तु कहा मा माग और उसके ऊपर का माल, इन दोनों भाग की संधी में प्रांख की कीकी रखते हैं, जिसे उनके हिसान से एक भाग में कृष्टि रखने का संबंध नहीं मिलता। इसलिये शास्त्र के हिसाब में हष्टि स्पान में होने से उसका मन प्रामाणिक नहीं माना जाता।
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देवों के पदस्थामा संबंध में शास्त्रीय प्रनेक मत मतान्तर हैं। इन हरएक का मारांश यह है कि 'दीवार से दूर रखकर मूलि को स्थापित करना चाहिये । दीवार से बीपका करके किसी भी देश की मूस्ति स्थापित नहीं करना चाहिये । इस विषय में मह. ग्रंथकार मतमतान्तर को छोड़ करके गर्भग्रह के ऊपर के पाट के मायके भाग में देवों को स्थापित करता लिखते हैं, यह वास्तविक है।
रेखा
शिखर की ऊंचाई को गोलाई का निश्चय करने के लिये शिखर के नीचे के पायों से ऊपर के स्कंध वफ को लकीरे खींची जाती है, उसको रेखा कहते हैं । रेखायों से शिखर निर्दोष मनता है । ऐसा शिल्पीवर्ग में मान्यता है । मगर इस रेखा संबंधी रहस्यमय ज्ञान लुस प्रायः हो गया है। जिसे इसका रहस्य मुझे मालूम नहीं हो सका, जोकि अनुबाद में पृष्ठ नं ७७ में एक रेखा चित्र दिया है, जिससे शिल्पिगया इस पर विचार करके रेखा की वास्तविकता का निर्णय करेंगे तो बास्तु शास्त्र के इस विषय का प्रचार हो सकेगा।
ध्वजादंड----
वास्तु शिल्पशास्त्र का विशेष अध्ययन न होने से शिल्पिपरा बजादंड रखने का स्थान विस्मृत होगये हैं, जिसे ये देवालय का निर्माण करते समय ध्वज्ञादंड को मामलसार में स्थापन करते हैं, यह प्रामाणिक नहीं है। शास्त्र में शिखर की ऊंचाई का छह भाग करके ऊपर के छ? भाग का फिर चार भाग करके नीचे का एक भाग छोड़ देना, उसके ऊपर का तीसरे भाग में यजादंड रखने का कलामा बनाना लिया है। देखो पेज नं ६, एवं ध्वजादंड को मजबूत रखने के लिये उसके साथ एक दंडिका भी बबंध करके रखी जाती है। यह प्रथा तो प्रायः विलकुल सुस होगई है।
शास्त्र में जलावार का स्थान लिखा है, परन्तु शिल्पी रजाचार का अर्थ यजा को धारण करने बासा 'ध्वजपुरुष' ऐसा करते हैं, जिसे बजादड रखने के स्थान पर ध्वजपुरुष की प्राकृति रखते हैं। और शिल्परत्नाकर पेज नं० १८४ श्लोक ५४ का गुजराती अनुबाद में बजाधर अर्शन वमपुरुष करो' लिखा है, उसका प्रमाण देते हैं । उन शिल्पियों को समझना चाहिये कि इवाधार का अर्थ ध्वजपुरुष नहीं, लेकिन ध्वजादंड रखने का कलाका है।
दीपार्णव ध में नवीन बने हुए देवालयों के चित्र दिये गये हैं, उनके शिखरों के मामलसारों में ध्वजादंड रखा हुआ मालूम होता है, उनको देखकर अपने ये प्रामाणिक मान ले तो दीयारण्य के पेज ११५ में श्लोक ४६, ५० का मनुवाद पेज २० ११६ में लिखा है कि....."जो स्कंधना मूलमां ध्वजदंड प्रविष्ट थाय तो स्कवेष बारगयो, स्कंधवेषची स्वामी मने शिल्पीनो नाश पाय छे।" यह शास्त्रीय कयान झूठा हो जाता है । शास्त्रीय कपन सत्य मानने के लिये प्रासादमंडन के पेत्र नं० ६० में दिये गये ध्वजदंड में रेखा चित्र देखें, इस प्रकार ध्वजवंद रखना प्रामाणिक है ।
दीपा के पृष्ठ नं. १२६ की टीप्पणी में श्रीरार्णव का एक श्लोक का प्रमाण देकर लिखा है कि-'समपर्व ने एको कांगरणी माला बजादेव शक्तिदेवीना ने महादेवनामंदिरोमा करावी। एकी केकी रेउ प्रकारमा ध्वजावंडो भवनने बिये तो शुभ ज छे ।' इस विषय में विहिस्यों को विचार करना चाहिये । यह लोक क्षीराव में नहीं है, किसी अन्य ग्रंथ का होगा या अनुवादक ने मनः कल्पित बनाकर
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रखा होगा, मगर चामों प्रकार के बजट भवन के लिये शुभ।ऐसा अर्थ श्लोक से निकलता नहीं है, परन्तु शक्तिदेवी के मंदिरों में ही दोनों प्रकार के ध्वजड बनाना ऐसा निकलता है। अन्य मंदिरों के लिये तो विषमपर्व और समयपी बाला ही ध्वजदंड रखना शास्त्रीय है।
पाचवें व्यसन में प्रामापुर: मारि: वैराज्य प्रादि पचीस प्रासादों का सविस्तर वर्णन उनको विभक्ति के मकशे के साथ लिखा गया है।
छ8 अध्ययन में केसरी जाति के पास प्रासादों के नाम और उनकी सास विभक्ति के मतमतान्तर लिखा है । और नव महामे प्रासादों का वर्णन है। केसरी प्रादि पवीस प्रासादों का सविस्तर वर्णन ग्रंपकार ने लिखा नहीं है, जिसे इस ग्रंथ के अंत में परिशिष्ट नं. १ में अपराजित पृच्छासूत्र. १५६ का केसरी प्रादि प्रासादों का सविस्तर वसन अनेक नकशे प्रादि देकर सिखा हमा है।
सात अध्ययन में प्रासाद के मंडों का सविस्तर वर्णन रेखा चित्र देकर लिखा गया है। उसमें पेज नं ११६ श्लोक में 'शुकनासलमा घण्टा न्यूना श्रेष्ठान चाधिका का पर्थ दीपाव के सम्पादक पेज नं०१३३ में नीच टिप्पनी में 'शुकनासथी घंटा ऊंची न करवी, पर नीची होय तो दोष नयी। ऐसा लिखा है और उसकी पुरता के लिये अपराजित पृच्छासूत्र १५५ श्लोक १३ वा का उत्तरा भी लिखा है। यह वास्तविक नहीं है, क्योकि जो उत्तराद्ध लिखा है वह घंटा नीली रखने के संबंध का नहीं है, परन्तु शुकनास के रखने के स्थान का विषय है। चम्जा से लेकर शिखर के स्कंध तक की ऊंचाई का इक्कीस भाग करना, उनमें से तेरह भाग की ऊंचाई में शुकनास रखना । तेरहवें भाग से अधिक ऊंचा नहीं रखना, किन्तु तेरहवां भाग से नीचा रखना दोष नहीं है। ऐसा अर्थ है उसको मामलसार घंटा का संबंध मिलाना अप्रामाणिक माना जाता है ।
वितान (चंदवा)
छत के नीचे के तल भाग को वितान-बांदनी प्रथया चंदवा कहते हैं । उसके मुख्य तीन भेद हैं१. छत में जो लटकती प्राकृति होये, यह क्षिप्तवितान' कहा जाता है। २. छप्त की प्राकृति ॐषी गोल गुम्बज के जैसी हो वह 'उक्षिप्त वितान' कहा जाता है । ३. यदि छत समतल हो वा उसको 'समतल वित्तान' कहते है 1 यह बिलकुल सादो भयवा अनेक
प्रकार के चित्रों से वितरी हुई प्रयया खुदाई बाली होती है।
बीपाव के पृष्ट १३८ में श्लोक २२ के अनुवाद में क्षितोलित, समतल और डदित, ये लोन प्रकार के दितान लिखे हैं। यहां उदित शब्द पदधातुका भूत कुदल है, इसलिये इसका भयं 'कहा है। ऐसा कियावाचक होना चाहिये।
संवरणा---
संबर को शिल्पीवर्ग सांभरण कहते हैं यह मंडप की छत के ऊपर अनेक कलशों की प्राकृति वाला होता है । इसकी रचना शास्त्रीय पद्धति का विस्मरण होजाने से अपनी बुद्धि अनुसार शिल्पीमो बनाते हैं।
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आठवां अध्याय साधारण नामका है। उसमें वास्तुदोष, दिङ्मूढ दोष, जीवास्तु, महादोष, भिन्नदोष, अंगहीनदोष, आश्रम, मठ, प्रतिष्ठाविधि, प्रतिष्ठा मंडप, यज्ञकुण्ड, मंडवप्रतिष्ठा प्रासाद देवन्यास, जिनदेवप्रतिष्ठा, जलाशयप्रतिष्ठा, वास्तुपुरुष का स्वरूप पर ग्रंथसमासि मंगल आदिका वर्णन है ।
परिशिष्ट नं० १ में केसरी प्रावि पवीस प्रासादों का सविस्तर वर्णन है । उनकी विभक्तियों की प्रासाद संख्या में शास्त्रीय मतांतर है। जैसे- 'समरांगण सूत्रधार' में प्रकारहवीं विभक्ति का एक भी प्रसाद नहीं है । एवं शिल्पशास्त्री नर्मदाशंकर सम्पादित शिल्परत्नाकर' में बीसवीं विभक्ति का एक भी प्रासाद नहीं हैं।
शिल्परत्नाकर में केसरी जातिका दूसरा सर्वतोभद्र प्रसाद नव गो वाला है, उसके चार कोने पर मौर पर भद्र के ऊपर एक एक श्रृंग बढ़ाया है, यह शास्त्रीय नहीं है, क्योंकि संपादक ने इसमें मनः atra परिवर्तन कर दिया है। शास्त्र में तीन कोने के ऊपर चढ़ाने का धौर भइ के ऊपर भृग नहीं बढ़ाने का लिखा है। क्षीरादि ग्रंथ में साफ लिखा है कि कर्णे श्रयं कार्यं भद्रे मं विजयेत् ।" इस प्रकार सोमपुरा भंगाराम विश्वनाथ प्रकाशित 'कैसरादि प्रासादमंथन' के पृष्ठ २५ लोक १० में भी लिखा है । मगर शिल्परत्नाकर के सम्पादक ने इस श्लोक का परिवर्तन करके कर्णे व तपा कार्यं भद्रे तथैव च । ऐसा लिखा है । इस प्रकार प्राचीन वास्तुशिल्पा परिवर्तन करना विद्वानोंको के लिये प्रनुचित माना जाता है । इसका परिणाम यह हुआ कि दीपाव के सम्पादक ने भी सर्वतोभद्र प्रासाद के रंगों का क्रम रक्खा, देखिये पृष्ठ नं० ३२१ में सर्वतोभद्र प्रासाद के शिखर का रेखाचित्र |
परिशिष्ट नं २ में जिप्रासादों का सविस्तृत वर्णन है । इन प्रासादों के ऊपर श्रीवत्स श्रृंगों के बदले कैसी श्रादिशों का क्रम चढ़ाने का लिखा है । क्रमशब्द यहां भूगों का समूहवाचक माना जाता है । बहला क्रम पनि मों का दूसरा कम तब स्गों का तीसरा क्रम तेरह व गोका, पौषा कर सह गों का और पांचवां क्रम इक्कीसगों का समूह है। प्रर्थात् केसरी आदि प्रासादों की संख्या को क्रम को संज्ञा दी है।
शास्त्रकार जितना न्यूनाधिक कम बढ़ाने का मिलते हैं, वह प्राधुनिक शिल्पी नीचे की पंक्ति में एकही संख्वा के क्रम चढ़ाते हैं। जैसे कि किसी प्रासाद के कोनेके ऊपर चार क्रम प्रति के ऊपर तीन क्रम, उपरभ के ऊपर दो क्रम बढ़ाने का लिखा है। वहां माधुनिक शिल्पी नीचे की प्रथम पंक्ति में सबके ऊपर चौथा क्रम बढ़ाते हैं। उसके ऊपर की पंक्ति में सबके ऊपर तीसरा क्रम चढ़ाते हैं । यह नियम प्रशास्त्रीय है। इस प्रकार प्राचीन देवालयों में बढ़ाये हुए नहीं है। शास्त्रीय नियम ऐसा है कि जिस प्रंग के ऊपर जितना क्रम बढ़ाने का लिखा है, वहां सब जगह प्रथम क्रम से ही गिन करके बढ़ायें पर्या कोने के ऊपर चार क्रम बढाने का है वहां नी की प्रथम पंक्ति में बीषा, उसके ऊपर तीसरा, उसके ऊपर दूसरा और उसके ऊपर पहला क्रम बढ़ाया जाता है। प्रतिक के ऊपर तीन कम चढाने का fear है, वहां मौजे की प्रथम पंक्ति में तीसरा, उसके ऊपर दूसरा और उसके ऊपर प्रथम, उपरण के ऊपर दो कम चढाने का fear हो वहां पहला कम दूसरा उसके ऊपर पहला क्रम बढाना चाहिये । देखिये अपराजित पृच्छासून के पुष्पकादि प्रासादों की जाति । ऐसा शास्त्रीय नियम के अनुसार नहीं करने से शिल्परत्नाकर के अट्टम रल में fararara का स्वरूप लिखा है उसमें गो की क्रम संख्या बराबर नहीं मिलती है, उसकी कोपी टु
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कोपी दौपार्णव के सम्पादक ने की हैं जिसे उसमें तो जिनशसाझे के 'गों की क्रम संख्या मिले ही की से यह उतना ही नहीं खुद के नियमानुसार भी शुगों की क्रम संख्या बराबर नहीं मिलती।
बड़े हर्ष का विषय है कि भारतीय प्राचीन संस्कृतिक साहित्यका भारतीय भाषा में प्रथम घार ही हिन्दी साहित्य की पूर्तिरूप प्रकाशित हो रहा है । मैंने कई वर्ष तक इस विषय के अनेक ग्रंथों का मनन पूर्वक अध्ययन करके तथा शिस्पीवर्ग के सहयोग से प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करके, एवं प्राचीन देवालों और ईमारतों का प्रबलोकन करके इस अंग को बयाणे रूप में आप सज्जनों के सामने उपस्थित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
इस ग्रंभ में जो विषय कम मालुम होता था, उसको दूसरे ग्रंयों से लेकर या स्थान रखा गया है मौर जिसके अनुवाद में शंकास्पद मालुम होता था, इसकी स्पष्टता करने के लिये दूसरे ग्रंथों का प्रभागा मी दिया गया है। हर इस रिगा काय करने वाले अच्छी तरह समझ सके इस पर पूर्ण ध्यान रखा मया है। तथा पारिभाषिक शब्दों का मर्थ हिन्दी भाषा में पूर्णरूप से प्राप्त नहीं होने से मूलभाया ( संस्कृत) में ही रखा गया है। जिसे सार्वदेशीय अध्ययन करनेवाले को अनुकूलता हो सकेको । भाशा करता हूं कि इस विषय का अध्ययन करके कोई विषय की भूल मालूम होवे तो सूचित करने की कृपा करेंगे।
प्रारंभिक अभ्यास के समय बीस वर्ष पहले परमजैन चंद्रांगज उकुर 'फे विरचित विस्कुसारपयर' प्रति वास्तुसार प्रकरण नामक का प्राकृत शिल्ल पंथ को अनुवाद पूर्वक मैंने अपनाया था, उसमें कई एक जगह मे मंडोवर मादि की भूल दृष्टिगोचर होती है, उसको इस ग्रंथ से सुधार करके पढ़ने की कृपा करें।
प्रयाग परिश्रम करके इस ग्रंप की विस्तृत भूमिका लिखने की कृपा की है, उन श्रीमान् सुप्रसिद्ध विद्वान् हार बासुदेवशरणजी अग्रवाल 'प्रध्यस कला और वास्तु विभाग, काशी विश्वविद्यालय' का धन्यबाद पूर्वक भाभार मानता हूं । एवं इसके मनुवाद की कितनेक भाषा दोषों को सुधार करके सुम्बर श्राप काम कर देने वाले प्रबंता प्रिंटर्स के अध्यक्ष महोदय का भी प्राभार मानना भूला नहीं जाता।
सज्जनों से प्रार्थना है कि--मेरी मातृभाषा गुजराती होने से अनुबाद में भाषादोष अवश्य रहा । होगा, उसको क्षमाप्रदान करते हुए सुधार करके पढ़े ऐसी विनम्र प्रार्थमा है । इति शुभम् ।
फागुण शुकला ५ गुरुवार सं० २०१६ ।
जयपुर सिटी ( राजस्थान)
भगवानवास जैन
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सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. वासुदेवशरणाजी अग्रवाल 'अध्यक्ष-कला वास्तु विभाग, काशी विश्वविद्यालय' द्वारा लिखी हुई गूजराती अनुवाद वाला प्रासाद मण्डन की--
भूमिका
जयपुर के श्री पं. भगवान शंस जैन उन चुने हुए विद्वानों में से है, जिन्होंने भारतीय स्थापत्य और वास्तु शिल्प के अध्ययन में विशेष परिश्रम किया है। सन् १९३६ में अकुरफेर विरक्ति 'वास्तु-सारप्रकरण नामक वास्तु संबंधी महत्वपूर्ण प्राकृत अन्य को मूल हिन्दी भाषान्तर और अनेक चित्रों के साथ उन्होंने प्रकाशित किया था। उस अन्य को वा ही मुझे निश्चय ही गया के पं. भगवानदास ने परम्परागत भारतीय शिल के पारिभाषिक शब्दों को ठीक प्रकार समझा है और उन पारिभाषाओं के प्राधार पर वे मध्य कालीन शिल्प-ग्रन्थों के सम्पादन.पीर पाख्यान के सर्वत्रा अधिकारी विधान है। शिल्प शास्त्र के अनुसार निर्मित मन्दिरों या देव प्रासादों के वास्त को भी वे बहुत अच्छी व्याख्या कर सकते हैं. इसका अनुभव मुझे तब हमा जब कई वर्ष पूर्व उन्हें साथ लेकर मैं भामेर के भव्य मन्दिरों को देखने गया और वहां पण्डितजी ने प्रासाद के उत्सेध या उदय संबंधी भिन्न भिन्न भागों का प्राचीन पान्दाबली के साथ विवेचन किया। इस प्रकार की योग्यता रखने वाले विद्वान इस समय विरल ही हैं। भारतीय शिल्प-शास्त्र के जो अनेक अन्य विद्यमान हैं उनकी शचीन शब्दाबली से मिलाकर अद्यावधि विद्यमान मंदिरों के वास्तु-शिरूप की व्याख्या, यह एक प्रत्यन्त्र पाबश्यक कार्य है । जिस की पूर्ति वर्तमान समय में भारतीय स्थापत्य के सुस्पष्ट अध्ययन के लिये यावश्यक है । श्री पं० भवानदास जैन इस ओर अग्नसर है, इसका महत्वपूर्ण प्रमाण उनका ऊपर किया था 'प्रासाद-मण्डन' का वर्तमान गुजराती अनुवाद है। इसमें मूल अन्य के साथ गुजराती व्याख्या और अनेक टिप्पणियां दी गई है और साथ में विषय को स्पष्ट करने के लिए मनेक विष भी मुद्रित है।
'सूत्रधार मंडन के विषय में हमें निश्चित जानकारी प्राप्त होती है। वित्तौड़ के राणा कुंभकर्ण या कुम्भा ( १४३३-१४६८ ई० ) राज्यकाल में हुए । राणा कुम्भा ने अपने राज्य में अनेक प्रकार से संस्कृति का संवर्धन किया । संगीत की उशति के लिए उन्होंने प्रत्यन्त विशाल 'संगीत--राज' ग्रंथ का प्रणयन किया। सौभाग्य से यह ग्रन्थ सुरक्षित है और इस समय हिन्दु विश्व विद्यालय की घोर से इसका मुद्रण हो रहा है। राणा कुम्भा ने कवि जयदेव के गीत गोविन्द पर स्वयं एक उलम टीका लिखी। उन्होंने ही चित्तौड़ में सुप्रसिद्ध कीर्तिस्तंभ को निर्माण कराया । उनके राज्य में कई प्रसिद्ध शिल्पी थे। उनके बारा.राणा ने अनेक वास्तु भौर स्थापत्य के कार्य संपादित कराए । 'कीतिस्तम्म के निर्माण का कार्य सूत्रधार 'जता' और उसके दो पुत्र सूबधार नापा और पूजा ने १४४२ से १४४६ सक के समय में पूरा
१-श्री रत्नबन्द अनयाल, १५ वीं ससी में मेवाड़ के कुछ प्रसिद्ध सूत्रधार और स्थाति सम्राट ( Some Famous Sculptors & Architects of Mewar-15th. century A. D.) इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली. भाग २३ ४,दिसम्बर १६५७ पृ० ३२१-३३४
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किया । इस कार्य में उसके दो अन्य पुत्र पामा और बलराज भी उसके सहायक थे। राणा कुम्भा के अन्य प्रसिद्ध राजकीय स्थपति सूत्रधार मण्डन हुए। वे संस्कृत भाषा के भी अच्छे विद्वान थे। उन्होंने निम्न लिखित शिल्प ग्रन्थों की संस्कृत में रचना की----
प्रासाद मण्डन, पास्तु मदन, रूप मण्डन, राजबल्लम मण्डन, देवता भूति प्रकरण, रूपवतार, वास्तुसार, वास्तु-शास्त्र । राजबल्लभ अन्य में उन्होंने अपने संरक्षक समाद राणा कुम्भा का इस प्रकार गौरख के साथ उल्लेख किया है..
"श्रीमेदपाटे नुपकुम्भकर्ण-स्त निराजीवपरागसेवी । समण्डनाल्यो मुवि मूत्रधारस्तेनोड तो भूपत्तिकालभोऽयम् ।'
रुपमण्डन ग्रन्थ में सूत्रधार मण्डन ने अपने विषय में लिखा है---
"श्रीमह वो मेदवाटाभिधाने क्षेत्राख्योऽभूत सुनधारी वरिष्ठः । पुत्री ज्येष्ठो मण्डनस्तस्य तेन प्रोक्त शास्त्र मण्डन रूपपूर्वम् ।"
इससे ज्ञात होता है कि मान के पिता का नाम सूत्रधार क्षेत्र था । इन्हें ही अन्य लेखों में क्षेत्राक भी कहा गया है । क्षेत्राक का एक दूसरा पुत्र सूत्रधार नाथ भी था जिसने 'वास्तु मंजरी' नामक प्रस्प की रचना की। सूत्रधार मण्डन का ज्येष्ठ पुत्र सूत्रधार गोविन्द और छोटा पुत्र सूत्रधार ईश्वर था। सूत्रधार गोविन्द ने तीन अन्यों की रचना की.....उबार धोररिण, फलानिधि और द्वारदीपिका । कलानिधि प्रम में उसने अपने विषय में और अपने संरक्षक राणा श्री राजमल्ल ( रायमल्ल ) के विषय में लिखा है...
"सूत्रधारः सदाचारः कलाबारः कलानिधिः । . दण्डाधारः सुरागारः श्रिये गोविन्ययादित् ।। राज्ञा श्री राजमल्ने (न) प्रीतस्यामि (ति) मनोहरै। प्रणम्यमाने प्रासादे गोविन्दः संभ्यधादिदम् ॥"
(विक, मे. १५५४ ) राणा कुभा की पुत्री रमा बाई का एक लेख (विक्रम सं. १५५४) जायर से प्राप्त हुआ है जिसमें क्षेत्राक के पौत्र और सूत्रधार मण्डन के पुत्र ईश्वर ने 'कमठाणा बनाने का उल्लेख है--
"श्रीमेदपाटे वरे देशे कुम्भकर्णनएगृहे क्षेत्राकसूत्रधारस्य पुत्री मण्डन प्रात्मवान सूत्रधारमण्डन सुत ईशरए कमठागु घिरचितं ।"
ईश्वर ने जाकर में विष्णु के मन्दिर का निर्माण किया था । इसी ईश्वर का पुत्र सूत्रधार छीतर या जिसका उल्लेख विक्रम सं. १५५६ (१४६ ई.) के चितौड़ से प्राप्त एक लेख में आया है। यह राणा राय
१----गृह और देवालय प्रादि इमारती काम को अभी भी राजस्थानीय शिल्पी 'कमठाणा' बोलते हैं ।
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मा के समय में उनका राजकीय स्थपति पा । इससे विदित होता है कि राणा कुमा के बाद भी सूत्रधार मापन के वंशज राजकीय शिल्पियों के रूप में कार्य करते रहे। उन्होंने ही उदयपुर के प्रसिद्ध जगदीश मंदिर और उदयपुर से मानीस मील दूर कांकरोली में बमे हुए राज समुद्र सागर का निर्माण किया।
... राणा कु'भा के राज्य काल मै राणकपुर में सूत्रधार देपाक ने विक्रम सं. १४६६ (१४३६ ई.) में सुप्रसिद्ध भैन मन्दिर का निर्माण किया । कुना की पुत्री रमा बाई ने कुभलगढ़ में दामोदर मंदिर के निर्माण के लिए सूत्रधार शमा को नियुक्त किया। सूत्रधार मण्डन को राणा कुभा का पूरा विश्वास प्राप्त था । उन्होंने कुंभलगढ़ के प्रति दुर्ग की भारत-कल्पमा और निर्माण का कार्य सूत्रधार मण्डन को सं. १५१५ (१४५८ई.) में सौंपा । यह प्रसिद्ध दुर्ग प्राज भी मषिमाया में सुरक्षित है, और मण्डन को प्रतिभा का साक्षी है । उदयपुर से १४ मील दूर एकलिंग जी नामक भगवान शिव का सुप्रसिद्ध मन्दिर है । उसी के समीप एक अन्य विषाणु मन्दिर भी है। श्री रस्तमन्द मनाल का अनुमान है कि उसका निर्माण भी मूत्रधार मण्डन ने ही किया भा । उस मंदिर की भित्तियों के बाहर की मोर तीन रथिकाएं हैं। उनमें मृसिंह वराह-विषाणुमुत्री तीन मूर्तियां स्थापित हैं। उनकी रकमाए मण्डन ग्रंथ में परिणत लक्षणों के अनुसार ही की गई है। एक अष्टभुजी मूर्ति
भगवान वैकण्ड की है। सरी जी मति भगवान अनंत की है और तीसरी सोलह हाथों वाली मति ....... अलीय मोहन की हैन अधार मण्डन ने अपने रूपमण्डल के तीसरे अध्याय में (श्लोक
५३-६२ दिये हैं।
.इनके अतिरिक्त सूत्रधार मण्सन ने और भी कितनी ही ब्राह्मण धर्म संबंधी देव मूर्तियां बनाई थी। उपलब्ध मूर्तियों की चौकियों पर लेख उस्कोर हैं । जिनमें मूर्ति का नाम राणा बुभा का नाम पोर सं. १५१५-१५१६ की निर्माण शिथि का उल्लेख है। ये मूर्तियां लगभग कुभलगढ़ दुर्ग के साथ ही बनाई गई थी । तब तक दुर्ग में किसी मंदिर का निर्माण नहीं पा था, अतएव ये एक वट वृक्ष के नीचे स्थापित कर दी गई थी। इस प्रकार की छः मातृका पूर्तियां उदयपुर के संग्रहालय में विद्यमान हैं जिन पर इस प्रकार लेख है .........
"स्वस्ति श्री सं० १५१५ वर्षे तथा धाके १३८० प्रवर्तमाने फाल्गुन शुधि १२ बुधे पुष्य नक्षत्रे श्री कुभल मेस महादुर्गे महाराजाधिराज श्री कुभकर्म पृथ्वी पुरन्दरेरण श्री ब्रह्माणी मूर्तिः मस्मिन वटै स्थापिता। शुभं भवत ।। श्री।"
इसी प्रकार के लेख माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, बाराही और ऐन्दी मूर्तियों की सररण चौकियों पर भी हैं । इसी प्रकार चतुर्विशति धर्म की विष्णु मतियों का भी रूप मण्डन में (अध्याय ३,रसोक १०-२२) विशद अर्गन मामा है । उनमें से १२ मूर्तियां कुभलगढ़ से प्राप्त हो चुकी हैं जो इस समय उदयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं । ये मूर्तियां भगवान विष्णु के संकर्षण, माश्य, मधुसूदन, अधोक्षज, प्रद्युम्न, केशव, पुरुषोत्तम, अनिरुद्ध, वासुदेव, दामोदर जनार्दन और गोबिन्द ए की हैं। इनकी चौकियों पर इस प्रकार लेख हैं.....
___ "सं० १५१६ ख शाके १३५२ वर्तमाने पाश्विन शुद्ध ३ श्री कुभमेरी महाराज श्री कुभकरणनि बटे संकर्षण मूर्ति संस्थापिता शुभं भवतु ॥"
१-दे. रत्नचन्द्र अग्नवाल, राजस्थान की प्राचीन मूर्तिकला में महाविष्णु संबंधी कुछ पत्रिकाएं, शोधपत्रिका, उदयपुर, भाग ६, अंक १ (पौष, वि० सं० २०१४ ) पृ. ६, १४, १७ ।।
२- रत्नचन्द्र अग्रवास रूप मण्डन तमा कुभलगढ़ से प्राप्त महत्वपूर्ण प्रस्तर प्रतिमाएं, शोष पत्रिका. भाग - अंक ३ (क्षेत्र, वि० सं० २०१४), पृ० १-१२
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इन सब मूर्तियों की रचना रूप मण्डन अन्य में गणित नक्षणों के अनुसार यथार्थता हुई है। स्पष्ट है कि सूत्रधार मण्डन शास्त्र पौर प्रयोग दोनों के सियासी 1 शिल्प शास्त्र में वे जिन लक्षणों का उल्लेख करते थे उन्हीं के अनुसार स्वयं या अपने शिष्यों द्वारा देव मूणियों की रसना भी कराते जाते थे।
किमो समय अपने देश में सूत्रधार मण्डन जैसे सहस्रों की संख्या में लब्ध कीति स्मपति और वास्तु विद्याचार्य हुए । एलोरा के कैलाश मन्दिर, खजुराहो के कंदरिया महादेव, भुबनेश्वर के लिङ्गराज, संजीर के मुहदीश्वर, कोणार्क के सूर्यदेउप प्रादि एक से एक भश्च देव प्रासादों के निर्माण का श्रेय जिन ... शिपामार्यों की कल्पना में स्फूरित हुआ और जिन्होंने अपने कार्य कौशल से उन्हें मूर्त रूप दिया वे सामुष धन्य थे और उन्होंने ही भारतीय संस्कृति के मार्गदर्शन का शाश्वत कार्य किया।
उन्हीं की परम्परा में सूमधार मण्डन भी थे। देव-प्रामार एवं सूफ मंदिर प्रादि के निर्माण कर्ता सुत्रधारों का कितना अधिक सम्मानित स्थान था यह मण्डन के निम्न लिखित श्लोक में जात होता है--- .........mandal
"इत्यनन्तरतः कुर्यात्. सूत्रधारस्प पूजनम् । भूवितास्थान का --गॉमहिायश्ववाहनः ।। पन्येषा शिल्पिना पूजा कत्तया कर्मकारिणाम् । स्वाधिकारानमारण बस्त्रताम्बुलभोजन. .......72 3rdast काष्ठपापारण निर्माणकारिणो यत्र मन्दिरे । भुखलेऽसो तत्र सौख्यं शरत्रिदीसह ।। पुण्यं प्रासाद स्वामी प्रार्थ यत्सूत्रधारतः । सूत्रपारो देव स्वामिनक्षयं भवतासव।।
प्रासादमण्डनः ८.८२-१५ प्रति निर्माण की समारिस के प्रनन्तर सूत्रधार का पूजन करना चाहिये और अपनी शक्ति के अनुमार भूमि, सुवर्ण, वस्त्र, अलङ्कार के द्वारा प्रधान सूत्रधार एवं उनके सहयोगी अन्य शिल्पियों का सम्मान करना प्रावश्यक है।
जिस मन्दिर में शिला या काम द्वारा निर्माण कार्य करने वाले शिल्पी भोजन करसे हैं वहीं भगवान शंकर देवों के साथ विराजते हैं। प्रासाद पा देव मन्दिर के निर्माण में जो पुण्य है उस पुण्य की प्राप्ति के लिये अश्रधार से प्रार्थना करनी चाहिए, 'हे सुत्रधार, तुम्हारी कृपा में प्रासाद निर्माण का पुग्य मुझे प्राप्त हो। इसके उत्तर में सूत्रधार कहे स्वामिन ! सब प्रकार प्राय की प्रक्षय वृद्धि हो ।
सूत्रधार के प्रति सम्मान प्रदर्शन की यह प्रथा सोक मैं आजतक जीवित है. जब सुधार विस्पी नसन ग्रह का द्वार रोककर स्वामी से कहता है 'आजतक बह गृह मेरा था, अब पाज से यह तुम्हारा हया । उसके अनन्तर गृह स्वामी सूत्रधार को इष्ट-वस्तु देकर प्रसन्न करता है और फिर गृह में प्रवेश करता है।
मूत्रधार मण्डन का प्रासाद मण्डन ग्रन्थ भारतीय शिल्प अन्यों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । मण्डन ने पाठ अध्यायों में देव-प्रासादों के निर्माण का स्पष्ट और विस्तृत वर्णन किया है । पहले अध्याय में विश्वकर्मा को सृष्टि का प्रथम सूत्रधार कहा गया है । गृहों के विन्यास और प्रवेश की जो मार्मिक विधि
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है, उन सब का पालन देवायतमों में भी करना उचित है। चतुर्दश लोकों में जिन जिन प्रासादों के प्राकार देवों ने शंकर की पूजा के लिए बनाये साड़ी की प्रकृति पर १४ एकार के प्रासात प्रचलित हुए। उनमें देश-भेद से ८ प्रकार के प्रासाद उत्तम जाति के माने जाते है..
- नागर, द्राविड़, भूमिज, लतिन, सामन्धार ( सान्धार ), विमान-नागर, दुष्पक पोर मिश्र । लतिन सम्भवतः उस प्रकार के शिखर को कहते थे जिसके उभृग में लता की प्राकृति का उठता हुमा रूप बनाया जाता था । शिखरों के ये भेद विशेषकर शृंग और तिलक नामक अलंकरणों के विभेद के कारण होते हैं।
प्रासाद के लिए भूमि का निरूपण मावश्यक है । जी भूमि चुनी जाय उसमें ६४ या सौ पद का घर बनाने चाहिए । श्येक घर का एक-एक देव होता है जिसके नाम से यह पद पुकारा जाता है। मंदिर के निर्माण में नक्षत्रों के शुभाशुभ का भी विचार किया जाता है। यहां तक कि निर्माण का के अतिरिक्त स्थापक पनि स्थपति और जिस देवता का मन्दिर हो उनके भी मत्राङ्गनाड़ो वेध का मिलान आवश्यक माना गया है । काष्ठ, मिट्टी, ईद, शिला, धातु और रत्न इन उपकरणों से मंदिर बनाए जाते हैं इनमें उत्तरोत्तर का अधिक पुण्य है। पत्थर के प्रासाद का फल अनंत कहा गया है । भारतीय देव प्रासाद अत्यन्त पवित्र कल्पना है। विश्व को जन्म देने वाले देवाधिदेव भगवान का निवास देवगृह या मंदिर में माना जाता है जिसे वेदों में हिरण्यगर्भ कहा गया है। वहीं देव मंदिर का गर्भगृह है। सृष्टि का मूल जो प्रारा तश्व है उसे ही हिरण्य कहते हैं । प्रत्येक देव प्राणतत्व है वही हिरण्य है; "एकं सद्विधाः बहुधा वदन्ति" के अनुसार एक ही देव भनेक देवों के रूप में अभिव्यक्त होता है। प्रत्येक देव हिरण्य की एक-एक कला है अर्थात् मूल-भूत प्राण तस्य की एक-एक रपिम है । मन्दिर का जो उत्सव या ब्रह्म सूर है यही समस्त सूष्टि का मेरु या यूप है। उसे ही वेदों में धारण' कहा गया है। एक बाण वह है जो स्चूल प्य सष्टि का प्राधार है और जो पृथिवी से लेकर च लोक तक प्रत्येक वस्तु में प्रोत-प्रोत है । यादा पृथिवी को वैदिक परिभाषा में रोदसी ब्रह्मा कहते हैं । इस रोदसी सृष्टि में व्याप्त जो ब्रह्मसूत्र है बही इसका भूलाधार है। उसो ही वैदिक भाषा में प्रापश' भी कहा जाता है । बाण, ओपश, मेरु, यासूत्र ये सब समानार्थक है और इस दृश्य जगत के उस प्राधार को सूचित करते है जिन ध्रुव बिन्दु पर प्रत्येक प्राणी अपने जीवन में जन्म से अस्य तक प्रतिष्ठित रहता है। यह मनुष्य शरीर और इसके भीतर प्रतिष्ठित प्राणतत्व दिश्चकर्मा की सबसे रहस्यमयी कृति है। देव मन्दिर का निर्माण भी सर्वथा इसी की अनुकृति है । जो चेतना या प्राण है । यही देव-विग्रह या देव भूति हैं और मन्दिर उसका शरीर है प्राण प्रतिष्ठा से पाषाणघटित प्रतिमा देवत्व प्राप्त करती है। जिस प्रकार इस प्रत्यक्ष जगत् में भूमि, अन्तरिक्ष और चौः, तीन लोक हैं. उसी प्रकार मनुष्य शरीर में और प्रासाद में भी सीन लोकों की कल्पना है । पैर पृथिबी है, मध्यभाग अन्तरिक्ष है पोर चिर एलोक है । इसी प्रकार मन्दिर की अगसी या अधिष्ठान पादस्थानीय है, गर्भगृह या मण्डोबर मध्यस्थानीय है और शिखर लोक या शीर्ष-भाग है । यह त्रिक यज्ञ की तीन अग्नियों का प्रतिनिधि है। मूल भूत एक अग्नि सष्टि के लिए तीन रूपों में प्रकट हो रही है । उन्हें हो उपनिषदों की परिभाषा में मन, प्राण और वाक् कहते हैं। बहो बाम का तात्पर्य पंचमतों से है क्योंकि पंचभूतों में प्राकास सबसे सूक्ष्म है और प्रकाश का मुख शब्दमा वाक् है ! अतएव वाक को माकाशादि पांचों भूतों का प्रतीक मानलिमा गया है। मनुष्य शरीर में जो प्राणाग्नि है वह मन, प्राण और पंचभूतों के मिलने से उत्पन्न हुई है (एतन्मयो बाऽअयमात्म बाइ मयो मनोमयः प्राणमयः शतपम १४४३१०) पुष के भीतर प्रज्वलित इस अग्नि को ही वैश्वानर कहते हैं ( स एषोऽनिवेष नसे यत्पुरुषः, शतपय १७१६१११)। जो वैश्वानर अग्नि है बही पुरुष है जो पुरुष है वही देव-विग्रहम देवमूर्ति के रूप में हम होता है । मूर्त और प्रमूर्स, लिसक्त मोर धनिसक ये प्रजापति के दो रूप हैं।
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मूर्त है वह त्रिलोकी के रूप में दृश्य और परिमित है । जो पमूर्त है वह अव्यक्त और अपरिमित है । जिसे पुरुष के रूप में वैश्वानर कहा जाता है वही समष्टि के रूप में पूणिवी अंतरिक्ष और ध लोक रूपी त्रिलोकी है।
"स यः वैश्वानरः । इमेस लोकाः । इयमेव पृथिवी विश्वमग्निर्नरः । संतरिक्षमेव विश्वं वायुमरः । धोरेर विश्वमादित्यो मरः । शतपथ ६।३।११३ ।"
इस प्रकार मनुष्य देह, अखिल ब्रह्माण्ड और वेद प्रासार हम तीनों का स्वरूप सर्वथा एक-दूसरे के साभ संतुलित एवं प्रतीकात्मक है । जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है और जो उन दोनों में है उसीका मूर्तरूप देव-प्रासाद है । इसी सिवान्त पर भारतीय देव-मंदिर की कल्पना हुई है। मंदिर के गर्भ गृह में जो देव विग्रह है वह उस प्रमाधि प्रस्त ब्रह्म तल का प्रतीक है जिसे वैविक भाषा में प्राण कहा गया है। जो सष्टि से पूर्व में भी था, जो विश्व के रोम-रोम में व्याप्त है, वही प्रारण सबका ईश्वर है । सब उसके वश में हैं । सृष्टि के पूर्व की अवस्था में उसे असत् कहा जाता है और सुष्टि की अवस्था में उसे ही सन कहते हैं । देव और भूत ये ही दो लस्व हैं जिनसे समस्त विश्व विरचित है । देव, मभूष, ज्योति पौर सत्य है । भूत भर्य, लम और अनुत है । भूत को ही ससुर कहतं हैं । हम सबको एक ही समस्या है। पर्या मृत्यु, तम और प्रसत्य से अपनी रक्षा करना और प्रमूत, ज्योति एवं सत्य की शरण में जाना । यही देव का प्राश्रय है । देव की शरणागति मनुष्य के लिी रक्षा का एक मात्र मार्ग है। यहाँ कोई प्राणी ऐसा नहीं जो मृत्यु और अन्धकार से अचकर अमृत और प्रकाश की प्राकांक्षा न करला हो प्रतएव देवाराधन ही मयं मानव के लिये एकमात्र धेवपय है । इस तस्व से ही भारतीय संस्कृति के वैदिक युग में यश संस्था का जन्म हुआ । प्राणाग्नि की उपासना ही यज्ञ का मूल है । त्रिलोकी या रोदसी ब्रह्माण्ड की पूलभूत शक्ति को हर कहते हैं । 'अग्निः ' इस सूत्र के अनुसार जो प्राणाग्नि है वही पर है : 'एक एवा-- मिनबहधा समिदः' इस वैदिक परिभाषा के अनुसार जिस प्रकार एक मूलभूत अग्नि से अन्य प्रमेा मशिनयों का समिन्धन होता है उसी प्रकार एक देव अनेक देवों के रूप में सोक मानस की कल्पना में माता है। कौन देव महिमा में अधिक है. यह प्रश्न ही प्रसंगत है । प्रत्येक देव अमृत का रूप है। वह शक्ति का अनन्त अक्षय स्रोत है । उसके विषय में उत्तर प्रौर पर मान-छोटे के तारतम्य की कल्पना नहीं की जा सकती। '
देव तस्व मुल में अध्यक्त है। उसे ही ध्यान की शक्ति से व्यक्त क्रिया आता है। हृदयं की इस प्रदभुत शक्ति को ही प्रेम या भक्ति कहते हैं । यज्ञ के अनुष्ठान में और देवप्रामादों के अनुष्ठान में मूलसः कोई अन्तर नहीं है जिस प्रकार यज्ञ को त्रिभुवन की नाभि कहा आता पा और उसकी पग्नि जिस वेधि में प्रथलित होती थी उस वेदिको प्रनादि अनंत पृथ्वी का केन्द्र मानते थे, उसी प्रकार देव मन्दिर के रूप में समष्टि विश्व व्यस्टि के लिये मूर्त बनता है और जो समष्टि का सहस्र शीर्षा पुरुष है वह व्यष्टि के लिये देव-विग्रह के रूप में मूर्त होता है । यज्ञों के द्वारा देव तत्व की उपासना एवं देव प्रासादों के द्वारा उनी देव तत्व की प्राराधना ये दोनों ही भारतीय संस्कृति के समान प्रतीक थे। देव मंदिर में जो पूर्ण विग्रह की प्रदक्षिणा या परिक्रमा की जाती है उसका अभिप्राय भी यही है कि हम अपने पाप को उस प्रभाद-क्षेत्र में लौन कर देते हैं जिसे देष की महान् प्राणशक्ति या महिमा कहा जा सकता है। उपासना या प्राराधना का मुलतत्व यह है कि मनुष्य स्वयं देव हो जाय। जो स्वयं प्रदेवं है अर्थात् देव नहीं बन पाता वह देव को पूजा नहीं कर सकता । मनुष्य के भीतर प्राण मोर मन ये दोनों देवर हो हैं इनमें दिव्य भाव उत्पन्न करके ही प्रारी देव की उपासना के योग्य बनता है।
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जो देव तस्य है वही वैविक भाषा में प्रगिल सस्य के नाम से प्रभिहित किया जाता है । कहा है'अग्निः सर्वा घेषता' म जिसने घेच है भरिम सबका प्रतीक है। भग्नि सर्व देवमय है । सृष्टि की जितनी दिव्य यो समष्टिगत पालियां हैं उन सबको प्राणाग्मि इस मनुष्य देन में प्रतिष्ठित रखती है। इसी तश्व को लेकर देव प्रासादों के स्वरूपका विकास प्रा। जिस प्रकार यज्ञवेदी में ग्नि का स्थान है उसी प्रकार देव की प्रतिष्ठा के लिए प्रासाद की कल्पना है। वैध साक्षात्कार का महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक प्राणी उसे अपने ही भीतर प्राप्त कर सकता है । जो देव पारा मिनी के विशाल अंतराल में व्याप्त है यही प्रत्येक प्राणी के अंतः. करण में है। जैसा कालिदास में कहा है
'वेदान्तेषु यमाहुरेकपुरुषं व्याप्य स्थित रोदसी,
अंतर्यश्य मुमुक्षुमिनियमितप्राणादिभिग्यते । प्रति प्राय और मम हम वो महसी शक्तियों को नियम बद्ध करके अपने भीतर ही उस वक्तत्व का जो सर्वध व्या है न किया जा सकता है । इस प्रयास्म नियम के आधार पर भागवतों ने विशेषतः देवप्रासादों के भौतिक रूप की कल्पना और उनमें से उस देवतत्व' की उपासना के महत्वपूर्ण शास्त्र का निर्माण किया विक्रम की प्रभा शताब्दी के मंगभग भागवतों का यह दृष्टिकोण उभर कर सामने आ गया और सद-- मुसार ही देव मंदिरों का निर्माण होने लगा।
इस सम्बन्ध में कई मान्यताएं विशेष रूप से सामने आई। उनमें एक तो यह थी कि यद्यपि मनुष्यों को कल्पना के अनुसार देव एक है किन्तु वे सब एक ही भूल भूत शक्ति के रूप हैं और उनमें केवल नामों का मन्तर है। यह वही पुराना बैदिक सिद्धान्त पा जिले ऋग्वेद में 'यो देवानां नामया एक एक', अथवा 'एक समिधा भाषा अन्तिम वाक्यों द्वारा कहा गया था । नामों के सहस्राधिक प्रपंच में एक सूत्रता लाते हए भागवतों ने देवाभिवेन को विकी संज्ञा दी ! 'देवेष्टि व्याप्नोति इति विधाः', इस निर्वचन के अनुसार यह संशा सर्वषा लोकप्रिय और मामई। इसी प्रकार बासुदेव प्रादि प्रमेक नामों के विषय में भी उदारष्टि से इस प्रकार के मिषन किए गए जिनमें मामों के ऐतिहासिक या मानवीय पक्ष को गौण करके उनके देवात्मक या दिव्य पक्ष को प्रधानता मिली । उदाहरण के लिए वासुदेव शब्द की व्युत्पत्ति विषणुपुराण में इस प्रकार है
सर्वासी समस्तं - बसस्पति वै यतः । ततः स वासुदेवैति विवद्भिः परिपश्यते ।। (११२११२) सर्वाणि तत्र भूतानि वसन्ति परमात्मनि ।' भूतेषु च स सर्वात्मा वासुदेवस्ततः स्मृतः ।। (६१५1८०)
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इसीको महाभारत में इस प्रकार कहा गया है
छादयामि जगत्सर्व भूत्वा सूर्य इबाशुभिः । सर्वभूताधिवासम वासुदेवः ततः स्मृतः ।।
(शान्तिपर्व, ३४१५४१) बासनात्सर्वभूतानां वसुस्वाद अयोनितः । बासुपस्ततो वेदाः.........
उच्चोमपर्व , (७०।३)
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इसी उदान धरातल पर शंकराचार्य ने वासुदेव शब्द की इस प्रकार घ्युरपस्ति दी है-- "वराति वासयति अाच्छादयति समिति वा यासुः, बीयति कोडते विजिगीषते व्यवहरति धोतते स्पले गम तीति वा देवः । वासुवचासो देवश्वनि वासुदेषः ।।
(विष्णु सहस्रनाम' शाङ्कर भाष्य, 1 एलोक) इस प्रकार की सरल और तरंगित मनःस्थिति भागवत्तों की विशेषता की जिसके धारा उन्होंने साब धों के समन्वय का राजमार्ग सपनाया । देव के बहुविध नामों के विषय में उनके दृष्टिकोण का सार यह पा
पर्यायबायकैः शब्देस्तरदमाद्यममुसमम् । व्याख्यातं तस्वभाव रेवं मनभावचिन्तः॥
(अायु पुराण, ४:४५) प्रति समस्त सृष्टि का जो एक प्रादि कारण है, जिससे श्रेष्ठ मार कुछ नहीं है, ऐसे उस एक सत्त्व को ही त्वयना अनेक पर्यायवाची शब्दों से कहते हैं । इस मुन्दर दृष्टिकोण के कारण समन्वय और सम्प्रीति के धर्माम्बु मेष भारतीय महाप्रजा के ऊपर उस समय अभिवृष्ट हुए जब देव-प्रासादों के रूप में संस्कृति का नूतन निकाह हुधा । बौद्ध, जैन और हिन्दू मंदिरों में पारस्परिक स्पर्धा मा तनाव की स्थिति न थी किन्तु वे सच एक ही धार्मिक प्रेरणा और स्फूति को मूकप दे रहे थे । गुप्त कालीन भागवती संस्कृति का यह विशाल नेत्र था जिसके द्वारा प्रजाएं अपने-अपने इटदेव का अभिनषित दर्शन प्राप्त कर रही थी ।
मानवी देह के माम देव तत्व के जिस घनिष्ठ संबंध का उल्लेख पर किया गया है उसका दूसरा प्रत्यक्ष फल यह हुआ कि देशालय की कल्पना भी मानुषी देह के अनुसार ही की गई। मानुषी बारीर के जो अंग-प्रत्यंग है उन्ही के अनुसार देव मंदिरों के मुतस्य का विशन निश्चित हुमा । किसी समय 'पुरुषषिधी यक्षः' अर्का 'जैसा पुरुष वैसा ही यज्ञ का स्वरूप माह सिद्धान्त मान्य था । उसी को ग्रहण करते हुए 'पुरुषवियों में प्रासादः,' अर्थात् जैसा पुरुष वैसा ही वैव भदिर का वास्तुगत स्वरूप, यह नया सिद्धान्त मान्य इमा। पाद, खुर, अला, गर्भगृह मंडीवर, स्कंध, शिखर, ग्रीवा, नासिका, मस्तक, शिक्षा मावि साय संबन्धी पाया. बली से मनुष्य और प्रासान की पारस्परिक अनुकृति सूचित होती है ।
देश-प्रासादों के निर्माण की तीसरी विशेषता यह पीकि समाज में कर्मकाण्ड की जो गहरी धार्मिक भावना थी वह देव पूजा का प्री के रूप में बन गई । प्रत्येक मन्दिर उस-स क्षेत्र के लिए पर्म का मूर्त रूप समा गया। भगवान विष्णु प्रभवा अन्य देव का जो विशिफट सौन्दर्य या उसे ही उE-उस स्थान की प्रजाएं अपने अपने देवालयों में मूर्त करने का प्रयत्न करती थीं। दिव्य अमूल सौन्दर्य को मूर्त रूप में प्रत्यक्ष करने का सबल प्रयत्न दिखाई दिया । सुन्दर भूति और मन्दिरों के रूप में ऐसा प्रतिमासिर होता था कि मानो स्वर्ग के सौन्दर्य को विधि के मामय नाक्षात् देख रहे हो । जन समुदाय की सम्मिलित शक्ति और राजक्ति दोनों का सदुपयोग अनेक सृन्दर देव मन्दिरों के निर्माण में किया गया। यह धार्मिक भावना उत्तरोतर बढ़ती गई और एक युगमा प्रापा जब प्रतापी राष्ट्रपट जैसे सम्राटों का वैभव ऐलोरा के के लाश सहा देव मन्दिरो * प्रस्वत समझा आने लगा । एक- मंदिर मानों एक एक सम्राट के सर्वाधिक उत्कर्ष मोर समतिका प्रकट माया । लोक में इस प्रकार की भावना सिखाई तभी मध्यकाल में उस प्रकार के विशाल मंदिर बन सके जिनका वर्णन समरांगणधार एवं अपराजित पुछा से अंगों में पाया जाता है । उन्हीं के पातु शिल्प की परम्परा सूत्रधार मान के अंध में भी पाई जाती है ।
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मन्दिर या प्रासाद को देवता का भावाय माना गया। तब यह कल्पना हुई कि देवता के स्थान पर निरंतर असुरों की पक दृष्टि रहती है । प्रतएव असुरों के निवारण या शांति के लिए पूजा-पाठ करना Mrates है। प्रासाद--मंडन में इस प्रकार के चौदह शान्ति कर्म या शान्ति गये हैं । यथा (१) जिस दिन भूमि परीक्षा करने के लिए उसमें खाकर्म किया जाय, (२) जिस दिन कूर्म शिला की स्थापना की जाय (३) जिस दिन शिलान्यास किया जाय (४) जिस दिन तल निर्माण या तल-विन्यास के लिए सूत्र -मापन या सूत्रपातन (सूत्र- छोड़ना) द्वारा पदों के निशान लगा आय; (2) fre दिन म से नीचे के घर का पहला पत्पर, जिसे खुर-शिला कहते हैं (फारसी पाथर वाकन्वाज) रक्खा जाय; (६) जिस दिन मन्दिर द्वार की स्थापना की आय; (७) जिस दिन मंडप के मुख्य स्तम्भ की स्थापना की मंडप के स्तम्भों के ऊपर भारपट्ट रखा जाय; (2) जिस दिन शिखर की चोटी पर (१०) जिस दिन गर्भ गृह के शिखर के लगभग ale में gearer ar arfसका की ऊंचाई तक पहुँच कर कंपा सिंह को स्थापना की जाय; (११) जिस दिन शिखर पर हिरण्यमय प्रासादप की स्थापना की जाय (१२) जिस दिन घण्टा या तूमट पर श्रामलक रक्खा जाय, (१३) fte for enter feer के ऊपर Fat को स्थापना की जाय; (१४) और जिस दिन कलश के बराबर मंदिर पर ध्वजा किया जाय 1 और संख्या ३ को कुछ लोग अलग मानते हैं किन्तु य द कूर्मशिला को एक ही पद माना जाय तो उनकी सूची में केवल १३ शान्ति कर्म होते हैं और तब चौदहवां शान्ति देद-प्रतिष्ठा के अवसर पर करना आवश्यक होगा (१२३७०३८)
जाय; (4) जिस दिन चला रखी जाय;
विभाग किए जा सकते हैं। इसका
प्रसाद के गर्भ गृह की माप एक हाथ से पचास हाथ तक कही गई है। कुंभकया जाय कुंभ or per free इसके अतिरिक्त गर्भ गृह की भिति के बाहर होना चाहिए। जाम आदि बिभिन घरों का निर्गम तथा पीठ एवं छज्जे के जो निर्गम हों उन्हें भी सम सूत्र के बाहर समझना चाहिए । गर्भगृह समरेखा में चौरस भी हो सकता है, किन्तु उसी में फालना या खांचे देकर प्रसाद में तीन-पांव सात बा यह है कि यदि प्रसाद के गर्भगृह की लम्बाई आठ हाथ है तो दोनों ओर दो-दो हाथ के कोण भाग रख कर कोष में चार हाथ को भित्ति को खाया देकर थोड़ा श्रागे निकाल दिया जा सकता है। इस प्रकार का प्रासाद तीन अंगों वाला का उड़ीसा को शब्दावली में त्रिरथ प्रासाद कहा जायगा । इसी प्रकार दो कोरा, दो खाँचे और एक मितिरथ चाला प्रासाद देवरथ प्राभाद होता है । दो को दो-दो उपर और एक रथ युक्त प्रासाद सुप्तांग, गुवं दो कोया चार-चार उपस्थ एवं एक रथका युक्त प्रासाद नवांग या नयस्य प्रासाद कहलाता है ( १६३१ ) इन फालनाओं या सानों के अनुसार ही प्रासाद का सम्पूर्ण उत्सेध या उदय खड़ा किया जाता है। अतएव प्रासाद रचनाओं में फालना का सर्वाधिक महत्व है । बुरशिला से लेकर शिखर के ऊपरी भाग तक जितने पर एक के ऊपर एक उठते जाते हैं उनका विभाग इन्हीं फालनाओं के अनुसार देखा जाता है । प्रासाद के एक-एक पार्श्व को उar कहते हैं । प्रत्येक की fafa neपना कोण, प्रतिभद्र और बीच वाले भद्रांश पर ही निर्भर रहती है।साद की ऊंचाई में जहां-जहां फालनामों के जोड़ मिलते हैं वहीं ऊपर से नीचे तक बरसाती पानी के बहाव के लिए बारीक नालियां काट दी जाती हैं जिन्हें वारिमार्ग वा सलिलानार कहते हैं । भद्र, फालना ( प्रतिभद्र ) पर कर्ण या कोसा की सामान्य माह के विषय में यह नियम बरता जाता है कि भद्र चार हाथ का हो तो दोनों मोर के प्रतिभद्र या प्रतिरथ दो-दो हाथ के और दोनों कया को भी दो हाथ सरक जाते हैं पर्यात् कर्ण मोर फालना से मन की लम्बाई दुहुनो होनी है |
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प्रासाद मण्डन के चूसरे अध्याय में जगती, तोरण पोर जसा के स्थापन में दिशा के नियम का विशेष उल्लेख है, प्रामाद के अधिष्ठान की संशा जगती है । जैसे राजा के लिए सिंहासन से ही प्रासाय के लिए जगती को शोमा कही गई है। प्रासाद के अनुरूप पांच प्रकार की जगती होती है-पतुर (धोरस), मायन (सम्ब चौरस), मटार (अट्टस या अठकोमी), वृत्त (गोल) और वृत्तायत (लम्ब गोल, जिसका एक शिरा गोल और दूसरा पायत होता है, इसे ही दधन या बेंसर कहते हैं)। ज्येष्ठ मध्य और कनीयसी तीन प्रकार की अगली कहीं गई हैं । जगती की कंबाई और सम्बाई की नाप प्रासाद के अनुसार स्थति को निश्चित करनी पाहिए, जिमका उल्लेख प्रत्यकार ने किया है। प्रासाद की चौड़ाई में नियुनी भौगुनी या पाचधुनी तक चौड़ी
और म०प मे सवाई नयीढ़ी या दूनी लम्त्री तक भगती का विक्षन है । जगशी के ऊपर ही प्रासाद का निर्माण किया जाता है अतएव यदि प्रासाद में एक, दो या तीन प्रभणी या प्रदक्षिरमापय रखने हों तो उनके लिए भी जगती के ऊपर ही गुआयश रखी जाती है। अगती के निर्धारण में पार, बारह कीस, वाइस, या छत्तीस कोरण युक्त कालमानों का निर्माण सूत्रधार मण्डन के समय तक होने लगा था । जगती कितनी ऊंची हो और उममें कितने प्रकार के गलते-गोले बनाए जाय इसके विषय में मण्डन का कथन है कि जगती की ऊंचाई के प्रवाइस एद या भाग करके उसमें तीन पद का जागृथकुभ या आइमा, दो पद की करणी, जीन पद का दामा ओ पथपत्र मे युक्त हो, दो पद का खुरक, उसके ऊपर मात भाग का कुभ, फिर तीन पद का कलश, एक भाग का लत्रक तीन भाग को घोली या के.बाल.भार भागा पापण्ठया अंतरान होना चाहिए । जगती के चारों ओर प्राकार का बीवार और धार द्वार-मण्डप, अल निकालने के लिए मकराकति प्रणाल, सोपान पोर तोरण मी इच्छानुसार बनाए जा सकते हैं। माइप के सामने जो प्रतोली या प्रवेशद्वार ही उसके नागे सोपान में शुपिंडकाकृति हथिनी बनाई जाती है । तोरण की चौड़ाई गर्भ गृह के पदों की नाप के बराबर और ऊंचाई मन्दिर के भारपट्टों की ऊंचाई के अनुसार रक्खी जाती है। तोरणा मन्दिर का विशेष प्रेश माना जाता था और उसे भी जगती पोर उसके ऊपर पीय देकर ऊंचा बनाया जाता था । तोरण की रचना में नाना प्रकार के रूप या मूर्तियों की शोभा बनाई जाती थी । तोरए कई प्रकार के होते थे । मे घटाला तोरण, तलक तोरण, हिण्डोला तोरण पारि । प्रासाद के सामने वाहन के लिए चौकी ( चतुरिष्कका ) रखी जाती थी।
देव मन्दिर में वाहन के निर्माण के भी विशेष नियम थे । वाहन की ऊंचाई गमारे की मूर्ति के गुह्यस्थान, नाभिस्यान या स्तन रेखा तक रखी जा सकती है । शिखर के जिस भाग पर सिंह की मूर्ति बनाई जाती है उमे शुकनासिका कहते है । उस मूत्र में प्रागे पूढमण्डप, गूढमण्डप मे भागे चौकी और उससे भागे नृत्यमण्डप की रचना होती है । मण्डलों की संख्या जितनी भी हो सब का विन्यास गर्भगृह के मध्यवर्ती सूत्र से नियमित होता है। मंदिर के द्वार के पास त्रिशाला या मलिद या बलाएक (द्वार के कार का मंत्रप) मनाया जाता है । पन्द्रहवी गली में मंदिरों का विस्तार बहुत बड़ गया था और उसके एक भाग में रथ यात्रा पाला बड़ा रथ रखने के लिए रस भाला और दूसरे भाग में छात्रों के निवास के लिए मट का निर्माग भी होने लगा था।
तीसरै अध्याय में प्राधार शिला प्राप्ताद पेठ, पीर के ऊपर मंडोबर पोर मन्दिर के द्वार के निर्माण का विस्तृत वर्णन है । प्रासाद के मूल मैं नीष ले मार करने के लिए कंकरीट ( इष्ट का पूर्ण ) की पानी के साथ तुम कुदाई करनी चाहिए । इसके ऊपर खून मोटी और लम्बी घोड़ी प्रासाद धारिणी शिला या पत्थर का फर्श बनाया जाता है । इसे ही श्रुर शिला या घर शिला भी कहते है । इस शिला के अपर जैसा भी प्रामाद बनाना हो उसके अनुरूप सर्व प्रमम जगसी या अधिष्ठान बनाया जाता है जिसका उस्लेख पहले
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हमा है। यदि विशेष रूप से जगमी का निर्माण संभव न हो तो भी पत्थर की शिलामों के तीन थर एक में कार एकरने चाहिए । इन घरों को भिद्र क. जाला है। नीचे का भिट्ट दूसरे की अपेक्षा कुछ मोटा पौर दूसरा सीमा में कुल माया रम्ला जाना है । भिट्ट जितना हो उसका यौवाई निर्मम या निकास किया जाना है।
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भिट्ट या जगनी के ऊपर प्रासाद पीठ का निर्माण होता है। प्रासाद-पीठ और जगती का भेद मट गमझ लेना चाहिए। जगती के अपर मयन अनार जाने वाले समगृह या मंडोवर की कुर्सी की संज्ञा प्रासार पोट। इस पीठ की जिननी ऊंचाई होती है उसी के बराबर गर्भगृह का फर्श रक्खा जाता है। आमाः निर्माण के लिए भी गोले गरनों का रा विभिन्न थरों का विधान है । जैने नौ अंश का जायाभ, मात भाग की कगणी, कपोनिया के वान के साथ भात भाग की प्रायपदी (जिम में मिह मुख की यानि धनी रहती है । और फिर उसके ऊपर बारह भाग का गज पर, मग भाग का अश्व थर और पाठ भाग का नर यर बनाया जाता है। प्रत्येक दो घरों के बीच में थोड़ा-अंतराल देना उमित है और ऊपर नीचे दोनों और पाली करिशका भी रवाही जा सकती है।
मारपीट के कर गर्भ गृह या मंडोबर बनाया जाता है जिसे बास्तबिक अप में प्रासाद का उप भाग करना नाहिर माह का अर्थ है पीठ या पासन और जो भाग उसके ऊपर बनाया जाता था उसके निए महायर यह संज्ञा प्रचलिन हुई। मंडोवर के उत्मेष वा उदय को १४४ भागों में बांटा जाता है। यह अंबा आमारपीट के मस्तक में दम त ली जाती है । इसके भाग ये है ...-चुरत ५ भाग, कुम्भक २० भाग, कलश भाग, जराला भाग, पोतिका या पोतालि भाग, मंसी । भाग, असा ३५ भाम, उसनपा (म) १२ भाग है (जिने गुजराती में डोनिया' भी कहा जाता है), भरणी भाग, शिरावटी या शिरापः १० भाग, ऊपर की कपोलानि भाग, अंतरात हाई भाग और छज्जा १३ भाग । इस प्रकार १४४ भाग मंडोवर के उपयं में जाते है । छाने का बाहर की ओर निकलता खाता दश भाग होता है। एक विर प्रकार का मोवर मेग मंडोवर कहलाता है, इसमें भरणी के ऊपर से ही - भाग की मञ्ची देकर
५ भाग की अंधा बनाई जाती है और फिर दुज्ने के ऊपर ७ भाग की एक मची देकर १६ भाग की अंधा बनाते हैं। उसके ऊपर भाग की भरगी,भाग की शिरावटी, ५ भाग का भारपट्र और फिर १२ भाग का कूट शव या छजा। इस प्रकार मंडोबर की रचना में तीन जंधा और दो उज्जे बनाये जाते थे। प्रत्येक ज में भि. भित्र प्रकार की मूर्तियां उत्कीर्ग की जाती है । आमेर के जगत शरणजी के मंदिर में मेक मंडोवर को रचना की गई है । एक दूसरे के कार ओ परी का विन्यास है उनमें निर्गम और प्रवेश का प्रयान बाहर की पौर निकलना खाता और भीतर की पोर दयाव रखने के भी नियम दिए गए हैं, मंडन का कबम है कि मदि प्रासाद निर्माण में अल्प द्रव्य व्यय करना हो तो तीन सालों में से स्वानुसार संधा, रूप या मूर्तियों का निर्माण छोड़ा भी जा सकता है (२८)1
इटों से बने मंदिर में भींत की कौडाई गर्भ गृह की चौड़ाई का चौथा भाग और पत्थर के मंदिर में पांचवा भाग रखनी चाहिए। गभारा बीच में चौरस (युगात्र) रखकर उसके दोनों प्रोर फालनाएं देनी चाहिए, जिनको उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। मंडन ने सालनालों के लिए भइ सुभद और प्रतिभा शब्दों का प्रयोग किया है। उन्ही के लिए उकाल शब्दावली में रथ, अनुस्थ, प्रतिरम, कोपरय शब्द पाते हैं। मंडोवर मोर उसके सामने मनाये जाने वाले मंपों के सम्मो की ऊँचाई एक दूसरे के साथ मेख में श्वनी पावश्यक है। मंडप के ऊपर की धनमा गुमट को करोट कहा गया है। इस करोट की ऊँचाई मंडप की
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चौड़ाई ये प्राधी रखनी चाहए। इस कार या लत में मीचे की ओर जी कई पर बनाये आले हैं उन्हें दर्दरी कहा जाता था, गुमट के भीतरी भाग को वितान और ऊपरी भाग को सम्बशा कहते हैं। विवान में देरी या घरों की संख्या विषम रखने का विधान है।
इसके अनंतर मंदिर के द्वार का सविस्तर बर्णन है (३१३७-६६) । वार के चार भाग होते हैं प्रधान नीने देहली या उदुम्बर, दो पाश्र्व स्तम्भ और उनके अपर उत्तरंग या सिरदल । इन चारों को ही शिल्पी अनेक अलंकरणों से युक्त करने का प्रयत्न करते थे। देवगढ़ के दशावतार मंदिर का अलंकृल द्वार एक ऐसी कृति है जिसकी साज-सज्जा में शिस्पियों ने अपने कौशन की पराकाष्ठा दिखाई है। प्रायः गृप्त युग में उसी प्रकार के द्वार बनते रहें । दान : यान: मध्यकालीन मंदिरों में द्वार निर्माण कला में कुछ विकास और परिवर्तन भी हुमा । मंडन के अनुसार उदुम्बर मा देहनी की नौड़ाई के तीन भाग करके दीम में मन्दारक और दोनों पाश्मों में पास पासिंहमूख बनाने पाहिए मन्दारक के लिए प्राचीन शब्द सन्सारक भी था (अंग्रेजी फेस्ट्रन)। गोल सन्तानक में पनपत्रों से मुक्त मृणाल को प्राकृति उरी आती थी। ग्रास या सिंह मुखको कीतिधवत्र या की समान भी कहने थे ! रानी भोगों पर पार्न सम्भों के नीचे तलरुपक (हिन्दी-सलकड़ा) नाम के दो प्रलंकरण बनाये जाते हैं । तलकड़ों के बीच में देटली के सामने की भोर पीच के दो भागों में अर्धचन्द्र और उसके दोनों ओर एक-एक गंगारा बनाया जाता है । गगारों के पास में शेखों को और पनपत्र की आकृति उत्कीर्त की जाती हैं। द्वार की यह विशेषता गुप्त युग से ही प्रारम्भ हो गई थी, जैसा कालिदास ने मेघदूत में वर्णन किया है (बारोपानले लिखितवपूषी संखपीच दृष्ट्वा , उत्तर मेघ-१७) पारक या मंगारा इन की व्युत्पत्ति स्पष्ट नहीं है । यहाँ पृष्ट ५६ और वास्तुसार में पृ. १४० पर मारक का वित्र दिया गया है। बार की ऊंचाई से उसकी चौड़ाई प्राधी होनी चाहिए । और यदि चौड़ाई में एक कला या सोलहवाका दिया जाय तो द्वार की शोभा कुछ अधिक हो जाती है , द्वार के उत्तरंग या सिरदल भाम में उस देव की मूर्ति बनानी था जिसकी गर्भगृह में प्रतिष्ठा हो। इस नियम का पालन प्रायः सभी मंदिरों में पाया । इस मूर्ति को ललाट-विम्ब भी कहते थे। द्वार के दोनों पार्श्व स्तम्भों में कई फालना या भाग बनाये जाते थे जिन्हें संस्कृत में शाखा कहा गया है। इस प्रकार एक शाख, विशाख, पंच शाहल, सप्स शाख, और नब के पान स्तम्भ मूक्त द्वार बनाये जाते थे। इन्ही के लिए तिमाही, पंचसाही. यादि. शब्द हिरवी में अभी तक प्रचलित हैं । सूत्रधार मंडन ने एक नियम यह बताया है कि गर्भगृह की दीवार में जितनी कालमा या अंग बनाये जोय उतनी ही द्वार के गर्न स्तम्भ में शाखा रखनी चाहिए (शारदाः स्युर्रम लुल्यकाः १६) । द्वार स्तम्भ की सजावट के लिए कई प्रकार के अलंकरमा प्रयुक्त किये मासे थे । उन में रूप या स्त्री पुरुषों की प्रतिया मुख्य पी। जिस भाग में ये प्राकृतियां उकेरी हाली थीं उसे रूप स्तम्भ या रूप शाखा कहते थे । पुरष संक्षक और स्त्री संजक सालानों का उल्लेख मडम ने किया है । इस प्रकार की शाखायें गुप्तकालीम मंदिर धरों पर, भी मोलती हैं । अलंकरणों के अनुसार इन शाखाओं के और नाम भी मिलते हैं जैसे-पाला, सिंह शाखा, .. गन्धर्म शाखा, खल्व शाखा प्रादि । खल्व शाखा पर जो अलंकरण बनाया जाता था वह महर मावि बलों ..... के उठते हुए गोल प्रतानों के सहदा होता था। बाबू के विमलबसही प्रादि मंदिरों में तथा प्रत्यत्र भी बडके
हैं। सस्य सब प्राचीन था और उसका अर्थ फलिनीलता या मटर माधि की देस के लिए प्रयुक्त होता था।
प्रासाद मंडन के चौथे अध्याय में प्रारम्भ में प्रतिमा की ऊंचाई बताते हुए फिर जिन्दर निर्माए का ब्योरे बार वर्णन किया गया है । देव प्रासादों के निर्माण में शिखरों का महत्वपूर्ण स्थान मा । मंदिर के वास्तु में नाना प्रकार के शिखरों का विकास देखा जाता है। शिखरों की अनेक जातियां शिल्प प्रमों में कही
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गई है। वास्तविक प्रासाद शिखरों के साथ उन्हें मिलाकर अभी तक कोई अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया गया है। भाग ने सासषी शती में बहभूमिक शिखरों का उल्लेख किया है। प्रारम्भिक गुप्तकाल में बने हुए सांची के छोटे देव मंदिर में कोई शिखर नही है। देवगढ़ के दशावतार मंदिर में शिखर के भीतर का ढोला विद्यमान है। वह इस बात का साक्षी है कि उस मंदिर पर भी शिखर की रचना की गई थी। शिखर का मारम्भ किस रूप में और कब हुआ वह विषय अनुसंधान के योग्य है । पंजाब में मिले सुए उम्बर जनपद के सिक्कों पर उपलब्ध देवप्रासाद के ऊपर विभूमिक शिखर का स्पष्ट अंकन पाया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि शिखरों का निर्माण गुप्त युग हो पहले होने लगा था । शास होता है कि मंदिर के वास्तु में दोनों प्रकार मान्य थे। एक शिखर युक्त गर्भ गृह या मंडप था और दूसरे शिखर विहीन चौरसक्त बाले साश मंदिर जैसे सांची और मालवा के मुकन्दरा प्रादि स्थानों में मिले हैं। इस प्रकार के मंदिरों के विकासका पूर्व रूप धारण कालीन गन्धकुटी में प्राप्त होता है, जिसमें तीन बड़े पत्थरों को चौरस पत्थर से पाट कर उसके भीतर बुद्ध या कोधिसत्व की प्रतिमा स्थापित कर दी जाती थी। कालान्तर में तो शिखर मंदिरों का अनिवार्य अंग बनाया और उसकी शोभा एवं रूप विधान में अत्यधिक ध्यान दिया जाने लगा। मंदिर के गर्भ गृह में खड़ी हुई या बैठी हुई देव प्रतिमा की ऊंचाई कितनी हो और उसका दृष्टिसूत्र फितना ऊंचा रखा जाय इसके विषय में द्वार की ऊंचाई के प्रसार निर्णय किया जाता था। जैसे एक विकल्प.यह था कि द्वार की ऊंचाई केपाठया नत्र भाग करके, एक भाग छोड़कर शेष कंवाई के तीन भाग करके उनमें से दो के बराबर मूति की ऊंचाई रखनी चाहिए।
मंदिर के शिखर की बिना प्रत्यन्त जाटलषम है। मंडोवर के बच्चे पर दो एक घर और लगाकर तब शिखर का प्रारम्भ करते हैं। बास्तुसार में इन घरों के नाम बेराहु और पहारू कहे है (वास्तुसार पृ.११२) किन्तु मंडन ने केवल पहार नामक यर का उल्लेख किया है। शिखर के जठते ए बिन्यास में शगों की रखना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। मंडोवर की विभिन्न फालनामों की ऊंचाई स्कन्ध के बाद जब शिखर में उठती है तो कोण, प्रतिरप और रथ आदि की सीध में शग बनाये जाते हैं । इन्हीं शृगो के द्वारा शिखर का काठ जदिल और सुन्दर हो जाता है । बीच के शिखर को यदि हम एक ईमाई मानें तो उसकी बारों दिशाओं में चार उममा म बनाये जा सकते हैं। ये ग भी शिखर की प्राकृति के राते हैं। यदि मूल शिखर का सामन से दर्शन किया जाय तो वही आकृति शग की होती है। प्रासाद के शिखर का सम्मुख दर्शन ही शग है। मूल शिखर और उसके चारों ओर के चार शग इस प्रकार कुल ५ शग चुक्ता प्रासाद का एक सीधा प्रकार हुया । बीय के शिखर को मूलमंजरी और चारों ओर के मूलभूत बड़े शृगों को उरुग कहते हैं। इसी के लिए राजस्थानी और गुजराती स्थपतियों से छातियाग शब्द भी प्रचलित है। वस्तुतः शृग और शिखर पर्यायवाची हैं । ठक्कुर फेस ने उमg'ग या वातिया 'ग को उर सिंहर (= शिखर) कहा है । मूलमंजरी के चार भर या पाश्कों में चार उरागों के अतिरिक्त प्रोर भी अनेक शृग बनाये जाते थे। सूत्रधार मंडन ने कहा है कि उसयों की संख्या प्रत्येक भर में एक से नब तक हो सकती हैं (४।१०) सबसे बड़ा उरु शिखर की कितनी ऊंचाई तक रक्ला जाय इसका भी मियम दिया गया है । शिखर के उदय के १३ भाग करके नीचे से सात भाग वा पहला छातिया शृग बनाया जाता हैं । अर्थात शिखर की ऊंचाई के सात भाग पहले उहाग के नीचे छिप जाते हैं | अब इस उपग पर दूसरा उहग बैठाना हो तो फिर इसकी ऊचाई के तेरह भाग करके सात भाग तक के उदय तक दूसरा शूग बनाया जाला है इस प्रकार जिस खिर में मय जग रखने हो उसकी बाई सोच विचार कर उसी अनुपात से निश्चित करनी होगी । शिखर में गोलाई लाने या ढलान देने के लिए प्रावश्यक है कि यदि उसके मूल में दस भाग होवो अप स्थान या सिरे पर छः भाग का अनुपात
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रखना बाहिये। इस अनुपात से शिखर सुहावना प्रतीत होता है। गर्भ गृह की मूलरेखा या चौड़ाई से शिखर का उदय साया रखा जाता है । शिखर के बलर अर्थात् नमन की युक्ति साधने के लिए उसके उदय भाग में और स्कन्ध में क्रमशः रेखाओं और कलामों की सूक्ष्म गणना स्थपति सम्प्रदाय में प्रचलित है । उस विषय का संक्षिप्त संकेत मंडन ने किया है। रेखाओं और कलाओं का यह विषय अपराजित पृच्छा (श्र. १३६-१४१) में भी पाया है । खेद है कि यह अभी तक स्पष्ट न होने से इस पर अधिक प्रकाश डालना सम्भव नहीं । मंडन का कथन है कि खरशिला से कलश तक बीस भाग करके धाठ या या ६ भाग में मंडोवर की कंचाई और शेष में शिखर का उदम रखा जाता है। शिखर के गुमट नुमा उठान को पद्मकोश कहा जाता है। (४/२३) पद्मकोश की आकृति लाने के जियेन ने प्रति सप्त रोति से एक युक्ति कहीं है (चतुर्ग होम सूत्रेण सपादः शिखरोत्रयः (४१२३) इसके अनुसार शिखर की मूलरेखा से चौगुना सूत्र लेकर यदि नये प्राप्त irat free at her मानकर गोल रेखायें खींची जय हो जहां वे एक दूसरे को काटती हों वह शिखर का अंतिम विन्दु हुआ । शिखर को मूल रेखा से उसकी (मूल रेखा की ) सवाई जितनी ऊंचाई पर एक रेखा खींची. जायं तो वह शिखर का स्कन्ध स्थान होगा। इस स्कन्ध और पद्मकोश के अंतिम बिन्दु तक की ऊंचाई के सात भाग करके एक भाग में ग्रीवा, १३ भाग में आमलक शिला, १३ भाग में पद्मपत्र (जिन्हें प्राजकस लीलोफर कहते हैं), और तीन भाग में कलश का मान रहेगा।
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शिखर में शुकनास का भी महत्वपूर्ण स्थान है । शुकमास की ऊंचाई के पांच विकल्प कहें है। छज्जे से स्कन्ध तक के उदय को जब इक्कीस भागों में बांटा जाय तो ६, १०, ११, १२, १३, अंशों तक कहीं भी शुकनास काय किया जा सकता है। शुकनासिका के उदय के पुनः नव भाग करके १, ३, ५, ७, या ६ भागों में कहीं पर भी कम्पासिंह रखना चाहिये। शुकनासा, प्रासाद वा देव मंदिर की नासिका के समान है। शिखर में शुकनासिका का निकलता खाता नीचे के अंतराल मण्डप के अनुसार बनाया जाता है | अंतरात मण्ड को कपिली या कोली मण्डप भी कहते हैं । ( ४१२७) अन्तराल मंडप की गहराई छः प्रकार की बताई गई है। शिखर की रचना में श्रृंग उग (छातिमा शृंग), प्रत्यंग और ट्रकों का महत्वपूर्ण स्थान है। एवं भिन्न भिन्न प्रकार के शिखरों के लिए उनकी गणना लग २ की जाती है। इसी प्रकार सवंग, तिलक और सिह ये भी प्रकारान्तर के अलंकरण हैं जिन्हें प्रासाद के शिक्षर का भूषण कहा जाता है और इनकी रचना भी शिखर को विभिनता प्रदान करती है ।
मंडन के अनुसार प्रासाद के शिखर पर एक हिरण्यमय प्रासाद पुरुष की स्थापना की जाती है । कलश, दण्ड, चौर ध्वजारोपण के संबंध में भी विवरण पाया जाता है ।
कहे गए हैं। गर्भ गृह किए जा सकते हैं और
पांचवें अध्यायों में वे राज्य यादि पच्चीस प्रकार के प्रासादों के लक्षण के कारण से कोरण तक प्रासाद के विस्तार के ४ से ११२ तक प्रावश्यकतानुसार भाग उन्हीं भागों के अनुसार फालनाओं के अनेक भेद किए जाते हैं । प्रासादों के नाम और जातियां उनके शिखरों के अनुसार कही गई है। वस्तुतः इन भेदों के आधार पर प्रासादों की सत्रों जातियां कल्पित की जाती हैं। गर्भगृह, प्रसाद भित्ति, भ्रमरणी या परिक्रमा और परिक्रमा मिति यह प्रसाद का विन्यास है । इनमें प्रासादभिसि परिक्रमा और परिक्रमा भित्ति तीनों को बौड़ाई समान होती है । यदि दो हाय की प्रासाद भित्ति, वो हाथ की परिक्रमा और दो हाम की भ्रम भिति करें तो गर्भ गृह चार हाथ का होना चाहिए। परिक्रमायुक्त प्रासाद दस हाथ से कम का बनाना ठीक नहीं । प्रासादों के वैराज्य मावि पस्वीस भेद नागर जाति के कहे जाते हैं। मध्याय में विशेषतः शिखरों के अनेक भेदापभेदों को व्याख्या करते हुए केसरी
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यादि प्रासादों का निरूपण किया गया है। प्रयोगात्मक दृष्टि से यह विषय अत्यधिक विहार की प्राप्य शे गया था। यहां तक कि मेरा प्रसाद में ५०१ गाए जाते थे। वृषभध्वज नामक मेर में एक राह क कहे गये हैं। मेरु प्रासाद बहु व्यय साध्य होने से केवल राजकीय निर्माण का
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गए है । १२ स्तम्भों ने
७ वें अध्यायों के निर्माण की विधि दी गई है। १० हाथ से ५० क के समया साद मण्डप बनाए जाते थे। जैन मन्दिरों में मण्डप, चौकी, नृत्यमय उन तीनो मण्डपों का होना आवश्यक माना गया है। मण्डप के कार की छत घण्टा कहलानी भी जिसे हिन्दी में गूमद कहते हैं। इसके ऊपर के भाग को संरा और नीचे के भाग को बितान कहते थे। मंडप के निर्माण में स्तम्भों का विशेषतः विधान किया गया है । ८८ १२ या २० कोने तक के स्तम्भ गाव म् बनाए जाते थे । स्तम्भों को के भेद से २७ प्रकार के मण्डप की वृद्धि करते हुए ६४ स्तम्भों तक के मण्डपों का उल्लेख है। विद्याधर नर्तकी, गजतालु को याद fafar faarai के निर्माण में भारतीय सियाचायों ने अपने कौशल का पfree from a एक हजार एक सौ तेरह प्रकार के वितान कहे गये हैं। मट के ऊपरी घण्टी का कर मुख्य या । न्यूनातिन्यून पांच घंटियों से लेकर पटियों तक की गिनती की जाती थी।
मटकी के वितान को प गुशोभित किया जाए
करों से युक्त परों
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भाग या संवरगा के भजावद में की
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श्रध्याय में मंदिरों के एवं बाकुड़गादि के जीगार की विधि कही गई है। साथ ह राजपुर आदि नगरों के निर्माण को सोच, जापवाक्ष, कोति स्वम्म जनामादि ने मृगोभित कर
नभाया है। इसी प्रकार कोष्ठागार, मलवारसी, महानस कुणाचा प्राधानादागार जनस्वा विद्या भण्डप व्याख्यान मण्डप मादि के निर्माण का विधान भी किया गया है। इस प्रकार चार मण्डन ने अपने वास्तुसार संबन्धी इस ग्रंथ में संक्षिप्त जी द्वारा प्रायाद रचना संधि विस्तृत जानकारी भरत का प्रयत्न किया है। इस ग्रंथ का पहन-पान में अधिक प्रचार होना उचित है।
श्री पं. भगवानदास जैन ने मनुवाद और विश्रमय व्याख्या के द्वारा इस ग्रंथ को सुलभ बनाने का जो प्रयत्न किया है इसके लिए हमें उनका उपकार मानना चाहिए। व्यक्तिगत रीति में हम उनके और भी भारी हैं. क्योंकि याज से कई वर्ष पूर्व जयपुर में रहकर उनसे इस ग्रंथ के साक्षात् अध्ययन का पवसर प्राप्त हुआ था। विदित हुआ है कि इस ग्रन्थ का हिन्दी भाषान्तर भी प्रकाशित करना चाहते है । घाशी है उस संस्करण में विषय को स्पष्ट करने वाले रेखाचित्रों की संख्या में और भी वृद्धि संभव होगी।
ता० १-१-६२
बासुदेवशरण अग्रवाल विभाग
अध्यक्ष-कला बारेतु काशी विश्व विद्यालय
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विषय
मंगलाचर
देव पूजित शिव स्थान
प्रासाद की जाति
पाठ जाति के उत्तम प्रासाद
प्रासाद का निर्माण समय भूमि परीक्षा
वास्तु मंडल लिखने का पदार्थ
पाठ दिक्पाल
कार्यारंभ के समय पूजनीय देव
निषेध समय
वत्समुख भाप भादिका विचार
देवालय में विचारणीय
प्राय व्यय और नक्षत्र लाने का प्रकार
बायों की संज्ञा चीर दिशा
प्रासाद के प्रशस्त आय व्यय संज्ञा
राशि, योनि, नाडी, गण, जानने का पद चक्र ध्वजाय और देवगण नक्षत्र वाले
समोरस क्षेत्र का नाप
अंश लाने का प्रकार दिक् साधन दि साधन मंत्र बात दिपि
चंद्रमा प्राषि
नाम वास्तु राह (नाग) मुख
कूर्ममान
अपराजित के मत से कूर्म मान क्षीराव के मत से मान कूर्म का ज्येष्ठ और कनिष्ठ मान
विषयानुक्रमणिका
पृष्ठ विषय
१
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faer और कूर्म का स्थापन कम
शिला के नाम
धरणी शिला का मान
धरणी शिला ऊपर के रूप
सूत्रारंभ नक्षत्र
जिला स्थापन नक्षत्र
देवालय का निर्माण स्थान
प्रासाद निर्माण पदार्थ
देव स्थापन का फल
देवालय बनाने का फल
वास्तु पूजा का सप्त स्थान
शान्ति पूजा का चौदह स्थान
प्रासाद का प्रमाण
मण्डोवर के परों का निर्म
प्रासाद के अंगों की संख्या
फालनाओं का सामान्य मान
दूसरा अध्याय
जगती
जगी का साकार
जगति का विस्तार मान
मण्डप की जगती
भ्रमणी (परिक्रमा)
जगती के कोने
जगती की ऊंचाई का मान
×
जगती के उदय का पर मान
१५.
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१६..... जयसी का दिग्दर्शन रेखाचित्र
१६ देव के वाहन का स्थान
१.७
देव के वाहन का उपय
१७
देव के वाहन का दृष्टि स्थान
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१७
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PREPARAME
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विपय जिनप्रामाद के मंडपों का क्रम जिनप्रामाद में देशनिका क्रम যা কিনা वहार देशिका चौबीम देवकुनिका रथ और मटका शिद शिवलिङ्गले प्राय अन्य देव देव के सम्मुख स्वदेश परस्पर दृष्धि टिव का परिहार शिवस्तामोदक देवों की प्रदक्षिा असमानः पनाला) मगडम स्विन देशों की मानी पूर्व और पश्चिमाभिमुख देव दक्षिणाभिमुखदेव विदिनाभिमुख व गूर्य प्रायलन मोश आयतन विधायनल
चण्डी पावन शिव पञ्चायतन दिवस्थापन अर विदेयों ना नायिकमान
तीसरा अध्याय
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पृष्ठ विषय ३१ सालाद के अक्षय से पीटका उपवमान
१४४ भाग का मंडोवर ( दीवार)
१४४ भाग के मंडोवर का दिग्दर्शन ३६ चार प्रकार की जंघा ३२ मे मंडोबर और उसका चित्र
सामान्य मंडोवर का चित्र मामाहोदर २७ भाग का मंओबर समित्र
मंडीशर की मोटाई २५ शुभाशुभ गर्भगृह ३४ लब चोरम शुभ गर्भगृह ३५ सेभ और मंडोवर का समन्वय ३५ गर्भगृह के उदय का माल और बम ३६ उदुम्बर ( देहली ) की ऊंचाई
६ उदुम्बर की रचना ३७ मा से हीन उदुम्बर और तल
अर्द्ध चन्द्र (जहाव) उत्तरंग
नागरप्रासाद का द्वारमान १८ भूमिजादि प्रासाद का द्वारमान . द्राविड प्रासाद का द्वारमान
अन्यजाति के प्रासादकाद्वारमान
মুৰ গাল্লা ३६ शाखा के प्राय
शाखा में द्वार का नाम और परिचय विशाखा द्वार का चित्र न्यूनाधिक शाखामान পিলার शाखा स्तंभ का निर्गम शासोदर का विस्तार और प्रवेश श्रिपंच सप्ल नव शाखा का विष माया के द्वारपाल बत्र मान
शाखाके रूप ४६ पश्च शाखा
सप्त शाखा
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प्रासाद धारिणी खर्राला खरशिना का मानः भिमान भिट्ट का निर्गम पीठ का उदयमान पीयोदय का परमान शों का निर्गम मान कामदापी और कगापीठ प्रामाद का उदयमान ( मंडोवर)
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विषय
লৰ হা उत्तरंग के देव
७.
चौथा अध्याय
पृष्ठ विषय
का माम और उसकी रचना कलश की उत्पति और धापना कलश का अपमान कलश का विस्तारमान पजादं रखने का स्थाने बजाधार (स्तं भवेष) का स्थान बजाधार की मोटाई और स्तंभिका ध्वजाधार, ध्वजदंड और ध्वजा का चित्र ध्वजादंड का उदयमान *जातका गए या बजादंड का तीसरा उदयमाम প্রায় দু মিলাদ ध्वजावंड की रक्षा विषमपर्ष वाले ध्वजा के सेरह नाम प्रजाकी पाटली पिज्जा का मान बजा का महात्म्य
७५
पांचवा अध्याय
वारमान से मूर्ति और पबासन का मान .... गर्भगृह का मान गर्भगृह के मान से मूति का मान देवों का दृष्टि स्थान देवों का पद स्थान प्रहार पर खाद्य (राजा) के घर मान भूङ्ग कम उस शृङ्गका क्रम सभित्र शिखर निर्माण २५६ रेखा की साधना सचित्र उदय भेदोद्भव देखा कलाभेदोद्भब रेखा रेखाचक त्रिखंडा कला रेखा सोलह प्रकार के चार त्रिखंडा को रेखा मोर कला रेखा संख्या मंहोकर और शिखर का उदयमान शिखर विधान श्रीवा, मामलसार और कला का मान .... शुकनास का उदय सिंह स्थान कपिली ( कोली) का स्थान कपिली का मान छह प्रकार की कपिली प्रासाद के अंडक और प्राभूषण शिखर के नमन का विभाग मामलसारका मान मित्र प्रामलसार के मीने शिखर के कोरूप सुवर्णपुरुष (प्रासादपुरुष ) को स्थापना ....
७६ ग्रंथ मान्यता की याचना
बैराज्यशासाद ५१ फालना के भेद
भ्रमणी (परिक्रमा
वैराश्य प्रासाद ८२ वैराज्यादि जातिका प्रासाद चित्र
नागर जातिका कलामय मंशोवर चित्र १२ दिशा के द्वारका नियम
२ नन्दन प्रासाद ८३ ३ सिंह प्रासाद
श्रीनन्दन, ५ मंदिर और ६ मलयप्रासाद ७विमान, विशाल, लोक्य भूषण प्रासाद १०० १० माहेन्द्र प्रसाद, ११ रत्नशीर्द १२ सितग प्रासाद
१३ भूधर, १४ भुबन मंडन, १५ लोक्य विजय, ८६ १६ क्षिति बल्लभ, १७ महीधर प्रासाद ... १०२
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पृष्ठ
१९८
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विषय
पृष्ठ विषय १५ कैलास प्रासाद
... १०३ जिनप्रासाद के मण्डप १६ मममंगल, २७ गंधमादन, २१ सर्वा सुन्दर, मंडप के पांच मान २२ विजयानन्द प्रासाद .... १०३ प्रासाद और मंडपका तलदर्शन
११८ .२३ सर्वा गतिलक,२४ महा भोग, २५ मेह प्रासाब प्राधाद भौर मंडपोंका उदय चित्र और प्रासाद प्रदक्षिणा का फल
प्रासाद के मानसे मंडप का माप
मद का घंटा कलश और शुकनासका मान.... छठा अध्याय
मंडप के समविषमतल केसरी मावि, २५ प्रासादों का नाम १०६ मुख भण्डप
१२० पचीस प्रासादों को शृगसंख्या
१०६ तमका विस्तार मान अष्टविभागीय सलमान
१७ प्राकृति से स्तनसंज्ञा दश और बारह विभागीय तलमान
१०७ प्राग्रीव मण्डप । चौदह प्रौर सोलह विभागीय सलमान १०७ माउ जाति के गड मधप
१२२ प्रकारह, मीर और बाईस विभागीय
सांगपूर्ण सांगोपांग वाला प्राचीन देवालयका विक शसमान
१०८
पामेर के जगतशरणजी के मन्दिर का विध तलों के क्रम से प्रासाद संख्या
प्राचीन स्तंभोका रेखा चित्र .... १२३ मिरंधार प्रासाद
पाठ गूढ मंडपों का रेखा चित्र .... १२४ प्रासाद तलाकृति
मा मन्दिर के मण्डप, स्तंभ और तोरण का चित्र लम्ब पोरस प्राधान
गुदडप की पालना
१२५ गोल, लंबगोल और मष्टासप्रासाद
मट के उदय का तीन प्रकार
१२५
गुमरका न्यूनाधिक उदय फल द्राविड प्रासाद
बारह चौकी मंडप भूमिज प्रासाद
बारह बौको मंडप का रेखा चित्र लतिन, श्रीदास और नागरप्रासाद
सप्तविंशति मंअपका रेखा चित्र मेक प्रासाद
मृत्यमंडप
१२६ प्राविडजातिका गोपुर प्रासाद मित्र
सदिशति मध्यप विमान नागर प्रासाद
अष्टान और षोडशास्र का मान १ श्रीमेर २ हेमशौर्ष मेरु, ३ सुरवल्लभ
क्षिप्त विसान का चित्र मेरु प्रासाद
বন্ধি বিরান কা খি ४ भुवनमण्डन, ५ मशीर्ष, ६ किरणोद्भव
पितान का प्रकार ७ कमल हस मेप्रासाद
११४ वितान के थर ८ स्वर्णकेतु और कृषभध्वज मेरुप्रासाद .... ११५ वितान संस्था
समतल वितान में नृसिंहावतार का मित्र सातवां अध्याय
दर्य और जाति के चार प्रकार के विज्ञान मंडपविधान
.... ११७ रंगभूमि गर्भारमण्डप
११४ बलाक का स्मान
१२६
१२
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१५०
बलारएक का मान प्रासाद के मान से बलाएक का मान उत्तरंग का पेटा भाग पाच प्रकार के प्रसारणक संवरणा प्रथम संघरणा का रेखा स्त्रि दूमरी संबरणा का चित्र पच्चीस संवरणा के नाम प्रथम पुष्पिका संवरणा १८ वी शताब्दी से.माधुनिक समय की संबरणा का रेखा चित्र जैसलमेर जैन मन्दिर को संवरणाचित्र कीति स्तंभ का चित्र दूसरी नन्दिनी संबरा प्राचीन संघरणा का चित्र
গা মা শাখ
१५२
पृष्ठ विषय १३४ छाया भेद १३४ देवपुर, राजमहल और नगर का मान .... १३५ राजनगर में देव स्थान १३५ प्राश्रम और मठ १३६ स्थान विभाग १३७ प्रतिष्ठा मुहत १३६ प्रतिष्या के नक्षत्र १३६ प्रतिष्या में बजनीय तिथि १३६ प्रतिष्ठा मण्डप
मज्ञ कुण्ड वा मान माप्ति संख्या में कुण्ड मान दिशानुसार कुण्डी को प्राकृति मण्डल পুলিশ। देवस्नान विधि देवशयन रत्लन्यास
धातुल्यास १४३ पौषधिन्यास
धान्यन्यास पाचार्य और शिल्पिभों का सम्मान प्रासाद के अंगों में देव म्यास
प्रतिष्ठत देव का प्रथम दर्शन १४४ सूत्रधार पूजन १४५ देवालय निर्माण का फल १४५
सूत्रधार का पाशिर्वाद
भूत्रधार का मार १४५ .मात्राय पूजन १४६ जिन देवप्रतिष्ठा १४६ जलाश्रय प्रतिष्ठा १४६ जलाश्रय बनाने का पुण्य १४७ बास्तु पुरुषोत्पत्ति १४७ वास्तुपुरुष के ४५ देव १४८ वास्तुमंडल के कोने की प्राठ देवी १४८
शास्त्र प्रशंसा १४६ अन्तिममंगल
१५६ ५६. १६.
शिवलिंग का न्यूनाधिक मान वास्तुदोष निषेधवास्तु द्रव्य शिवालय उत्थापन दोष जीखोडार का पुण्य जीणोद्वार का वास्तु स्वरूप दिड मूढ दोष दिड मूढ का परिहार भव्यक्त प्रासाद का दालन महापुरुष स्थापित देव जीर्णवास्तु पासम विधि महादोष शिस्पिकृत महा दोष भिन्न और मभिन्न दोष देवों के भिन्नदोष ध्यक्तापक्त प्रसाद महामर्म दोष अन्य दोषों का फल
१६०
१६१
१६७
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५८
१०६
KnonmentamittigadhinjaminitiwHAPrivuminium
विषय
अभिनन्दन निी प्रासाद सुमतिबिल प्राबाट पप्रभजन प्रसाद = য়াৰ পান্না
पुष्टि वन प्रासाद এ মুহলিন চাষ
११
.. ..
परिशिष्ट नं. १ विषय बेसरी मावि २५ प्रासादों का नाम १कसरी प्रसाद २ सर्वतोभद्र प्रासाद * সনমান্না ४दियाल प्रासाद नदीशप्रसाद मंदर प्रासाद ७ औक्षणासाद
अमृतोद्भव प्रासाद हिमवाम प्रासाद १० हेमकर प्रासार ११ लात प्रासाद १२ पृथ्वीजय प्रासा १३ इन्द्रनील प्रासाद १४ महानौल प्रासाद १५ भूधर प्रासाद १६ रस्मट प्रासाद
... .
१४
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२५
१६५ १६५
mittinindinpikappointomisingwwaniminaruwalawww
१२ चन्दप्रभाजन प्रासाद १३श्रीनामा
हिरा प्रसाद १५ गतजन प्रसार १६ शासन जिन प्रासाद १७ की निदायक प्रसाद १८ मनोहर प्रसाद १४ श्रेयांजिनयल्लभ प्रासाद
२० मुकुल प्रासाद १
२१ कृतनन्दन प्रासाद
१२वासु पूश्य जिन प्रामा १७
२३ रन संजय प्रामाद १७६.
२४ धर्मद प्रासाद २५ पिमल जिमवल्लभ प्रासाद २६ मुक्तिद प्रामाद
२७ अनना जिन शसाद १८१८ सुरेन्द्र प्रसाद
२६ धर्मनाप जिन प्रासाद
३० धर्मवृक्ष प्रासाद १८३
११ शानिमाप जिन प्रासार २८३
३२ कामदायक प्रासाद ३३ कु चुनाय जिनाभ प्रासाद
३४ शक्तिद प्रासाय १८४३५६र्षण प्रासाद १८५ ३६ भूधरण प्रासार
২৫ অাখ দিল প্রাশার १८७८ श्री प्रासाद १५ ३६ अरिनाशन प्रासाद
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१८ पथराग प्रासाद १६ अथक प्रासाद २.मुकुदोषज्वल प्रासाद २१ ऐरावत प्रासाद २२ राजहंस प्रासाद २३ पक्षिराज (महाड) प्रासाद २४ वृषभ प्रामा २५ मेह प्रासाद भेप्रासाद की प्रदक्षिणा का फल ....
परिशिष्ट नं. २ जिन प्रसादाम्पाय १अषभजिलयस्लभ प्रामाद २ मजितजिमवल्लभ प्रासाद ३ संभव जिनसलभ प्रासाद ४ अमृतोष प्रासाद
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1
.
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.२० २०६
२०६
विषय ४० श्रीमल्लिनाथ जिन प्रासाद ४१ मानवेन्द्र प्रासाद ४ पायदान पास ४३ मुनिसुव्रत जिन प्रासाद ४४ मनाल्याचन्द्र प्रसाद ४५ धीभव प्रसाद ৫ নমখ সিস মালা ४७ सुमरिंकीति प्रासाद ४८ सुरेन्द्र प्रसाद ४६ राजेन्द्र प्रसाद ৪০ নদিনাথ জিল দ্বারা ११ बतिभूषख प्रासाद
पृष्ठ विषय २०३ ५२ सुपुष्प प्रासाब २०४ ५३ पाश्र्वनाथ जिन बलभ.प्रासाद
र ५४ पदमावती प्रासाद २०४५५ रूप बल्लम प्रासाद २०४ ५६ महावीर जिन प्रासाद २०५ ५७ अष्टापद प्रासाद २०५ १६ तुष्टि पुष्टि प्रासाद २०६ जिन प्रासाद प्रवासा २०६ शब्दों का प्रकारादिक्रम २०७ शुद्धि पत्रक २०७ अनुवाद के सहायक ग्रन्थ २०६
२२६
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ॐ गमो जिणा मण्डनसूत्रधारविरचितम् प्रासादमण्डनम्
HAIRARIAARommadpurses.
टीकाकारका मंगलाचरण
"परं परमेष्ठिनं जिनं नत्वा करोम्यहम् ।
प्रासादमण्डनप्रबोधाय भाषां सुबोधिनीम् ॥" ........... जो पंच परमेष्ठी जिनदेव हैं, उनको नमस्कार करके प्रासाद मंडन नाम के शिल्प
शास्त्र को अच्छी तरह समझने के लिये सुबोधिनी नामको टीका करता है। प्रन्थकार का मंगलाचरण---
गणेशाय नमस्तस्मै निर्विघ्न सिद्धिहेतवे ।
आदिगौरीसमुद्भत-तेजसा सम्भूताय' वे ॥१॥ निविघ्न रूप से अपने कार्य की सिद्धि के लिए महामाया पार्वतीदेवी के अद्भुत तेज से उत्पन्न हुए श्री गणेश देव को नमस्कार हैं ।।१।।
महामायेति या गीता चिन्मयी मुनिसत्तमः ।
तनोतु वाग्विलासं मे जिह्वायां सा सरस्वती ॥२॥ महान् ऋषियों ने जिनकी स्तुति की है, ऐसो ज्ञानमयी महामाया सरस्वती देवी मेरी जिह्वा में निवास करके वाणो का विस्तार करें ।।२।।
सृष्ट्यायसूत्रधारस्य प्रसादाद विश्वकर्मणः ।
प्रासादमण्डनं ते सूत्रधारेषु मण्डनः ॥३॥ सृष्टि के प्राद्य सूत्रधार श्री विश्वकर्मा की कृपा से सूत्रधारो में 2 सपण रूप 'मण्डन' नाम का सूत्रधार प्रासादमण्डन नामका यह अन्य कहता है ॥२१॥
गृहेषु यो विधिः प्रोक्तो विनिवेशप्रवेशने ।
स एव विधिना कार्यों देवनायतनेपि ॥४॥ (१) सम्भवाय (२) करोतु (३) विदुषा
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" प्रासादमडने
घर बनाने की तथा उसमें प्रवेश करने की जो विधि वास्तुशास्त्र में विद्वानों ने बसलायी है, उस विधि के अनुसार देवालय में भी कार्य करें ॥४॥ देवपूजित शिवस्थान---
हिमाद्रेरुसरे पायें चारुदारुवनं' परम् ।
पावनं शङ्करस्थानं तत्र सर्वैः शिवोऽर्चितः ॥५॥ हिमालय सभा के उत्तर दिशा में
ए नोहर देताना दक्षों का सुन्दर वन है, यह महादेवजी का पवित्र तीर्थस्थान है। वहां सब देव और दैत्य मादि ने मिलकर महादेव को पूजा की ! प्रासादों की जाति
प्रासादाकारपूजाभि देवदैत्यादिभिः क्रमात् ।
चतुर्दश समुत्पन्नाः प्रासादानां सुजातयः ॥६॥ देव और दैत्य आदि सब देवों ने अनुक्रम से प्रासाद के प्राकार वाली शंकर की अनेक प्रकार में पूजा की, जिसके चौदह लोक के देवों द्वारा भिन्न भिन्न रूप से पूजित होने से पौवह प्रकार की प्रासाद की जाति उत्पन्न हुई ॥६॥ प्रासादोत्पत्ति को चौदह जाति"यत्र येषां कृता पूजा तत्र तनामकास्तते ।
: प्रासादानां समस्तानां कथयिष्याम्पनुक्रमम् ।। सुरैस्तु नागराः ख्याता द्राविडा दानवेन्द्रकः । लतिनाश्चेव गन्धर्वे-र्यक्षेश्वारि विमानमाः ॥ विद्याधरैमिश्रकाश्च वसुभिश्च कराटकाः । सान्धाराश्चोरगे: ख्याताः नरेन्द्र भूमिजास्तथा । विमाननागरच्छन्दाः सूर्यलोकसमुद्भवाः । नक्षत्राधिपलोकोक्ताश्चन्दा विमानपुष्पकाः ।। पार्वतोसम्भवाः सेना वलभ्याकारसंस्थिताः । हरसिद्धयादिदेवोभिः कार्याः सिंहावलोकनाः ।। व्यन्तरस्थितस्तु फांसनाकारिणो मताः । इन्द्रलोकसमुद्भुता रथाश्च विविथा मताः ।।"
अपराजितपृच्छा सू० १०६ (१) देवगुरु (२) 'च
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seatstore:
जिन जिन देवों ने प्रासाद के आकार वाली पूजा की, उनके नाम वाले, जो जो प्रासाद उत्पन्न हुए, उनको अनुकम से कहूँगा (१) देवों के पूजन से नागर जाति, (२) दानवों के पूजन से After, (३) गन्धर्वो के पूजन से लतिनजाति, (४) यक्षों के पूजन से विमानजाति, (2) विद्याधरों के पूजन से मिश्रजाति, (६) बसु देवों के पूजन से वराटकजाति, (७) नागदेवों के पूजन से सान्धार जाति, (८) नरेन्द्रों के पूजन से भूमिजजाति, (६) सूर्यदेवों के पूजन से विमाननागर जाति, (१०) चन्द्रमा के पूजन से विमानपुष्पक जाति, (११) पार्वती के पूजन से वलभी जाति, (१२) हरसिद्धि श्रादि देवियों के पूजन से सिंहावलोकन जाति, (१३) व्यन्तर स्थित देवों के पूजन से फांसी के आकार वाली जाति, १४ और इन्द्रलोक के देवों के पूजन से रथारूह (दारु आदि) जाति, ये चौदह जाति के प्रासाद उत्पन्न हुए।
ग्राठ जाति के उत्तम प्रासाद-----
"
नागरा द्राविडाश्चैव भूमिजा लतिनास्तथा । सावन्धारा विमानादि-नागराः पुष्पकाङ्किताः ॥७॥ freeferen: रष्टौ जातिषु चोत्तमाः । सर्वदेवेषु कर्त्तव्याः शिवस्यापि विशेषतः ||८||
૩
चौदह जाति के प्रासादों में (१) नागर, (२) द्राविड, (३) भूमिज, (४) लिन, (५) सायंधार (सांधार केसरी आदि), (६) विमान नागर, (७) विमान पुष्पक, श्रीर (८) शृङ्ग ओर free वाला मिश्र, ये आठ जाति के प्रासाद उत्तम हैं । इसलिये सब देवों के लिये यही बनाने चाहिये, उनमें भी विशेषकर महादेवजी के लिये बनाना श्रयस्कर है ।।७-६||
प्रासादानां च सर्वेषां जातयो देशभेदतः । चतुर्दश प्रवर्त्तन्ते ज्ञेया लोकानुसारतः ||६||
सब प्रासादों के भेद देशों के भेद के अनुसार होते हैं । इनके मुख्य चीदह
वे अन्य अपराजित पृच्छा सूत्र ११२ आादि शास्त्रों से जानना चाहिये ||६||
लक्ष्यलचणतोऽभ्यासाद् गुरुमार्गानुसारतः । प्रासादभवनादीनां
३
सर्वज्ञानमवाप्यते ॥ १० ॥
प्रासाद और गृह आदि बनाने के लिये सब प्रकार का शिल्पज्ञान, उसके लक्ष्य और लक्षण के अभ्यास से एवं गुरुशिक्षा के अनुसार प्राप्त करना चाहिये ||१०॥
(१) पुष्पकालिक
(२) प्रासादमाव
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प्रासादमण्डने
प्रासाद का निर्माण समय
शुभलग्ने सुनक्षत्रे' पञ्चग्रहबलान्विते ।
माससंक्रान्तियन्सादि-गिपिधकालयजिते ॥११॥ शुभ लग्न और शुभ नक्षत्र में, पांच ग्रह ( सूर्य, चन्द्र, बुध, गुरु और शुक्र ) के बलवान् होने पर, तथा मास, संझान्ति और पल्ला प्रादि के निषेव समय को छोड़ कर प्रासाद बनाना श्वारभ करें ।।१।। भूमि परीक्षा--
सर्वदिशु प्रवाहो वा प्रागुदकशङ्करप्लवाम् ।। भनि परीच्य संसिञ्चेत् पञ्चमध्येन कोविदः ।।१२।।
मणिसुवर्णरूप्येण विद्रुमेण फलेन का । प्रथम प्रासाद, बनाने को भूमि की परीक्षा करनी चाहिये । जिस भूमि पर चारों दिशामों में पानी का प्रवाह चलता हो अर्थात वह चारों दिशामों में नीची हो और बीच में ऊंची हो, अथवा पूर्व, उत्तर और ईशान कोनों में नोची हो, अर्थात् इन तीन दिशाओं में पानी का प्रवाह जाता हो तो ऐसी भूमि शुभदायक है । विशेष जानने के लिये देशों अपराजित पृच्छा सूत्र० ५१.
इस प्रकार भूमिको परीक्षा करके विद्वान् जन पञ्च मव्य ( गाय का दूध, दही, घी, मूत्र और गोबर ) से उस भूमि पर छिड़काव करें तथा मणि, सोना, रूपा, मूगा और फलों से भूमि को पवित्र कर ॥१२॥ वास्तुमंडल लिखने का पदार्थ-----
चतुःषष्टिपदे वास्तु लिखेदापि समशः ॥१३॥ पिप्टेन धाक्षतः शुद्ध स्तनो वास्तु समस्येन् ।
पूर्वोक्तेन विधानेन बलिपुप्पैच' पूजयेत् ।।१४।। प्रासाद के प्रारंभ होने से समाप्त होने तक उतने समय में सात अथवा चौदह बार चौसठ पद का प्रयवा एकसौ पद का वास्तुमण्डल पूजा जाता है । यह शुद्ध प्राटा अथवा शुद्ध चावलों से बनाना चाहिये । पश्चात् उसे पूर्वाचार्यों द्वारा बतलाई गई विधि के अनुसार बलि और पुष्प आदि से पूजना चाहिये ॥१३॥१४॥ (१) शुभः च (२) अब (३) बलिष्यादिपूजनैः । * विशेष जानने के लिये देखें स्वयंारा अनुदित राजवल्लभमंडन में दूसरा अध्याय ।
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Compoween
प्रथमोऽध्यायः
साठ दिक्पाल
इन्द्रो वहिनः पितृपतिनतो वरुणो मरुत् । ... .. कुबेर ईशः पतयः पूर्वादीनां दिशा क्रमात् ।।१५।।
इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋति, काग, वायु, कुवेर और ईश, ये पाठ देव अनुक्रम से पूर्वादि दिशायों के अधिपति हैं ॥१५॥ कार्यारम्भ के समय पूजनीय देव
. दिक्पालाः क्षेत्रपालाश्च गणेशश्चण्डिका तथा ।
एतेषां विधिवत् पूजां कन्या कर्म समारभेत् ॥१६॥ । दिक्पाल, क्षेत्रपाल, गणेश और चण्डिका देवी प्रादि देव देवियों की विधि गर्वक पूजा करके काय प्रारंभ करें ॥१६॥....... निषध समय
धनुमीनस्थित सूयें गुरौ शुक्रेऽस्तगे विधी ।
वृती व्यतिमाते च दग्धायां न कदाचन ॥१७॥ : धन और मीन संक्रांति का मूर्य हो, शुरु शुक और चन्द्रमा ये अस्त हो, वैधृति और ध्यतिपात के योग हो, लथा दग्धा तिथि हो, तब कभी भी नवीन कार्य का प्रारंभ नहीं करना चाहिये ॥१७॥ वत्समुख----
कन्यादित्रिवि सूर्य द्वार पूदिपु त्यजेत् ।
भृपया इसमुखं ता स्वामिनो हानिकयतः ॥१८॥ कन्या आदि तीन तीन राशि पर सूर्य हो, तब अनुक्रम से पूर्व प्रादि दिशात्रों में द्वार श्रादि का कार्य नहीं करना चाहिये । क्योंकि उन दिशाओं में सृष्टिक्रम में अर्थात पूर्व, दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशा में वत्स का मुख रहता है । यह कार्य कराने वाले स्वामी को हानिकारक है । जैसे-कन्या, तुला और वृश्चिक राशि पर सूर्य हो तब वत्स का मुख पूर्व दिशा में; धन, मकर
और कुभ राशि का सूर्य हो तब वत्स का मुख दक्षिण दिशा में; मीन मेप और धूप राशि का सूर्य हो तब वत्स का मुख पश्चिम दिशा में; मिथुन, कर्क और सिंह राशि का सूर्य हो तव वत्स का मुख उत्तर दिशा में रहता है । ||१|| (१) समाचरेत् (२) त्रिनिगे
...
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Sarancer
जिस दिशा में वत्स का मुख हो, उस दिशा में तथा मुख के सामने वाली दिशा में खात, देव प्रतिष्ठा द्वार प्रतिष्ठा श्रादि कार्य करना शास्त्र में वर्जित है, परन्तु वत्समुख एक दिशा में तीन तीन मास तक रहता है। इसलिये तीन मास तक उक्त कार्य को नहीं रोकने के लिये ठक्कुर फेरु कृत 'वत्थुसार पर' ० १ गाथा २० में विशेष रूप से बतलाया है कि
"गभूमि सत्तभाए पर यह तिहि तीस तिहि दहक्ख कमा ६ दिसंखा चउदिसि सिरपुच्छस मंकि बच्छठि ॥"
घर या प्रासाद की भूमि का प्रत्येक दिशा में सात सात भाग करना, उनमें अनुक्रम से प्रथम भाग में पांच दिन दूसरे में दस दिन, तीसरे में पंद्रह दिन, बोधे में तीस दिन, पांचवें में पंद्रह दिन, छट्टो में दस दिन और सातवें भाग में पांच दिन बरस का मुख रहता है। इस प्रकार भूमि को चारों दिशाओं में दिन संख्या समझना चाहिये। जिस ग्रंक पर वत्स का मुख हो, उसी अंक के सामने वाले बराबर के अंक पर वत्स की पूछ रहती है। इस प्रकार की पल्स की स्थिति है ।
जैसे कन्याराशि पर सूर्य हो,
और यदि पूर्व दिशा में खात धादि कार्य करने की प्रावश्यकता हो तो कन्याराशि को प्रथम पांच दिन तक प्रथम भाग में खात प्रादि कार्य नहीं करना चाहिये, परन्तु दूसरे छह भागों में से किसी एक भाग में शुभ मुहूर्त में कार्य कर सकते हैं। एवं छट्ठे से पंद्रहवें दिन तक दूसरे भाग में और सोलहवें से तीस दिन तक तीसरे भाग में कार्य
वायव्य
=
१० १५
५
१०
५
१५ ३० १५ १० मिथुन मिथुन मिथुन के के सिंह सिंह सिंह
उत्तर
पश्चिम
म
भूमि घर या प्रासाद करने की
Lab1⁄2
● ha
ईशान
अपराजित पृच्छ सूत्र ६२ में कहा है कि-
「
नहीं करें। तुला राशि के सूर्य में तीस दिन तक मध्य के चौथे भाग
में कार्य नहीं करें। वृश्चिक राशि के सूर्य में पहले पंद्रह दिन पांचवें भाग में, सोलहवें से पचीसवें दिन तक छट्ठे भाग में और छबोसवें से तोसवें दिन तक सातमें भाग में कार्य नहीं करें। इसी प्रकार प्रत्येक दिशा में प्रत्येक संक्रांति के दिन संख्या समझ लेनी चाहिये ।
"देवागारं गृहं यत्र न कुर्याच्छिरः सन्मुखम् । मृत्युरोगभया नित्यं शस्तं च कुक्षिसम्भवम् ।।"
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प्रथमोऽध्यायः
AnteamsuTRANGE
।
वत्सके सिर के भाग में और उनके सामने के भाग में देव मंदिर अथवा मनुष्य के घर नहीं बनावें, यदि बनावेंगे तो मृत्यु, रोग और भय हमेशा बना रहेगा । इसलिये वत्स को कुक्षि में कार्य करना अच्छा है । विशेष उक्त ग्रंथ में देखें। प्रायादिका विचार
आयो व्ययमिंशस्य भित्तिमाय सुरालये ।
धापो देवनक्षत्र व्ययांशी प्रथमी शुभी ॥१६॥ पाय, चय, नक्षत्र और अंश आदि को गणना देवालय में दीवार के बाहर के भाग से होती है । देवालय में ध्वज प्राय, देव नक्षत्र, प्रथम व्यय और प्रथम अंश ये शुभ हैं ||१६||
केपाश्चिन्मस्ता गेहे वृषसिंहगजाः शुभाः ।
आयादूनो व्ययः श्रेष्ठः पिशाचस्तु समोऽधिकः ॥२०॥ देवालयों में वृप, सिंह और गज प्राय भी श्रेष्ठ हैं। अपराजित पृच्छा सूत्र ६४ में भी कहा है कि-'ध्वजः सिंहो वृषगजो शस्यन्ते सुरवेश्मनि ।' प्राय से व्यय कम हो तो श्रेष्ठ है। सम व्यय हो तो पिशाच और अधिक व्यय हो तो राक्षस नाम का व्यय माना जाता है ॥२०॥ देवालय में विचारणीय
देवतानां गृहे चिन्त्य-मायाद्यनचतुष्टयम् ।
नवाङ्ग नादीवधादि-स्थापकामरयोमिथः ॥२१॥ देवालय में प्राय, व्यय, अंश और नक्षत्र इन चार अंगों का, तथा स्थापक ( देव स्थापन करने वाले ) और देव इन दोनों के परस्पर नाडीवैध, योनि, गण, राशि, वर्ण, वश्य, तारा, वर्ग और राशिपति, इन नव अङ्गों का विचार करना चाहिये ॥२१॥
आयादिचिन्तनं भूमि-लक्षणं वास्तुमण्डलम् ।
मासनक्षत्रलग्नादि-चिन्तनं पूर्वशाखतः ॥२२॥ माय प्रादिका विचार, भूमिका लक्षण, वास्तु मण्डल, मास, नक्षत्र और लग्न प्रादिका विचार, ये सब राजबालम मंडन प्रौर अपराजित पृच्छा भादि शास्त्रों से जानना चाहिये ॥२२॥ प्राय व्यय और नक्षत्र लाने का प्रकार
"व्यासे दैर्ध्य गुणेऽभिविभजिते शेषो ध्वजाद्यायको,
ऽध्ने तद्गुरिंगते च धिष्ण्यभजिते साहक्षमस्वादिकम् । (१) केषां च (२) होन पायाद
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प्रासाबमएडने
नक्षत्रे वसुभिर्ययोऽपि भजिते हीनस्तु लक्ष्मीप्रदः,
तुल्यायश्च पिशायको ध्वजमृते संवद्धितो राक्षसः।' राजव००३ प्रासाद अथवा गृह बनाने को भूमि की लंबाई और चौड़ाई के नाप का गुणाकार करने से जो गुणनफल हो, वह क्षेत्रफल कहा जाता है। इसको पाठ से भाग देने से जो शेष बचे, वह ध्वज प्रादि प्राय कहलाती है । क्षेत्रफल को पाठ से गुणा करके, गुणनफल को सत्ताईस से भाग दें जो शेष बचे वह अश्विनो प्रादि नक्षत्र होता है। नक्षत्र को जो संख्या सावे, उसमें पाठ का भाग देने से जो शेष बचे वह व्यय कहलाता है । प्राय से व्यय कम हो तो लक्ष्मी को प्राप्त करने वाला है। प्राय और व्यय दोनों बराबर हो तो पिशाब नाम का व्यय और ध्वज प्राय को छोड़कर दूसरी पायों से व्यय अधिक हो तो वह राक्षस नाम का ध्यय कहलाता है। प्रायों की संज्ञा और विशा
"ध्वजो धूमश्व सिन्हश्च श्वानो वृषखरी गजः ।
ध्वाक्षश्चेति समुहिष्टाः प्राचादिषु प्रदक्षिणाः ।।" अप० सू०६४ ध्वज, धूम्र, सिंह, श्वान, वृष, खर, गज और बांक्ष, 2 माह प्रायों के नाम हैं। वे अनुक्रम से पूर्व प्रादि दिशानों के स्वामी हैं। प्रासाद के प्रशस्त प्राय----
ध्वजः सिंहो वृषमजी शस्यते सुरवेश्मनि ।
प्रधमाना खरध्वाक्ष-धूमश्यानाः सुखावहाः ।।" अप० ० ६४ ध्वज, सिंह, वृष और गज ये चार पाय देवालय में शुभ हैं। तथा खर, ध्वाला धूम और वान ये चार प्राय अधम जातिवालों के घरों में सुखकारक है। व्यय संज्ञा
"शान्तः पौरः प्रद्योतश्च श्रियानन्दो मनोहरः । श्रीवत्सो विभवश्व चिन्तात्मा च ध्ययाः स्मृताः॥ समो व्ययः पिशाचश्च राक्षसस्तु ख्ययोऽधिकः ।
व्ययो न्यूनो यक्षश्चैव धनधान्यकरः स्मृतः ।।" अप० सू० ६६ शान्त, पौर, प्रद्योत, श्रियानन्द, मनोहर, श्रीवत्स, विभव और चिन्तामा, ये व्ययों के आठ नाम हैं। प्राय और व्यय समान हो तो पिशाच नाम का व्यय, प्राय से व्यय अधिक हो तो राक्षस नाम का व्यय और प्राय से ध्यय कम हो तो यक्ष नाम का व्यय होता है। यह घन धान्य की वृद्धि करने वाला है। (१) विशेष जानने के लिये देखो मेरा मनुवादित राजवल्लभ मडन ग्रंथ
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प्रथमोऽध्यायः
__राशि, योनि, नाड़ी, गण आदि जानने का शतपदचक्र--
गरा नाडीचन्द व्यय
रिवान
भरही
चतुष्पद | गज मंगलममुन्यामध्य।
उत्तर
पौर
१मंगल
कृतिका
। पूर्व
प्रद्योत
শিয়ান
मा...
..."
वो..२वृष 1३श्य
মুফায়
२ शुक २दुध
मनोहर
की.२ मिथुन २शुद्ध | २ मनुष्य
मिथुन | शूद्र | मनुष्य श्वान |
श्रीवरस
३ मिथुन | ३ शूद्र | ३ मनुष्य मा
१ ब्राहारण १ अलघर
३ बुध १ चन्द्र
विभक
१
| ब्राह्मण | बलवर करा
पूर्व | चिन्तात्म
অলং সাজা অনুমা
त्य | पूर्व
शान्त
मवा
पनघर पहा | सूर्य
[अंत्य दक्षिण] पौर
सिंह | छत्रिय
वनचर
ये
अनुय मध्य दक्षिण प्रद्योत
१२ उत्तरा
१ सिंह | १ क्षत्रिय | १ अनवर ३ कन्या | ३ वैश्य |३ मनुष्य
प्राध दक्षिण | श्रिया बन्द
३ कुर
कन्या | वैश्य । मनुष्य भैस
प्राय दक्षिण | मनोहर
iiiicketnycosunitainiaadmi
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________________
१०
प्रासादमरने
uwanna
mainmenie
women
| प्रक्षर
राशि | षणं । वश्य योनि राशी
mamani
२ कन्या २ वैश्य
मनाय
मध्यदस्यिा
रारी.२तला। २ शुद्र
.
मनब्ध
| देव | प्रत्य दक्षिण | मिय
| अस्य दक्षिण चिन्तात्मा
ब्राह्मण की
कोहाहारणा मंगल
| देव | मध्य पश्चिम. शान्त
राक्षस पास शिवम पौर
यस माह पश्चिम प्रयोत
मनुष्य
मनुष्य मध्य पश्विमा श्रियानंद
चतुष्पद
मनुष्य अत्य पश्चिम मनोहर
चलुहाव
₹
| देव | प्रत्य पश्चिम यौवस्त
जलयर
मकर
वैश्य २ अलवर
विभ
| पाय उत्तर | चिन्तारमा
2017
मान | ब्राह्मगा जलघर
२९1aरामात
ब्राह्मण अलपर
२७] रेवती
बाह्मण ।
जसपर
| देय अस्य उत्तर प्रगति
[.ची.
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hindemym
ध्वजाय और देवगणनक्षत्रवाले समचोरस क्षेत्र का माप
मच
नक्षत्र
पर-इंच
७-२१
१५-१
मृगशीर रेवती मृगशीर अनुराधा रेवती
१-५
अनुराधा रेवती पुष्य
रेवती मृगशीर अनुरघा रेवती
७.२३ ८-७ ५-१५ ८-२३
१५-१६ १६-३
रेवती
पुष्प
२-७ २-१५ २-२३
१६-२१ १७-१३ १७-१५
IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII 177
रेवती अनुराधा मृगशीर रेवती मृगशीर अनुराधा रेवती
पुष्य रेवती अनुराधा मृगशीर रेवती मृगशीर अनुराधा
१०-१३
३-१६
11 11TITI TIIIIIIIIIIIIIIIIIII
IIIII IIIIIIIIII III III III III 1
१८-१ १६ १८-१७ १६-१ १६.३
अनुराधा मृगशीर रेवती रेवती रेवती पुष्य पुष्य रेवती रेवती मृगवीर रेवती मृगशीर रेवती पुनर्वसु पुष्य पुष्य रेवती
पुष्य रेवती
४-२१
११-२३ १२-७
witerasattle
gariwaranteebewindian
अनुराधा
१६-२१ १६-२३ २०-५ २०-७
मृगशीर रेवती मृगशीर
१२-११ १२-१६
५-१५ ५-१५ ६-१
पृष्य रेवती अनुराधा मृगशीर रेवती मृगशीर अनुराधा रेवती पुष्य पुष्य रेवती अनुराधा मृगशीर रेवती मृगशीर
अनुरापा रेवती पुष्य
२०-१६ २०-२३
१३-१३
६-१७ ६-१६
पुष्य
अनुराधा मृगशीर रेवती मृगशीर अनुराधा मृगशीर
रेवती अनुराधा मृगशीर
२१-१६
७-१६
१४-१७
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प्रासादमण्डने
ग्रंश लाने का प्रकार
"तन्मूले ब्यमहर्म्यनामसहिते भक्ते त्रिभिस्त्वंशका,
स्यादिन्द्रो यमभूपती कमवशाद् देवे सुरेन्द्रो हितः। वेद्यामेष यमस्त पण्यभवने नागे तथा भैरवे,
राजांशो गजवाजियाननगरे राहो गृहे भन्दिरे ।।" राज०म०३ मूलराशि ( क्षेत्रफल ) में व्यय की संख्या और घरके नामाक्षर को संस्था ओढ़ करके उसमें तीन से भाग दें। जो एक शेष बचे तो इन्द्रांश, दो शेष बचे तो यमांश और तोन (शून्य) शेष बचे तो राजांश जानें । इन्द्र का अंश-देवालय और बेदी में शुभ है। यमका अंश-दुकान, नागदेव और भैरव के प्रासाद में शुभ है । राजा का अंश-गशाला, अश्वशाला, वाहन, नगर, राजमहल और साधारण घर में शुभ है । दिक साधन---
रात्रौ दिक्साधनं कुर्याद् दीपसूत्रध्रु वैक्यतः ।
समे भूमिप्रदेशे तु शङ्क ना दिवसेऽथवा ॥२३॥ घर और देवालय आदि बराबर वास्तविक दिशा में न होने से दिष्टः मुददोष माना जाता है । इसलिये ग्रह मादि बराबर ठीक दिशा में रखने के लिये दिक् साधन करना जरूरी है। रात्रि में दिशा का साधन दोप, सूत और ध्रव से किया जाता है और दिन में दिशा का साधन समवल भूमि के ऊपर शंकु रखकर किया जाता है ॥२३॥
"प्राची मेषतुलारवेरुदयतः स्याद् वैष्णवे वह्निमे, चित्रास्वातिभमध्यमा निगदिता प्राची बुधैः पञ्चधा । प्रासादं भवनं करोति नगरं दिड मूढमर्थक्षयं,
हर्षे देवगृहे पुरे च नितरामायुर्वनं दिड मुखे 1" राज०प्र०१ मेष और तुला संक्रान्ति को सूर्य का उदय पूर्व दिशा में होता है। श्रवण और कृत्तिका नक्षत्र का उदय पूर्व दिशा में होता है । चित्रा और स्वाति नक्षत्र के मध्य में पूर्व दिशा मानी जाती है । विद्वानों ने कहा है कि इस पांच प्रकार से पूर्व दिशा को जानें । प्रासाद गृह और नगर को दिङ मूढ करने से धन का नाश होता है। यदि ये वास्तविक दिशा में हो तो हमेशा प्राय और धन की वृद्धि होती है। रात्री में और दिन में दिकसाधन---
"तारे मार्कटिके ध्र वस्य समता नीतेऽवलम्बे नते,
चौपारण वदेषयतश्च कथिता सूत्र व सौम्या दिशा
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समा
प्रथमोऽध्यायः
Saatmsampens SHERBARASAUNLODimedies
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शङ्कोर्नेत्रगुणे तु मण्डलवरे छायाद्वयान्मत्स्ययोजर्जाता यत्र युतिस्तु शा, ललतो याम्योनरे स्तः स्फुटे ।"
राज० प्र० १ श्लो०११ रात्रि में दिक साधन--
सप्तर्षि और ध्रुव के बीच में एक गज के अन्तर वाले दो तारा है जो ध्रुब के चारों तरफ घूमते हैं उनको मार्कटिका कहते हैं । यह मार्कटिका और ध्रुव जब बराबर समसूत्र में ग्रावे, तम एक प्रवलंब लटकावें और उसके सामने दक्षिण की तरफ एक दीपक रखें। यदि दीपक का अन माग, अवलंब और ध्र व ये तीनों बराबर समसूत्र में दिखाई पड़े तो उसे उत्तर दिशा जाने । अवलंब और दीपक के सामसूत्र एक रेखा खींची जाय तो वह उत्तर दक्षिण रेखा होगी।
दिन में दिक्साधन करना हो तो समतल भूमि के उपर बत्तीस प्रमुल का एक गोल सक बनावे, उसके मध्य बिन्दु पर एक बारह गुल के नाप का शंकु रखें । पश्चात् दिन के पूर्वार्ध में देखें कि शंकुकी छाया गोल में जिस जगह प्रवेश करें, वहां एक चिह्न करें बह पश्चिम दिशा होगी और दिन के उत्तरार्ध में जहाँ वाहर निकलें वहां एक बिन्दु करें यह पूर्व दिशा होगी । पीछे पूर्व और पश्चिम को इन दोनों बिन्दुओं तक एक सरल रेखा खींची जाम तो यह पूर्व पश्चिम रेखा होगी, इसको व्यासाई मान करके दो गोल बनावें, जिसे एक मत्स्य के जैसी प्राकृति होगी, उसके ऊपर और नीचे के योग बिन्दु से एक सरल रेखा खींची जाय तो यह उत्तर दक्षिण रेखा होगों । देखो नीचे का दिवसाधन चक्र--- चक्र परिचय
बत्तीस अंगुल का इ उ ए' एक गोल है, उसका मध्य बिन्दु 'प्र' है । उसके. आर बारह अंगुल का एक शंकु रखकर दिन के पूर्वार्द्ध में देखा गया तो शकुकी छाया गोल के 'क' बिन्दु के पास प्रवेश करती है, यह पश्चिम दिशा जाने और दिनाद्ध के बाद 'च' बिन्दु के पास बाहर निकलती है। यह पूर्व दिशा आने । इन 'क' और 'च' दोनों बिन्दु तक एक सरल रेखा खींचो जाय तो यह पूर्व पश्चिम रेखा होती है । इसको व्यासार्द्ध मान कर 'क' बिन्दु से 'च छ ज और दूसरा 'च' बिन्दु से 'क ख ग ऐसे दो गोल बनावें तो पूर्व पश्चिम रेखा के अार एक मछली के जैसी प्राकृति हो जाती है । उसके मध्य बिन्दु 'अ' से एक सरल रेखा खींची जाय जो गोलके दोनों स्पर्श बिन्दु से बाहर निकल आय. यह उत्तर दक्षिण रेखा होती है ।
- उपरोक्त प्रकार से भी वास्तविक दिशा का ज्ञान नहीं होता, क्योकि अयनाश के कारण ध्रुब का सारा एवं कृसिकादिन ठीक दिशा में उदय नहीं होता। जिसे प्रामकल नवीन प्राविष्कार दिक साधन मंत्र (कुतुबनुमा) से करना चाहिये।
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प्रासाघमारने
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खात विधि
नागवास्तु समालोक्य कुर्यात् खातविधि' सुधीः ।
पाषाणान्तं जलान्तं वा ततः कूर्म निवेशयेत् ॥२४॥ प्रथम शेषनाग चक्र का विचार करके विज्ञान शिल्पी खात विधि करें। नींव को खोदने से भूमि में पाषाण अथवा पानी निकल आय, उसके ऊपर कर्म (कच्छुपा) की स्थापना करें। नागवास्तु--
___ "कन्यादौ रक्तिस्त्रये फणीमुखं पूर्वादि किमात्"
ऐसा राजवल्लभ मण्डन के अध्याय प्रथम श्लोक २२ में कहा है किकन्या, तुला और वृश्चिक राशि का सूर्य हो तब शेषमाग का मुख पूर्व दिशा में बन, मार कुम्भ राशि का सूर्य हो तब दक्षिण दिशा में; मोन, मेष और वृष राशि का सूर्य हो तब पश्चिम दिया में, मिथुन कर्क और सिंह राशि का सूर्य हो तब उत्तर में शेषनाग का मुख रहता है।
"पूर्वास्येऽनिलस्वातनं यममुखे खा शिवे कारये
च्छीर्षे पश्चिममे च वह्नि खननं सौम्ये सनेनैऋते ॥" ऐसा राजवल्लभ मण्डन के अध्याय प्रथम श्लोक २४ में कहा है कि-पोषनाग का मुस पूर्व दिशा में हो तो वायुकोण में, दक्षिण दिशा में हो तो ईशान कोण में, पश्चिम दिशा में हो तो मग्निकोण में और उत्तर दिशा में हो तो नैऋत्य कोण में बात करना चाहिये । (१) वास्तुविधि
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चार वा सुविधासागर जी महाराज
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Ramaintenslimmittalpanesenionisatisticomporanikavipoems
प्राग्रीवं मंडप वाला नागर जाति का निरंधार प्रासाद
खजुराहो (मध्यप्रदेश)
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RRENESS
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लता शृंगवाला बिमान नागर जाति का प्रासाद (पीठ मंडोवर और शिखर का
रावा पूर्ण दृश्य) - उदयपुर - मेवाड़
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प्रथमोऽध्याय
..ज्योतिष शास्त्र के मुहूर्त प्रन्थों में अन्य प्रकार से कहा है। मुहर्स मिसामरिण के वास्तु प्रकरण श्लोक १६ को टोका में विश्वकर्मा का प्रमाण देकर लिखा है कि
शामतः सहि काला, यि रसपेट् विदिक्षुः ।
शेषस्य बास्तोसमध्यधुच्छ, त्रयं परित्यज्म सनेच सुर्यम् ।" शेषनाग प्रथम ईशामकोण से चलता है, उसका मुख्य नाभि और पूछ सष्टिमार्ग को छोड़कर विपरीत विदिशा में रहता है । अर्थात् ईशान में मुख, कायुकोण में नाभि और नैऋत्य कोरा में पूछ रहता है । इसलिये इन तीनों विदिशात्रों को छोड़कर चोथा निकोण खाली रहता है, उसमें प्रथम खात करना चाहिये। राहु (नाग) मुल----
"देवालमे गेहविधी जलाधये, राहोर्मुखं शम्भुदिशो दिलोमतः । मीमा सिंहाई मृगार्क सस्त्रिभे, लाते मुखात् पृष्ठविदिकशुभाभवेत् ।।"
देवालय का खात मुहूर्त करते समय राह का मुम्ब यदि मीन, मेष और वृषभ राशि का सूर्य हो तब ईशान कोण में, मिथुन, कर्क और सिंह राशि का सूर्य हो तर वायुकोण में, कन्या तुला और वृश्चिक राशि का सूर्य हो तब नैऋत्यकोण में, धन, मकर और कुम्भ राशि का सूर्य हो तब अग्निकोण में, राहु का मुख रहता है ।
घरके सात मुहूर्त के समय नाग का मुख सिंह कन्या भोर सुला राशि के सूर्य में ईशान कोण में, वृक्षिक धन और मकर राशि के सूर्य में वायुकोण में, कुम्भ मीन और मेषराशि के सूर्य में नैऋत्यकोरण में, वृष मिथुन और कर्क राशि के सूर्य में अग्निकोण में राहु का मुख रहता है।
कुमा, बागडी, तालाब आदि जलाश्रयको प्रारंभ मदते समय राह पमुख मकर कुम्भ और मीन राशि के सूर्य में ईशान कोण में, मेष योर बिजुन राशि के पूर्व में वायुकोस में, कर्क सिंह और कन्या राशि के सूर्म में नैऋत्यकोख में, तुमा पश्चिक और मन राखी के पूर्व में मग्निकोण में राहु का मुख रहता है। .
जिस विदिशा में राहु का मुख हो, उसके पीछे को विदिशा में सात करमा शुभ है। जैसे-ईशान कोण में मुखको अग्निकोण में, मामुकोण में मुल हो तो ईशानकोण में, नेय कोण में मुसा तो वायुकोण में और अग्निकोण में मुख हो तो मत्य कोण में खात करना शुभ है।
.राहमुलाने नाममुख पा पास्तुमुल इसमें बहुत पवार । कोई टिम और कोई निमोम काम से भो ! free बाने के लिए देखें सारा मनुवादित राजबल्दा मरन अंथ'।
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प्रासावमएडने
कूर्ममान
अर्धाङ्ग लो भवेत् कूर्म एकहस्ते सुरालये । अर्धाङ्ग ला ततो वृद्धिः कार्या तिषिरावधि ॥२५॥ एकत्रिंशत्करान्तं च तदर्धा वृद्धिरिष्यते ।।
ततोऽर्धापि शतार्धान्तं कूमो. मन्वङ्ग लोतमः ॥२६॥ एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद में प्राधे अंगुल के नाप का धर्म ( कच्छूपा ) नींव में स्थापित करें । दोसे पंद्रह हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाम प्राधा २ अंगुल बढ़ा करके, ( दो हाथ के प्रासाद में एक अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद में द अगुल, चार हाथ के प्रासाद में दो अंगुल, इस प्रकार प्राधा २ अंगुल बनाने से पंद्रह हाथ के प्रासाद में साढ़े सात अंगुल के मान का कम होता है ) । सोलह से इकतीस हाथ के विस्तार वाले प्रासाद में प्रत्येक हाद पाव २ गुः पढ़ा करके और तीर में पका हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाय एक २ सूत बढ़ा करके नौंव में स्थापित करें। इस प्रकार पचास हाय के विस्तार वाले प्रासाद में एक सूत कम चौदह अंगुल के मान का कूर्म होता है ॥२५-२६।। अपराजितपच्छा के मत से कूर्ममान
"एकहस्ते सुरागारे कूर्मः स्वास्चतुरङ्ग लः । अर्धाङ्ग ला भवेद् वृद्धिः प्रतिहस्तं दशावधिः॥ पादवृद्धिः पुनः कुर्याद् विवातिहस्ततः करे । ऊर्य वै त्रिशद्धस्तान्तं वसुहस्तकमङ्गलम् ।। ततः परं शतान्ति सूर्यहस्तकमङ्ग लम् ।
अनेन क्रमयोगेन मन्वङ्गलः शतार्धके ।।" सूत्र ५२ एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद में कूर्म चार अंगुल के मान का. दोसे दस हाथ के . प्रासाद में प्रत्येक हाय प्राधा २ अंगुल बढ़ा कर के, ग्यारह से वीस हाथ के प्रासाद में प्रत्येक हाथ पाव २ घंगुल बढ़ा करके, इक्कीस से तीस हाथ के प्रासाद में प्रलोक हाथ एक २ सूत बढ़ा कर के और इकतीस से पचास हाथ के प्रासाद में प्रत्येक हाथ अंगुल रवा कर के बना । इस प्रकार पचास हाय के प्रासाद में लगभग चौदह अंगुल के मान का फर्म होता है । अपराजितपुच्छाके मत से दूसरा कर्ममान
"एकहस्ते तु प्रासादे कुर्मश्चाङ्ग लः स्मृतः । प्रद्धवृद्धि; प्रकरीया पश्चदशहस्तावधिः ॥ एकविंशच हस्तान्तं पादवृद्धिः प्रकीतिता। तवर्षेन पुनदि-न्यङ्गलः शतार्षके ।।" सूत्र १५३
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प्रथमोऽध्यायः
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एक हाय के प्रासाद में कूर्म प्राधा अंगुल का, दोसे पंद्रह हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाथ प्राधा २ अंगुल बढ़ा करके, सोलह से एकत्तीस हाय के प्रासाद में प्रत्येक हाथ पाव २ अंगुल बढ़ा करके, और बत्तीस से पचास हाय के प्रासाद में प्रत्येक हाथ एक २ सूत बढ़ा करके बनावें । इस प्रकार पचास हाम के प्रासाद में एक भूत कम चौदह अंगुल के मान का कूर्म होता है । मोरार्णव के मत से कर्ममान-- _ विलाय. परांश
कामद। सालङ्कारसंयुक्तं दिव्यपुष्पैश्च पूजितम् ॥" अध्याय १०१ भारणी शिला के पांचवें भाग का कर्म बनायें, यह उत्तम मान है । उसको सब प्रकार के अलंकारो से युक्त करें और सुगंधित पुष्पों से पूजित करें। कूर्म का ज्येष्ठ और कनिष्ठ मान
कोशाधिको ज्येष्ठः कनिष्ठो हीनयोगतः । सौवर्णो रूप्यजो वापि नाप्यः पञ्चामृतेन स ॥२७॥
सिलवस्तथा होम-पूर्णां चैव प्रदापयेत् । कर्मका जो मान भाया हो, वह मध्यम मान है, उसमें इस मान का चौथा भाम बढ़ावे सो उमेष्ठ मानका और चौथा भाग कम करें तो कनिष्ठ मानका कूर्म होता है। यह कूर्म सुवर्ण प्रभवा चांदी का बनाना चाहिये । उसको पञ्चामृत से स्नान कराके, तथा तिल और जवों का पूर्ण पाहुति पूर्वक होम करके स्थापित करें ॥२७॥ शिला और कूर्म का स्थापन कम
ईशानादग्निकोणादा शिलाः स्थाप्याः प्रदक्षिणाः ॥२८॥ मध्ये सर्मशीला पश्चाद् गीतबादित्रमङ्गलै। बलिदानं च नैवेद्य विविधान्न धूतप्लुतम् ।। देवताभ्यः सुधीर्दयात् कूर्मन्यासे शिलासु च ॥२६॥
इति कर्म स्थापनम् । प्रथम ईशान अथवा अग्नि कोने में नंदा शिला की स्थापना करके पीछे प्रदक्षिण कम से अन्य शिलामों को स्थापित करें। पीछे मध्य में कूर्म शिला (धारणी शिला) को स्थापित करें। शिला स्थापन करते समय मांगलिक गीत और वाजींत्रों का नाद करावें । वास्तु के देवों को बलि नाकुले, नेवैद्य और भनेक प्रकार के धान्य के घृत से पूर्ण मालपूवे अादि चढ़ावें ॥२-२६।। प्रा०३
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१८
पुनः शिला स्थापन क्रम
"नन्दां पुरः प्रदातव्यः शिलाः शेषाः प्रदक्षिणे ।
मध्ये व धरणीं स्थाप्या यथाक्रमं प्रयत्नतः ।" क्षीरावे अध्य० १०१
प्रथम नन्दा नाम की शिला को स्थापित करें, पीछे अनुक्रम से भद्रा प्रादि शिलाओंों को प्रदक्षिण क्रम से स्थापित करें और मध्य में धरणी शिला को स्थापत करें | ऐसा क्षोराव ग्रंथ में
कहा है ।
शिला के नाम --
"नन्दा भद्रा या रिक्का प्रजिता चापराि शुक्ला सोभागिनी चैव धरणी नवमी शिक्षा
अपराजित मत से शिला के नाम
नन्दा, भद्रा, जया, रिक्का, भजिता, अपराजिता, शुक्ला और
अनुकम
दो दिशामों की पाठ शिलाम्रों के नाम हैं । नववीं धरणी नाम की शिला मध्य भाग को है ।
"नन्दा भद्रा क्या पूर्णा विजया पश्चमी शिक्षा मङ्गला हाजितापराजिता च वरणोभयाः ॥*
प्रासादम
धरणी शिला का मान
नन्दा, भद्रा, जया, पूर्णा, विजया, मंगला, प्रजिता, अपराजिता, में श्रमुकम से दिशाओं की शिला के नाम है और मध्य भाग की नववीं धरणी नाम की शिला है।
"एक हस्ते तु प्रासादे शिला वेदाङ्गुला भवेत्
गुला च भवेद् वृद्धि-र्यावच्च दशहस्तकम् || दशो विशपर्यन्तं हरते हस्ते चेाता । श्रर्द्धाङ्गुला भवेद् वृद्धि-त्याशस्तकम् ॥ तृतीयांशे कृते पिण्डे तदर्थे रूपपातकम् 1 पुण्याणि च यथाकार शिलामध्ये हालंकृत
०१०१
एक हाथ के प्रासाद में चार अंगुल की शिला, दोसे दस हाथ हाथ दो २ अंगुल बढ़ा करके, ग्यारह से बीस हाथ तक के प्रासाद में और इक्कीस से पचास हाथ तक के प्रासाद में आधा २ अंगुल बढ़ा कर प्रकार पचास हाथ के प्रासाद में ४७ अंगुल के मान को समबोरस
२० १०१
"शाबाद में प्रत्येक
अंगुल कड़ा करके,
करें। इस शिला होती है।
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3
reasure
शिला का जो समचोरस मान धावे, उसके तीसरे भाग का पिंड (मोटाई) रक्खें। पिंड के माघे भाग में जिला के ऊपर रूपों बनावें । तथा पुष्पकी प्राकृति बनायें ।
ज्ञान प्रकाश दोषार्थय के मत से धरणी शिला का मान
"एकहस्ते तु प्रासादे शिला वेदाङ्गुला भवेत् । पतंगुला द्विहस्ते तु विहस्ते ग्रहसंख्यया ॥ arentsगुलं शिलामानं प्रासादे चतुर्हस्तके | तृतीयः कार्यो हस्ताद्याद् वेदहस्तकम् || चतुर्हस्तादितः कृत्वा यावद् द्वादशहस्तकम् । पाला व वृद्धिर्हस्ते हस्ते च दापयेत् ॥ सूर्यादितः कृत्वा यावच जिनहस्तकम् ।
लाभवेद् वृद्धिरुच्छ्रये तु नवाङ्गुला ॥ afe कृत्वा यावत् बटुवा हस्तकम् । पादमाला च वृद्धिः पिण्डं च द्वादशाङ्गुलम् 11 पादित कृत्वा यावत् पचाशद्धस्तकम् । एकला भवेद दृद्धिः पिण्डं च द्वादशाङ्गुलम् ||" प्र० ११
एक हाथ के प्रसाद में शिला का मान चार अंगुल दो हाथ में छः मंगुल, तीन हाथ में नव अंगुल और बार हाथ के प्रासाद में बारह अंगुल जिला का मान है। एक से चार हाथ तक केस में शिला का जो
मान आये, उनके तीसरे भाग शिला की मोटाई रखे पांच से बारह हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाथ पौत्र अंगुल बढ़ाकर के तेरह से चोबीस हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाब प्राधा २ अंगुल बढ़ा करके बनायें पांच से चौबीस हाथ तक के प्रासाद में शिला का ओ मान प्रावे उसकी मोटाई नव अंकुल की रक्खें । पचीस से इसोस हाम तक पोन २
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प्रासादमरखने
अंक और ती पाह त्ये क हाथ एक अंगुल बढ़ा करके बनाये । उसकी मोटाई बारह अंगुल की रक्खें। इस प्रकार समचोरस शिला का कुल माम ४७ अंगुल का होता है। अपराजित मत से धारणी शिला का मान
"नबत्यङ्गुल दैर्थे च पृथुत्वे चतुर्विंशतिः ।
द्वादशाङ्गुलपिण्डं च शिलामानप्रमागतः ।।" सूत्र ४७ श्लो० १६ नचे अंगुल लंबी, चौवीस अंगुल चौड़ी और बारह अंगुल मोटी, यह धरणी शिला का मान जाने।
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दूसरा मत
"एकहस्ते च प्रासादे शिला वेदाङ्गुला भवेत् । षडंगुला विहस्ते च त्रिहस्ते व महाउगुला ॥ चतुर्हस्ते च प्रासादे मिला स्याद् द्वादशाङ्गुला। तृतीयांशोदयः कार्यों हस्तादौ च युगान्ततः ॥ ततोऽपरेऽस्तान्तं वृद्धिस्थ्यङ्गगुलतो भवेत् । पुन अनुलतो वृद्धिः पश्चाद्धस्तकावधि ॥
पादेन चोच्छिता शस्ता तां कुर्यात् पङ्कजान्विताम !!" सुत्र १५३ एक हाथ के प्रासाद में चार अंगुल को, दो हाप के प्रासाद में छह अंगुल को, तीन हाय के प्रासाद में नव अंगुल को और चार हाथ के प्रासाद में बारह अंगुल को समचौरस धरणो शिला स्यापन करना चाहिए। चार हाथ तक के प्रासाद के लिये धरणी शिला का ओ मान माया हो, उसके तीसरे भाग शिला को मोटाई रखना चाहिये। पांच से पाठ हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाथ तीन तीन अंगुल और नव से पचास हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाय दो दो अंगुल बढ़ा करके बनाये । इस प्रकार पचास हाथ तक के विस्तार वाले प्रासाद के लिये १०८ अंगुल के मान की धरणी शिला होती हैं। वह चौथे भाग मोटो रक्खें और कमल की प्राकृतियों से शोभायमान बनायें। धरणी शिला अपर के रूप-----
"लहरं मत्स्यं मबहूकं मकरी मासमेव । जलं सर्प शंखयुक्तं शिलामध्ये ह्यलकृतम् । भोरा०प० १०१
.........
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प्रथमोऽध्याय
पानी की लहर, मछली, मेंढक, मगर, ग्रास, अल (कलश) सर्प शंख इत्यादि रूप बना करके शिला को सुशोभित करना चाहिये।
धर्मशिला के रूपों के संबंध में सूत्रधार वीरपाल विरचित बेडाया प्रासाद तिलक प्रय का प्रध्याय दूसरे में लीसा है कि -
"कर्ममानमिदं च गर्भरवनाथाग्नी शिलायां अलम्,
पाम्ये मीनमुखं व नैऋतदिशि स्थाप्यं तथा दरम् । पारमा माश्य बायुविशि वै ग्रासश्च सौम्ये ध्वनिः,
नागं सकरदिशु पूर्वविषये कुम्भः शिलावह्नितः ।।" कूर्म के मान को गर्भ रचना कहता है कि--अग्निकोण में पारणी की लहर, दक्षिण में माछली. नैऋत्य में मेंडक, पश्चिम में मगर, वायुकोण में ग्रास, उत्तर में शंख, ईशान में सर्प .." और पूर्व दिशा में कुम्भ की प्राकृतियां बनानी चाहिये ।
शिल्पियों को मान्यता बंश परंपरा से लहर को प्राकृति पूर्व दिशा में बनाने की हैं। सूत्रारंभ नक्षत्र--
सूत्रारम्भो गृहादीना-पुत्तरायां करनये ।
बाको पुष्ये मृगे मैश्वे पोण्ये बापवबाहरणे ॥३०॥ प्रासाद और गृह प्रादि का प्रारंभ तीनों उत्तरा ( उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषादा और उत्तराभादपद), हस्त, चित्रा, स्वाति, रोहिणी, पुष्प, मृगशीर्ष, अनुराधा, रेवतो, धनिष्ठा और शतभिषा इन नक्षत्रों में करना चाहिये ।।३० शिला स्थापन क्षत्र
शिलान्यासस्तु रोहिण्यां अक्से इस्तषुष्ययोः ।
मृगशीर्षे च रेवत्या-मुत्तरात्रिखये शुभः ॥३१॥ रोहिणी, श्रवण, हस्त, पुष्य, मृगशीर, रेवती और लोनों उत्तरा इन नक्षत्रों में शिलाको स्थापना करना शुभ है ।।३।। देवालय का निर्माणस्थान--
नो सिद्धाश्रमे तीर्थे पुरे ग्रामे च गरे । वापी-बाटी-तडागादि-स्थाने कार्य सुरालयम् ।।३२।।
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२२
प्रासादमण्डने
नदी के तट, सिद्ध पुरुषों के निर्वाण स्थान, तीर्थभूमि, शहर गांव, पर्वत की गुफाओं में, बाबडी, वाटिका (उपवन) और तालाब आदि पवित्र स्थानों में देवालय बनाना चाहिये ॥३२॥ प्रासाद निर्माण पदार्थ
स्वशक्त्या काष्टमृदिष्ट-का शैलधातुरनजम् ।
देवतायतनं कुर्याद् धर्मार्थकाममोक्षदम् ॥३३॥ अपनी शक्ति के अनुसार काठ, मिट्टी, ईट, पाषाण, सुवर्ण आदि धातुओं और रत्न, इन पदार्थों का देवालय बनाना चाहिये। किसी भी पदार्थ का देवालय बनाने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है ।।३३।। देव स्थापन का फल---
देवानां स्थापनं पूजा पापघ्नं दर्शनादिकम् ।
धर्मपृद्धिर्भवेदर्थः कामो मोक्षस्ततो नृणाम् ॥३४॥ देवों को स्थापना, पूजा और दर्शन करने से मनुष्यों के सब पापों का नाश होता हैं तथा धर्म की वृद्धि, एवं अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥१४॥ देवालय बनाने का फल
कोटिनं तृणजे पुण्यं मृन्मये दशसगुणम् । .
ऐटके शतकोटिघ्नं शैलेऽनन्तं फलं स्मृतम् ॥३५॥ देवालय घास का बनाने से कोटिगुणा, मिट्टी का बनाने से दस कोटिगुणा, ईटों का बनाने से सौकोटिगुरणा और पाषाण का बनाने से प्रतन्त गुणा फल होता है ।।३५।। वास्तु पूजा का सप्त स्थान----
कूर्मसंस्थापने द्वारे यमाख्यायां च पौरुपे ।
घटे बजे प्रतिष्ठाया-मेवं पुण्याहसप्तकम् ॥३६॥ कूर्म की स्थापना कार स्थापन, पशिला की स्थापना, प्रासाद पुरुष को स्थापना, कलश और ध्वजा चढाना, और देव इतिष्ठा, ये सात कार्य करते समय वास्तु पूजन अवश्य करना चाहिये । यह पुण्याहसप्तक कहा जाता है ।।३६।।
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प्रथमोऽध्यायः
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शान्तिपूजा का चौवह स्थान----
भून्यार मे सा में शिकायो धपातने । खुरे द्वारोच्छ ये स्तम्मे पढे पशिलासु च ॥३७॥ शुकनासे च पुरुष घण्टायां कलशे तथा ।
ध्वजोच्छ ये च कुर्वीत शान्तिकानि चतुर्दश ।।३।। भूमिका प्रारंभ. कूर्म न्यास, शिला न्यास और सूत्रपात ( ललनिर्माण ), स्युर शिला स्थापन, द्वार और स्तंभ स्थापन, पाट चढ़ाते समय, पशिला, शुकनास और प्रासाद पुरुष के रखते समय, मामलसार, कलश चढ़ाना, और वजा चढ़ाना, ये चौदह कार्य करते समय शान्तिपूजा अवश्य करनी चाहिये ॥३-३८|| प्रासाव का प्रमाण
एक हस्तादिप्रासादाद् यावद्धस्तशतापकम् ।।
प्रमाणं कुम्भके मूल-नासिके भितिशयतः ॥३६।। एक हाथ से पचास हाथ तक के विस्तार वाले प्रासाद का प्रमाण दीवार के बाहर कु भा के मूलनासक ( कोणा ) तक गिना जाता है ।।३।। मण्डोवर के थरों का निर्गम
कुम्भादिस्थावराणां च निर्गमः समसूत्रतः ।
पीठस्य निर्गमो बाध तथैव बाधकस्य च ॥१०॥ कुम्भा से लेकर छज्जा के तल भाग तक जितने थर बनाये जायं, ये सब घरों के निर्गम समसूत्र में रखने चाहिये । तथा पीठ और छज्जा का निर्गम घरों के आगे निकलता हुआ रखना पाहिये ।।४।। प्रासाद के अंगों की संख्या--
त्रिपञ्चसप्तनवाभिः फालनाभिर्विभाजिते ।
___प्रासादस्याङ्गसंख्या च बारिमार्गान्तर स्थितिः ॥४१॥ कर्ण, प्रतिकणं और नन्दी प्रादि फालनायें तीन, पांच, सात अथवा नव संरूमा तक की जाती है, ये प्रासाद की अंग संख्या है । उन्हें वारिमार्ग के अंतराल में (प्रासाद की दीवार से बाहर निकलली) रखना चाहिये ॥४॥
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प्रासावमाडने
फलनामों का सामान्य मान
फालना कर्णतुल्या स्यात् भद्रं तु द्विगुणं मतम् ।
सामान्योऽयं विधिस्तुल्यो हस्ताङ गुलविनिर्गमः ॥४२॥ इति श्री सूत्रधारमण्डनविरचिते प्रासादमण्डने वास्तुशास्त्रे
मिश्रलयको नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ सब फालनायें कोने के मान के बराबर रखनी चाहिये भोर भद्र कोने से दुगुना रखना चाहिये, ऐसा सामान्य नियम है । ये सब फालनायें प्रासाद का जितने हाथ का विस्तार हो उतने अंगुल निकलती रखनी चाहिये ॥४२॥
इति श्रीपंक्ति भगवानदास जैन द्वारा अनुवादित प्रासादमण्डन के मिश्रलक्षण नाम के प्रथमाध्याय की सुबोधिनी नाम की भाषाटीका समाप्त ||१||
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अथ प्रासादमण्डने द्वितीयोऽध्यायः
जगतीविश्वकर्मोवाच
प्रासादानामधिष्ठानं जगती सा निगद्यते ।
यथा सिंहासनं राज्ञः प्रासादस्य तथैव सा ॥१॥ प्रासाय की मर्यादित भूमि को अगती कहते हैं। जैसे-राजा का सिंहासन रखने के लिये अमुक स्थान मर्यादित रखा जाता है, वैसे प्रासाद बनाने के लिये प्रमुक भूमि मर्यादित रक्खी जाती है ॥१॥ अपराजितपृच्छा के सूत्र ११५ में श्लोक ५ में लोखा हैं कि
__ "प्रासादो लिङ्गमित्युक्तो जगती पीठमेव च ॥" प्रासाद शिवलिङ्गका स्वरूप है। जैसे शिवलिङ्ग के चारों तरफ पीठिका है, वैसे ही प्रासाद के जगतीरूप पीठिका है। जगती का प्राकार
चतुरस्त्रायसाष्टासा वृत्ता वृत्तायता तथा ।
अगती पञ्चधा प्रोक्ता प्रासादस्यानुरूपतः ॥२॥ समचोरस, लंब चोरस, पाठ कोने वाली, गोल और लंबगोल, ऐसे पांच भाकार वासी जगतो हैं। उनमें से प्रासाद का जैसा आकार हो, वैसी जगती बनानी चाहिये ॥२॥ जगती का विस्तार मान
प्रासादपृथुमानाथ त्रिगुणा च चतुगुणा ।
क्रमात् पञ्चगुणा प्रोक्ता ज्येष्ठा मध्या कनिष्ठिका ।।३।। प्रासाद के विस्तार के मान से तीन गुरणी, चार गुणी अथवा पांच गुणी अगती बनानी चाहिये । उनमें तीनगुणी ज्येष्ठमान की, चार गणो मध्यममान को और पांच गुणी कनिष्ठ मान को अगली समझनी चाहिये ।।३।।
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प्रासादमहलने
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अपराजितपृच्छा सू० ११५ में भी कहा है कि
"प्रासादपृथुमानेन द्वि (त्रि ? ) गुणा चोत्तमा तया ।
मध्यमा चतुर्गणा याघमा एञ्चगुणोच्यते ॥" प्रासाद के विस्तार से दुगुनी हो तो उत्तम, चार गुनी हो तो मध्यम और पांच गुनी हो तो कनिष्ठ मान की अगती कही जाती है।
कनिष्ठे' ज्येष्ठा कनिष्ठा ज्येष्ठे मध्ये च मध्यमा।
प्रासादे जगती कार्या स्वरूपा लक्षणाधिता ॥४|| कनिष्ठ मान के प्रासाद में ज्येष्ठमान को जमती, मध्यम माम के प्रासाद में मध्यम मान को, और ज्येष्ठमान के प्रासाद में कनिष्ठ मान को जगती प्रासाद के स्वरूप के लक्षण वाली बनानी । अर्थात् जिस प्रकार का प्रासाद हो, उसी प्रकार की जगती बनानी चाहिये ॥४॥ अपराजितपच्छा में भी लिखा है कि
"उवा कनिष्टप्रासादे मध्यमे मध्यमा तथा ।
ज्येष्ठे कनिष्ठा व्याख्याता जगतो मानसंख्यया ॥" सूत्र० ११५ कनिष्ठमान के प्रासाद में ज्येष्ठमान की, मध्यममान के प्रासाद में मध्यममान को और हमाम के प्रासाद में कनिष्ठ मान को जगती रखनी चाहिये।
रससप्तगुणाख्याता जिने पर्यायसंस्थिते । "
द्वारिकायां च कर्तव्या तथैव पुरुषत्रये ।।शा चकल्याणक (च्यवन, जन्म, दीक्षा, शान और मोक्ष ) वाले अथवा देवकुलिका वाले दिन प्रासाद में, द्वारिका प्रासाद में और त्रिपुरुष (ब्रह्मा, विष्णु और शिक्षक के प्रासाद में बहाली अथवा सास गुणी जगती रखनी चाहिये ।। मण्डप को जगती
मण्डपानुक्रमेणैव सपादांशेन साधतः । .....
द्विगुणा वायता कार्या सहस्रायतने विधिः ॥६॥ ___ मंडप के अनुक्रम से सतायो, डेढ़ी अथवा दुगुनी लंबी अगती करनी चाहिये । हजारों प्रासादों में यही विधि है ॥६॥ (१) कन्यसे कन्यमा ज्येष्ठा", मुद्रित पुस्तकद्वये । (२) 'स्वहस्तायतने' ।
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द्वितीयोऽध्याय
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भ्रमणी ( परीक्रमा )
त्रिद्वय कश्रमसंयुका ज्येष्ठा मध्या कनिष्ठिका' ।
उच्छायस्य त्रिभागेन भूमणीनां समुच्छ्रयः ॥७॥ जगती में तीन भ्रमणो ( परिक्रमा )हो तो ज्येष्ठा, दो भ्रमणी हो तो मध्यमा और एक अमणी हो तो कनिष्ठा जगतो कहा जाता है। यह भ्रमणो की ऊंचाई जगतो की ऊंचाई के तीसरे २ भाग को होनी चाहिये ॥७॥
"कनिष्ठे भ्रमणी चैका मध्यमे भ्रमणीद्वयम् ।
ज्येष्ठे तिस्रो भ्रमण्यश्व साङ्गोपातिकसङ्खचया ॥" मप० सूत्र० ११५ ___ कनिष्ठ मासाद हो तो एक प्रमणी, मध्यम प्रासाद हो तो दो भ्रमणी, और ज्येष्ठ प्रातार हो तो तीन भ्रमणी अपने अंगोपांग वाली बनानी चाहिये। जगती के कोने
चतुष्कोणस्तथा सूर्य-कौगोविंशतिकोणकैः ।
अष्टाविंशति-पत्रिंशत्-कोणः स्युः पञ्च फालना ll चार कोने वाली, बारह कोने वाली, बोस कोने बाली, अट्ठाईस कोने वाली और छत्तीस कोने वाली, ये पांच प्रकार के कोने वाली जगती हैं ॥८॥ जगती की ऊंचाई का मान
प्रासादाहिस्तान्ते त्र्यंशा द्वाविंशतिकरे ।
द्वात्रिंशे चतुर्थाशा. भूतांशीचा शताबू के ll __एक से बारह हाय के विस्तार वाले प्रासाद की जगती प्रासाद के अर्ध भाग की ऊंची नमा । तेरह से माईस हाय के विस्तार वाले प्रासाद की अगती प्रासाद के तीसरे भाग की सेईस से बसीख हाथ के विस्तार वाले प्रसाद की अगती चौथे भाग की, और सेतोस से पास हाय के प्रासाद की जगती पांचवें भाग की ऊंची बनानी चाहिये III
एकहस्ते करेणोचा साईद्वयं शाश्चतुष्करे । सूर्यजेनरावार्थान्तं क्रमाद् द्वित्रियुगांशकः ॥१०॥
(१) कनीयसी'।
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प्रासादमण्डने
एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद की अगती एक हाथ, दो हाथ के प्रासाद की अगती डेन हाथ, तीन हाथ के प्रासाद की जगती दो हाथ, चार हाथ के प्रासाद की जगती ढाई हाथ ऊंची बनायें। पीछे पांच से बारह हाथ तक के प्रासाद को जगती दूसरे भाग की अर्थात् प्रासाद से प्राघी, तेरह से चौबीस हाथ के प्रासाद की जगतो तीसरे भाग और पचीस से पचास हाथ तक के प्रासाद को अगसी चौथे भाग जितनी ऊंथी बनावें ॥१०॥
(यह अपराजितपृच्छा का मत है। देखें सूत्र ११५ श्लोक २३ से २६ ) जगती के उवय का थर मान
सहच्छ्यं भजेत् प्राश-स्त्वष्टाविंशतिभिः पदैः । त्रिपदो जायकुम्भरच द्विपदं कर्षकं तथा ॥११॥ पनपत्रसमायुक्ता त्रिपदा शिरःपत्रिका' । द्विपदं खुरकं कुर्यात् सप्तमागं च कुम्भकम् ॥१२॥ कलशस्त्रिपदः प्रोक्तो भागेनान्तरपत्रकम् । कपोसालिस्त्रिभागा च पुष्पकण्ठो युगांशकः ॥१३॥ पुप्पकाज्जाधकुम्भस्य निर्गमश्चाष्टभिः पदः ।
कर्णेषु च दिपाला प्राध्यादिषु प्रदक्षिणाः ॥१४॥ जगती के उदय के अट्ठाईस भाग करें। उनमें से लीन भाग का जाडधकुम्भ, यो । को करिणका ( करगो), सीन भाम का पपपत्र (दासा) सहित ग्रासपट्टी, दो भाग का खुरा, सात भाग का कुम्भ, तीन भाग का कलश, एक भाग का अंतरपत्र, तीन भाग की कपोताली (केवाल ) और पार भाग का पुष्पकंठ बनावें । पुष्पकंठ से जाजयकुम्भ का निर्गम माठ भाग रखें 1 अगती के कोने में पूर्वादि सष्टि क्रम से दिक्पालों को स्थापित करना चाहिये ॥११ से १४॥ जगती के प्राभूषण---
प्राकारैर्मण्डिता कार्या चतुर्भिारमण्डपः ।
मरैर्जलनिकासः सोपानस्तोरणादिभिः ॥१५॥ जगतो को किलों से शोभायमान करें, अर्थात् जगतो के चारों तरफ किला बनावें । तथा पारों दिशाओं में मण्डप बाले चार द्वार बनावें । पानी निकलने के लिये मगर के मुख वाली नाली रक्खें । एवं सीढियां और तोरणों से शोभायमान जगती मनायें ।।१५।। (1) शीर्षपत्रिका
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द्वितीयोऽध्यायः
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जगती का द्वार और द्वार मेडप तथा जगती के ऊपर प्रासाद की महापीठ
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जगतो का उदय और उसके घरों का दिग्दर्शननाभनयमाप
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३०
मण्डप प्रतोय सोपानं शुण्डिकाकृतिम् । तोरणं कारयेत् तस्य पदपदानुसारतः ||१६||
मण्डप के आगे और प्रतोली पोल ) के धागे सीढियां बनावें, इसके दोनों तरफ हाथी की प्राकृति रखें। प्रत्येक पद के अनुसार तोरण बनायें ||१६||
तोरणस्योभयस्तम्भ - विस्तरं गर्भमानतः । भित्तिगमप्रमाणेन सममानेन वा भवेत् ||१७||
सोर के दोनों स्तंभ के मध्य का विस्तार प्रासाद के गर्भगृह के मान से, अथवा दीवार के गर्भमान से, प्रथवा प्रासाद के मान से रखा जाता है ||१७||
वेदिका पीठरूपा च शोभाभिर्बहुभिषुता । विचित्र तोरणं कुर्याद् दोला देवस्य तत्र च ॥ १८ ॥
प्रासादमण्डने
यह जगतीरूप वेदिका प्रासाद की पीरूप है, इसलिये इसे अनेक प्रकार के रूपों तथा तोरणों से शोभायमान बनाना चाहिये । तोरणों के फूलों में देवों की प्राकृतियां बनायें ||१८||
देवके वाहन का स्थान
प्रासादाद्वाहनस्थाने करणीया चतुष्किका | एकद्वित्रिचतुः पञ्च रससप्तपदान्तरे
॥१६॥
देवों के वाहन रहने के स्थान पर चीकी बनावें । यह चौको प्रासाद से एक, दो, तीन, चार, पांच, छह अथवा साल पद जितनी दूर बनायें ||१६||
देवके वाहन का उदय
या नवांशे तु षट्सप्त मानिकः । झनामिस्वनान्तं वा त्रिविधो वाहनोंदयः ||२०||
मूस के उदय का नव भाग करें। उनमें से पांच छह अथवा सात भाग के मान का बाहन का उदय रखें। प्रथवा गुह्य, नाभि यह स्तन पर्यन्त वाहन का उदय एक्सें मे तीन २ प्रकार के वाहन का उदय कहा गया है ||२०|
(१) 'त्रिविधं कुर्यात् (२) 'पट्ट' पट्टानुसारतः' (1) 'लयोमध्येऽयथा ममेद' (४) 'मानवमा '
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द्वितीयोऽध्याय
देवके वाहन का दृष्टिस्थान-
पाई जानु कटिं यावदर्भाया वाहनस्य दृक् ।
वृषस्य विष्णुभागान्ते सूर्ये व्योमस्तनान्तकम् ॥ २१ ॥
मूर्ति के चरण, जानु अथवा कमर पर्यन्त ऊंचाई में वाहन की दृष्टि रखनी चाहिये । वृषभ (नदी) की दृष्टि शिवलिंग के विष्णु भाग तक और सूर्य के वाहन ( घोटा ) की दृष्टि मूर्ति के स्तनभाग तक रखनी चाहिये ||२१||
अपराजितवृच्छा में कहा है कि
——
"वृषस्य चोच्छ्रयः कार्यो विष्णुभागान्तदृष्टिकः ॥ पाद जानु कटि यावदा वाहनस्य हक्
attered वा सूर्ये व्योमस्तनान्तकम् || विलोमे कुरुते पीडा-मपोहष्टि: सुखक्षयम् ।
स्थानं हन्यादूर्ध्वदृष्टिः स्वस्थानै मुक्तिदायिका ||" सूत्र० २०८
३१
वृषभ की ऊंचाई शिवलिंग के विभाग तक दृष्टि रहे, इस प्रकार रखें । देवों के वाहन की दृष्टि उनके चरण, जानु अथवा कटि तक रहे तथा गुह्य नाभि मोर स्तन तक दृष्टि रहे इस प्रकार ऊंचाई रक्खें | इससे विपरीत रखने से दुःख होवेगा । उपरोक्त भाव से नीची दृष्टि रहने पर सुख का क्षय होगा और यदि ऊंची दृष्टि ही रहेगी तो स्थान wष्ट होगा। इसलिये कहे हुए अपने २ स्थान में दृष्टि रखने से मुक्तिपद मिलता है।
जिन प्रासाद के मंडपों का क्रम --
जिनाग्रे समोसरणं शुक्राग्रे गूढमण्डपः ।
गूढस्याग्रे' चतुष्किका तदग्रे नृत्यमण्डपः ||२२||
जिन प्रासाद' के आगे समवसरण बनाना । शुकनास ( कवलीमंडप ) के ग्रामे गूढ मण्डप, इसके प्रागेचौकी मंडप और इसके आगे नृत्यमंडप बनाने चाहिये || रा
जिप्रासाद में देवकुलिकाका क्रम --
दिसप्तत्या द्विवार्वा चतुर्विंशतितोऽपि वा ।
जिनालये चतुर्दिक्षु सहितं जिनमन्दिरम् ||२३||
ऐसा जिनमन्दिर बनाना चाहिये की जिनप्रासाद के चारों तरफ बहत्तर, बावन अथवा
भौवीस देवकुलिकायें हों ॥२३॥
(१) 'तस्याद्ये विकाथा च' ।
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.......
प्रासादमवने
परमजैन ठक्कुर 'फेस' विरचित वत्सारपयरण के तीसरे प्रकरण में देवकुलिका का
कम बतलाया है । जैसे
बावन जिनालय --
३२
"ती वाम दाहिण नव बुद्धि घट्ट पुरनो न देहरयं । मूलपासाय एगं
बाया जिनालये
एवं ॥ "
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२
जिप्रासाद के बायीं और दाहिनी
ऐसे इकावन देवकुलिका और एक मुख्य प्रासाद मिलकर कुल बावन जिनालय कहा जाता है।
बहतर देवकुलिका---
"rati rai दाहिणवामेसु पिट्ठि इग्मारं ।
दह प्रावे नावं इस बहतर निणिदानं ॥ "
निप्रासाद के बांयी ओर दाहिनी ओर पथ्चीस २: पीछे की तरफ ग्यारह और ग्रा की तरफ दस ऐसे इकहत्तर देवकुलिका और एक मुख्य प्रासाद मिलकर कुल बहत्तर जिनालय कहा जाता है |
चौवीस देवकुलिका
"अमी दाहिए वामे जिरिंग गेह नउवीसं । मूलसिलागाउ क्रमं पकौरए जगइ-मज्झमि ॥"
मुख्य जिप्रासाद के भागे, दाहिनी और बायीं ओर ऐसे तीन दिशा में आठ २ देवकुलिका बनाने से कुल चोवीस जिनालय कहा जाता है। ये सब देवकुलिकाएं जगती के प्रान्त (सरहद ) भाग में की जाती हैं ।
मण्डपाद् गर्भत्रेण वामदक्षिणयोदशीः ।
tet प्रकर्त्तव्यं त्रिशाला वा बलाणकम् ||२४||
मुख्य जिनप्रासाद के गूढ मंडर की बायीं और दाहिनी ओर अष्टापद त्रिशाला अथवा बलाक बनायें | ( सामने भी बलायक बनाया जाता है ) ||२४||
रथ और मठ का स्थान-----
परे रथशाला च मठं याम्ये प्रतिष्ठितम् ।
उतरे cata च प्रोक्तं श्रीविश्कर्मणा ॥२५॥
देवालय के पीछे की तरफ रथशाला, दक्षिण में मठ ( धर्मगुरु का स्थान ) और उत्तर में रथ का प्रवेश द्वार बनावें। ऐसा विश्वकर्मा ने कहा है ||२५||
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द्वितीयोऽध्याय
३३
जगती तादृशी कार्या प्रासादो यादृशो भवेत् । भिन्नच्छन्दा न कर्त्तव्या प्रासादासनसंस्थिता ॥२६॥
इति प्रासादजगती। प्रासाद जिस प्रकार का हो, उसी प्रकार की जगती बनानो चाहिये । भिन्न याकार को नहीं बनानी चाहिये । क्योंकि यह प्रासाद का प्रासनरूप है ॥२६।। अन्य प्रासाद
अग्रतः पृष्ठतश्चैव वामदक्षिणयोर्दिशोः' ।
प्रासादं कारयेदन्यं नाभिवेत्रिवर्जितम् ॥२७॥ मुख्य प्रासाद के आगे, पीछे, बायीं और दाहिनी ओर दूसरे प्रासाद बनायें जाय, वे सब नाभिवेध (प्रासाद के गर्भ ) को छोड़कर के बनावें ॥२७।। शिवलिंग के आगे अन्य देव----
लिङ्गाग्रे तु न कर्तव्या अर्चारूपेण देवताः ।
प्रभानया न भोगाय यथा तारा दिवाकरे ॥२८॥ शिवलिंग के सामने कोई भी देव पूजन के रूप में स्थापित करना नहीं चाहिये। क्योंकि जैसे सूर्य के तेज से तारापों की प्रभा नष्ट होती है, वैसे दूसरे देत्रों की प्रभा नष्ट होती है। इसलिये वे देव भोगादि सुख संपत्ति नहीं दे सकते ।।२।। देव के सम्मुख स्वदेव
शिवस्याग्रे शिवं कुर्याद् ब्रह्माणं ब्रह्मणोऽग्रतः ।
विष्णोरग्रे भवेद् विष्णु-जिने जिनो रवी रविः ॥२६।। ___शिवके सामने शिव, ब्रह्मा के सामने ब्रह्मा, विष्णु के सामने विष्णु, जिनदेव के सामने जिनदेव और सूर्य के सामने सूर्य, इस प्रकार प्रापस में स्वजालीय देव स्थापित किया जाय तो दोष नहीं माना जाता ॥२६॥
"चण्डिकाने भवेन्माता यक्षः क्षेत्रादिभैरवः ।
ज्ञेयास्तेपामभिमुखे ये येषां च हितैषिणः ॥'' अप० सू० १०८ चंडिका प्रादि देवी के सामने मातृदेवता, यज्ञ, क्षेत्रपाल और भैरव आदि देव स्थापित किये जायें तो दोष नहीं है । क्योंकि वे आपस में हितैषो हैं । (१) 'तोऽपि वा। (२) जिने जैनो।
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३४
प्रासादमडने
परस्पर दृष्टिवेध
ब्रह्मा विष्णुरेकनाभि-म्यादोषो न विद्यते ।
शिवस्याग्रेऽन्यदेवस्य दृष्टिवेधे महद्भयम् ॥३०॥ ब्रह्मा और विष्णु ये दोनों देव एक नाभि में हों अर्थात् उनका देवालम प्रापस में सामने हो तो दोष नहीं है । परंतु शिबके सामने दूसरे देवका दृष्टिवेध होता हो तो बड़ा भय उत्पन्न होता है ॥३०॥ दृष्टिवेध का परिहार
प्रसिद्धराजमार्गस्य प्राकारस्यान्तरेऽपि वा।
स्थापयेदन्यदेवांश्च तत्र दोषो न विद्यते ॥३१॥ शिवालय और अन्य देवों के देवालय, इन दोनों के बीच में प्रसिद्ध राजमार्ग {माम रास्ता ) हो, अथवा दीवार हो तो दोष नहीं है ॥३१॥ शिवस्नानोदक
शिवस्नानोदकं गूढ-मार्गे चण्डमुखे सिपेत् ।
दृष्टं न लक्ष्येत्तत्र हन्ति पुण्यं पुराकृतम् ॥३२॥ शिद का स्नानजल गुप्त मार्ग से घण्डमरण के मुख में मिरे, इस प्रकार स्नान का जल निकलने की गुप्त नाली रखना चाहिये । दिखते हुये स्नान जल का उल्लंघन ( लांघना ) नहीं करना चाहिये। क्योंकि स्नान जल का उल्लंघन करने से पूर्वकृत पुण्य का नाश होता है ||३२||
चंडगण शिवस्नानोपक पी रहा है
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(१) जिने। (२) स्नानं ।
चंडनाय गणदेव का स्वरूप अपराजित पृमछा सूत्र २०८ में मिला है कि-स्पूल शरीर बाबा, भयंकर मुख छाला, ऊध्र्वासन बैठा हुमा और दोनों हाथ से स्नान बल पीता हुमा, ऐसा सस्प बना करके पीठिका के जल स्थान के नीचे स्थापन किया जाता है, जिससे स्नान का बल उसके भूख में होकर बाहर गिरे। इस स्नान जल के उच्छिष्ट होत्राने पर उसका यदि कभी उल्लंघन हो जाए तो दोष महीं माना बावा, ऐसा शिल्पियों का कहना है।
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द्वितीयोऽध्यायः
३५
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॥
देवों को प्रदक्षिणा
एका चण्ख्या रवौ सप्त तिस्रो दद्याद् विनायके ।
चतस्रो वासुदेवस्य' शिवस्यार्धा प्रदक्षिणा ॥३३॥ ___ चंडीदेवी को एक, सूर्य को सात, गणेश को तीन, विष्णु को चार और महादेव को माधी प्रदक्षिणा देनी चाहिये ॥३३॥
अग्रतो जिनदेवस्य स्तोत्रमन्त्रार्चनादिकम् ।
कुर्यान दर्शयेत् पृष्ठं सम्सुखं द्वारलचन्नम् ।।३४।। जिनदेव के पागे स्तोत्र, मंत्र और पूजन प्रादि करें। परंतु बाहर निकलते समय अरनी पीठ नहीं दिक्षा, सम्मुख हो पिछले पैर चलकर द्वार का उल्लंघन करें ॥३४॥ बलमार्ग (पनाला)
पूर्वापरसुरु द्वारे प्रथालं सुभमुसरे ।
इति शास्त्रविचारोऽय-मुसरास्या न देवताः ॥३५॥ पूर्व और पश्चिम दिशा के द्वार वाले प्रासाद को नाली ( पनाला) उत्तर दिशा में रखना शुभ है। उत्तर दिशा में (दक्षिणाभिमुख } किसी भी देव की स्थापना नहीं करें ऐसा शास्त्र का नियम है ॥ ३५॥ अपराजितपस्या में लोखा है कि
"पूर्वापरं यदा द्वार प्रणालं चोत्तरे शुभम् । .
प्रशस्त शिवलिङ्गाना-मिति शास्त्रार्थ निश्चयः ।।" सूत्र० १०८ पूर्व और पश्चिम दिशा के द्वार वाले प्रासाद की नाली उत्तर दिशा में रखना शुभ है। शिवलिंग के लिये सो यह नियम विशेष प्रशंसनीय है । ऐसा शास्त्र का नियम है।
"अर्चानां मुखपूर्वाणां प्रणालं वामतः शुभम् ।
उत्तरास्या न विशेया अ रूपेण देवताः ॥ सूत्र० १०८ पदि देयों का मुख पूर्व दिशा के सामने हो तो उसकी नालो बायीं ओर रखना शुभ है। उत्तर दिशा में दक्षिणाभिमुख किसी भी देव की मूर्ति स्थापित नहीं करें। (१) विसुदेवस्य । (२) मुत्तरेशा ।
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"जैनमुक्ता: समeatre याम्योत्तरकमैः स्थिताः । वामदक्षिणयोगेन कर्त्तव्य सर्वकामदम् ॥" अ० सूत्र १०८
जिनदेव के प्रासाद दक्षिण और उत्तर दिशा के द्वार वाले भी बनाये जाते हैं। उनकी नाली वाम दक्षिण योग से अर्थात् दक्षिण दिशा के सामने द्वार वाले अर्थात् दक्षिणाभिमुख प्रासाद को नाली बायीं ओर तथा उत्तर दिशा के सामने द्वार वाले ( उत्तराभिमुख ) प्रासाद की नाली दाहिनी ओर बनावें, अर्थात् उत्तर या दक्षिण दिशा के द्वार वाले प्रासाद की नाली पूर्व दिशा में रखें। यह सब इच्छापूर्ण करने वाली हैं।
वास्तुमंजरी में भी कहा है कि
"पूर्वापरास्यप्रासादे नाल सौम्ये प्रकारयेत् । तत्पूर्वे याम्यसोम्यास्ये मण्डपे वामदक्षिये ॥"
पूर्व र पश्चिमाभिमुख प्रासाद की नाली उत्तर दिशा में, उत्तर और दक्षिणामुख प्रासाद की नाली पूर्व दिशा में रखें। मंडप में स्थापित किये देवों की नाली बायीं और दाहिनी र रखनी चाहिये ।
मण्डपस्थित देवों की नाली
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प्रासादमवने
मण्डपे ये स्थिता देवास्तेषां वामे च दक्षिणे ।
प्रणालं कारयेद् धीमान् जगत्यां च चतुर्दिशम् ||३६||
मंडप में जो देव स्थापित हों, उनके स्नान जल निकलने की नाली बायों और दाहिनी ओर रखना चाहिये, श्रर्थात् मूलनायक के बायीं ओर बैठे हुए देवों की माली बायीं ओर तथा दाहिनी ओर बैठे हुए देवों की नाली दाहिनी ओर बनायें । जगती के चारों दिशा में नाली बनावें ||३६||
"वामे वाम प्रकुर्वीत दक्षिणे दक्षिणं शुभम् ।
मण्डपादिषु प्रतिमा येषु युक्त्या विधीयते ॥" अप० सू० १०८
मंडप में जो देव बैठे हो, उनमें मूत्रनायक के बायीं ओर के देवों की नाली बायों घोर तथा दाहिनी घोर के देवों की नाली दाहिनी ओर बनाना शुभ है ।
पूर्व और पश्चिमाभिमुखदेव -
पूर्वापरास्यदेवानां कुर्याभो दक्षिणोचरम् । ब्रह्मविष्णुशिवाकेंन्द्र गुहाः पूर्वापराङ्मुखाः ||३७||
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द्वितीयोऽध्याय
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पूर्व और पश्चिम दिशाभिमुख वाले देवों का मुख दक्षिण और उत्तर दिशा में नहीं रखना चाहिमे । ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, इन्द्र और कात्तिकेय, ये देव पूर्व और पश्चिम मुस्थ वाले हैं। इसलिये इनका मुख पूर्व प्रथया पश्चिम दिशा में रहे, इस प्रकार की स्थापना करनी चाहिये ॥३७॥
नगराभिमुखाः श्रेष्ठा मध्ये बाह्य च देवताः ।
गणेशो धनदो लक्ष्मीः पुरद्वारे सुखावहाः ॥३८॥ नगर के मध्य और बाहर स्थापित किये हुए देवों का मुख नगर के सम्मुख रखना श्रेष्ठ है। गणेश, कुबेर और लक्ष्मीदेवी, उन्हें नगर के दरवाजों पर स्थापित करना सुखदायक है ।।३।। दक्षिणाभिमुखदेव
विघ्नेशो भैरपश्चण्डी नकुलीशी ग्रहास्तथा ।
मातरो धनदश्चैत्र शुभा दक्षिणदिङ मुखाः ॥३६॥ गणेश, भैरव, चण्डी, नकुलीश, नवग्रह, मातृदेवता और कुबेर, इन देवों को दक्षिणाभिमुख स्थापित करें तो शुभफल देनेवाले हैं ॥३९।। विदिशाभिमुखदेव
नैऋत्याभिमुखः कार्यों हनुमान् वानरेश्वरः । अन्ये विदिङ्मुखा देवा न कर्तव्याः कदाचन ॥४०॥
इति देवानां दृष्टिदोषदिविभागः । वानरेश्वर हनुमानजी का मुख नैऋत्य दिशाभिमुख रक्खें । बाको दूसरे किसी भी देव का मुख विदिशा में कभी भी नहीं रखना चाहिये ॥४०॥ सूर्य प्रायतन
सूर्याद गणेशो विष्णुश्च चण्डी शम्भुः प्रदक्षिणे । भानोगृहे ग्रहास्तस्य गणा द्वादश मूतयः ॥४१॥
इति सूर्यायतनम् । सूर्य के पंचायतन देवों में मध्य में सूर्य, उसके प्रदक्षिरण क्रम से गणेश, विष्णु, मण्डीदेवो पौर महादेव को स्थापित करें। तथा नवग्रह और बारह गणों की मूर्तियां भी स्थापित करें ॥४॥
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प्रासादमरखने
गणेश मायतन----
गणेशस्य गृहे तवचण्डी शम्भुईरी रविः । मूतयो द्वादशान्येऽपि गणाः स्थाप्या हिताश्च ये ॥४२॥
इति गणेशायतनम् । गणेश के पंचायत्तन देवों में मध्य में गणेश, उसके पीछे प्रदक्षिण कम से चंडीदेवी, महादेव, विष प्रो. सूर्य की स्थान करें। 4. बारह गशों की पूनियां भी स्थापित करना हित कारक है ॥४२॥ विष्णु प्रायतन
विष्णोः प्रदक्षिणेनैव गणेशार्काम्धिकाशिवाः । गोप्यस्तस्यावतारस्य भूर्सयो द्वारिका तथा ॥४३॥
इति विष्ण्वायतनम् । विष्णु के पंचायतन देवों में --मध्य में विष्णु को स्थापित करके उसके प्रदक्षिण क्रमसे गणेश, पूर्य, अम्बिका और शिव को स्थापित करें। तथा गोपियों को और अवतारों की मूत्तियां तथा द्वारिका नगरी को स्थापित करें |॥४३॥ चण्डी प्रायतन
चण्डया: शम्भुर्गणेशोऽको विष्णुः स्थाप्यः प्रदक्षिणे! मातरो मूर्त यो देव्या योगिल्यो भैरवादयः ॥४४॥
इति चण्डिकायतनम् । चंडी देवी के पंचायतन देवों में-मध्य में चंडी देवी की स्थापना करके, उसके प्रदक्षिण क्रम से महादेव, गणेश, सूर्य और विष्णु को स्थापित करें। तथा मातदेवी, चौसठ योगिनी भादि देवियों की और भैरव प्रादि देवों को भी मूतियां स्थापित करें ॥४४|| शिव पञ्चायतन
शम्मो। सूर्यो गणेशश्च चण्डी विष्णुः प्रदक्षिणे । स्थायाः सर्वे शिवस्थाने दृष्टिवेधविवर्जिताः ॥४॥
इति शिवायतनम् । शिव के पञ्चायतन देवी में मध्य में शिव को स्थापित करके, उसके प्रदक्षिण क्रम से सूर्य, गोश मली और विष्णु को स्थापित करें। परंतु उनका दृष्टिवेध अवश्य छोड़ देवें ॥४५॥
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द्वितीयोऽध्याय
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त्रिदेव स्थापना क्रम---
. रुद्रखिपुरुषे मध्ये रुद्राद्वामगतो हरिः ।
दक्षिणा भवेद् ब्रह्मा विपर्यासे भयावहः ॥४६॥ त्रिपुरुष प्रासाद में महादेव को मध्य में स्थापित करें। उसको बायीं मोर विष्णु और दाहिनी ओर ब्रह्मा को स्थापित करें। इससे विपरीत स्थापन करेंगे तो भयकारक होंगे ॥४६॥ त्रिदेवों का न्यूनाधिक मान----
रुद्रयाँभागोनी हरि विमिरा । तनु न्या पार्वतीदेवी सुखदा सर्वकामदा ॥४७॥
इति त्रिपुरुषन्यासः। इति श्री सूत्रधार मण्डनविरचिते वास्तुशास्त्रे प्रासादमण्डने जगती
दृष्टिदोषायतनाधिकारे द्वितीयोऽध्यायः ।।२।। शिवमुख का एक तृतीयांश भाग कम करके दो सृतीयांश भाग सक विष्णु की अंधाई रक्खें । और विष्णु के मुखाद्ध भाग तक ब्रह्मा को ऊंचाई रक्खें । ब्रह्मा की ऊंचाई के बराबर पार्वती देवी को ऊंचाई रखें । यह नियम सुखदायक और सब इच्चितफल देनेवाला हैं ।१४७॥ अपराजित पृच्छा में भी कहा है कि---
"ब्रह्मा विष्णुस्तथा रुद्र-रत्येकस्मिन् वा पृथगृहे । भूयो न्यूनन्यूनतश्च रुद्रो हरिः पितामहः ॥ अंशोनश्च हराद्विष्णु-विष्णोर पितामहः । वामदक्षिरणयोगेन मध्ये रुद्र च स्थापयेत् ।। संस्थाप्य च शुभं का नुपाचाः सुजनाः प्रजाः । प्रकर्तव्य स्थल विप्राद्याः समे यान्ति समन्वितम् ।। ताभ्यां लस्बो यदा रुद्र : क्षयो राशि जने मृतिः । राष्ट्रक्षोभो नृपयुद्ध ब्रह्मविष्णू समौ यदा ।। अनावृष्टिर्जने मारि- हस्वे जनार्दने । विपर्यये नृपायाश्च मस्वस्था प्रति प्रजा !" सूत्र १३६ .
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प्रासादमडने
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त्रिपुरुष प्रासाद में ब्रह्मा विष्णु और महादेव ये तीनों देव एक ही गर्भगृह में या शलग २ गर्भगृह में स्थापित करना हो तो महादेव से म्यून विष्णु और विष्णु से न्यून ब्रह्मा को ऊंचाई रखनी चाहिये । महादेव से एक भाग न्यून विष्णु और विष्णु से साधा भाग म्यून ब्रह्मा को
ऊंचाई रखनी चाहिये । मध्य में महादेव, उसकी बायीं ओर विष्णु और दाहिनी ओर ब्रह्मा . को स्थापित करने से राजा और प्रजा का कल्याण होता है । विष्णु और ब्रह्मा की ऊंचाई से महादेव की ऊंचाई कम हो तो राजामों का विनाश और मनुष्यों का मरण होता है। ब्रह्मा
और विष्णु को ऊंचाई बराबर हो तो देश में उत्पात और राजानों का युद्ध होता है। ब्रह्मा को ऊंचाई से विष्णु की ऊंचाई कम हो तो अनावृष्टि और मनुष्यों में महामारी आदि रोग की उत्पत्ति होती है। इसलिये कहे हुए मानके अनुसार ही इन्हें बनाना चाहिये, विपरीत करने से राजा और प्रजा अस्वस्थ रहते हैं ।
इति श्री पं० भगवानदास जैन विरचित प्रासाद माउन के दूसरे अध्याय की सुबोधिनी नाम्नी भाषा टीका समाप्त ||२||
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अथ प्रासादमण्डने तृतीयोऽध्यायः प्रासावधारिणी खरशिला
अतिस्थूला' सुविस्तीर्णा प्रासादधारिणी शिला ।
अतीवसुदृढा कार्या इष्टिकांचूर्णवारिभिः ॥१॥ प्रासाद को धारण करनेवाली जो प्राधार शिला है, यह अगती के दासा के ऊपर और प्रथम भिट्ट के नीचे जो बनायी जाती है, उसको खरशिला कहते हैं । वह प्रतिस्थूल और अच्छी तरह विस्तारवाली छनायें, तथा इट, चूना और पानी से बहुत मजबूत बनावें ॥१॥ खरशिला का मान
"प्रासादच्छन्दमस्पोचे दृवखरशिलोत्तमा । एकहस्ते पादहस्तः पश्चान्तेऽङ्गुलवृद्धितः॥ अर्धाङ्गलं तदूर्वे तु नवान्तं सुदृढोत्तमा । पादवृद्धि पुनर्दद्याद् हस्ते हस्ते तथा पुनः ।। हस्तानां विशतिर्यावदर्द्धपादा तदूध्यतः ।
विंशत्यङ्गलपिण्डा प शताद्धे तु खरा शिला !" प्रप० सू० १२३ प्रासादतल के ऊपर बहुत मजबूत और उत्तम खरशिला बनायें। वह एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद में छ: अंगुल के उदयवाली बनायें । पीछे दो से पांच हाथ तक के प्रासाय में प्रत्येक हाथ एक २ मंगुल, छह से नव हाथ तक प्राधा २ अंगुल, दस से तीस हाथ तक पाव २ अंगुल और इनतीस से पचास हाथ तक के विस्तार वाले प्रासाद में प्रत्येक हाथ एक २ अब बढ़ा करके बनावें । इस प्रकार पचास हाथ के प्रासाद के लिये लगभग वीस अंगुल के ऊंचाई की खरशिला होनी चाहिये । हारार्णव अध्याय १०२ में कहा है कि
"प्रथमभिट्टस्याधस्तात् पिण्डो वर्ण (कूर्म : शिलोत्तमा ।
तस्य पिण्डस्य चार्थेन खरशिलापिण्डमेय च ॥" प्रथम मिट्ट के नीचे कूर्मशिला की मोटाई से अर्धमान को स्वरशिला की मोटाई रक्खें । (१) प्रतिस्पुमातिविस्तीणा । (२) 'इष्टका' । प्रा०६
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४२
मिट्टमान
शिलोपरि भवेद् भिङ्ग-मेकहस्ते युगाङ्गुलम् | अर्धाङ्गुला भवेद् वृद्धि-र्यावद्धस्तशताद्ध कम् ||२||
खरशिला के ऊपर मिट्ट नाम का थर बनावें । एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद को चार अंगुल के उदय का बनायें। पीछे दोसे पचास हाथ तक के प्रासाद के लिये प्रत्येक हाथ भाषा २ अंगुल बहा करके बनायें || २ ||
प्रकारन्तर से भिट्टमान
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मशीन मान क्रमात् । पञ्चदिग्विंशतिर्यावळताच विवद्धयेत् ॥ ३ ॥
एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद को चार अंगुल का भिट्ट बनायें। पीछे दो से पांच हाथ तक के प्रासाद को प्रत्येक हाथ एक २ अंगुल छह से दस हाथ तक के प्रासाद को प्रत्येक हाथ पौन २ अंगुल, ग्यारह से बीस हाथ तक के प्रासाद को प्रत्येक हाथ श्राधा २ अंगुल और इक्कीस से पचास हाथ तक के प्रासाद को प्रत्येक हाथ पाव २ अंगुल बढ़ा करके भिट्ट का उदय रक्खें ॥३॥ यही मत क्षीराव, अपराजित पृच्छा वास्तुविद्या और वास्तुराज आदि शिल्पग्रन्थों में दिया गया है।
fager fire
एक द्वित्रीणि विट्टानि हीनहीनानि Frater प्रमाणस्य चतुर्थ शेन
प्रासादमण्डने
कारयेत् । निर्गमः || ४ ||
atrian कहा है कि
इति भट्टमानम् ।
उपरोक्त कथन के अनुसार भिट्टका जो उदयमान धाया हो, उसमें एक, दो अथवा तीन भिट्ट बना सकते हैं । परन्तु ये एक दूसरे से होनमान का बनाना चाहिये । राजसिंहकृत वास्तुराज में कहा है कि "युगांशहलं द्वितोयं तदर्वोच्चं तृतीयकम् ।" अर्थात् प्रथम भिट्ट से दूसरा भिट्ट पौन भाग का, और तीसरा भिट्ट भाषा उदय में रक्खें तथा अपने २ उदय का चौथा भाग बराबर निर्गम रक्खें ॥४॥
"प्रथमं निर्गमं कार्यं चतुर्थांश महामुने ! |
द्वितीयं तृतीयांशेन तृतीयं च तदर्धतः ॥"
थम भोट का निर्गम *पने चौथे भाग, दूसरे भिट्टका निगम अपने तीसरे भाग पौर तीसरे भिट्टका निर्गम अपने उदय से प्राधा रक्खें ।
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तृतीयोऽध्यायः
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पीठ का उदय मान
पीठमधं त्रिपादांशै-रेकद्वित्रिकरे गृहे । चतुर्हस्ते त्रिसा(शं पादांश पञ्चहस्तके ।।५।। दशविंशतिषट्त्रिंश च्छता हस्तकावविः । वृद्धिर्वेद त्रियुग्मेन्दु-संख्या स्यादजुलैः कमात् ॥६॥
पञ्चाशं हीनमाधिक्य-मेकैकं तु विधा पुनः । भोट के ऊपर पीठ बनाया जाता है, उसका उदयमान एक हार के विस्तार वाले प्रासाद की पीठका उदध बारह अंगुल, दो हाथ के प्रासाद की पीठका उदय सोसह अंगुल, तीन हाय के प्रासाद को पीठ महारह अंगुल, चार हाथ के प्रसाद की पीठ पपने साढ़े तीन भाग (साढ़े सत्ताईश अंगुल ) की, पाप हाथ के प्रासाद की पीठ अपने चार भाग (तीस अंगुल) की उदय में बनायें । छह में से हाथ क के प्रसाद का पाठ प्रत्येक हाप पार २ मंगुल, ग्यारह से बीस हाथ तक के प्रासाद को पीठ प्रत्येक हाष तीन २ अंगुल, इक्कीस से छत्तीस हाथ तक के प्रासाद की पीठ प्रत्येक हाय दो २ अंगुल और सेंतीस से पचास हाप तक के प्रासाद की पीठ प्रत्येक हाथ एक २ मंगुल बड़ा करके बनावें। इस प्रकार पचास हार के विस्तार वाले प्रासाद की पीठ का उदय पांच हाय और छह अंगुल होता है।
जदय का पांचवां भाग उवम में कम करे तो कनिष्ठ मान को और बढ़ा देवे जो ज्येच मान की पीठ होली है । ज्येष्ठ मान की पीठ का पांचवा भाग ज्येष्ठ पीठ में बढाये तो अमेट ज्येस कम करे तो ज्येष्ठ कनिष्ठ, मध्यम मान के पोल का पांचवां भाग मध्यम में बवावे तो ज्येष्ठ मध्यम
और कम करें तो कनिष्ठ मध्यम, कनिष्ठ मान की पीठ का पांचवा भाग कनिष्ठ पीठ में बहावे तो ज्येष्ठ कनिष्ठ भोर कम करे तो कनिष्ठ कनिष्ठ मान की पीठ होती है। ऐसे नव प्रकार से पीठ का उदयमान समझना चाहिये ॥६॥ वास्तुमंजरी में कहा है कि
"प्रासादस्प समुत्सेध एकविंशतिभाजिते ।
पञ्चाधिनवभागान्ते पञ्चधा पीठसमुख्छयः ।" प्रासाद की (मंडोवरको} ऊंचाई का हकीस भाग करें । इनमें से पात्र, अहसातपाठ अथवा नद भाग के मान का पीठ का उदय रक्खे । ये पनि प्रकार के पीठ के सवय है।
यह मत अपराजित पृच्छा सूत्र १२३ श्लोक ७ में भी लीला है। तमा लोक २५ से २६ तक को पोठ का मान लिया है, उसमें पार हाय के प्रसाद को पीठ प्र लीयां और चतुपाश मान की लिखा है।
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प्रासादमराहने
क्षीरार्णव मत से पीठमान
"एकहस्ते तु प्रासादे पीठं वै द्वादशाङ्गलम् । हस्तादिपञ्चपर्यन्तं हस्ते हस्ते पञ्चाङ्ग ला॥ पोर्ध्व दशपर्यन्तं वृद्धिर्वेदानला भवेत् । दशो विशयावत्तु हस्ते हस्ते याङ्गला ॥ विशोर्व षन्निशा वृद्धिस्तु चाङ्गलवया । षधिशोर्व शतान्ति हस्तहस्तकमङ्गला ।। पश्चमांशे ततो हीनं कनिष्ठं शुभलक्षणम् ।
पञ्चमांशेऽधिकं चैव ज्येष्ठं त्वष्ट्रा च भाषितम् ।।" अध्याय ३ इसका अर्थ श्लोक पांच और छह के बराबर है । सिर्फ दोसे पांच हाथ तक के प्रासाद की पीठ प्रत्येक हाप पांच २ अंगुल बढा करके बनाना लिखा है, यही विशेष है 1 इस मत से पचास हाथ के विस्तार वाले प्रासाद को पीट का उदय पांच हाथ और पाठ अंगुल का होता है । पपराजितएच्छा के मससे पीठ का उदयमान
"एकहस्ते तु प्रासादे पीठं वै द्वादशाङ्गलम् । द्वपाङ्गलं द्विहस्ते च विहस्तेऽष्टादशाङ्गलम् ॥ म पाद विभाग वा त्रिविधं परिकल्पयेत् । श्यंशेनार्धन पादेन चतुर्हस्ते सुरालये ।। पादं पीठोच्छथं कार्य प्रासादे पञ्चहस्तके । पच्चो दशपर्यन्तं रसांशं हस्तवृद्धये ।। ततो हस्ते चाष्टमांशा वृद्धिः स्याद् द्वाविंशावधि । षत्रिंशदन्तं वृद्धिस्तु हस्ते के द्वादशांशिका । चतुर्विशत्यंशिका ल दूर्व यावच्छतार्थकम् । मध्ये न्यूनेऽधिक पञ्चमाशे ज्येष्ठ कनिष्टकम् ।। त्रिज्येष्ठमिति च स्यातं त्रिमध्यं त्रिनिष्टकम् ।
तस्याभिधानं वक्ष्येऽह-मुदितं नवधोच्छ्यात् ।।" सूत्र० १२३ एक हाथ के प्रासाद को बारह अंगुल, दो हाथ के प्रासाद को सोलह अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद को अठारह अंगुल पीठ का उदय रखें। प्रति एक हाथ के अर्द्ध भाग, दो हाथ के तीसरे भाग और चार हाथ के चौथे भाग पीठ का उदय रक्खें। चार हाथ के प्रासाद को मर्द भाग (४८ अंगुल ), तीसरे भाग { ३२ अंगुल ) अथवा चौथे भाग (२४ अंगुल ) पीठ का उदय रखना चाहिये । पांच हाथ के प्रासाद को चौथे भाग ( ३० अंगुल ), छह से दस हाय के प्रासाद को प्रत्येक हाथ चार २ अंगुल, ग्यारह से बाईस हाथ के प्रासाद को तीन २ अंगुल, तेईस से छत्तीस हाय के प्रासाद को दो दो अंगुल और सेंतीस से पचास हाय के प्रासाद को
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प्रत्येक हाथ एक २ अंगुल बढ़ा करके पीठ का उदय रखना चाहिये । यह पीठ की ऊंचाई का मध्यम मान माना गया है। इसमें इसका पांचवां भाग बढाथे तो ज्येष्ठमान पोर घटा तो . कनिष्ठ मान होता है । ज्येष्ठ मान का पांचवां भाग ज्येष्ठ में बढ़ा तो ज्येष्ठ ज्येष्ठ, घटावे तो ज्येष्ठ कनिष्ठ, मध्यम का पांचवां भाग मध्यम में बढ़ायें तो ज्येष्ठ मध्यम घटायें तो कनिष्ठ मध्यम, कनिष्ठ मान का पांचवां भाग कनिष्ध में बढावे तो ज्येष्ठ कनिष्ठ और घटायें तो कनिष्ठ कनिष्ठ, इस प्रकार पीठ के उदय का नव भेद होते हैं। इन नघ भेदों के नाम बतलाते हैं
"शुभदं सर्वतोभई पयक व वसुन्धरम् ।. सिंहपीठं तथा व्योम गरडं हंसमेव च ।। वृषमं यद्भवेत् पीठ मेरोराधारकारणम् ।
पीठमानमिति म्यातं प्रासाने प्रादिसोमया ।। सूत्रः १२३ शुमद, सर्वतोभद्र, पनक, वसुन्धर, सिंहपीठ, व्योम.,गरुड, हंस और वृषभ ये ना नाम पीठोदय के हैं। इनमें वृषभपीठ मेस्त्रासाद का प्राधार रूप है । दि० वसुनंवीकृत प्रतिष्ठाशार में पीठ का मान"प्रासादविस्तरार्द्धन स्वोच्छितं पीठमुत्तमम् । मध्यमं पादहीनं स्याद् उत्तमान कन्यसम् ।।"
प्रासाद के विस्तार के अद्धमान का पीठ का उदय रक्खें। इसे उत्तम मान को पीठ माना है । इस उत्तम मान की पीठ के उदय का चार भाग करके उनमें से तीन भाग के मान का पीठ का उदय रक्खें तो मध्यम मान को और दो भाग के मान का पीठ का
SHAMI888158080 उदय रवखें तो कनिष्ठ मान को पोठ माना है। पीठोदय का परमानत्रिपञ्चाशत् समुत्सेधे द्वाविंशत्यशनिर्गमे ॥७॥ नवांशो जाइयकुम्भश्च सप्तांशा'कर्णिका भवेत् । सान्तरालं कपोतालिः सप्तशा ग्रासपट्टिका |८|| सूप दिग्व सुभागैश्च गजवाजिनरा क्रमात् । वाजिस्थानेऽथवा कार्य स्वस्वदेवस्य वाहनम् ||६||
पीठ का जो उदयमान पाया हो, उसमें ५३ भाग करें। उनमें मे बाईस भाग के मान का पीठ प्रासाप की महापीठ (१) सप्तार्श (२) ।
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का निर्गम रमा । उदय के तरेपन भाग में से नव भाग का जाध्यकुम्भ, सात भाग की मंतरपत्र के साथ करितका, सात भाग की कपोतालि के साथ ग्रासपट्टी, इसके ऊपर बारह भाग का गजपर, वश भाग का प्रश्वथर, और पाठ भाग का नरथर बनावें। अश्वथर के स्थान पर देव के वाहन का भी पर बना सकते हैं ।।७ से ६ परों का निर्गममान---
पञ्चांशा कर्णिकांग्रे तु निर्गमो जाडथकुम्भकः । त्रिसाओ कर्णिका सार्धा चतुर्भिासपट्टिका ॥१०॥ कुञ्जराश्वनरा वेदा रामधुम्माशनिर्गमाः ।
अन्तरालमधस्तेषा-मूर्वाधः कर्णयुग्मकम् ॥११॥ करिणकासे मागे पांच भाग निकलता आडम्भ, पासपट्टी से प्रागे साले सोम भाग निकलसी कणिका, गअपर से प्रागे साढे चार भाग निकलती प्रासपट्टी, प्रश्वथरसे प्रामे चार भाग निकलता गजयर, नर परसे प्रागे तीन भाग निकलता प्रश्वयर और बुरासे प्रागे दो भाग निकलता नर पर रखें। इस प्रकार बाईस भाग पी का निर्गम आने । इन गादि घरों के भीचे अंतराल को और अंतराल के ऊपर और नीचे दो दो करिएका बनावे ॥१०-११|| कामापीठ और कणपीठ (साधारणपीठ) ----
गजपीठं बिना स्वल्प-द्रव्ये पुण्यं महत्तरम् । जाडयकुम्भश्च कर्णाली प्रासपट्टी तदा भवेत् ।।१२॥ कामदं कणपीठं च जाडयकुम्भश्च कविका ।
लतिने निर्गम हीनं सान्धारे निर्गमाधिकम् ॥१३॥ · गम भादि घरों वाली पीठ को गजरीठ कहते हैं । ऐसी रूपवाली पोट बनाने में द्रव्य का अधिक सर्च होता है. इसलिये अपनी शक्ति के अनुसार अल्प द्रव्य से साधारण पीठ बनाने से भी बड़ा पुण्य होता है । गज अश्य प्रादि रूपोंवाली पीठ को छोड़कर आयकुम्भ, कलिका और केवाल के साथ प्रासपट्टी वाली साधारण पीठ बनाये, उसको कामदपीठ कहते हैं। तपा आध्यम और करिएका ये दो परवाली पीठ बनावें, उसको कणपीठ कहते हैं । लतिनजाति के प्रासाद के पीठ का निर्गम कम होता है और सांधार आतिके प्रासाद के पीठ का निर्गम अधिक होता है ।।१२-१३॥
सर्वेषां पीठमाधारः पीठहीनं निराश्रयम् । पीठहीनं विनाशाय प्रासादभुवनादिकम् ॥१४॥
इति पीठम् ।
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बेलूर के मोमनाथपुरम् का एक द्वाविर प्रासाद के मंडोवर (दीयार ) और
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भिट्ट जाइयकुंभ कार्यक्रः ७ ग्रामपट्टी
हस्तादिपञ्चपर्यन्तं विस्तारेणोदयः समः | मानवसप्तेषु रामचन्द्राङ्गुलाधिकः ॥१५॥ पञ्चादिदशपर्यन्तं त्रिंशद्यावच्छताद्धकम् । हस्ते हस्ते क्रमाद् वृद्धि-नुसूर्य नवाझुला ||१६||
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कामद पीठ
पीठ
प्रासाद और भवन (गृह) श्रादि सब में पोठका आधार हैं, यदि पीठ न होवे तो ये निराधार माने जाते हैं। इसलिये बिना पीठ वाले ये प्रासाद और गृह आदि थोड़े समय में ही नष्ट हो जाते हैं ||१४||
प्रासाद का उदयमान ( मंडोवर ) -
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एक से पांच हाथ तक के विस्तार वाले प्रासाद का उदय विस्तार के बराबर मान का बवावें, परन्तु उनमें क्रमश: नव, सात, पांथ, तीन और एक अंगुल बढ़ा करके बनावें । श्रर्थात् प्रसाद का विस्तार एक हाथ का हो तो उसका उदय एक हाथ और नव अंगुल (कुल ३३ मंगुल ), दो हाथ का हो तो दो हाथ और सात अंगुल ( कुल ५५ अंगुल ), तीन हाथ का हो तो तीन हाथ और पांच अंगुल ( कुल ७७ मंगुल ), चार हाथ का हो तो चार हाथ और तीन अंगुल ( कुल ६६ मंगुल) और पांच हाथ का हो तो पांच हाय श्रौर एक अंगुल ( कुल १२१ अंगुल ) का उदय रक्खें। छह से दस हाथ तक के विस्तार वासे प्रासाद का उदय प्रत्येक हाय चौदह २ मंगुल, ग्यारह से तीस हाथ तक के विस्तार वाले प्रासाद वा उदय प्रत्येक हाथ
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प्रासादमखने
बारह २ अंगुल और इकतीस से पचास हाथ तक के विस्तार वाले प्रासाद का उदय प्रत्येक हाय नव २ अंगुल की वृद्धि करके रखें। इस प्रकार पचास हाय के प्रासाद की कुल ऊंचाई पचीस हाय और ग्यारह अंगुल होती है ।।१५-१६॥ देखो अपराजित पूच्छा सूत्र १२६ अन्य प्रकार का उदयमान----
एक हस्वादिपञ्चान्तं पृथुत्वेनोदयः समः । हस्ते सूर्याङ्गुलावृद्धिावत् त्रिंशत्करावधि ॥१७॥ नवाङ्गला करे वृद्धि-पर्यावद्धस्तशताधकम् ।
पीलो उदारतेष जाधान्ते नागरादिषु' ॥१८॥ __ एक से पांच हाथ तक के विस्तार वाले प्रासाद का उदय विस्तार के बराबर रक्खें। पोछे छह से तीस हाथ तक के प्रासाद का उदय प्रत्येक हाथ बारह २ अंगुल बढ़ाकर के और इकतीस से पचास हाथ तक के प्रासाद का उदय प्रत्येक हाथ नव २ अंगुल बढ़ाकर के रक्खें। यह प्रासाद का उदय पीठ के ऊपर खुरा से लेकर छजना के अंत भाग तक माना गया है।।१७-१८ . प्रासाद के उदय के लिये अपराजित पृच्छा सूत्र १२६ में श्लोक १० में अन्य प्रकार से लोसा है कि
__ "कुम्भकादि प्रहारान्तं प्रयुक्तं वास्तुवेदिभिः ।
सदघस्तात्तु पीठं च ऊर्ध्वं स्याच्छिखरोदयः ।।" कुम्भा के घर से लेकर छाथ के प्रहार घर के अंत तक ऊंचाई जाननी चाहिये, ऐसा वास्तुशास्त्र के जानने वाले विद्वानों ने कहा है। कुम्भा के नीचे पीठ औराप्रहार घर के ऊपर शिखर का उदय होता है। क्षीरार्णव के मतानुसार पासाद का उदयमान--
"एकहस्ते तु प्रासादे त्रयस्त्रिशाङ्गलोदयः । द्विहस्ते तूदमः पार्क सप्ताङ्गलः करद्वयः ।। विहस्ते च यदा माना-दधिकश्च पञ्चाङ्गलः । चतुर्हस्तोदयः कार्य एकनाङ्गलेनाधिकः ।। विस्तरेण समा कार्यः पञ्चहस्तोदये भवेत् । षहस्ते तूदयः कार्यों न्यूनी द्वावली तथा । उदयः सप्तहस्ते च स्पूनः समाङ्गलस्तथा । अष्टहस्तोदयः कार्य: षोडशाङ्गलहीनकः ॥ होन एकोनविंशः स्यात् प्रासादे नवहस्तके ।
दश हस्तेषूदयः कार्योऽष्टहस्तप्रमाणतः ॥ (१) 'नागरोषितः।
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दृवीयोऽध्यायः
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सपाददश हस्तश्च प्रासाद दशपञ्चके । विशहस्तोवये कार्यः साद्ध द्वादशहस्तकः ।। पञ्चविंशोदये ज्ञेयः पादोनदशपऊमकः । विशहस्ते महाप्राज्ञ ! सप्तदशोदयस्तथा ॥ सपादेकोमविशतिः पचत्रिंशे मनीबर ।। व्योमवेदे यदा हस्ते साधः स्यादेकविंशतिः ।। सतुविशतिः पादोनः पञ्चचत्वारिंशद्धस्तके ।
शतार्योदये मान तु हस्ताः स्युः पञ्चविंशतिः॥" .... प्रासाद का विस्तार एक हाथ हो तो ३३ अंगुल, दो हाथ हो तो ५५ अंगुल, तीन हाथ हो तो ७७ अंगुल, चार हाथ हो तो ६७ अंगुल, पांच हाथ का हो तो पांच हाथ, छह हाथ का हो तो पांच हाथ और २२ मंगुल, सात हाथ का हो तो छह हाथ और १७ अंगुल, माउ हाय का हो तो सात हाथ और पाठ अंगुल, मब हाथ का हो तो सात हाप मोर १६ अंगुन, दस हाय का हो तो माह हाथ, पंद्रह हाथ का हो र यस हाय और छह अंगु, बोध हाच का हो तो बारह हाथ और भारह अंगुल, पचीस हाथ का हो ता चौदह हाथ और १८ अंगुल, तीस हाथ का हो तो गह हाथ, पैतीस हाथ का हो तो १९ हाथ और छह अंगुल, चालीस हाथ का हो तो २१ हाथ पौर १२ अंगुल, पैतालीस हाप का हो तो २३ हाथ १८ अंगुल, भौर पचास हाथ का हो तो २५ हाथ का उदय करना चाहिये । प्रधान देश हाथ के बाद पांच पांच हाथ में सवा दो २ हाथ उदय क ने का विधान है। प्रासाद के उदय से पोठका उदयमान---
एकविंशत्यंशमक्ते प्रासादस्य समुच्छये ।
पञ्चादिनवभागान्तं पीठस्य पञ्चधोदयः ।।१६।। प्रासाद का बुरा से लेकर छज्जा तक जो उदयमान भावे, उसका इक्कोस भाग करके पांच, छह, सात, पाठ प्रथया नव भाग जितना पीठ का उदय सखें। इस तरह पांच प्रकार से पीठ का उदयमान होता है ।।१६।। १४४ भाग के मंडोबर (बोवार) के थरों का उदयमान
वेदवेदेन्दुभक्ते तु छाधान्त पीठमस्तकात् ।
खुरकः पञ्चभागः स्याद् विंशतिः कुम्भकस्तथा ॥२०॥ कलशोऽष्टौ द्विसाई तु कर्त्तव्यमन्तरालकम् ।
कपोतिकाष्टी मञ्ची च कर्तव्या नवभागिका ।।२१।। प्रा .
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५०
पञ्चत्रिंशत्यदा' जङ्घातिथ्यंशैरुद्गमो भवेत् । वसुभिर्भरणी कार्या दिग्भागेश्व' शिरावटी ॥२२॥ अशो कपोतालि-द्विसार्द्ध मन्तरालकम् । air त्रयोदशांशोचं दशमागैर्विनिर्गमः ||२३||
इति भण्डोवरः ।
पीठ के ऊपर से छज्जा के अंत भाग तक पूर्वोक्त प्रासाद के उदय का जो मान आया हो, उसका एक सौ चालीस (१४४) भाग करें। उनमें से पांच भाग का खुरा, बोस भाग का कुम्भा, माठ भाग का कलश ढाई भाग का अंतराल, आठ भाग का केवाल, नव भाग की मंत्री पैतीस भाग की जंघा, पंद्रह भाग का उद्गम ( उर्जा ), आठ भाग को भरणी, दस भाग की शिरावटी, प्राठ भाग को कपोतिका (केवाल). ढाई भाग का अंतराल और तेरह भाग का छज्जा का उदय रक्खें और छज्जा का निम दस भाग का रखें ||२० से २४॥
इन १४४ भाग के मंडोवर के घरों में जो रूर किया जाता है, उसका वर्णन अपराजित पृच्छा सूत्र १२२ के अनुसार ज्ञानप्रकाश दोपार्णव के पांचवें अध्याय में लिखा है कि
खुरक: पवभागस्तु विशतिः कुम्भकस्तथा । पूर्वमध्यापरे मागे ब्रह्मविष्णुरुद्रादयः ॥ त्रिसन्ध्या भने शोभादया चित्रपfरकरेताः । नासके रूपसंघाटा गर्भे च रथिकोतमा || मृणालपत्र' शोभा स्तम्भका तोरणान्विता ।"
प्रासाद मण्डने
पीठ के ऊपर खुरा पांच भाग और कुम्भा बीस भाग रक्वें । कुम्भा में ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का स्वरूप बनायें, इन तीन देवों में से एक मध्य में और उसके दोनों बगल में एक २ देव बनावें । भद्र के कुम्मा में तीन संध्या देवी, अपने परिवार के साथ बनायें, को के कुम्भ में अनेक प्रकार के रूप बनायें, तथा भद्र के मध्यगर्भ में सुन्दर रथिका ( गवाक्ष) बनायें । कमल के पान के आकार और तोरण वाले स्तंभ बनावें ।
"eart aभागस्तु सार्धद्रो चान्तःपत्रकम् || वसुभिश्व कपोतालि-मंचिका नवभागिका । पति च जङ्घा कार्या विषक्षण ! ॥ अनवरत: स्तम्भैनसकोपाकाननाः । मनाससर्वेषु स्तम्भाः स्युश्चतुरस्रकाः ॥ गजैः सिंहेर्बरालेश्च मकरे: समलङ्कृता: "
(१) 'शिला' । (२) शिरापटी शोशिका ।'
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१४४ भाग का मनोवर (प्रासाद को दोबार)
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पाठ भाग का कलश, डाई भाग का अंतरपत्र, पाठ भाग का केवाल, नव भाग को मंचिका और पैंतीस भाग को जंषा करें। कोना और उपांग प्रादि कालमा को अंधा में भ्रमवाले स्तंभ बनावें, सब मुख्य कोने को जंघा में समचोरस स्तंभ बना, तथा गज, सिंह, परालक और मकर के रूपों से शोभायमान बनावें।
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"कर्णेषु च दिक्पालाष्टी प्राच्यादिषु प्रदक्षिणे ।। नाट्य शः पश्चिमे भने अन्धकेश्वरो दक्षिणे । चण्डिका' उत्तरे देव्यो दंष्ट्रासुविकृतामनाः ।। प्रतिरथे तस्य देव्यः कर्तध्याश्च दिशांपतेः । बारिमार्गे मुनीन्द्राश्च प्रलीनाः सपः साधने ।।
गवाक्षाकारों भAषु कुनिर्ममभूषितः ।" कर्ण को जंघा में आठ दिक्पाल पूर्वादि दिशा के प्रदक्षिण कम से रगखें । नाट्य पा ( नटराज ) पश्चिम भद्र में, अंधकेश्वर दक्षिण भद्र में, विकराल मुख वाली और भयंकर दांत वाली चंडिका देवी उत्तर दिशा के भद्र में रखें । प्रतिरथ के भद्र में दिवालों की देवियां बनावें। बारिमार्ग में तपः साधना में लीन ऐसे ऋषियों के रूप बनावें। भद्र के गवाक्ष बाहर निकलता हुआ शोभायमान बनावें ।
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चार प्रकार की अंधा
"नागरी च तथा लाटी वैराठी द्राविडी तथा ।। मुद्धा तु नागरी ख्याता परिकर्मविजिता । स्त्रीयुग्मसंयुता लाटो बेराटी पत्रसकूला ॥ मञ्जरी बहुला कार्या जवा च द्राविडी सदा । नागरी मध्यदेशेषु लाटो लाई प्रकोत्तिता ॥
दाविडी दक्षिणे देशे वराटी . सर्वदेशमा ।" नागरी, लाटी, वैराटो और द्राविडी ये चार प्रकार की अंधा है। उनमें नागरी अंधा बिना किसी प्रकार के रूप को और शुद्ध सादी है। स्त्री युगल के रूप वाली लाटी अंधा है। कमल पत्रो वाली वैराटी अंधा है । बहुत मञ्जरी (शृङ्गों) वाली द्राविडी जया है । मध्यप्रदेश
(१) पराजित पृचा सूत्र १२७ श्लोक २४ में विस रागे व शासनदेव्यः। पति पितराग देश के देवालय में परिका के स्थान पर उनकी शासन देवियों को रखना भीला है।
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सृतीयोऽध्याय:
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में नागरी जंघा, लाटदेश में लाटी अंधा, दक्षिण देश में द्राविडो जंधा और सारे देश में बराटी जंघा प्रसिद्ध है।
"उनमः पञ्चदशांशः कपिनासैरलङ्कृतः ।। भरणी वसुभागा तु शिरावटी पञ्चेव च ।
तदूर्व पञ्चभिः पट्ट कपोतालिवसुस्मृता ।। महाभरणी द्विसाधमन्तःपत्र पत्रिदशं कूटच्छाधकम् ।
निर्गम वसुभागे तु मेर्वादीनामतः शृशु ॥"
पंद्रह भाग का उद्गम बनावें, एवं उसमें बन्दरों के रूप बना । पाठ भाग को भरपी पांच भाग को शिरावटो, उसके अपर पांच माग का पाट, मास भाग का केवाल, ढाई भाग का
अंतरत्र और तेरह भाग का वा का उदय रखना चाहिये । TAIRATITENTIANE
छन्ना का निर्मम याठ भाग रखो ।
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भेत मंडोवर
मेरुमण्डोवरे मची भरपूऽष्टभागिका । पञ्चविंशतिका जछा उद्गमश्च त्रयोदश ॥२४॥ अष्टांशा भरणी शेषं पूर्व यत् कल्पयेत् सुधीः । सप्तभागा भवेन्मश्ची कूटच्याथस्य मस्तके ॥२५॥ पोडशांशा पुनर्जा भरणी सप्तभागिका । शिरावटी चतुर्भागा पट्टः स्यात् पञ्चमगिकः ॥२६॥ सूर्या शैः कूटच्छाद्य च सर्वकामफलप्रदम् । कुम्भकस्य युगांशेन स्थावराणां प्रवेशः ॥२७॥
. इति मेरुमंडोवरः। जिस मंडोवर में एकसे अधिक अंधा हो, उसको मेरुमंडोवर कहते हैं । उसमें भरणी के ऊपर खुर, कुम्भ, कलश, अंतराल और केवाल, में प्रथम के पांच पर नहीं बनायें जाते, किन्तु मची प्रादि सन पर बनाये जाते हैं । इसलिये प्रथम खुरा से लेकर भरणी
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प्रासादमदाने तक सब घर १४४ भाग के मान से बनाकर के पीछे उसके कार मञ्ची प्रादि पर बनायें जाते हैं, उनका मान इस प्रकार है ---
उपरोक्त १४४ भाग के मण्डोवर के खुरासे लेकर भरणी तक के सब थर बना करके उसके ऊपर मंची पाठ भाग की, जंपा पचीस भाग को, उद्गम तेरह भाग का और भरणी पाठ भाग की बनानी चाहिये । इसके ऊपर शिराबटी केवाल. अंतराल और छज्जा, ये चार थर १४४ भाग के मंडोथर के मान का बनायें। फिरसे इस छज्जा के ऊपर सास माय की मंत्री, सोलह भाग की जंघा, सात भाग को भरणो, चार भाग की गिरावटी, पांच भाग का पाट और बारह भाग का कूटछाध बना। यह मेहमंडोदर सब इच्छित फल देने वाला है । कुम्भा का एक चतुर्थांश भाग जितना सब घरों का निर्गम रखखें ।।२२४ से २७॥ क्षीरार्णव में कहा है कि
"प्रस्योदये च कर्तव्य प्रथमं षट्कच्छाधम । यावत्समोदयः प्राज्ञ ! तावन्मण्डोवरं कृतम् ।। तथाद्यच्छाधसस्थाने हूँ जथे परिकीतिते । "भवेयुविशमला यावत्त शता|दये ।। षड्विधं कुटच्छायच द्विभूम्योरन्तरे मुने!। भरपर्चे भवेन्मायो छायोर्वे , छ मनिका || पुनर्जा प्रदातव्या यावद् द्वादशसंख्यया । निश्चित किश्चिद् भवेन्न्यूनं कर्तव्यो भूमिकोच्छयः ।।
शताौंदर्य माने च महामेरुः प्रदापयेत् ।" अध्याय १०४।। जितना प्रासाद का उदय हो, उतना ही ऊंचा महोकर रखें। इस मंडोवर के उदय में छह सुनने बना। प्रथम खाजा दो अंधा वाला बनावें। इस प्रकार पचास हाथ के प्रासार में बारह
अंधा और छह छज्जा बनाया जाता है। दो दो भूमि के फासले * पर एक २ छज्जा बनाना चाहिये । भरणी के ऊपर मावी रमले,
किन्तु छज्जा के ऊपर मांची रहीं रखनी चाहिये । नीचे की
में भूमि से ऊपर की भूमि को ऊंचाई कम कम रखनी चाहिये। यह समान्य माओवर I महामेरु मंडीवर पचास हाय के प्रासाद के लिये बनाना पाहिये।
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तृतीयोऽध्यायः
सामान्य मंडोवर
शिरात्रटप द्गमो मची जग रूपान्ति वर्जयेत् । पद्रव्ये arge कथितं विश्वकर्मणा ||२८||
प्रकारान्तरे मंडोवर-२०
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शिरावटी, उद्गम, मंत्री और जंघा, इन थरों में जो जो रूप बनायें जाते हैं, इनसे द्रव्य का अधिक व्यय होता है। इसलिये ये घर बिना रूप का बनायें ताकि खर्च कम हो । विश्वकर्माजी के कथनानुसार इससे पुण्य भी महान होता है | ||२८||
२७ भाग का मंडोवर
इति सामान्यमंडोवरः ।
पीठापर्यन्तं सप्तविंशतिभाजिते । द्वादशानां सुरादीनां भागसंख्या क्रमेण तु ||२६|| स्वेदसार्ध-सा सार्द्धाभिस्त्रिभिः । साईमा भागेश्व सार्व' द्वयं शनिर्ममः || २० || इति प्रकारान्तरे मण्डोवरः ।
मंडोवर को मोटाइ
पीठ के कार से छखा के ऊपर तक मंडोवर के उदय का सत्ताईस (२७) भाग करें। उनमें खुरा आदि बारह परों की भाग संख्या क्रमशः इस प्रकार है-एक भाग का खुरा, चार भाग का कुंभ, डेढ भाग का कलश, याचा भाग का अंतराल, डेठ माग का केवाल, डेढ भाग की मांची पाठ माग की अंधा, तीन भाग का उद्गम, डेढ भाग को भरखो, डेढ भाग का केवाल, रे आधा भाग का अंतराल और दाई भाग का छज्जा का उदय रक्खें, का निर्गम दो भाग में करें | ||२६|| ३०॥
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पादशिनेट के पञ्च षडंशैः शैलदारुजे । सान्वारे चाष्टभिर्भाग' दशांशैर्धातुरत्नजे ||३१||
(१)
।
(२) भरली के ऊपर कितने प्रासादों में शिरावटी है और किनेक प्रासादों में केवाल देलने में पाता है । (३) उष्टशत मिति: ।
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प्रासादमाखने
ईटों के प्रासाद की दीवार प्रासाद के विस्तार के चौथा भाग .जतमी, पाषाण के पौर लकड़ी के प्रासाद की दीवार पांचवें भाग अथवा छठे भाग जितनी, सांधार प्रासाद की दीवार आठवें भाग, धातु और रत्न के प्रासाद की दीवार दसवें भाग जितनी मोटी बनावें ॥३१॥ अपराजित सूत्र १२६ में कहा है कि----
"मृदिष्टकाकर्मयुक्ता भित्ति पादां प्रकल्पयेत् । पञ्चमांशेऽथवा सा तु पष्ठांशे शैलजे भवेत् ।। दारुजे सप्तमांशे सान्धारे चाष्टमांशके।
धातुजे रत्नजे भित्तिः प्रासादे दशांशतः।।" मिट्टी और ईट के प्रसाद की दीवार चौथे भाग, पाषाण के प्रसाद की दीवार पांचवें अथवा छठे भाग, लकड़ी के प्रासाद की दीवार सातवें भाग, सान्धार जाति के प्रासाद को दीवार पाठवें भाग, धातु और रत्न के प्रासाद की दीवार दसवें भाग जितनी मोटी बना। अन्य प्रकार से मंडोवर की मोटाई
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे दशभागैविभाजिते ।
भित्तिद्विभागकर्तव्या षड्भागं गर्भमन्दिरम् ।।३।। समचोरस प्रासाद की भूमि के दस भाग करें। इनमें से दो २ भाग की दीवार की मोटाई रक्खें । बाको छह भाग का गभारा बनार्थे ॥३२॥ शुभाशुभगर्भगृह
मध्ये गुगानं भद्राय मुमदं प्रतिभद्रकम् ।
फालनीयं गर्भगृह दोषदं गर्भमायतम् ॥३३॥ गर्भगृह चार काने वाला पोरस बनायें। उसमें भद्र, सुभद्र और प्रतिभद्र प्रादि फालना (खांचा ) बताना शुभ है । परन्तु लाचारस गभारा बनाने पर दोष होता है ॥३३॥ अपराजित पृच्छा सूत्र १२६ में कहा है कि
"एकद्वित्रिकमात्राभि-गेहं यदायतम् ।
यमचुल्ली तदा नाम मत गृहविनाशिका ||" यदि गर्भगृह एक, दो, तीन अंगुल भी सम्मुख लंबा हो तो यह समचुल्ली नाम का गर्भगृह कहा जाता है । यह स्वामी के गृह का विनाश कारक है।
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तृतीयोऽध्यायः
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संबचोरस शुभ गर्भगृह
"दारजे वलभीनां तु प्रायतं च न दूषयेत् ।
प्रशस्तं सर्वकृत्येषु चतुरस्त्र' शुभप्रदम् ।।" पप० सू० १२६ दारुणादि ( लकड़ी के बने हुए) और वलभी (स्त्रीलिंग ) जाति के प्रासाद में गर्भगृह लंबा हो तो दोष नहीं लगता है। बाकी समस्त जाति के प्रासादों में समचौरस गर्भगृह बनाना, सब कार्यों में प्रशंसनीय और शुभ है। स्तम्भ और मडोवर का समन्वय----
कुम्भकेन समा कुम्भी स्तम्भप्रान्तेन तूदगमः । भरण्या भरणी शीर्षे कपोताल्या समं भवेत् ॥३४॥
पेटके' कूटच्छाचस्प कुर्यात् फ्टस्य पेटकम् । मंडोवर का कुम्भ और स्तंभ को कुम्भी, स्तंभ का मथाला और मंडोवर का उगम, स्तंभही गो और पंडोत र कारगी, मंडोवर वी कपोताली और स्तंभ को शिरावटी, में सब समसूत्र में रखने चाहिये पोर पाट के पेटा भाम तक राजा को नमन { छज्जा नमता). रखनी चाहिये। गर्भगृह के उदय का मान और गुम्बज--
सपइंशः सपादः स्यात् सार्थो गर्भस्य विस्तरात् ॥३५॥ बहदेवालये पट्ट-पेटान्तं हि विधोदयः । मजेदष्टभिरेकांशा कुम्भी स्तम्भोऽद्ध पञ्चभिः ॥३६॥ अद्धन भरणी शीर्ष-नेक पट्टस्तु सार्धकः । व्यासाचॆन करोटः स्याद् दर्दरी विषमा शुभा ॥३७॥
इति गमगृहोदयप्रमाणम् । गर्भगृह (गभारे ) के विस्तार में विस्तार का षष्ठांश युक्त सवाया अथवा हेढा गर्भगृह का उदय रखें। यह गमारे के तल से पाट के पेटा भाग तक गर्भगृह के उदय का तीन प्रकार का मान हा । ( अपराजित पृच्छा सू० १२८. श्लोक ५ में गभारे का उदय पौने दुगुणा तक रखने
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प्रसादने
को कहा है ) जो उदयमान माया हो, उसका ग्राठ भाग करें, उनमें से एक भाग की कुम्भी, साढ़े पांच भाग का स्तंभ, आधे भाग की भरली और एक भाग की शिरावटी बनावें । इसके उपर डेढ़ भाग का केवाल | पाट । खवं । गर्भगृह के विस्तार से प्राधा करोट ( गुम्बज ) का उदय रखना चाहिये, उसमें दर्द का घर विपन संख्या में रक्खें ||३५ से ३७ ||
उदुम्बर ( देहली) की ऊंचाई
मूर्णम्य सूत्रेण कुम्भेनोदुम्बरः समः । तदधः पञ्चरत्नानि स्थापयेच्विल्पिपूजया ||३८||
प्रसाद के कोने के समसूत्र में उदुम्बर ( देहली ) बनायें। यह कुम्भा के उदय के बराबर ऊंचाई में रखें। इसको स्थापना करते समय नीचे पंचरत्न खें प्रौर शिल्पियों का सम्मान करें ||३८||
उदुम्बर की रचना
द्वारव्यासत्रिभागेन मध्ये मन्दारको भवेत् । वृतं मन्दारकं कुर्याद् मृणालं पद्मसंयुतम् ||३६|| जायकुम्भः कणाली च कीर्त्तिवक्त्रद्वयं तथा । उदुम्बरस्य पार्श्वे च शाखायास्तलरूपकम् ||४०|
द्वार के विस्तार का अर्थात् देहली का तीन भाग करें। उनमें से एक भाग का मध्य में मंदारक बनावें । वह प्रर्धचंद्र के आकार वाला गोल और पद्मपत्र युक्त बनाना चाहिये ।
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कुम्दर की ऊंचाई के अर्धभाग में जाड्यकुम्भ और कली, ये दो घर वाली कोठ बनावें । मंदारक के दोनों तरफ एक २ भाग का कीर्तिमुख ( ग्रासमुख ) बनायें और उसके बगल में शाखा के तलका रूपक बनावें ||३६-४०॥
कुंभा से होन उदुम्बर और तल
कुम्भस्या त्रिभागे वा पादे हीन उदुम्बरः । तदर्धे कर्णकं मध्ये पीठान्ते बाह्यभूमिका ॥४१॥
इति उदुम्बर ।
उदुवर का उदय कुम्भ के उदय के बराबर रखना चाहिये । परन्तु कम करना चाहे तो कुम्भ के उदय का श्राघा एक तृतीयांश प्रथवा चौथा भाग जितना कम कर सकते है । उदय के प्रा भाग तक करोठ करना और गर्भगृह का तल रखना चाहिये और बाहर के मंत्रों के तल पीठ के उदयान्त बराबर रक्खे || ४१ ॥
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तृतीयोऽध्यायः
अपराजित पुछा सूत्र १२६ में कहा है कि-
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"उदुम्बरं तथा वक्ष्ये कुम्भिकान्तं तदुच्छ्रयम् । तस्मार्थेन त्रिभागेन पादोनहितं तथा ॥ उक्तं चतुविधं शस्तं कुर्याचैवमुदुम्बरम् । प्रत्युत्तमाश्च चत्वारो न्यूना दुध्यास्तथाधिका ॥ खुरकोट चन्द्रः स्यात् तदूर्ध्वं स्यादुदुम्बरः । उदुम्बराद्ध वा पादे गर्भभूमिका || मण्डपेषु च सर्वेषु पीठान्ते रङ्गभूमिका ।।"
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मंदिर के द्वार को देइज़ो का उदय भारत भाग तथा श्रद्ध चद्र और गवारक,
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प्रासादमण्डने
मन मैं उदुम्बर ( देहली ) का स्वरूप कहता हूँ। यह स्तंभों की कुम्भियों की ऊंचाई के बराबर ऊंचाई का रक्खें । यदि किसी कारण वश लीचा करने की आवश्यकता हो तो कुम्भी के अर्धभाग, तीसरा भाग प्रथवा चौथा भाग जितना नीचा कर सकते हैं। ऐसे चार प्रकार के उदुम्बर का उदय प्रशस्त माना है। इससे होन अथवा अधिक जदय का बनावें तो दुषित होता है. खुरथर के उदय बराबर अर्द्ध चन्द्रका अदय रक्खें, और इसके ऊपर उदुम्बर रक्खें। गर्भगृह के भूमितलका उदय उदुम्बर के आधे, तीसरे अथवा चौथे भाग में रक्खें । बाहर के मंडपों की भूमितल पीठ के उदयान्त तक रक्खें और रंगमंडप का भूमितल पीठ के नीचे के अंत्य भाग में रवखें। क्षीराव में भी कहा है कि
"उदुम्रे क्षते' कुम्भी स्तम्भक चावपूर्वकम् ।
सान्धारे व निरन्धारे कुम्भिकासमुदुम्बरम् ।।' प्रध्याय १०६ यदि किसी कारणवश उदुम्बर का उदय कम किया जाय तो.भी कुम्भी और स्तंभ का मान पहले जितना ही रखना चाहिये, अर्थात् स्तम्भको कुम्भी कम नहीं करनी चाहिये ऐसा विशेष नियम है । बाकी सांधार और निरंधार प्रासादों में कुम्भी के उदय बराबर उदुम्बर का उदय रखना चाहिथे, ऐसा सामान्य नियम है । अर्द्धचन्द्र (शंखापत)---
खुरकेन समं कुर्या-दध चन्द्रस्प चोच्छृतिः । द्वाख्याससमं दैर्घ्य निर्गमें स्यात् तदर्धतः ।।१२।। विभागमर्धचन्द्र च भागेन द्वी गगाको । शङ्खपत्रसमायुक्त पभाकारलतम् ॥४३॥ .
इति प्रचन्द्रः। कितने हो माधुनिक शिल्पियो की मान्यता है कि-"उदुम्बर (देहली) कुम्भा से मिचा उतारने की प्रावश्यकता हो तब उसके बराबर स्तंभ की कुम्भिमा भो नीचा उतारनी चाहिये ।" उनकी यह मान्यता प्रामाणिक मालूम नहीं होतो. क्योकि बोराणं म. १०६ में स्पष्ट लिखा है कि 'अदुम्बरे इते (इसे) कुम्भी स्तम्भ तु पूर्ववत् भवेत् ।' कमी उदुम्बर उदय में कम करने की मावश्यकता हो तब स्तम्भ और उनकी कुम्भिया प्रथम के मान के अनुसार रखनी चाहिये । एवं अपराजित पृच्छा सूत्र १२६ में तो मुस्लिमों से हीउदुम्बर नीचा उतारने को कहा है. तो कुमियां नीचे कैसे की जाय ? इससे साफ मालूम होता है कि अब उदुसर नीचा करने की मावश्यफना हो, तर कुरिभयो नीचे नही करनी चाहिते, किन्तु कुम्भा के उदय बराबर ऊपाई में रखनी चाहिये।
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तृतीयोऽध्यायः
__उदुम्बर के प्रागे जो अर्द्ध चन्द्र के लेसी प्राकृति की जाती है. उसका उदय खुर घर के उदय के बराबर रक्खें। द्वार के विस्तार के बराबर मचन्द्र लंबा बनाये और लम्बाई से प्राधा निर्गम रक्खें । लम्बाई के तीन भाग करके उनमें से दो भाग का अद्धचंद्र और इसके दोनों तरफ प्राधे २ भाग का दो गमारक बनावें । अर्ध चन्द्र और गमारक के बीच में पत्तेवाली वेलयुक्त शंख और पापत्र जैसी माकृति से सुशोभित बनावें ॥४२-४३१) उसरंग
"उदुम्बरसपादेन उत्तरङ्ग विनिदिशेत् । तदुच्छ.यं विभजेत भागा अथकविंशतिः ।। पत्रशाखा विशाखा च द्विसार्धा तु कारयेत् । मालाधरं च त्रिभाग कर्तव्यं दामदक्षिणे।। । अर्वे छाद्यकः पादोनः पादोना फालना तया! रथिका सप्तभागाच भार्गक ठं भवेत् ।। षड्भागमुत्मेधं कार्य-मुद्गर्म च प्रशस्यते ।
इदशं कारयेत् प्राज्ञः सर्वशफलं भवेत् ।।" वास्तुविद्या स०६ द्वार के उदुम्बर के उदय से उतरंग का उदय सवाया रक्खें। जो उदय प्रावे उसके इक्कीस भाग करें । उनमें से ढाई भाग को पत्रशाखा और विशाखा बनावें । उसके ऊपर तीन भाग का मालाधर, पौन भाग की छजी. पान भाग का फालना, सात भाप की रथिका (गवान }, एक भाग का कंठ और छह भाग का उद्गम बनावें। इस प्रकार बुद्धिमान पुरुष उतरंग बनावेंगे तो सब यज्ञों के बराबर फलदायक होता है।
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६२
नागरासाथ का द्वारमान
rase तु प्रासादे द्वारं स्यात् षोडशाङ्गुलम् | पोडशाङ्गुलिका वृद्धि-र्यास्तचतुष्टयम् ॥४४॥ हस्तान्तकं यावत् दीर्घे बुद्धिगुणामुला । द्रयङ्गुला प्रतिहस्तं च यावद्धस्तशताद्ध कम् ॥ ४५ ॥ पानवाहन पन्यङ्क द्वारं प्रासादसनाम् । seat पृथुस्वं स्याच्छोभनं तत्कलाविकम् ॥४६॥
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इति नागरप्रासादद्वारमानम् ।
नागर जाति के प्रासाद के द्वार का उदय एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद के द्वार का उदय सोलह अंगुल रखना चाहिये । पीछे चार हाथ तक सोलह २ अंगुल, पांच से पाठ हाथ तक तीन २ अंगुल और नौ से पवास हाथ तक प्रत्येक हाथ दो २ अंगुल बढ़ा करके द्वार का उदय रखना चाहिये। इस प्रकार पचास हाथ के प्रासाद के द्वार का उदय १६० अंगुल होता है । पालखी, वाहन, शय्या थोर पलंग तथा प्रासाद और घर का द्वार, ये सब विस्तार में लंबाई से प्राधा रखना चाहिये । उसमें भी लंबाई का सोलहवां भाग विस्तार में बड़ाये तो अधिक शोभायमान होता है ॥४४ से ४६ ॥
क्षीरार्णवमें कहा है कि
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प्रासादमयने
"एकहस्ते तु प्रासादे द्वारं च षोडशाङ्गुलम् । इयं वृद्धि: प्रकर्तव्या यावच्च चतुर्हस्तकम् ॥ वेदाङ्गुला भवेद् वृद्धिर्यावण दशहस्तकम् । हस्तविंशतिमाने च हस्ते हस्ते याला ||
गुला भवेद् वृद्धिः प्रासादे विशद्धस्तके | गुलेका सती वृद्धि - वित्पचाशस्तकम् ॥ नागराख्यमिदं द्वार- मुक्तं क्षीरारावि मुने ! | दशमांशे यदा हीनं द्वारं स्वर्गे मनोहरम् ।। अधिक दarriaन प्रासादे पर्वताश्रये । तावत्क्षेत्रान्तरे ज्ञातु-मद्देवमुनीश्वर ! ॥
(१) समरांगण सूत्रधार अध्याय ५५ श्लोक १२६ में चार से अधिक भाव के प्रासादों में सोन तोम अनूस बढाना लीखा है । जिसे पचास हाथ के प्रासाद का द्वारमा २०२ अंगुल का होता है ।
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तृतीयोऽध्यायः
६३
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शिवे द्वारं भवेज्येष्ठं कनिष्ठं च जनालये । मध्यमं सर्वदेवानां सर्वकल्याणकारकम् ॥ उचममुक्यान पादोन मध्यमानकम् । तस्म होनं कनिष्ठं च विस्तारे द्वारमेव च ॥ एवं ज्ञानं यदा शास्वा पा द्वारं प्रतिष्ठितम् ।
नागरं सर्वदेवानां सर्वदेवेषु दुर्लभम् ।।" प्रति विश्वकर्मकते क्षीरावे मारपृष्ठिते शताये पञ्चमोऽध्यायः । एक से चार हाथ तक प्रत्येक हाथ सोलह २ अंगुल को, पांच से दश हाथ तक चार २ अंगुल को, ग्यारह से बीस हाथ तक तीन २ अंगुल की, इक्कीस से तीस हाय तक दो २ अंगुल को और इकतीस से पचास हाथ तक एक अंगुत की वृद्धि करके द्वार बनाना चाहिये। है मुनि ! यह क्षीराव में नागर जाति के द्वार का मान कहा । उसमे से दसवां भाव कम करें तो स्वर्ग के और अधिक करें तो पर्वत के प्राश्रित प्रासाद के द्वारका मान होता है । शिवालय में ज्येष्ठ द्वार, मनुष्यालय में कनिष्ट द्वार और सब देवों के प्रासादों में मध्यम द्वार बनाना चाहिये । यह सब कल्याण करने वाला है। उदय से प्राधा विस्तार रक्खें तो यह उत्तम मान का द्वार माना जाता है। इसमें उत्तम मान के विस्तार का चतुर्थीश कम रक्खें तो मध्यम मान का और इसमें भो मध्यम मान के विस्तार का बशि कम रक्खें तो कनिष्ठ मान का द्वार माना जाता है । ऐसा समझ करके ही सब देवों के लिये यह नागर जाति का द्वार बनाना चाहिये । भूमिजाविप्रासावका द्वारमान
एकहस्ते सुरागारे द्वार सूर्याङ्गुलोदयम् । सूर्याङ्गला प्रतिकरं पृद्धिः पञ्चकरावधि ।।४७| पञ्चाङ्गला च सप्तान्तं नवान्तं सा युगाङ्गुला । द्वथङ्ग ला तु शतान्तिं वृद्धिः कार्या करं प्रति ॥४८॥
" इति भूमिजप्रासादद्वारमानम् । एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद के द्वार का उदय बारह अंगुल, पीछे पांच हाथ तक प्रत्येक हाथ बारह २ अंगुल, छह और सात हाथ तक पांच २ अंगुल पाठ और तब हाथ तक चार २ अंगुल, दस मे पचास हाथ तक के प्रासाद के द्वार का उदय दो २ अंगुल बढ़ा करके रक्खें । ( उदय से प्राधा विस्तार रखना चाहिये । विस्तार में उदय का सोलहवां भाग बढ़ाने से अधिक शोभायमान होता है ) -४८॥
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प्रासादमडने
द्वाविप्रासाद का हारमान
प्रासादे एकहस्ते तु द्वारं कुर्याद् दशा लम् । रसहस्तान्तकं यावत् तानसी वृद्धिरिष्यते ॥३६॥ पञ्चाङ्ग ला दशान्तं च इथङ्ग ला प शनाकम् । पृथुत्वं च तदर्थेन शुभ स्यात्तु कलाधिकम् ॥५०॥
| #কি #বিঃৱামান। एक हाप के प्रासाद के द्वार का उदय दस अंगुल, पीछे छह हाय तक प्रत्येक हाथ दस २ अंगुल, सात से दस हाथ तक पांच २ मंगुल और ग्यारह से पचास हाथ तक के प्रासाद के द्वार का उदय प्रत्येक हाय दो दो अंगुल बड़ा करके रक्खें । उदय से प्राधा विस्तार रक्खें। विस्तार में उदय का सोलहवां भाग बढ़ावे तो अधिक शोभायमान होता है ।।४६-५०॥
अन्य जाति के प्रासादों का द्वारमान--
विमाने भूमिजं मान बैराटेषु तथैव च । मिश्रके लतिने चैव प्रशस्तं नागरोद्भवम् ।।५।। विमाननागरच्छन्दे कुर्याद् हिमानपुष्पके । सिंहावलोकने द्वारं नागरं शोभनं मतम् ।।२।। वलम्यां भू मजं मानं फांसाकारेषु द्राविडम्। " धातुजे रत्नजे चैत्र दारुजे च रथारुहे ||५||
इति द्वारमानम् । विमान और वैराट जाति के प्रासाद का द्वार भूमिज जाति के मान का, मिश्र और लतिन जाति के प्रासाद का द्वार नागर जाति के मान का, विमाननागर, विमानपुष्पक और सिंहावलोकन जाति के प्रासाद का द्वारमान नागर जाति के मान का, वलभी प्रासाद का द्वारमान भूमिज जाति के मान का, फांसनाकार, धातु, रत्न, दारुज और रथारुह जाति के प्रासाद का द्वार द्राविड जाति के मान का रखना चाहिये ।।५१-५३॥
द्वारशाखा
नशा महेशस्य देवानां सप्तशालिकम् । पञ्चशाखं सार्वभौमे विशाख मण्डलेश्वरे ॥५४॥
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तृतीयोऽध्यायः
एकशाखं भवेद् द्वारं शूद्रे वैश्ये द्विजे सदा ।।
समशाखं च धूमाये श्वाने रासभवायसे ॥५५॥ महादेव के प्रासाद का द्वार नवशाखा वाला, दूसरे देवों के प्रासाद का द्वार सात शाखा वाला, चक्रवर्ती राजाओं के प्रासाद का द्वार पांच शाखावाला, सामान्य राजाओं के प्रासाद का द्वार तीन शाखावाला, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र जाति के गृहों के द्वार एक शाखाबाला बना । दो, चार, छह और पाठ, ये सम शाखावाले द्वार धूम, श्वान, खर और ध्वांक्ष प्राय वाले घरों में बनाने चाहिये ।।५४-५५॥ ।
शाखा के प्राय
"नवशाख वणश्चैको वृषभः पञ्चशाखिके ।
त्रिशालेच तथा सिंहः सप्तशाले मजः स्मृतः ।। अप० मू० १३१ नवशाख में ध्वज श्राय, पंचशाख में वृषप्राय, त्रिशास्त्र में सिंह प्राय और सप्तश्वास में गा प्राय देनी चाहिये । प्रासाद के अंग तुल्यं शाखा
त्रिपञ्चसप्तनन्दाङ्ग शाखाः स्युरङ्गतुल्यकाः ।
होनशाखें न कत्तव्य-मधिकाढ्य सुखावहम् ।।५६॥ प्रासाद के भद्र आदि तीन, पांच, सात अथवा नव अंग हैं। उनमें से जितने अंग का प्रासाद हो, उतनी शालायें बनानी चाहिये । अंग से कम शाखा नहीं बनाना चाहिये, लेकिन यदि अधिक बनावें तो वह सुखदायक हैं।
शाखा से द्वारका नाम और परिचय----
"पदिनी नवशाख च सप्तशावं तु हस्तिनी । नन्दिनी पञ्चास्त्रं च त्रिविधं चोनम भवेत् ।। मुकुली मालिनी ज्येष्ठा गान्धारो सुभगा तथा । मध्यमेति द्विधा प्रोक्ता कनिष्ठा सुप्रभा स्मृता ।। मुकुली चाष्टशावं च पट्शाखं च मालिनी ।
(१) श्वाने वाले च रासभे ।
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प्रासादमखने
गान्धारी , चतुः शाख त्रिशाख सुभगा स्मृता ।।
सुप्रभा तु विशाखं चैकशासं स्मरकीर्तितम् ।।" अप० सू० १३१ . नवशाखा वाला द्वारका नाम पधिनी, सात शाखा वाला द्वारका नाम हस्तिनी और पंचशाखा वाला द्वारका नाम नन्दिनी है। ये तीनों द्वार उत्तम हैं। मुकुली और मालिनी ये
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तृतीयोऽध्यायः
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दोनों द्वार ज्येष्ठ हैं। गांधारी और सुभगा ये दोनों द्वार मध्यम हैं और सुप्रभा द्वार कनिष्ठ है। आठ शाखावाला द्वारा मुकुली, छह शाखावाला मालिनी, चार शाखावाला गांधारी, तीन शाखावाला सुभगा दो शरखावाला सुप्रभा और एक शाखावाला स्मरकोति नाम का द्वार है ।
न्यूनाधिक शाखामान -
सार्धम वा कुर्याद्धीनं तथाधिकम् । दोषविशुद्धयर्थं स्ववृद्धी न दुषिते ||२७||
१
द्वार शाखा के मान में शुभ श्राय न थाती हो तो एक, डेढ़ अथवा प्राधा अंगुल न्यूनाधिक करके श्रेष्ठ ग्राम लानी चाहिये । प्राय दोष की शुद्धि के लिये शास्त्रीय मान में इतना न्यूनाधिक परिवर्तन किया जाय तो दोष नहीं है ।। ५० ।।
त्रिशाला
चतुर्भागाङ्कितं कुर्याच्छाखाविस्तारमानकम् । मध्ये द्विभागिकं कुर्यात् स्तम्भं पुरुषसञ्ज्ञकम् ||५८ || aster भवेच्छा पार्श्वतो भागभागिका । निर्गमे चैकभागेन रूपस्तम्भः प्रशस्यते ॥५६॥
शाखा के विस्तार का चार भाग करें। उनमें से दो भाग का रूप स्तंभ बनावें । यह स्तंभ पुरुष संज्ञक है। इसके दोनों तरफ एक २ भाग की शाखा रक्खें। यह शाखा स्त्री संक्षक है । रूप स्तंभ का निर्गम एक भाग का रखना श्रेष्ठ है ॥५६॥
शाखा स्तंभ का निर्गम
एकांश सार्ध
पादोनद्वयमेव च । द्विभागं निर्गमे कुर्यात् स्तम्भं द्रव्यानुसारतः ॥ ६० ॥
द्रय की अनुकूलता के अनुसार शाखा के स्तंभ का निर्गम एक डेढ़ पोना दो अथवा दो भाग तक रख सकते हैं ॥६०॥
शाखोवर का विस्तार और प्रवेश
पेटके विस्तरं कार्यं प्रवेशस्तु युगांशकः । कोशिका स्तम्भमध्ये तु भूपणार्थं हि पार्श्वयोः ||६१॥
(१) हासो वृद्धिर्न दुष्यति ।'
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क सत्तारखा विभाग
सुभगा
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पंचाना भाग
Loud
पत्रिका
मवशरथा.
विस्तारमा ११
[भिंगार
याभ
पशासा
शाखा के विस्तार का बोया भाग शास्या का प्रवेश (निर्गम ) रक्खें । रूपस्तंभ के दोनों तरफ शोभा के लिये एक २ कोरिणका बनावें, इसमें चंपा के फूलों को अथवा जलक्ट को प्राकृति
करें ॥६॥
सूत्रधार राजसिंह कृत वास्तुराज में कहा है कि--
"सर्वेषां पेटके व्यासः प्रवेशस्तु युगांशका ।।
सार्धवेदांशतो वापि पञ्चांशोऽथवा मतः॥" अध्याय ६ ___सब शासानों का प्रवेश शाला के विस्तार के चौधे भाग, साढे चार भाम अथवा पांचवें भाग तक रखें। अपराजित पृच्छा सूत्र १३२ श्लो० २४ वे में भी यही लिखा है। मशाला के द्वारपाल का नाम---
द्वारदर्थे चतुर्थाशे द्वारपालो विधियते । . स्तम्भ शाखादिकं शेष त्रिशाखा च विभाजयेत् ।।६।।
इति निशाखमानम् । .. द्वार के उदय का चार भाग करके एक भाग के उदय में द्वारपाल बनावें और बाकी तीन भाग के उदय में स्तंभ और शाखा आदि बनावें ॥६२॥ .
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तृतीयोऽध्यायः
६६.
शाखा के रूप
"कालिन्दी बामशाखायो दक्षिणे चैव जाह्नवी । गङ्गातनयायुग्म-मुभयो,मदक्षिणे ।। गन्धर्वा निर्गमे कार्या एकभागा विचक्षणः । तत्सूके खेल्बशाखा च सिंहाखा व भागिका ॥
नन्दी च वामशाखायां कालो दक्षलताश्रितः । - यक्षाः स्युरन्तशाखायां निधिहस्ताः शुभोदयाः ।।' अ५० सू० १३२ बांयी द्वार शाखा के द्वारपाल को बांयी और यमुना और दाहिनी ओर गंगा, सचा वाहिनी द्वार शाखा के द्वारपाल को बांयी ओर गंगा और दाहिनी मोर यमुना देवी का रूप बनाना चाहिये । गंधर्व शाखा के समसूत्र में स्वस्वशाखा रक्खें, इन दोनों का निर्मम भी एक भाग रक्खें । सिंहशाला का निर्गम भी एक भाग रक्खें । हाप में निधि को धारण किये हुए बोयो शाखा में नंदी और दाहिनी शाखा में काल नाम के यक्षों के रूप बनावें। पञ्चशाला---
पत्रशाखा च गन्धर्वा रूपस्तम्भस्तृतीयकः । चतुर्थी खल्वशाखा च सिंहशाखा च पञ्चमी ॥३॥
इति पञ्चशाखाः । पहली पशाखा, दूसरी गान्धर्वशाखा, तीसरा रूपस्तंभ, चौथी खल्वशाखा मौर पांचवीं सिंहशाखा है। पञ्यशाला का मान
"शाखाविस्तारमानं च बभि विभाजयेत् । एकभागा भवेच्छाला रूपस्तम्भो द्विभागिकः ॥ निर्गमश्चैकभागेन रूपस्तम्भः प्रशस्पते । कोशिका स्तम्भमध्ये च उभयोमवक्षिणे ।। गन्धर्वा निर्गमे कार्या एकभागा विचक्षणैः । तत्सूत्र खल्वशाखा च सिंहशाखा च भागिका ।। सपायः साधभागो वा रूपस्तम्भः प्रशस्यते ।
उत्सेवस्थाष्टमांशेन शस्तं शाखोदरं मतम् ॥" अप० सू० १३२ पंचशाखा के विस्तार का छह भाग करें। उनमें से एक २ भाग की चार शाखा और दो भाग का रूपस्तम्भ बनावें । रूपस्तम्भ का निर्गम एक भाग रखें, इसके दोनों तरफ एक २
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प्रासादमरने
कोणी बनावें । गान्धर्व शाखा का निर्गम एक भाग रक्खें। उसके समसूत्र में बल्वशाखा और सिंहशाखा एक २ भाग निकलती रक्खें। स्तंभ का निर्गम समा अथवा बेद भाग का भी रख सकते हैं । द्वार के उदय का प्रष्टमांश शाखा के पेटाभाग का विस्तार रखें। सप्तशाखा के मान-----
प्रथमा पत्रशाखा च गन्धर्वा रूपशाखिका । चतुर्थी स्तम्भशाखा च रूपशाखा च पञ्चमी ।।६४|| षष्ठी तु खल्पशाखा च सिंहशाखा च सप्तमी । स्तम्भशाखा भवेन्मध्ये रूपशाखाग्रसूत्रतः ॥६५॥
इति सप्तशाखा:। प्रथमा पत्रशाखा, दूसरी गान्धर्वशाखा, तीसरी रूपशाला, चौथी स्तंभशाखा, पांचवीं रूपशाखा, छट्ठी खल्वशाखा और सातवी सिंहशाखा है। मध्य में स्तंभशाखा रक्खें। यह रूपशाखा से प्रागे निकलती हुयी रक्खें ।।६४-६५॥
सप्तशाखा का मान
"शाखाविस्तारमानं तु वसुभागविभाजितम् । भागभागाश्च शाखाः स्यु-मध्यस्तम्भो द्विभागिकः ।। कोरिणका भागपादेन विस्तारे निर्गमे तथा । निर्गमः सार्धभागेन रूपस्तम्भः प्रशस्यते ॥ . गन्धर्वा सिंहशाखा च निर्गमो भागमेव च ।
निर्गमश्च तदर्धेन शेषाः शाखाः प्रशस्यते ॥' अप० सू० १३२ सप्तशाखा के विस्तार का पाठ भाग कर उनमें से प्रत्येक शाखा का विस्तार एक २ भाग और मध्य में स्तंभ का विस्तार दो भाम रक्खें। स्तंभ में दोनों तरफ विस्तार में और निर्गम में पाव २ भाग की कोणिका बनावें । डेढ़ भाग निकलता रूपस्तम रखना अच्छा है। गंधर्व और सिंहशाखा का निर्गम एक २ भाग और बाको शाखामों का निर्गम प्राधा २ भाम रखना अच्छा है। লঙ্কা * নাম--
पत्रगान्धर्वसज्ञा च रूपस्तम्भस्तृतीयकः । चतुर्थी खल्वशाखा च गन्धर्वा स्वथ पञ्चमी ।।६।।
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तृतीयोऽध्यायः
रूपस्तम्भस्तथा षष्ठी रूपशाख। ततः परम् । खल्वशाखा च सिंहाख्या भूलकर्णेन सम्मिता ॥६७।।
इति नवशाखाः । प्रथमा पशाखा, दूसरी गांवशाखा, तीसरी स्तंभशाखा, चौथी खल्वशाखा, पांचवीं गांधर्वशाखा, छठा रूपस्तंभ, सातबों रूपशाखा, पाठयों खल्वशाखा और नवी सिंहशाला है। थे नक्शाखा का विस्तार प्रासाद के कोने तक किया जाता है ।।६६-६७।।
नवशाखा का मान
"शाखाविस्तारमान तु रुद्रभागविभाजितम् । द्विभागः स्तम्भ इत्युक्त उभयोः कोशिकाद्वयम् ॥ निर्गम: सामान पाधीनदयमेव ।
रूपस्तंभद्वयं कार्य गन्धर्वावयमेव च ॥" अप० सूत्र १३२ नवशाखा के विस्तार का ग्यारह माग करके, उनमें से दोनों स्तंभ दो २ भाग रखना चाहिये । उनके दोनों तरफ पाव २ भाग की कोशिकायें बनावें । स्तंभका निर्गम डेढ़ा अथवा पौने दुगुना रक्खें । इन नवशाखामों में दो स्तंभ और दो गांधर्ष शाखा हैं। दोनों स्तंभ का विस्तार दो २ भाग और प्रत्येक शाखा का विस्तार एक २ भाग रखना चाहिये। उत्तरंग के देव
यस्य देवस्य या मूचिः सैप कार्योत्तरङ्गाके ।
शाखायां च परिवारो गणेशरचोचरणके ॥६॥ इति श्री सूत्रधारमंडनविरचिते वास्तुशास्त्र प्रासादमण्डने भिट्ट
पीठमण्डोयरगर्भगृहोदुम्भरद्वारप्रमाणनामस्तृतीयोऽध्यायः । प्रासाद के गर्भगृह में जिस देश की मूर्ति प्रतिष्ठित हो, उस देव की मूत्ति द्वार के उत्तरंग में रखनी चाहिये । तथा शाखामों में उस देव के परिवार का रूप बनाना चाहिये। उत्तरंग में गणेश को भी स्थापित कर सकते हैं ॥६८||
इति श्री पंडित भगवानदास जैन का अनुवादित प्रासादमंडन के तीसरे अध्याय की सुधिनी नाम्नी भाषाटीका समाता ॥३॥
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अथ प्रासादमण्डने चतुर्थोऽध्यायः द्वारमान से मूत्ति और पासन का मान---
द्वारोच्छायोऽष्टनवथा भागमेकं परित्यजेत् ।
शेषे व्यंशे विभागार्चा त्र्यंशोना द्वारतोऽथवा ॥१॥ द्वार के उदय का पाठ अथवा नव भाग करें। उनमें से ऊपर का एक भाग छोड़ दें, बाकी जो सात अथवा पाठ भाग रहें, उनके तीन भाग करें। उनमें से दो भाग की मूर्ति पौर एक भाग ऊंचाई में पचासन (पीठिका ) बनावें अथवा दरवाजे का तीन भाग करके उसमें से दो भाग की मूर्ति बनावें ॥१॥
द्वार,ये तु द्वात्रिंशे तिथिशककलाशकः ।
ऊर्चाि आसनस्था तु मनुविश्वार्क भागतः ॥२॥ द्वार के जदय का बत्तीस भाग करें। उनमें से पंद्रह, चौदह अथवा सोलह भाग के मान की खड़ी मूत्ति बनावें । बैठी मूत्ति चौदह, तेरह अथवा बारह भाग की बनावें ॥२॥ क्षीरार्णव अ० ११० में लीखा है कि
"द्वारं चाष्टविभक्तं च त्रिधा भक्तं च सप्तभिः । पोटमान भागमेक शेषं च प्रतिमा मुने! सप्तभागं भवेद् द्वारं षड्भागं च विषाकृतम् । द्विभाग प्रतिमामानं शेष पोई हि चौच्यते । द्वारं षड्भागिकं कुर्यात् त्रिधा पञ्च प्रकल्पयेत् । पीठश्चैकेन भागेन द्विभागं प्रतिमा भवेत् ।। एवमूर्ध्वप्रतिमा च पद्धे शयनासनं भवेत् । पीठमानं च नान्यत्र शेषस्थाने च निष्कलम् ॥ जलशय्याप्रमाणेन द्वारविस्तारसाधितम् ।
अन्यथा च यदा अचर्चा विस्तर नेव लक्षयेत् ॥" द्वार की ऊंचाई का पाठ भाग करके ऊपर का एक भाग छोड़ दें, बाकी के सात भाग का तीन भाग करें, उनमें से दो भाग की प्रतिमा और एक भाग को पोठ (पवासन } धमा। .
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चतुर्थोऽध्यायः
श्रथवा द्वार की ऊंचाई का सात भाग करके ऊपर का एक भाग छोड़ दें, बाकी छह भाग के तीन भाग करें, उनमें से दो भाग की प्रतिमा और एक भाग का पबासन बनावें । द्वार की ऊंचाई का वह भाग करके ऊपर का एक भाग छोड़ दें, बाकी के पांच भाग का तीन भाग करें, उनमें से दो भाग की प्रतिमा और एक भाग का पबासन बनायें। यह खड़ी प्रतिमा का मान है । शयनासन प्रतिमा के पीठ का मान द्वारोदव के श्रद्ध मान का बनायें और बाकी प्रतिमा का मान जानें। अलशय्या वाली प्रतिमा के मानानुसार द्वार का विस्तार रक्खें। प्रर्थात् जलशय्यावाली प्रतिमा द्वार के विस्तार से अधिक मास की नहीं बनानी चाहिये।
गर्भगृह का मान-
'चतुरस्त्रीकृते
क्षेत्रे
दशभागविभाजिते । द्विद्विभागेन भागं गर्ममन्दिरम् ||३||
प्रसाद की समोरस भूमि के दस भाग करें । उनमें से दो दो भाग की दोनों तरफ की दीवार और बाकी छह भाग का गर्भगृह बनायें ॥ ३ ॥
गर्भगृह के मान से मूर्तिका मान-
तृतीर्थानि गर्भस्य प्रासादे प्रतिमोचमा ।
मध्यमा स्वदशांशोना पञ्चांशोना कनीयसी ॥४॥
गर्भगृह के विस्तार के तीसरे भाग की प्रतिमा बनाना उत्तम है। प्रतिमा का दसव भाग प्रतिमा के मान में से घटायें तो मध्यम मान की और पांचवां भाग घटादें तो कनिष्ठ मान की प्रतिभा माना जाता है ||४||
देवों का वष्टिस्थान---
आयभागैर्मजेद् सप्तमसप्तमे
द्वार-मष्टमयूर्ध्वतस्त्यजेत् ।
दृष्टि-वृषे सिंहे ध्वजे शुभा ॥५॥
देहली के ऊपर से लेकर उत्तरंग के नीचे भाग तक के द्वार के दोष में आठ भाग करें। उनमें से ऊपर का आठवां भाग छोड़कर उसके नीचे का सातवां भाग का आठ भाग करें । (3) 'fafafara w'I'
* कितने हो शिल्पी सात और आठ भाष के मध्य में मां को कोकी रहे, इस प्रकार प्रतिमा की दृष्टि रखते है, इससे भाय का मेल नहीं मिलता, जिसे उनकी मान्यता प्रमाखिक मानून नहीं होती । ६० १०
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प्रासादमण्डने
उनमें से भी ऊपर का एक भाग छोड़कर के उसके नीचे का सातवां भाग मज प्राय है, उसमें सब देवों की दृष्टि रखनी चाहिये । अर्थात् द्वार के मध्य उदय का चौसठ भाग करके उनमें से पचपनवे भाग में दृष्टि रखें। अथवा पाठ भाग वाले सातवें भाग के वृष, सिंह और ध्वज आय में श्री दृष्टि का गाना है विशेष देवों का दृष्टिस्थान----
पठभागस्य पश्चाशे लक्ष्मीनारायणादिदृक् ।
शयनार्चेशलिङ्गानि द्वाराद्ध' न व्यतिक्रमेत् ॥६॥ द्वार के पाठ भागों में जो छठा भाग है, उसके आठ भाग करके पांचवें भाग में लक्ष्मीनारायण की दृष्टि रखरखें। शयनासन वाले देव और शिवलिङ्ग की दृष्टि द्वार के अर्धभाग में रक्खें, किन्तु द्वारार्ध का उल्लंघन करके दृष्टि नहीं रक्खें ॥६॥ देवों का पदस्थान---
पट्टाधो यक्षभूतायाः पट्टाये सर्वदेवताः । तदने बैष्णवं ब्रह्मा मध्ये लिङ्ग शिवस्य च ॥७॥
इति प्रतिमाप्रमाणदृष्टिपदस्थानम् । गर्भगृह के स्तंभ के ऊपर जो पाट' रखा जाता है, उसके नीचे यक्ष. भूत और नाग आदि को स्थापित करें। तथा दूसरे सब देव पाट के पागे स्थापित करें। उसके आगे वैष्णव और ब्रह्मा को और गर्भगृह के मध्य (ब्रह्मभाग ) में शिवलिंग को स्थापित करें 101 वत्थुसार पयरण ३ के मत से पदस्थान---
“गम्भगिहड्डपरशंसा जक्खा परमंसि देवया बीए ।
जिरगकिपहरवी तइए बंभु उत्थे शिवं पणमे ।।" गर्भगृह के बराबर दो भाग करें, उनमें से दीवार के तरफ के भाग के पांच भाग करें, इनमें दीवार वाले प्रथम भाग में यक्षको, दूसरे भाग में देवियों को, तीसरे भाग में जिनदेव, कृष्ण (बिष्णु ) और सूर्य को, चौथे भाग में ब्रह्मा को और पांचवें भाग में (गर्भगृह के मध्य भाग में ) शिवलिङ्ग को स्थापित करें। समरांगण सूत्रधार प्र०७० के मत से पदस्थान--
"भवते प्रासादगई दशधा पृष्ठभागतः । पिशाचरक्षोदनुजाः स्थाप्या .गन्धर्वगुह्यकाः ।। प्रादित्यचण्डिकाविष्णु-ब्रह्मशानाः पद कमात् ।।"
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चतुर्थोऽध्यायः
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गर्भगृह के बराबर दो भाग करके दीवार की तरफ के अर्धभाग के दस भाग करें, उनमें से दीवार से प्रथम भाग में पिशाच, दूसरे में राक्षस, तीसरे में दैत्य, चौथे में गंधर्व, पांच में थक्षछठे में सूर्य, सातवें में चंडिका, पाठवें में विष्णु, नवें में ब्रह्मा और दसवें में शिव को स्थापित करें। अग्निपुराण अ०६७ के मत से पदस्थान----
"षभिविभाजिते गर्भ त्यक्त्वा भागं च पृष्टतः । स्थापनं पञ्चमांशे च यदि वा वसुभाजिते ।।
स्थापनं सप्तमे भागे प्रतिमास सुखावहम् ।।" गर्भगृह का छह भाग करें, उनमें से दीवार के पासका एक भाग छोड़ दें, उसके प्रागे के पांचवें भाग में सब देखों को स्थापित करें । अथवा गर्भगृह के पाठ भाग करके दीवार के पासका एक भाग छोड़ दें, उसके प्रागे सातवें भाग में सब देवों को स्थापित करना सुखकारक है । * प्रहार थर--
खाद्यस्योर्चे प्रहारः स्याच्छङ्ग शृङ्ग तथैव च ।
प्रासादक्षाधु अधोभागे तु छाद्यकम् ॥८॥ छज्जा के ऊपर प्रहार का पर बनावें। प्रत्येक शृङ्ग के नीचे प्रहार का घर बनाना चाहिये । उसके नीचे खाद्य { छज्जा) बनायें | थायके परमान---
छाध भागद्वयं साधं सार्धमागं च पालवम् ।
मुण्डलीकं भागमेकं भागेन तिलकस्तथा ॥६॥ A छज्जा का उदय दो भाग अथवा डेढ़ ( ढाई ? ) भाग, पालव डेढ भाग, मुंलिक एक भाग और तिलक एक भाग रखना चाहिये ।।६।। भूगक्रम--
मूलकणे रथादौ च एक द्वित्रिक्रमान् न्यसेत् ।
निरन्धारे मूलभिसौ सान्धारे भ्रमभितिषु ॥१०॥ विशेष माहिती के लिये स्वयं द्वारा अनुवादित 'देवतामूस्ति प्रकरण' और 'एमएन' देखना चाहिये । A मह श्लोक बहतसो प्रतों में नहीं है।
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प्रासादमण्डने
मूलकण (कोना!, रथ, उपरथ प्रादि प्रासाद के अंग हैं, उनके ऊपर एक, यो अथवा तीन शृङ्ग अनुक्रम से पढा । निरंधार ( प्रकाश वाला ) प्रासाद को मुख्य दीवार पर और सांधार (परिक्रमा वाला) प्रासाद हो तो परिक्रमा की दीवार पर शुङ्गों का क्रम रखें ॥१०॥ उराग का क्रम--
उरूपङ्गाणि मद्रस्यु-रेकादिग्रहसंख्यया । प्रयोदशोचे सप्तायो मुप्तानि चोरुभृङ्गकैः ॥११॥
प्रसाद के भद्र के ऊपर एक से नब तक उरःशृङ्ग पड़ारे जाते हैं। शिखर के उदय का तेरह भाग करके उनमें से सात भाग के मान हारः शृङ्ग बनावें । दूसरा उराशृङ्गप्रथम के उरःशृङ्ग का तेरह भाग करके उनमें से सात भाग का बनावें। इस प्रकार ऊपर के उरः शृङ्ग का तेरह भाग करके सात भाग के उदय में नीचे का उरःशृङ्ग रक्खें ॥११॥
अस्पद वीरमर
उरुभंगकी रचना
शिखरका निर्माण शिखर निर्माण---
रेखासूले च दिग्भागं कुर्यादले पदंशकम् ।
पडबाय दोपदं प्रोक्तं पञ्चमध्ये न शोभनम् ॥१२॥ शिखर के नीचे के दोनों कोने के विस्तार का दस भाग करें। उनमें से सिखर के अपर के स्कंश का विस्तार यह भाग रखें। इस स्कंध का विस्तार छह भाग से अधिक रक्खें तो
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चतुर्थोऽध्यायः
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शिक्षर दोष कारक होता है और पांच भाग से कर रखें तो frer शोभायमान नहीं होता ।।१२॥ मानरलकोष में लीखा है कि--
"चतुरस्त्रीकृते क्षेत्र शधा प्रतिमानिले । दो दो भागो तु कर्तव्यो कोणे कोणे न संशयः ।। भद्रं भागत्रय कार्य सार्धभागं तु चामुगम् । भ्यासमान सपाद च उच्छयेण तु कारयेत् ।। स्कन्धं पडभागिकं कार्य तस्योय नवधा भवेत् । चतुर्भागायतं कोणं निभिर्भागस्तु भानुगम् ॥
भद्रपूर्ण तु दिभिर्भागस्ततस्तु साधमेत् कलाम् ।।" प्रासाद के समचोरस क्षेत्रका दस भाग करें। उममें से दो दो भाग के दो कोरण, लीन भाग का भद्र और डेट २ भाग के दो प्रतिकरण बनायें। मिलर विस्तार से ऊंचाई में सवाया रक्खें और उसका स्कंध छह भाग विस्तार में रक्खें। इसका नव भाग करके चार भाग के दोनों कोण, तीन भाग के दोनों प्रतिकर्ण और पूरा भद्र दो भाग का रक्खें। पीछे रेखा बनावें। . कलारसाको सामना"पादिकोणं द्विधा कृत्य
प्रथम वेदभाजितम् ।। द्वितीयं तु विनिर्माग-रेवं . सप्तकला भवेत् । उदय पटभिर्भाग: कुस्मा
रेखां समालिखेत् ॥ अतिर्यग भागानां भागे
भागे तुलादयेत् । एवं तु विध्यते रेखा भद्रे , कोणे तवानुमें "
एक तरफ के कोण का दो भार करें। उनमें से प्रथम भाग - का चार और दूसरे भाग का
२५६ रेखा का नकशा
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प्रासादमडने
तीन भाग करने से सात कला रेखा होती हैं । इसी तरह दूसरी तरफ के कोण को भी सात कला रेखा होती हैं। ऐसी कुल चोदह कला रेखाओं में दोनों प्रतिकर्ष की दो कला रेखा मिलाने से सोलह कला रेखा होती हैं । इनके उदय में सोलह २ भाग करने से दोसौ छप्पन कला रेखामें होती हैं। उदयभवोद्भवरेखा--
सपादं शिखरं कार्य सकणं शिखरोदयम् ।
संपादकर्णयोमध्ये रेखाः स्युः पञ्चविंशतिः ॥१३॥ मूलरेखा के विस्तार से शिखर का उदय सवाया करें । सबाया शिखर में दोनों कोने के मध्य में पचीस रेखायें हैं ।।१शा
. सपादकर्णयोमध्ये उदये पञ्चविंशतिः ।
प्रोक्ता रेखाः कलाभेदै-चलणे पञ्चविंशतिः ॥१४॥ सवाया उदय वाले शिखर के दोनों कोने के मध्य में पचीस रेखा उदय में होती हैं। काला के भेद से ये शिखर के नमन में पचौस रेखायें है ॥१४॥ कलाभेदोद्भव रेखा--
पञ्चादिनन्दयुग्मान्तं खण्डानि तेष्वनुक्रमात् ।
अंशवृद्धया कलाः कार्या दैये स्कन्धे च तत्समाः ॥१५॥ शिखर के उदय का पांच से लेकर उनतीस खंड करें। उन खंडों में अनुक्रम से एक २ कला उदय में बढ़ावें । जैसे-प्रथम पांच खंडों में एक से पांच कला, छठे में छह और सास में सात, इस प्रकार उनतीसचे खंड में उनतीस कला है । उदय में जितनी कला होवे, उतनी कला संख्या स्कंध में भी बनाना चाहिये ॥१५॥
अष्टादावष्टपष्टयन्त चतुर्थ द्धया च पोडश ।
दैर्ध्यतुल्याः कलाः स्कन्धे एकहीनांशोऽशोभनम् ॥१६॥ प्रथम समचार की त्रिकखंडों में पाठ २ कला रेखा हैं। पोछे भागे के प्रत्येक खंड में चार २ कला बढ़ाने से अठारहवें खंड में अड़सठ कला रेखा होती है । उदय में जितनी कला रेखा हो, इतनी स्कंध में भी बनाई । एक भी कम रक्खें तो शोभायमान नहीं लगता ॥१६॥
(१) पुनरुक्ति मालूम होता है।
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चतुर्थोऽध्यायः
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ऊर्धा अष्टादशांशाः स्यु-स्तिर्यक्षोडश एव च ।
चक्रेऽस्मिञ्च भवन्त्येव रेखाणां पटशरद्वयम् ॥१७|| शिखर के उदय में अठारह और तिरछी सोलह रेखा होती हैं, ऐसा चक्र बनाने से दोसौ छप्पन रेखायें होती हैं, उपर 'कला रेखा को साधना' पढ़ें ॥१७॥ प्रथम समधार को त्रिखंडा कलारेखा---
त्रिखाडत् खण्डवृद्धिश्च पाक्दष्टादशैव हि ।
एकैकांशे कलाप्टौ च समचारस्तु षोडश ॥१८॥ भिखंड से लेकर एक २ संच बढ़ाते हुए प्रारह खंड तक बढ़ावें । प्रथम प्रत्येक त्रिखंड में • समवार को पाउ २ कला रेखायें हैं। ऐसे सोलह चार हैं ॥१८॥ दूसरा सपादचार को त्रिखंडा कलारेखा
द्वितीयप्रथमे खण्डे कलादौ द्वितीये नन ।
तृतीये दशखण्डेषु शेयेपूर्वेष्वयं क्रमः ॥१६॥ दूसरा सावत्रार हो तो प्रथम खंड में प्रार, दूसरे खंड में नब और तीसरे खंड में दस कला रेखा बनावें । इस प्रकार बाकी के चारों में भी इसी क्रम रेखा बनावें ॥१६॥ तीसरा सार्द्धचार को त्रिखंडा कलारेखा---
अष्टदिक्सूर्यभार्गश्च त्रिखण्डा तृतीया भवेत् ।
अनेन क्रमयोगेन कोष्टानकै प्रपूरयेत् ॥२०॥ तीसरा सार्धचार हो तो प्रथम खंड में पाठ, दूसरे खंड में दस और तीसरे खंड में बारह कलारेखा बनावें। इस क्रम से दूसरे चारों के कोठे को अंकों से पूर्ण करें ॥२०॥ सोलह प्रकार के चार
'समः सपादः सार्द्धश्च पादोनो द्विगुणस्तथा । द्विगुणश्च सपादो द्वो सार्थः पादोनकस्त्रयः ।।
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• श्लोक १५ से २० तक का खुलासा धार प्राशय समझने के लिये देखो पार के भेदों से निखका को रेखा और कला जानने का यंत्र।
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प्रासादमखने
त्रिखंडा को रेखा और कला
-
प्रथम
द्वितीर! हतीय
मम्बर
चार के माम
रेखा का नाम
कला
कुल संख्या
शशिमी
समचार ८x१% संपादचार ext-१० सार्थचार
शीतला
सौम्या
शुमा
पादोनद्रवार
शारता EX -१४ द्विगुणचार
मनोरमा ८४२-१६ सपाद हिमाचार २४२%3D१८ साधौगुहाचार २x२१-२० पादोजवरचार
वीरा Ex -२२ विगुणचार ८३८२४ এখার শিমু
पपसेखरा X =२६. सानिगुराचार
ललिता XD२८ पादोन चतुष्क
सीलावती ४३%D३० चतुर्गुणचार
विदशा Ex३२ सपाद चतुष्कचार
पूर्णभण्डला EX४३४ सार्धचतुष्कबार
. पूर्णभद्रा 4X४३६ पादोन पंचकचार
भद्राङ्गी . EXY इस प्रकार चतुःखंडादिको कला रेखाएं चार के भेदों से समझना चाहिये ।
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चतुर्थोऽध्यायः
त्रिगुणोऽथ सपादोऽसी सार्थः पादोनवेदकः । चतुर: सपादोऽसौ सार्धः पादोनपञ्चकः ॥
इति षोseer चारं त्रिखण्डाद्यासु लक्षयेत् ॥" ० सू० १३६
.........................................................
त्रिखंडादि खंडों में सोलह कलाचारों के भेदों से सोलह र रेखायें उत्पन्न होती हैं । सोलह कलावार इस प्रकार है- प्रथम सम ( बराबर ) चार, दूसरा रूपाय ( सवाया ) चार, तीसरा सार्द्ध ( डेढ़ा ) चार चौथा पौने दो गुणा पांचवां दो गुगा, छट्टा सवा दो गुणा सातवां ढाई गुणा, आठवां पीने तीनगुणा, नयां तीनगुणा, दसवां सवा तीनगुणा, ग्यारहवां साढ़े तीनगुणा, बारहवां पीने चार गुणा, तेरहवां चार गुणा चौदहवां सवा चार गुणा, पंद्रहवां साढ़े चार गुणा और सोलहवां पौने पांच गुणा है ।
रेखासंख्या
रेखाणां जायते संख्r पञ्चाशतद्वयम् । देति यावत्यः कलाः स्कन्धेऽपि तत्समाः ॥२१॥
मंडोवर और शिखर का उदयमान -
(१) शिखरौदयम्' | मा० ११
८१
इति रेखानिर्णयः ।
सोलह प्रकार के कलाकारों के भेदों से प्रत्येक त्रिखंडादि में सोलह २ रेखायें उत्पन्न होती हैं। इसलिये रेलों की कुल संख्या दोसी छप्पन होती हैं। शिखर के उदय में जितनी कलारेखा उत्पन्न हो, उतनी स्कंध में भी बनानी चाहिये ||२१||
विशद्भिर्विभजे भागैः शिलातः कलशान्तकम् । restrisaree-raiशैः शिखरं परम् ||२२||
खरशिला से लेकर कलश के यंत्र भाग तक के उदय के बीस भाग करें। उनमें से ग्राठ साढ़े आठ अथवा नव भाग का मंडोवर का उदय रक्खें, इसी क्रम से ज्येष्ठ मध्यम और कfag मान के मंडोवर का उदय होता है । ऐसा प० सू० १३८ में भी कहा है। बाकी जो भाग रहे, उतने उदय का शिखर बनावें ||२२||
शिखर विधान --
रेखालस्य विस्तारात् पद्मकोशं समालिखेत् । चतुर्गुणेन सूत्रेा सपादः शिखरोदयः ॥ २३॥
(२) 'विहारे' |
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प्रासादमण्डने
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मूलरेखा के विस्तार से चार गुणा सुत्र से दोनों कोने के मूल विदु से दो गोल बनावें । जिसके दोनों गोल के स्पर्श से कमल की पंखुड़ी जैसी प्राकृति वाला प्रमकोश बन जाता है। उसमें दोनों को सेवा विस्तार स्वास सिर या ॥२३॥
ग्रीवा, प्रामलसार और कलशका मान--- .
स्कन्धकोशान्तरे सप्त-भक्ते ग्रीवा तु भागतः । सार्ध श्रामलसारश्च पअच्छत्रं तु सार्धकम् ॥२५॥ त्रिभाग उच्चकलशो द्विभागस्तस्थ विस्तरः।।
प्रासादस्याटमांशेन पृथुत्वं कलशाण्डकम् ॥२शा ऊपर के लिखे अनुसार सवाया शिखर का उदय करने के बाद जो पत्रकोश का उदय बाकी रहता है, उसमें ग्रीवा, प्रामन्नसार और कलश बनावें । जैसे----शिखर के स्कंध से लेकर पशकोश के अन्त्य बिन्दु तक के उदय का सात भाग करें। उनमें से एक भाग को मोवा, हेद भाग का प्राभलसार, डेढ़ भाग का पश्चच्छत्र ( चंद्रिका ) और तीन भाग का कलश बना। द्विभाग के बिस्तार वाले कलश का बीजोरा बनावें। कलश के अंडा का विस्तार प्रासाद के पाठवें भाग का रक्खें ।।२४-२५।। शुकनासका उदय-----
छाधतः स्कन्धपर्यन्त-प्रेकविंशतिभाजिते ।
अङ्कदिगद्रसूर्या श-विश्वांशैस्तस्य चोच्छ्रतिः ॥२६॥ छज्जा से लेकर शिखर के स्कंध तक के उदय का इश्कीस भाग करें। इनमें से नब, दस, ग्यारह बारह अथवा तेरह भाग तक शुकनास का उदय रबखें ।।२६।। सिंहस्थान----
शुकनासस्य संस्थाने छाधो पञ्चधा मतम् । एकत्रिपञ्चसप्ताङ्क-सिंहस्थानानि कल्पयेत् ॥२७॥
عبر عنه بالا به
शिल्पियों को मान्यता है कि-मूलकणं पायचा) से शियर का उदय सवाश करना हो तो पायचे के विस्तार से चार गुना सूत्र मे, हेदा करना हो तो पांच गुमः सूत्र से, पौने धूगुना करना हो तो पौने सात गुना सूत्र से और ११ उदय करना हो तो साहे चार मूना सत्र से मूसा के दोमो विन्दु से दो गोल बनाने से कमल के पखुडी जैसा प्राकार बन जाता है। इसमें अपने इष्ट मान के समय में शिखर का कंघ मोर काकी रहे उदय में मामलसार और कलश यादि बना।
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'चतुर्थोऽयायः
छज्जा के ऊपर शुकमास का उदय पांच प्रकार का माना है। उनमें से शुकनास के उदय का जो मान आया हो उसका नव भाग करें। इनमें से एक, तीन, पांच, सात अथवा नव, इन पांच भागों में से किसी भी भाग में सिंह स्थान की कल्पना कर सकते हैं । अर्थात् उस स्थान पर सिंह रखा जाता है ॥२७॥
• कपिली (कोलों) का स्थान
द्वारस्य दक्षिणे कामे कपिली विधा मता ।
शुकनासा स्यात् सैव प्रासादनासिका ||२८||
गर्भगृह के द्वार के कार दाहिनी और बांयी ओर छह प्रकार से कोली बनावें । उसकी ऊंचाई में शुकनास बनावें, यह प्रासाद की नासिका है ||२८||
कपिली का मान-
प्रासादो दशभागश्च द्वित्रिवेदांश सम्मिताः । प्रासादार्धेन पादेन त्रिभागेनाथ निर्मिता ॥२६॥
प्रासाद के विस्तार का दस भाग करें, उनमें से दो तीन अथवा चार भाग को, तथा प्रासाद के मान से आधे चौथे अथवा तीसरे भाग के मान को ऐसे छह प्रकार के मान से कपिली (कोली ) बनाने का विधान है ||२६
यह प्रकार की कपिली
"चिता कुविता शस्यात्रिोदितकमागताः । मध्यस्था भ्रमा सभ्रमा षट्कोल्यः परिकीर्तिताः ॥ प्रासादे दशचा भक्ते भूमिसीमा विचक्षण ! 1 चिताच द्विभागा स्यात् त्रिभागा कुञ्चिता तथा ॥ atar देवं चतुर्भागा faar चक्रमागताः ।
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५३
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प्रासादपादमध्यस्था
अमा सद्यविभागतः ।
श्रद्ध तु सभ्रमा कार्या प्रासादस्य प्रमाणतः ॥ श्र० सू० १३८
● गर्भगृह के द्वार के मंडप को कोसी मंडप कहते हैं। उसके छा के ऊपर शुक्रवास के दोनों तरफ शिखर के आकार का मंडप किया जाता है, उसको माधुनिक शिल्पीयों प्रासादपुत्र कहते हैं । उसका नाम
कपिली अथवा कोली है।
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प्रासादमण्डने
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अंचिता, कुञ्चिता, स्या, मध्यस्था, भ्रमा और सभ्रमा ये यह प्रकार के कोली के नाम हैं। प्रासाद के विस्तार का दस भाग करके, उनमें से दो भाग की कोली बनावें, उसका नाम अंचिता, तीन भाग वाली कोली का नाम कुचिता और चार भाग वाली कोली का नाम शस्मा है। तया प्रासाद के विस्तार मान के चौथे भाग को कोलो बनावें, उसका नाम मध्यस्था, तोसरे भाग वालो कोली का नाम भ्रमा और प्राधे भाग वाली कोली का नाम सभ्रमा है। . प्रासाद के अंडक और आभूषण
शृङ्गोलगप्रत्यङ्ग गणवेदएइकानि' च।
तबङ्गतिलक कर्णं कुर्यात् प्रासादभूषणम् ॥३०॥ शिखर, उरुशृङ्ग, प्रत्यंग और शृङ्ग, ये प्रासाद के अंडक माने जाते हैं, ऐसा विद्वान लोग मानते हैं । तथा सरग, तिलक और सिहवर्ण प्रासाद वे. श्राभू, माने जाते हैं ॥३०॥ शिखर के नमन का विभाग---
दशांशे शिखरे मूले अग्रेतननवांशके ।
साांशको रथी कर्णों द्वौ शेष भद्रमिष्यते ।।३१।। शिखर के मूल में दस भाम और ऊपर स्कंध के नव भाग करें, उनमें से हैद २ भाग के दो प्रतिरथ प्रौर दो दो भाग के दोनों कोने बनावें । बाकी जो तीन भाग नीचे और दो भाग पर बचे हैं, उस मानका भद्र बनावें ॥३१॥
प्रामलसार का मान--
रथयोरुभयोर्मध्ये वृत्तभापलसारकम् । उच्छयो विस्तराधेन चतुर्भागर्विभाजयेत् ॥३२॥ ग्रीवा चामलसारश्च पादोना च सपादकः ।
चन्द्रिका भागमानेन भागेनामलसारिका ॥३३॥ दोनों प्रतिरथ के मध्य विस्तार के मान का गोल मामलसार वनाना चाहिये । इसकी ऊंचाई विस्तार से श्राधी रक्खें। ऊंचाई का चार भाग करें। उनमें से पौने भाग की ग्रीवा (गला ), सवा भाग का नामलसार, एक भाग की चन्द्रिका और एक भाग को प्रामलसारिका बनावें ॥३२-३३॥
(१) 'एकाच गणवेत् सुत्री:' ।
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चतुर्थोऽध्यायः
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प्रकारान्तर से प्रामलसार का मान----
"स्कन्धः पहभागको ज्ञेयः सप्तशामलसारकः । क्षेत्रमविशमा पछये
: ग्रोथा भागश्रयं कार्या अण्डकः पञ्चभागकः । त्रिभागा चन्द्रिका चव तथैवामलसारिका !! निम पटसार्थभागो भवेदामलसारिका । चन्द्रिका- द्विसाधभाग अण्डकः पञ्च एव च ।। " ज्ञान प्रदी० अ०६
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firmairiesTRANA नमिता तोरणयमते प्रामलकारक मान .
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स्कंध का विस्तार छह भाग और ग्रामलसार का विस्तार सात भाग रक्खें। आमलसार के विस्तार का अठाईस भाग प्रौर ऊंचाई का चौदह भाग करें । उदय में तीन भाग का गला, पांच भाग का अंडक, तीन भाग को चन्द्रिका और तीन भाग की प्रामलसारिका रवखें ।
आमलसार के मध्य गर्भ से विस्तार में साढे छह भाम निकलती प्रामलसारिका, इससे ढाई भाग निकलती चंद्रिका और इससे पाच भाग निकलता अंधक (मामलसार ) रखना चाहिये। मामलसारके नीचे शिखरके कोणरूप---
"शिवे तु चैश्वरं रूपं ध्यानमग्नं विचक्षण !!
शिखरकरणे दातव्यं जिने कुर्याग्जिनेश्वरः ॥" क्षीरावे । ... शिखर के मामलसार के नीचे और स्कंध के कोने के ऊपर शिवालय हो तो ध्यान में मग्न ऐसे शिव के रूप तथा जिनालय हो तो जिनदेव के रूप रखे जाते हैं ।
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प्रासादमखने
सुवर्णपुरुष (प्रासाद पुरुष) का स्थापनक्रम--
वृतपानं न्यसेन्मध्ये वानवारं सुबरजम् ।
सौवर्णपुरुष तत्र तुलीपर्यवशायिनम् ॥३४॥ आमलसार के गर्भ में धो से भरा हुमा सोना, चांदी अथवा तांबे का कलश सुवर्णपुरुष के पास रखना चाहिये । तथा चाँदी अथवा बंधन का पलंग रक्खें, उसके ऊपर रेशम को शय्या बिछा करके, उस पर सुबर्णपुरुष को शयन करावें । यह विधि शुभ दिन में वास्तु पूजन करके करनी चाहिये । क्योंकि यह प्रासाद का मर्मस्थान ( जीवस्थान ) है ॥३४॥ सुवर्ण पुरुष का मान और उसकी रचना---
प्रमाणं पुरुषस्यार्धा-गुलं कुर्यात् करं प्रति । त्रिपताकं करे यामे हृदिस्थं दक्षिणाम्बुजम् ॥३५॥
प्रासाद पुरुष का प्रमाण प्रासाद के विस्तार के अनुसार प्रत्येक हाथ प्राधा २ अंगुल बढ़ा करके बनावें । अर्थात एक हाथ के प्रासाद में प्राधा अंगुल, दो हाय के प्रासाद में एक अंगुल, तोन हाथ के प्रासाद में डेढ़ अंगुल और चार हाथ के प्रासाद में दो अंगुल, इस प्रकार प्रत्येक हाथ प्राधा २ अंगुल बढ़ा करके बनावें। इस सुवर्णपुरुष के बांये हाथ में ध्वजा रखकर के यह छाती पर प्रौर दाहिना हाथ कमलयुक्त रबरवें ॥ ३५॥ .. अपराजितपृच्छासूत्र १५३ में कहा है कि--
"प्रथातः सम्प्रवक्ष्यामि पुरुषस्य प्रवेशनम् । न्यसेन देवालयेष्वेवं जीवस्थानफलं भवेत् ।। छादनोपप्रवेशेषु शृङ्गमध्येऽयवोपरि । शुकनासावसानेषु वेद्य र्षे भूमिकान्तरे ।। मध्यगर्भ विधातव्यो हृदय वर्णको विधिः । हंसतुली ततो कुर्यात् ताम्रपर्थसंस्थिताम् ।
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*कुछ शिल्पियों का मत है कि---घीसे भरा हुमा सोना, चांदी प्रयदा ain के कलश में सुवर्ण पुरुष को रखकर के, वह कलश पलंग पर रखें।
(१) 'दक्षिणं करम्'।
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चतुर्थोऽध्यायः
शयनं चापि निर्दिष्टं पद्म वै दक्षिणे करे । fer करे वामे कारयेद्धदि संस्थितम् ॥"
यह सुवर्णपुरुष देवालय का जीवस्थान है, इसलिये उसको देवालय में स्थापना करने का स्थान कहता है- यह छज्जा के प्रवेश में शिखर के मध्य भाग में अथवा उसके ऊपर, शुकनास के प्रतिम स्थान में, वेदी के ऊपर प्रौर दो माल के मध्य गर्भ में स्थापन करना चाहिये । यह हृदrade (जीव) विधि है । इसको तांबे के पलंग के ऊपर रेशम की शय्या बिछा कर उसके ऊपर शयनना चाहिये। उसके दाहिने हाथ में कमल और बांये हाथ में ध्वजा रखकर यह हाथ छाती के ऊपर रखना चाहिये ।
८७
प्रमाणं तस्य वक्ष्यामि प्रासादादी समस्तके | यावच्छतार्थं हस्तादेः कल्पयेच यथाक्रमम् ॥ वृद्धिरङ्गलास् यावन्मे प्रकल्पयेत् । एवंविधं प्रकर्तव्यं सर्वकामफलप्रदम् ।। हेमजं तारणं वापि ताम्रजं वापि भागशः । कलशे चाम्बुपूर्णे तु सौवर्णं पुरुषं न्यसेत् ॥ पर्यङ्कस्य चतुःपत्सु कुम्भाश्चत्वार एव च । हिरण्यनिधिसंयुक्ता आत्माभिरङ्किताः ॥ एवमारोप देवं यथोक्तं वास्तुशासने |
तस्य नैव भवेद् दुःखं यावदाभूत सम्प्लवम् !!"
श्रम सुदर्श पुरुष का प्रमाण कहता है-- एक हाथ से पचास हाथ तक के प्रासाद के लिये प्रत्येक हाच प्राधा २ अंगुल बढ़ा करके बनायें | यह सोना, चांदी प्रथवा तांबा का बनाकर जलपूर्ण कलश में स्थापन करें। पीछे उसको पलंग के ऊपर रखें। इसके पश्चात् अपने नाम वाली सुवर्णमुद्रा से भरे हुए चार कलश पलंग के चारों पायों के पास रखें। इस प्रकार सुवर्णपुरुष को स्थापित करने से जब तक जगत विद्यमान रहे, तब तक किसी प्रकार का दुःख देवालय बंधाने वाले को नहीं होता है ।
कलश की उत्पत्ति और स्थापना --
arera समुत्पन्नं प्रासादस्याग्रजातकम् । माङ्गल्येषु च सर्वेषु कलशं स्थापयेद् युधः || ३६॥
जब देवों ने क्षीरसमुद्र का मंथन किया, तब उसमें से चौदह रत्न प्राप्त हुए थे। इन चौदह रत्नों में एक काम कुम्भ नाम का श्रेष्ठ कलश भी प्राप्त हुमा था। यह प्रासाद के प्र
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प्रासादमण्डने
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भाग ( शिखर ) पर और सब मांगलिक स्थानों में विद्वान लीग स्थापित करते हैं ।।३६।। कलश का उदयमान
पूर्वोक्तमा तो ज्येष्ठः पोडशांशाधिको भवेत् । द्वात्रिराईशतो' मध्यो नवांशोऽभ्युदयं भवेत् ॥३७॥ ग्रीवापीठं भवेद् भागं त्रिभागेनाण्डकं तथा । कणिक भागतुल्ये च त्रिभागं बीजपूरकम् ॥३८॥
पूर्वोक्त श्लोक २५ में कलश का जो मान लिखा है, उसका मान में उसका सोलहवां भाग बढावें तो ज्येष्ठ मान का और बत्तीसवां भाग बड़ा तो मध्यम मान के कला का उदय होता है। जो उदय पाये उसका नये भाग करें, उन में से एक भाग की
ग्रीवा और पीठ, तीन भाग का HARTR 3. शनि
अंडक ( कलश का पेट ), दोन्: करिएका ( एक छज्जी और एक कणो ) एक २ भाग और तीन भाग का बीजोरा उदय में रखें ।। ३७-३८|| कलश का विस्तार मान----
एकांशमग्रे द्वो मूले बहिवेदांशकणिके । ग्रीया द्वी पीठमळू बी पड्भागं विस्तराण्डकम् ॥३६॥
इति कलशः। बीजोरा के अग्र भाग का विस्तार एक नाग और मूल भाग का विस्तार दो भाग, ार को कणों का विस्तार तीन माग, नीचे की 4जी छाजली) का विस्तार चार भाग, पना का विस्तार दो भाग, प्राधी पीठ का विस्तार दो भाग (पुरो पीट का विस्तार चार भाग) और कलश के पेटका विस्तार छह भाग हैं ॥३६॥ १'तावदेशोनः कनीयो
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चतुर्थोऽध्यायः
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ध्वजावंड रखने का स्थान
प्रासाद पृष्ठदेशे तु दक्षिणे तु प्रतिरथे । ध्वजाधारस्तु कर्तव्य ईशाने नै तेऽधया ||४||
___ इति प्रसादस्योर्खलक्षणम् । प्रासाद के शिखर के पिछले भाग में दाहिने प्रति रथ में ध्वजादंड रखने का रिद्रयाला स्थान ध्वाधार (कलाबा) बनावें । यह पूर्वाभिमुख प्रासाद के ईशान कोने में प्रौर पश्चिमाभिमुख प्रासाद के नैऋत्य कोने में बनायें !!४०। ध्वजाधार (स्तंभवेध) का स्थान--
"रेखायाः षष्ठमे भागे तदंशे पादजिते ।। ध्वाधारस्तु कर्तब्धः प्रतिरथे च दक्षिणे ।।"
__ ज्ञान प्र० पी०म०६ शिखर की रेखा के उदय का छह भाग करें। उनमें कार के छठे भाग का फिर चार भाग करें, इनमें से नीचे का एक भाग छोड़ कर, इसके ऊपर के भाग में दाहिने प्रतिरथ में जनाधार बनावें पर्यात रेखा का चौवीस भाग करके ऊपर के बाईसवें भाग में ध्वजाधार बनावें। अपराजित के मत से स्तंभवेष का स्थान
"रेखाध: (र्घश्व?) त्रिभागोज़ सूत्रांश (तदंशे) पादयिते । ध्वजोन्नतिस्तु कर्तव्या ईशाने नैऋतेऽथया ।। प्रासादपृष्ठदेशे तु प्रतिरथे च दक्षिणे ।
स्तम्भवेषस्तु कर्तव्यो भित्तेरष्टमांश के (भित्याश्च पदमाशके)" सूत्र १४४ शिखर को रेखा (कोण) के ऊपर के अर्ध भाग का तीन भाग करें। अपर के तीसरे भाग्य का फिर चार भाग करके नीचे से एक भाग छोड़ करके उसके अपर के भाग में स्तंभवेध बनावें। यह ईशान अथवा नैऋत कोण में प्रासाद के पिछले भाग में दाहिने प्रतिरथ में दीवार के छठे भाग के मान जितना मोटा बनावें। ध्वजाधार को मोटाई और स्तंभिका
'स्तम्भवेधस्तु कर्तघ्यो भित्याश्च पदमाशका । घण्टोदयप्रमाणेन स्तम्भिकोदयः कारयेत् ॥
घामहस्ताङ्गलविस्तार-स्तस्यो कल शो भवेत् ॥ ज्ञान प्र० दी० अ०६ प्रा० १२
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प्रासादमण्डने
दीवार के छठे भाग का मोटा स्तंभवैध ( ध्वजाधार ) बनायें। ध्वजादव को मजबूत स्थिर रखने के लिये बगल में एक स्तंभिका रखी जाती है। उसका उदय स्तंभवेध से आमलसार का उदय तक रक्खें । उसकी मोटाई प्रासाद के मान से हस्तांगुल (जितने हाथ हो उतने अंगुल) रको भौर उसके ऊपर कलश रखें। ध्वजादंड और स्तंभिका इन दोनों का अच्छी तरह बजुबंध करें।
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शिखर का २४ भाग करके २२ वा भाग में ध्वजदंड और स्तंभिका का स्थान
शिखर का छह भाग करके ऊपर के घट्ट भाग के तीसरे भाग में वजदंड का स्थान
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ध्वजावंड का उदयमान
दण्डः कार्यस्तृतीयांशः शिलातः कलशान्तकम् । मध्योऽष्टांशेन हीनोऽसौ ज्येष्ठपादोनः कन्यसः ॥४॥
१, 'गिलास'
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चतुर्थीऽष्यावः
प्रासाद की खरशिला से लेकर कलश के अग्रभाग तक के हृदय का तीन भाग करके, में से एक भाग के मान का लंबा ध्वजादंड बनावें । यह ज्येष्ठमान का है। इनमें से आठवां भाग कम करने से मध्यम मान का श्रीर चोबा भाग कम करने से कनिष्ठ मान का ध्वजदंड होता है ॥ ४१ ॥
ध्वजादंड का दूसरा उवयमान
प्रासादन्यासमानेन दण्डो ज्येष्ठः प्रकीचितः ।
मध्यो हीनो दर्शाशन पञ्चमांशेन कन्यसः || ४२॥
प्रासाद के विस्तार के बराबर ध्वजादंड की लंबाई रक्खें, यह ज्येष्ठ मान का ध्वजार्द है । इसमें से दसवां भाग कम करें तो मध्यम मान का और पांचवां भाग कम करें तो कमिष्ठ मान का ध्वजदंड होता है ||४२॥
ध्वजादंड का तीसरा उदयमान
"मूल रेखाप्रमाणेन ज्येष्ठः स्याद् दण्डसम्भवः ।
मध्यमो द्वादशांशोः षडंशोनः कनिष्ठकः ॥" अप० सू० १४४
रेखा | गर्भगृह अथवा शिखर के नीचे के पायचा के विस्तार जितना ) के विस्तार मान का लंबा ध्वजाद बनायें, यह ज्येष्ठ मान का है। उसमें से बारहवां भाग कम करें तो मध्यम और छठा भाग कम करतो कनिष्ठ मान का ध्वजादंड होता है । विवेक विलास के प्रथम सर्ग के श्लोक १७६ में स्पष्ट लिखा है कि
"eur: प्रकाशे प्रासादे प्रसादकरसंख्यया ।
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सान्धकारे पुनः कार्यो मध्यप्रासादमानतः ॥"
प्रकाश वाले ( विना परिक्रमा वाले ) प्रासाद का ध्वजादंड प्रासाद के मान का बनायें, अर्थात् प्रासाद का जितना विस्तार हो उतना लंबा ध्वजा बनायें | अंधकार वाले ( परिक्रमा वाले) प्रासाद का ध्वजादंड मध्य प्रासाद के मान का बनावें । अर्थात् परिक्रमा और उसकी दीवार को छोड़कर के गभारे के दोनों दीवार तक के मान का बनायें |
एकहस्ते तु प्रासादे दण्ड : पादोन मङ्गुलम् । कुर्यादङ्गला वृद्धि - पवित्पञ्चाशद्धस्तकम् ||४३||
२. यह मत प्रचार में अधिक है ।
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१२
प्रासादमएहने
एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद के ध्वजादंड का विस्तार पौन अंगुल का रक्खें । पीछे पचास हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाय प्राधा २ अंगुल बढ़ा करके रखवें ॥४३|| ध्वजावंड को रचना--
सुवृत्तः सारदारुश्च ग्रन्थिकोटरवर्जितः ।
पर्वभिषिमः कार्यः समग्रन्थिः सुखावहः ॥४४॥ ध्वजादंड बहुत अच्छा और किसी प्रकार की गांठ या पोलारण मादि दोषों से रहित. तथा मजबूत काष्ठ का सुन्दर एवं गोलाकार बनावें । दंड में पर्व ( विभाग ) विषम संख्या में
और प्रत्या (लो) समसंस्सा हो रखना सुखदायक हैं ॥४४॥ विषमपर्व बाले ध्वजादंड के तेरह नाम
"जयन्तस्त्वेकपर्थश्च त्रिपर्वशत्र मर्दनः । पिङ्गल; पञ्चपर्धश्च सप्तपर्वश्च सम्भवः ।। श्रीमुखी नवपर्वश्च प्रानन्दो रुद्रपर्वकः । त्रिदेवों विश्वपर्वश्च तिथिभिदिव्यशेखरः ।। मुनीन्दुभिः कालदण्डो महोत्कटो नवेन्दुतः । सूर्याख्यस्त्वेकविंशत्या कमलो वह्निनेअतः ॥ तत्त्वपर्यो विश्वकमा दण्डनामानि पर्वतः ।
शस्तागस्तत्व मेतेषामभिधान गुणोद्भवम् ॥"अप० सू० १४४ एक पर्व वाला जयंत, तीन पर्वबाला शत्र मर्दन, पांच पर्व का पिंगल, सात पर्व का संभव, नद पर्व का श्रीमुख, ग्यारह पर्व का प्रानंद, तेरह पर्व का त्रिदेव, पंद्रह पर्व का दिव्यशेखर, सत्रह पर्व का कालदंड, उन्नीस पर्व का महाउत्कट, इक्कीस पर्व का सूर्य, तेबीस पर्व का कमल और पच्चीस पर्व को विश्वकर्मा कहलाता है । वे तेरह प्रकार के दंड के नाम पर्य के अनुसार हैं पोर नाम के अनुसार शुभाशुभ फल देने वाले हैं। ध्वजादण्ड को मर्कटी (पाटली)
दण्डदीर्घपडंशेन मर्कव्यर्धेन विस्तृता ।
अर्द्धचन्द्राकृतिः पावें घण्टोर्चे कलशस्तथा ॥४५॥ ध्वजाद की लंबाई के घट्टे भाग की मर्कटी ( पाटली) की लंबाई रखें। लंबाई से माधी विस्तार में रक्खें। (विस्तार के तीसरे भाग की मोटाई रक्खें 1 ) पाटली का सम्मुख
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चतुओंऽध्यायः
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भाग अर्ध चन्द्र के प्राकार वाला बनावें । इसके कोने में घंटडीया लगावें और ऊपर कलश रक्खें ॥४५॥ अपराजितपृच्छा सूत्र १४४ में कहा है कि
"मण्डूको तस्य कर्तव्या अर्धचन्द्राकृतिस्तथा । पृथुदण्डसप्तगुणा हस्ताविपञ्चावधि !! षड्गुणा च द्वादशान्त शेषाः पञ्चगुणास्तथा । तथा त्रिभागविस्ताराः कर्तव्याः सर्वकामदाः ।। अर्धचन्द्राकृतिश्चैव पक्षे कुर्याद् गगारकम् ।
वंशाध्वं कलशं चैव पक्षे घण्टाप्रलम्बनम् ।।" ध्वजादंड की पाटली. अर्धचंद्र के आकार की नावे । वह एक से पांच हाथ तक के संदे व मादड के विस्तार से सातगुणो, छह से बारह हाथ तक के लम्बे ध्वजादंड के विस्तार से हगुणी और तेरह से पचास हाय तक के ध्वजादंड के विस्तार से पांचगुणी पाटलो लम्बाई में रक्खें । लम्बाई का तीसरा भाग विस्तार में रक्खें। यह सब इच्छितफल को देनेवाली हैं। अर्धचंद्राकृत के दोनों तरफ भगारक बनावें । दंड के ऊपर कलश रखें. पोर पाटली के दोनों बगल में लम्बी घंटडीयां लगाना चाहिये। ध्वजाका मान
ध्वजा दण्डप्रमाणेन दैर्येऽष्टांशेन विस्तरे ।
नानावस्त्रविचित्राय -स्त्रिपञ्चायशिखोसमा ।।४६॥ ध्वजादंड के लंबाई के मान को ध्वजा की लंबाई रक्खें और लम्बाई से आठवें भाग की चौड़ाई रखें । यह अनेक वर्ण के वस्त्रों की बना और अग्रभाग में तीन अथवा पांच शिखायें बनावें ।।४६।। ध्वजा का महात्म्य
पुरे च नगरे को रथे राजगृहे तथा ।
वापीकूपतड़ागेषु ध्वजाः कार्याः सुशोभनाः ॥४७॥ पुर, नगर, किला, रथ, राजमहल, वावडी, कूआँ और तालाब प्रादि स्थानो के अपर सुन्दर ध्वजा रखनी चाहिये ।।४।।
निष्पन्न शिखरं दृष्ट्वा धजहीने सुरालये । असुरा वासमिच्छन्ति धजहीनं न कारयेत् ॥४८॥
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प्रासादमएबने
तैयार हुए प्रासा के शिखर को ध्वमा रहित देखकर असुर ( राक्षस ) उसमें रहने की इच्छा करते हैं । इसलिये देवालय ध्वजा रहित नहीं रखना चाहिये ॥४॥
ध्वजओच्छ्रायेण तुम्यन्ति देवाश्च पितरस्तथा ।
दशाश्वमेधिकं पुण्यं सर्वतीर्थधरादिकम् ॥४६॥ देवालय के अपर ध्वजा चढ़ाने से देय और पितर संतुष्ट होते हैं। तथा दशाश्वमेध यज्ञ करने से पौर समस्त भूतल की तीर्थयात्रा करने से जो पुण्य होता है, यही पुण्य प्रासाद के ऊपर ध्वजा चढ़ाने से होता है ॥४६11
पञ्चाशत् पूर्वतः पश्चाद-आत्मानं च तथाधिकम् । शतमेकोतरं सोऽपि तारयेन्नरकाावात् ॥५०॥
इति ध्वजलक्षणं पुण्याधिकारः । इति श्री सूत्रधारमणबनविरचिते प्रासादमण्डने वास्तुशास्त्रे प्रतिमाप्रमाणरष्टिपदस्थानशिखरमजाकलशलक्षणाधिकारश्चतुर्थोऽध्यायः ॥ '. या पढ़ानेवाले के वंश की पहले की पचास और पीछे को पचास, तथा एक अपनी इस तरह कुल एकसी एक पीढी के पूर्वजों को नरकरूपी समुद्र से यह घ्या लिरा देती है प्रति उदार करती है ॥५०॥
इति श्री पंरित भगवानदास जैन विरचित प्रासाद मण्डन ग्रन्थ के चौथा--
अध्ययन की सुबोधिनी नाम्नी भाषाटीका समाप्ता ॥
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नागर जाति के पासाद का कलामय मंडोबर ( दोवार )
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अथ प्रासादमण्डने पञ्चमोऽध्यायः मंगल
नानाविधमिदं विश्वं विचित्रं येन पत्रितम् । " सूत्रधारः श्रेयसेऽस्तु' सर्वेषां पालनक्षमः ॥१॥ जिसने अनेक प्रकार का यह विचित्र जगत बनाया है, यही सूत्रधार (विश्वकर्मा) सबका पालन करने में समर्थ हैं । और यही सबके कल्याण के लिये हो ॥१॥ गंथ मान्यता की याचना
न्यूनाधिक प्रसिद्ध च यत् किचिन्मएडनोदितम् ।
विश्वकम प्रसादेन शिल्पिभिर्मान्यतां वचः ॥२॥ जगत में जो कुछ मंडन सूत्रधार का न्यूनाधिक रूप से कहा हुमा शिल्पशास्त्र प्रसिद्ध है, वह विश्वकर्मा की कृपा से शिल्पियों से मान्य हो ।।२।। वैराग्यमाता
चतुर्भागं समारभ्य यावत्सूर्योत्तरं शतम् ।
भागसंख्येति विख्याता पालना कण बाह्यतः ||३|| चार भाग से लेकर एकसो बारह भाग तक के वैराज्यादि प्रासाद होते हैं। तथा उनकी कासनाएँ कोने से बाहर निकलती होती हैं । १३॥ लनाके मेर
अष्टोत्तरशतं भेदा अंशद्धथा भवन्ति ते ।
समांशैविषमैः कार्या-नन्तभेदैश्च कालना ||४|| एक २ अंशकी वृद्धि से फालना का एक सौ पाठ भेद होते हैं। एवं समांश पार विषमांश के भेदों में फालना के अनन्त मेद भी होते हैं ॥४॥
एकस्यापि तलस्योर्चे शिखराणि बहुन्यपि ।
नामानि जातयस्तेषा-मध्यमार्गानुसारतः ॥५॥ एक ही तल के कार बहुत प्रकार के शिखर बनायें जाते हैं और उन शिखरों के निर्माण १. ' एव स्था।
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प्रासादमरखने
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से ही प्रासादों के नाम और उसको जाति, ये दोनों उत्पन्न होते हैं ।।५।। भ्रमणी (परिकमा)
दशहस्तादधो न स्यात् प्रासादो भ्रमसंयुतः ।
नवाष्टदशमागेन भ्रमो भित्तिविधीयते ॥६॥ दस हाथ से न्यून प्रासाद को भ्रमणी (परिकमा ) नहीं किया. आसा, किन्तु दस हाथ से अधिक विस्तार वाले प्रासाद को भ्रमणो करना चाहिये । भ्रमरणी और दीवार प्रासाद के पाठ नब अथवा दसवें भाग को रखना चाहिये ।।६।।
क्षेत्राण्यादि एकाङ्गी प्रकार विभक्सि अंत
१-वैराज्य प्रासाद---
वैराज्यश्चतुरस्रः स्याश्चतुद्वारे चतुष्किका । प्रासादो ब्रह्मणः प्रोक्तो निर्मितो विश्वकर्मणा ॥७॥
प्रथम वैराज्य प्रासाद समचौरस और चार द्वार वाला है । प्रत्येक द्वार 'चौकी मंडप वाला बनावें । यह प्रासाद ब्रह्माजी ने कहा है और विश्वकर्मा ने निर्माण किया है 11७11 अपराजितपृच्छा सूत्र १५५ में कहा है कि
"चतुरस्रो कृते क्षेत्र तया षोडशभाजिते । तस्य मध्यं चतुर्भागार्भ सून कारयेत् । द्वादशस्वथ शेषेषु बाह्य भित्तोः प्रकल्पयेत् ।।"
वैराज्य प्रासाद की समचोरस भूमिका सोलह भाग कर के उन में से चार भाग का मध्य गर्भगृह बनावें और बाकी बारह भाग में 1ो २ भाग को दीवार और दो भागको भ्रमरगी बनावें।
सपाद शिखरं कार्य धण्टाकलशभूषितम् । चतुर्मिः शुकनासैस्तु सिंहविराजितम् ।।८।।
इसके शिखर का उदय विस्तार से सवाया बनावें । तथा
मामलसार और कलश से सोभायमान करें। एवं पारों ही दिशा में शुकनाश तया सिंहकर्ण प्रादि से शिखर को शोभायमान बनावें ॥८॥
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पञ्चमोऽध्यायः
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दिशा के द्वार का नियम
एकद्वारं भवेत् पूर्व द्विद्वार पूर्व पश्चिमे ।
त्रिद्वार मध्यजं द्वारं दक्षिणास्यं विवर्जयेत् ॥६।। प्रासाद का यदि एक द्वार रखना हो तो पूर्वदिशा में ही रक्खें । दो द्वार रखना हो तो पूर्व पश्चिम दिशामें रक्खें । तीन द्वार रखना हो तो दो द्वार के बीच में मुख्य द्वार रक्खें । परन्तु दक्षिणाभिमुख वाला मुख्य द्वार नहीं रखना चाहिये । ऐसा द्वार नहीं बनावे जिससे प्रवेश में उत्तर मुख रहे ||
चतुर चतुर्दिच शिवममजिनालये ।।
होमशालायां कर्त्तव्यं क्वचिद् राजगृहे तथा ॥१०॥ शिव, ब्रह्मा और जिनदेव, इनके प्रासादो में चारों ही दिशाओं में द्वार रक्खें जाते हैं । एवं माशाला गोरमी राजमहल में गो विमानों में द्वार रक्खें जाते हैं ।।१०।। अपराजितपुचछा सूत्र १५७ में श्रिद्वारके विषय में विशेषरूप से लिखते हैं कि
"पूर्वोत्तरयाम्ये व पूर्वापरोत्तरे तथा ।
याम्यापरोतरे शस्तं विद्वारं विविधं स्मृतम् ॥" पूर्व उत्तर और दक्षिण पूर्व पश्चिम और उत्तर तथा दक्षिण पश्चिम और उत्तर, इस प्रकार तीन प्रकार के विद्वार प्रशस्त हैं।
"पूर्वापरे स्थाद् विद्वारं दूषच्च याम्योत्तरे।
एकद्वार च माहेन्द्य चतुरिं चतुर्दिशम् ॥" अप० सू० १५५१ प्रासाद में दो द्वार बनाना हो तो पूर्व और पश्चिम दिशा में बनावें । परन्तु उत्तर और दक्षिण दिशा में नहीं बनावें, क्योंकि यह दोष का है । यदि एक ही द्वार बनाना हो तो पूर्व दिशा में ही बनायें और धार द्वार बनाना हो तो चारों दिशा में बनावें।
"पूर्वे च भक्तिदं द्वारं मुक्तिदं वरुणोदसम् ।
पाम्योत्तरे शिवे द्वारे कृते दोषो महद्भयम् ।।" अप० सू० १५७ पूर्वदिशा का हार भक्ति देनेवाला है और पश्चिम दिशा का द्वार मुक्ति को देनेवाला है। शिव प्रासाद में यदि उत्तर और दक्षिण दिशा में द्वार किया जाय तो बड़ा दोष और भय करने वाला है। २. 'होमश.ला चतुरा' पाठान्तरे । मा०१३
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प्रासादमरने
"एकद्वारं च माहेन्धा-मन्यथा दोषदं भवेत् ।
भद्र सर्वत्र कल्याणं पार शिवालये ॥" मप सू० १५७ शिवालय में एक बार रखना हो तो पूर्व दिशा में ही रखने पौर प्रत्य दिशा में रस्से तो दोष यो वाला है। परन्तु चारी दिशा में चार द्वार बनायें तो कल्याण कारक हैं ।
'ब्रह्मविषारवीणां च कुर्यात् पूर्वोक्कमेव हि ।
समोसरखेच जैनेन्द्र दिशादोषो न विद्यते ।।१० सू. १५७ ब्रह्मा, विष्णु और सूर्य, इन प्रासादों में ऊपर कहे अनुसार द्वार बनायें। जिनदेव के समवसरण प्रासादों में दिया का दोष नहीं हैं । चाहे जिस दिशा में बार बना सकते हैं।
वैराज्यादिसमुत्रमाः प्रासादा मनबोदिता।" एक-त्रि-पत्रसप्ताह-संख्याः पञ्चविंशतिः ॥११॥
इति वैराग्यप्रासादः । राज्यादि जो पचीस प्रासाद हैं, ये ब्रह्माजी ने बतायें है। वे एक, तोन, पाच, सात और मद अंगों के भेदवाले हैं।
जैसे-वैराज्यप्रासाद एक अंग फक्त कोना वाला है। नंदन, सिंह और श्रीनन्दन, ये सीन प्रासाद तोन अंग (दो कोना और भद्र) वाले हैं। मंदर, मलय, विमान, सुमिशाल और
लोकमभूषण, ये पांच प्रासाद पांच अंग ( दो कर्ण, दो प्रतिरष मीर भद्र) वाले हैं। माहेन्द्र, रत्नशीर्ष, शतभंग, भूधर, भुवनमंडन लोक्यविजय और पृषीवल्लभ, ये सात प्रसाद सात अंग ( दो कर्ण, दो प्रतिरथ, दो रथ और भद्र) बाले है । महीधर, कैलाश, नवमंगल, गंघमावन, सर्वाङ्गसुन्दर, विजयानन्द सर्वाङ्गतिलक, महाभोग और मेक, ये नव प्रासाद नव अंग (दो कर्ण, दो प्रतिकर्ण, दोरण, दो उपरप और भ) वाले है। ऐसा अपराजित पृस्था सुत्र १५६ में कहा है ॥११॥ २-नन्दन प्रासाद---
चतुर्मक्ते भवेत् कोणो भागो भद्रं विभागिकम् । भागाचं निर्गमें मद्रे प्रकुर्यान्मुखभद्रकम् ॥१२॥ शृङ्गमेकं भवेत् कोणे वे द्वे भद्रे च नन्दनः ।।
इति नंदनः । प्रासाद के तल का चार भाग करें। उनमें से एक २ भाग का कोना और दो भाग का भद्र बनावें । भट्ट का निर्मम प्राधा भाग का रक्खें । भद्र में मुखभद्र भी बनावें । कोने के ऊपर १. ब्रह्मणाषिता: २. '' ।
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पञ्चमोऽध्यायः
एक २ श्रृंग और भद्र के ऊपर दो २ उरुशृंग रक्खें। ऐसा नंदन नाम का प्रसाद है ||१२||
सख्या १३ । कोणे ४ भ प श्रीर एक शिक्षर ।
३-सिंहप्रासाद----
अंडक
प
......
मुखमद्रे
रथिकोपरि ||१३||
प्रतिभद्र- मुद्गमो कर्णशृङ्गे सिंहकर्णः सिंहनामा स उच्यते । देवतासु प्रकर्सच्या सिंहस्तचैव शाखतः ||१४||
तुभ्यति गिरिजा वस्य रथिका fissure भद्रे
२. 'देवानां तु' ।
सौभाग्यधनपुत्रदा ।
शृङ्गे च सिंहकः ॥१५॥ इति सिंहः ।
तल विभक्ति नन्दन प्रासाद की तरह ही करें। मुखभद्र में प्रतिभद्र बनायें । तथा भद्र के गवाक्ष के ऊपर उदूम बनायें कोने के रंगों के ऊपर सिंह रक्खें। ऐसा सिंह नाम का प्रासाद है । यह देवता ( देवों) के लिये बनायें | इसमें सिंह शाश्वत रहता है, इसलिये पार्वती देवी खुश होती है और सौभाग्य धन और पुत्र देती है । मद्र को रथिका के ऊपर सिंहकर्ण और श्रृंगों के ऊपर भी सिंहक रखने से सिंह नाम का प्रासाद है ।।१३ से १५||
४- श्रीनन्दन] प्रासाद---
कर्णे भृङ्ग तु पञ्चाडं स श्रीनन्दन] उच्यते ।
नंदन प्रासाद
५- मंदिर और ६-मलय प्रासाब
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इति नन्दनः इतिभ्यङ्गप्रासादाः ।
नन्दन प्रसाद के कोने ऊपर पांच अंक वाला केसरी श्रृंग चढ़ावें तो यह श्रीमन्दन नाम का प्रासाद होता है । शृङ्ग संख्या २६ । कोणे केसरी क्रम २०, भने ८ एक शिखर
व्यङ्गा इत्यर्थः षद्भागैश्चतुरसं विभाजयेत् ॥१६॥ कर्णं प्रतिरथं कुर्याद् भद्रार्धं भागभागिकम् । समं निर्मममशैश्च मद्रं भागा निर्गमम् ||१७||
३. निर्गमममाच'
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कादिवसांनी मदरसातलभ
१००
द्वे द्वे कर्णे तथा भद्रे शृङ्गमेकं प्रतिरथे । मन्दिरस्तृतीयं मद्रे मलपो भद्रजं त्यजेत् ||१८||
ऊपर तीन अंगवाले प्रासादों का वर्णन कहा गया है। अब पfe अंगवाले प्रासादों का वर्णन करते हैं- समबोरस प्रसाद के तलका छह भाग करें। इनमें कर्ण, प्रतिक मोर भद्रार्ध मे प्रत्येक एक २ भाग का रक्वें । कर्ता और प्रतिक का निर्गम समदल रक्खें और मद्र का निर्गम आधा भाग रखना चाहिये | कर्ण और भद्र के कार दो दो और प्रतिक के ऊपर एक २ शृङ्ग चढ़ावें । ऐसा मंदिर नाम का प्रसाद है। इस प्रासाद के भद्र के कार तीसरा एक उरुशृंग चढ़ावें तो मलय नाम का प्रासाद होता है ।।१६ से १८३
संख्या २५ | कोणे ८, भद्रं ५ प्ररये ८ एक शिखर |
७- विमान, ८- विशाल और
प्रासादमण्डने
त्रैलोक्यभूषण प्रासावविमानकः ।
सुभूषणः ||१६||
प्रस्थ तिलकं कुर्यात् प्रतिरथे वैशाल:
भद्रो
प्रतिरथे
इति पञ्चांगाः पंचप्रासादाः ।
ऊपर श्लोक १८ के अंत में 'भद्रजं स्वजेत्' शब्द का यहां अर्थ करें। मलय नाम के प्रासाद के भद्र ऊपर से एक उरुग हटा करके कर्ण के दोनों तरफ एक र प्रत्यंग चढायें और प्रतिरथ के ऊपर एक २ तिलक चढायें, तो इसे विमान नाम का प्रासाद कहा जाता है । विमान प्रासाद के भद्र के ऊपर एक २ ऊग अधिक चढायें, तो विशाल नाम का प्रासाद कहा ग अधिक बढाये तो उसे त्रलोक्यभूषण नामक
मंदिर प्रसाद
जाता है, और प्रतिरथ के ऊपर एक २ प्रासाद कहा है ।। १६ ।।
विमान
संख्याको
तिलक संख्या--प्ररथे १-१ कुल ८ ।
प्रत्यंग एक शिखर एवं कुल ३३ । लोकभूषण श्रृंगसंख्याको प्रतिरये १६ भद्र प्रत्यंग में एक शिखर एवं ४१ शृंग और तिलक ८ विशाल संख्या-भद्र १२ बाकी पूर्ववत् कुल ३७ । तिलक ८ प्ररथे ।
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पसमोऽध्यायः
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१०-माहेन्दप्रासाद--
चतुरस्र ऽष्टमिक्ते कर्ण प्रतिरथं रथम् । भद्राय भागमागं च भागान विनिर्गमम् ॥२०॥ पारिमार्गान्तरयुक्ता रथाश्च तुल्पनिर्गमाः । शृङ्ग-युग्मं च तिलकं कर्णे देतु प्रतिरथे ॥२१॥ एक चोपरथे भद्रे त्रीणि त्रीणि चतुर्दिशि । शिखरं पञ्चविस्तारं माहेन्द्रो राज्यदो नृणाम् ॥२२॥
इति माहेन्द्रः । समचौरस तल का पाठ भाग करें। इनमें कर्ण, प्रतिरथ, उपरथ और भद्रार्ध, ये प्रत्येक
एक २ भाग का रक्खें। भद्रका निर्गम प्राधा भाग का रक्खें ये सब अंग वारिमार्ग वाले बनायें । कर्ण, प्रतिरथ और उपरथ का निर्गम एक २ भाग रखें। कर्ण के अपर दो २ शृंग और एक तिलक बढा, प्रतिरथ के ऊपर दो २ शृंग, उपरथ के ऊपर एक २ शृग और भद्र के अपर तीन २ उरभृग चढ़ावें । मूल शिखर का विस्तार पात्र भाग रक्खें। ऐसा माहेन्द्र नाम का प्रासाद मनुष्यों को राज्य देनेवाला है ॥२० से २२॥
शृगसंस्था-कारणे ८, प्ररथे १६ उपरथे ८, भद्रे १२ एक शिखर एवं कुलं ४५, तिलक, ४ कोणे ।
११-रत्नशोषं प्रासाद-- ___ कर्णे शृङ्गत्रयं शेषं पूर्ववद् रत्नशीर्षक: ।
इति रत्नशीर्षः __माहेन्द्र प्रासाद के कण के ऊपर यदि शील तृग चदामा नाय तो उस प्रासाद का नाम रत्नशीर्ष होता है।
शृंग संख्या--कोणे १२, प्ररथे १६, उपरथे ८ भद्रे १२ एक शिखर, कुल ४६ १२-सितम्भृग प्रासाद---
स्यक्त्वैकमुहं भद्रस्य मसालम्बं च कारयेत् ॥२३॥ मान्हेद्र प्रासाद
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की मात्र प्रसाद कलमinnath PARMANAN
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। मस्तके तस्य छाद्यस्य भृङ्गयुग्मं प्रदापयेत् ।
सितस्तदा नाम ईश्वरस्य सदा प्रियः ॥२४॥ रस्वशीर्ष प्रासाद के भन्न के तीन उरुगों में से एक कम करके उस स्थान पर मतालम्ब (महाम) बनावें और उसके खाद्य के ऊपर दो शृंग बहावें । ऐसा सिवभृग नाम का प्रसाद ईसबर को हमेशा प्रिय है ॥२४॥
शृंग संख्या-कोर १२, प्ररपे १६, उपरथे भद्रे १६ एक मिलर, कुल ५३ १३-भूधर और १४-भुवनमंडन प्रासाद
तिलकं यच परथे भूधरो नाम नामतः ।।
छापमझे तु तिलकं नाम्ना भुवनमण्डनः ॥२५॥ सितग प्रासाद के उपरम ऊपर एक २ तिलक चढ़ावें, तो भूधर नाम का प्रासाद होता है और पाय के दोनों शृङ्गों के ऊपर एक २ तिलक चढ़ावें तो भुवनमंडन नाम का प्रासाद होता है ॥२शा १५-सोविजय और १६-क्षितिबल्लभ प्रासाद--
भूजार्य थोपरथे तिलकं कारयेत् सुधीः । प्रैलोक्यविजयो भद्रं शृङ्गण चितिवनमः ॥२६॥
इति समाङ्गा सक्षप्रासादाः । पदि उपरय के ऊपर दो शृग और एक तिलक किया जाय तो त्रैलोक्यविजय नामका प्रासाद होता है पौर भद्र के कार एक शृग अधिक बढाया जाय तो क्षितिबल्लभ नाम का प्रासाद होता है ॥२६॥
भूगसंस्था-कोणे १२, प्ररथे १६ उपरथे १६ भद्रे १२ एक शिखर कुल ५७, तिलक ६ १७-महीपर प्रासाद--
दशमागकते . क्षेत्रे भद्रार्थ भागमानतः । अपः प्रतिरथाः कणों भागभागाः समो भवेत् ॥२७॥ को प्रतिरथे भद्रे के द्वे भू प्रकारयेत् । स्पोपरये तिलकं प्रत्यक्षं च . रथोपरि ॥२८॥... मवालम्पयुतं मद्रं प्रासादोऽयं महीपरः ।
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पञ्चमोऽध्यायः
१०३
समयोरस प्रासाद के तलका दस भाग करें। उनमें भद्रार्ध, कर्ण प्रतिकर्ण, रब पौर उपरथ से प्रत्येक एक २ भाग का बनावें और इनका निर्गम भी एक २ भाग का रसखें। भव का निर्गम प्राधे भाग का रखें । कोना, प्रतिरथ और भद्र के ऊपर दो २ श्रृंग तथा रथ और उपरथ के ऊपर एक २ तिलक पढ़ायें। एवं रथ के ऊपर प्रत्यंग चढायें । भद्र भत्तालंब (Tar) वाला बनावें। ऐसा महीधर नाम का प्रासाद है ॥२७-२८॥
श्रृंगसंख्याकोणे ८, प्ररथे १६, भद्रे ८, प्रत्यंग ८, एक शिखर कुल ४१ । तिलकरखे , उपरणे १८-कैलास प्रासादः
भद्रे शृवं तृतीयं च कैलासः ' शङ्करप्रियः ॥२६॥
महीधर प्रासाद के भद्र के ऊपर तीसरा एक शृंग अधिक पढ़ाई तो कैलाश नाम का प्रसाद होता है। यह शंकर को प्रिय है ॥२६॥
___शृगसंख्या-कोणे ८, प्ररथे १६, भद्र १२, प्रत्यंग ८ एक शिखर कुल ४५ । तिलक रथे ८ उपरथे ५ १६-भव मंगल और २०-गंधमादन प्रासाब--- भद्रे त्यक्त्वा रथे भृङ्ग नवमङ्गल उच्यते । तथा भद्र पुनर्दद्याद तदासौ गन्धमादनः ॥३०॥
__ फैलाश प्रासाद के भद्र के ऊपर से एक उरुग कम करके रप के कार एक २ शृंग पढ़ा तो नवर्मगल नामका प्रासाद होता है। यह नवमंगल प्रासाद के भर के ऊपर एक ऊरग अधिक चढ़ावें तो गंधमादन नाम का प्रासाद होता है ॥३०॥
___ शृंगसंख्या-४६ | कोणे ८, प्ररथे १६, भद्र ८, रथे ८, प्रत्यंग ८, एक शिखर । तिलक ८ उपरणे २१- सर्वाङ्गसुन्दर और २२-विजयानन्द प्रासादभद्रे त्यक्त्वा चोपरथे शृङ्ग सङ्गिसुन्दरः ।
भद्र दद्यात् पुनः शृङ्ग विजयानन्द उच्यते ॥३१॥ १. 'माम नामतः।
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गंधमादन प्रासाद के भद्र के ऊपर से एक उर श्रृंग कम करके उपरप के ऊपर एक २ शृंग चढ़ावें, तो सागसुन्दर नाम का प्रासाद होता है। इसके मद्रके अपर एक २ उराग फिर चढ़ावें तो विजयानन्द नामका प्रासाद होता है ॥३१॥
शृंगसंख्या-कोणे ८, प्ररथे १६, रपे ८, भद्रे ८ उपरथे ८, प्रत्यंग ८, एक शिखर कुल ५७ २३-सागतिलक प्रासाद
मत्तालंयुतं भद्र-मुरुङ्ग परित्यजेत् ।
शृङ्गादयं च छाधोर्चे सांगतिलकस्तथा ॥३२॥ विजयानंद प्रासाद के भद्र के ऊपर से एक २ उरुग कम कर के मसालंग (गवाक्ष) बनावें और इस गवाक्ष के छाध के ऊपर दो श्रृंग रक्खें, तो सग तिलक नाम का प्रासाद होजाता है ||३२!
शृंगसंख्या-कोणे ८, प्ररथे १६ रथे ८ उपरथे ८, प्रत्येग ६, भद्रे और गवाक्षे १६, एक शिखर कुल ६५ ग २४-महाभोग प्रासाद---
उत्शृङ्ग ततो दद्यान्मत्तालम्बसमन्वितम् ।
महाभोगस्तदा नाम सर्वकामफलप्रद ॥३३॥ सर्वांग तिलक प्रासाद के गवाक्ष वाले भद्र के ऊपर एक २ उभंग अधिक बढ़ाने से महाभोग नाम का प्रासाद होता है । यह सब कार्य के फल को देने वाला है ॥३३॥ २५-मेरुप्रासाद---
कर्णे रथे प्रतिरथे शृङ्गसुपरथे तथा । मेरुरेव समाख्यातः सर्वदेवेषु पूजितः ॥३४
इति नवागा नवप्रासादाः । कर्ण, रथ, प्रतिरथ और उपरय इन सबके ऊपर एक २ शृंग अधिक चढ़ावें तो मेरू नामक प्रासाद होता है, यह सब देवों में पूजनीय है ॥३४।। प्रासावप्रदक्षिणा का फल---
'प्रदक्षिणात्रयं कार्य मेरुप्रदक्षिणायतम् ।
फलं स्याचलराज्यस्य मेरोः प्रदक्षिणाकृते ॥३॥ १. 'प्रदक्षिणात्रये स्व-मेरी पुसा व वत्फलम् ।
इप्रकाशैलजे मेरी तत्फलं प्रदक्षिणाकृते ।।' इति पाठान्तरे ।
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पञ्चमोऽध्यायः
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सुवर्ण के मेरु पर्वत की तीन प्रदक्षिणा करने से दो कान होता है, उतना फल इस पाषाण के बने हुये मेरुप्रासाद की तोन प्रदक्षिणा करने से होता है ।।३।।
वैराज्यप्रखास्तत्र नागरा ब्रह्मणोदिताः ।
वल्लभाः सर्वदेवानां शिवस्यापि विशेषतः ॥३६॥ इति श्री सूत्रधार मण्डनविरपिते प्रासादमण्डने वास्तुशास्त्रे वैराज्यादिप्रासाद
पञ्चविंशत्यधिकार नाम पञ्चमोऽध्यायः |||* धराज्यादि यह पचीस प्रासाद नागर जाति के हैं । ये स्वयं ब्रह्माजी के कहे हुए है। इसलिए ये प्रासाद सब देवों के लिये प्रिय है। उनमें भी महादेवजी तो विशेष प्रिय हैं ।।३६॥ इति श्री पंडित भगवानदास जैन विरचित प्रासाद मण्डनके वैराज्यादी प्रासाद
नामके पांचवे अध्यायकी सुबोधिनी नाम्नी भाषाटीका समाप्ता।
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विशेष जानने के लिये देखें अपराजितपच्छा सूत्र-१५७ प्रा०१४
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अथ प्रासादमण्डने षष्ठोऽध्यायः केसरी मावि पचीसप्रासाओं के नाम--
केसरी सर्वतोभद्रो नन्दनो 'नन्दशालिक । नन्दीशो मन्दररक्षेत्र "श्रीवश्चामृतोद्रयः ॥१॥ हिमवान् हेमकूटरच कैलासः पृथिवीजयः । इन्द्रनीलो महानीलो भूधरो रस्नकूटकः ॥२॥ वैडूर्यः पथरागरच बजको मुकुटोज्वलः । ऐरावतो राजहंसो गरुडो वृषभध्वजः ॥३।। मेरुः प्रासादराजः स्याद् देवानामालयो हि सः ।
ब्रह्मविष्णुशिवार्काणा-मन्येषां न कदाचन ॥४॥ कसरो १, सर्वतोभद्र २, नन्दन ३, मादशालिक ४, मन्दीश ५, मन्दर ६, श्रीवृक्ष ७, अमृतोद्भव ८, हिमवान ६, हेमकूट १०, कैलाश ११, पृथिवीजय १२, इन्द्रनील १३, महानील १४. भूषर १५, रत्नकूटक १६, वैडूर्य १७, पराग १८, वचक १६, मुकुटोज्ज्वल १०, ऐसयस २१, राजहंस २२, गरुड २३, वृषभध्वज २४, और मेरु २५, ये प्रासादों के पच्चीस माम हैं । मेरु प्रासाद सब प्रासादों का राजा है और उसमें देवोंका निवास भी है, इसलिए यह मेर प्रासाद ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सूर्य, इन देवों के लिए बनाना चाहिये, परन्तु दूसरे देवों के लिए यह नहीं बनाना चाहिये ।।१ से १।। पचीस प्रासादों की श्रृंग संख्या---
प्रायः पाण्डको झेयः केसरीनाम नामतः ।
"तापदन्तं चतुच द्धि-विदेकोत्तरं शतम् ॥५॥ प्रथम केसरी नामका प्रासाद पांच शृगवाला है । (चार कोने पर पार पोर एक मुख्य शिखर इस प्रकार पांच) । अंतिम प्रासाद तक श्येक प्रासाद के ऊपर अनुकमसे चार २ भृग बढानेसे पच्चीसवें मेरुप्रासादक पर एक सौ एक श्रृंग होते हैं ।।५।। १. 'मन्दियामका'। २. 'मन्दिर'। ३, 'श्रीवत्स'। ४. 'चतुर्णा क्रमतो वृधिः'।
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षष्ठोऽध्यायः
मष्टविभागीय तलमान -
क्षेत्रेऽष्टशैर्विभक्ते तु कर्णो भागद्वयं भवेत् । भद्रार्ध फर्ण तुम्यं तु भागेनैकेन निर्गमः ||६||
समचोर प्रसाद के तलका आठ भाग करें, उनमें से दो भाग का कौना और दो भाग का भनार्थ बनावें । इन गंगानगर
दश और बारह विभागीय तलमान
दशांश सार्वभागं च भद्रार्धं च प्रतिरथः ।
कर्णो द्विभागः सूयांशे भद्रार्धं च प्रतिरथः ॥७॥
समचोरस तलका दस भाग करें। उनमें से दो भाग का कोना, डेढ भाग का प्रतिरथ और डेढ़ भाग का भद्रार्ध बनावें । यदि बारह भाग करना हो तो दो भाग का कर्ज, दो भाग का प्रतिक और दो भाग का भद्रार्थ बनायें ||७ll
चौवह विभागीय तलमान---
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चतुर्दशविभक्ते तु कर्णाय द्वादशांशवत् । भद्रपार्श्वद्वये कार्या भागभागेन नन्दिका ॥८॥
समचौरस तलका चौदह भाग करें। उनमें से कर्ण श्रादिका मान बारह विभागीय तलमान के अनुसार रखें। अर्थात् कर्ण दो भाग, प्रतिकर्ण दो भाग, और भद्रा दो भाग, ऐसे बारह भाग और भद्र के दोनों तरफ एक २ भाग की नन्दिका ( कोणी ) बनायें। ऐसे कुल चौदह भाग होते हैं ||
सोलह विभागीय तलमान
षोडश
प्रकर्त्तव्या कर्ण प्रतिरथान्तरे ।
कोणिका भागतुल्या व शेषं चतुर्दशांशत् ॥ ६ ॥
समचोरस तलका सोलह भाग करें। उनमें से कर्ण और प्रतिरथ के बीच में एक २ भाग की कोशिका बनायें। बाकी सब अंगो का मान चौदह विभागीय तलमान के बराबर समझें । क दो भाग, कोणी एक भाग, प्रतिरथ दो भाग, नंदी एक भाग और भद्रार्ध दो भाग इस प्रकार सोलह विभागीय सलमान होता है ॥६॥
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अठारह विभागीय तलमान---
अष्टादशांशे भद्रस्य पावें च नन्दिके ।
कर्तव्ये भागभागेन शेषं स्यात् पोडशांशात् ॥१०॥ समचोरस तलका अठारह भाग करें। उनमें से भद्र के दोनों तरफ दो २ मन्दी एक २ भाग को बनावें । बाको सब सोलह विभागीय तलमान के बराबर जानें । जैसे-कर्स दो भाग, कोणी एक भाम, प्रतिरथ दो भाग, नन्दी एक भाग, दूसरी नंदी एक भाग और भद्रार्घ क्षे भाग, ऐसे प्रारह भागीय ललमान जाने ॥१०॥ बीस विभागीय तलमान----
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे विंशत्यंशविभाजिते । को द्विभागो नन्दिका साधांशा पृथुविस्तरे ॥११॥ विजापत प्रतियो नन्दिका सार्घभागिका ।
भद्रनन्दी भवेद् भागा मद्रार्धं युग्मभागिकम् ॥१२॥ .. समचोरस क्षेत्र के बीस भाग करें। उनमें से दो भाग का करणं, डेढ़ भाग की कोणी, दो भाग का प्रतिरथ, हे भाग को मंदिका, एक भाग को भद्रनंदी और दो भाग का मद्रार्ध, इस प्रकार बोस भागीय तलमान बनायें ॥११-१२।। बाईस विभागीय तलमान--
द्वाविंशतिकते' क्षेत्र नन्छे का भद्रपार्श्वयोः ।
त्रयः प्रतिरथाः कणों भद्राधं च द्वि मागिकम् ॥१३॥ समचोरस क्षेत्र के बाईस भाग करें। उनमें से भद्र के दोनों तरफ की नन्दी एक २ भाग को बनावें । बाकी तीन प्रतिरथ ( रथ, उपरथ और प्रतिरथ ) कर्ण तौर भद्रार्ध, ये प्रत्येक दो २ भाग का रक्खें। इस प्रकार बाईस विभागीय तलमान होता है ॥१३॥ तलोंके क्रमसे प्रासाद संख्या---
एकद्वित्रित्रिक त्रीणि वेदाश्चत्वारि पञ्च च ।
तलेषु क्रमतोऽष्टासु केऽप्याहुः शिखरामिण हि ॥१४|| १. 'विशमशके नदी भागेका'।
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षष्ठोऽध्यायः
केसरी मादि प्रासादों को तल विभक्ति माठ हैं। उनमें क्रमशः एक, दो, तीन, तीन, सीन, चार बार और पांच प्रासाद हैं । अर्थात् आठ तल वाला प्रथम एक प्रासाद; दस तल का दूसरा और सोसरा के दो; बारह तल का चौथा, पांचवां और खट्टा ये तीन प्रासाद; चौदह तल का सातवां, mrai और नवां ये तीन प्रासाद सोलह तलका दसवां ग्यारहवां और बारहवां ये तीन प्रासाद, प्रठारह तलका तेरहवां, चौदहवां, पंद्रहवां श्रौर सोलहवां ये चार प्रासाद) बीस तलका सत्रहवां, अठारहवां, उन्नीसवां और बीसवां ये चार प्रासाद और बाईस तलका इक्कीस से पञ्चस तक के पांच प्रासाद: है । ऐसा किसी ( क्षीरात्रि ) का मत है ॥१४॥
शिखरं त्वेकवेदकं पत्रिवेदयुमद्वयम् ।
तलेषु कमतः प्रोक्तो मूलसूत्रेऽपराजिते || १५ ||
केशरी प्रासादों में प्रथम, दोसे पांच ये चार प्रासाद दस तलका छठा एक प्रसाद बारह तलका, सात से बारह से छः प्रासाद चौदह तलका १३ से १५ ये तीन प्रसाद सोलह तलका १६ से १६ मे चार प्रासाद अठारह तलका २० से २३ ये चार प्रासाद बीस तलका और चौबीसवां और पच्चीसवां में दो प्रासाद बाईस तलका होता है। यह कृलसूत्र अपराजित पृच्छा का मत है ||१५||
तवष्टासु विहिताः प्रासादाः पञ्चविंशतिः । arस्त्रयः क्रमेणैव
मे ले ||१६||
९. 'दिव्येक'
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केसरी आदि पच्चीस प्रासादों को जो साठ तल विभक्ति हैं, उनमें प्रत्येक तल के तोन २ प्रासाद हैं और माठवां बाईस विभागीय तल के चार प्रासाद हैं ||१६||
त्रीणि त्रीणि स्वकीयानि द्वे द्वेपरः परस्य च । शिखराणि farasaat यथा ॥ १७ ॥
विधेयानि
ऊपर १६ वें श्लोक में तलों के तीन २ प्रासाद बनाने की जो बात कही गई है। यह मेरा स्वयं (मंडन ) का मत है और नीचे के श्लोक १८ वें में दो दो श्रादि प्रासाद लिखा है, यह दूसरे का मत है । ये एकवीस प्रासाद विश्वकर्मा के वचन के अनुसार बनाये हैं ॥१७॥
'द्विद्व कपट्योऽष्टादि-तलेषु पञ्चसु क्रमात् ।
सप्तैव सप्तमे पष्ठे शिरांसि त्रीणि चाष्टमे ॥ १८॥
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प्रासादमण्डने
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पाठ तल विभक्तियों में से पहले पांच तल विक्ति के अनुकम से 4, दो, एक, छह और तीन प्रासाद हैं। छट्टो तल विभक्ति का एक प्रासाद, सातवीं तल विभक्ति के सात और पाठवीं तल विभक्ति के तीन प्रासाद हैं ॥१८॥
भेदाः पश्चाशदेकैकं प्रोक्ताः श्री विश्वकर्मणा ।
तेनैकस्मिस्तलेऽपि स्युः शिखराणि बहून्यपि ॥१६॥ केसरी प्रादि प्रत्येक प्रासाद के पचास २ भेद श्री विश्वकर्माजी ने किये हैं। एकही प्रासाद । तल के ऊपर अनेक प्रकार के शिखर बनाये जाते हैं ॥१६॥
रधिका सिंहकर्ण च भद्रे कुर्याद् गवाक्षकान् ।
प्रत्यङ्गस्तिलकाय श्च शोमितं सुरमन्दिरम् ॥२०॥ रथिका, सिंहकर्ण, भद्र में गवाक्ष, प्रत्यंग और तिलक प्रादि प्राभूपरणों से देवालय को सुशोभित बनावें ॥२०॥
प्रासादाः केसरीमुख्याः सर्वदेवेषु पूजिवाः । पुरराज्ञः प्रजादीनां कत्तु कल्याणकारिकाः ॥२१॥
इति सर्यादिप्रासादाः पञ्चविंशतिः । केसरी मादि ओ पच्चीस प्रासाद हैं, वे सब देवों के लिये पूजित हैं। इसलिये बनाने वाले तथा नगर के राजा और प्रजा का कल्याण करने वाले हैं ॥२१॥ निरंधार प्रासाद--
पत्रिंशत्करतोऽधस्ताद यावद्धस्तचतुष्टयम् ।
विना भ्रमनिरन्धाराः कर्तव्याः शान्तिमिच्छता ॥२२॥ छत्तीस हाथ से न्यून चार हाथ तक, अर्थात् चार हाथ से लेकर छत्तीस हाय तक के विस्तार वाले प्रासाद शान्ति को चाहने वाले शिल्पी भ्रम (परिक्रमा ) विनाके निरंधार (प्रकाश वाले) भी बना सकता है । निरंधार प्रासादको परिकमा नहीं बनावें ।।२२।। प्रासावतलाकृतिः
वास्तोः पञ्चविध क्षेत्रं चतुरखें तथायतम् ।
- धृतं वृत्तायतं चैवाष्टास्त्र' देवालयादिषु ॥२३॥ १. अष्टास देवस्यानयम् ।
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अधीऽध्यायः
भोरस, लंब चोरस, गोल, लंबगोल और पाठ कोना वाला, इस प्रकार पांच प्राकार के देवालय माथि के वास्तुक्षेत्र हैं ।।२३। लम्बचोरस प्रासाद
विस्तारे तु चतुर्भाग-मायामे पञ्चभागिकम् ।
ऊध्वं विकलशान् कुर्यात् पृष्ठाने सिंहकर्णकम् ॥२४॥ लंग चोरस प्रासाद के विस्तार में चार भाग और लंबाई में पांच भाग करना चाहिये और उसके साथ के ऊपर काम तुम्बद (कलश) रखना चाहिये। तथा मागे और पीछे के चारों कोने पर सिंह रखना चाहिये । गोल, लंबगोल और प्रष्टाल प्रासाद
वृत्तायतं च कर्तव्य व्यासार्थ बामदक्षिणे । कर्णान्तं च भ्रामयेद् धृत' 'भद्राणि चाष्टकोणिका ।।२।। प्रासादो वर्तु लोऽष्टानः प्रायेण काण्डका शुभः । कणे का श्रेयोऽण्डानां मण्डयं तत्स्वरूपकम् ॥२६॥
इति पंचक्षेत्राणि । गोल प्रासाद के विस्तार का प्राधा भाग गोल के दोनों तरफ बढ़ाये तो लंबगोल प्रासाद होता है । तलके मध्यबिंदु से कोने तक व्यासार्ध मान करके एक गोल खींचा जाय तो गोलप्रासादतल होता है । चोरस प्रासाद के चार भद्रों में कोना बनाया जाय तो प्रष्ट्रात प्रासाद होता है । गोल और अष्टात्र प्रासाद प्रायः करके एक शिखर वाला बनाना शुभ है । अथवा शिखर के कोने में मों की पंक्ति रखनी चाहिये । इन प्रासादों का मंडप भी इसी स्वरूप का बनाना चाहिये ।।२५-२६।। नागर प्रासाद---
विविधै रूपसङ्घाटै-भगवानभूषितः ।
वितानफालनाशृङ्गैरनेकै गरा मताः ॥२७॥ अनेक प्रकार के तलाकृति वाले रूपों से, गयाक्ष वाले भद्रों से तथा अनेक प्रकार के गुम्बदों से और अनेक ऋगयुक्त फालनामों से शोभायमान नागर जाति का प्रासाद बनाया जाता है ॥२७॥ २. वृत्ते भद्राणि काष्ट हिं।
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द्राविड प्रासाद
पीठोपरि भवेद् वेदी पीठानि त्रीणि पञ्च वा ।
पीठतो द्राविड़े रेखा लताशृङ्गादिसंयुता ॥२८॥ द्राविड प्रासाद को पादत्रंधनादि तीन शवा पांच पीठ हैं, इस पीठ के ऊपर वेदी होती है । तथा उसको रेखा ( कोना ) लता और शृंगों वाली होती है ॥२८॥ भूमिजप्रासाद---
भूमिको परिभूमिश्च 'हवा हवा नवान्तकम् ।
विमनदलसंयुत्ता मुनि शृङ्गेण भूमिजाः ॥२६॥ भूमिज जाति के प्रासाद एक के ऊपर एक ऐमे नव भूमि ( माल ) तक बनाया जाता है । उसमें नीचे के मालसे ऊपर का माल छोटा २ किया जाता है। पदविभक्ति वाला और ऊपर शुग वाला भूमिज प्रासाद है ॥२६॥ लतिन श्रीवत्स और नागर जातिके प्रासाद---
शृङ्ग णैकेन लतिनाः श्रीवत्सा' वारिसंयुताः । नागरा भ्रमसंयुक्ताः सान्धारास्ते प्रकीर्तिताः ॥३०॥
इति प्रासादजातय। लतिन जाति के प्रामाद एक शृंग वाले हैं, श्रीवत्स प्रासाद वारि मार्ग वाले हैं । नागर प्रासाद श्रम ( परिकमा ) याने हैं, उसको सांबार प्रासाद कहते हैं ।।३०।। मेरुप्रासाद
पञ्चहस्तो भवेन्मेरु-रेकोत्तरशताण्डकः । भेदाः पञ्चोनपञ्चाशत् करवृद्धथा भवन्ति ते ॥३१॥ हस्ते हस्ते भवेद् वृद्धि-स्त्वएडकानां च विंशतिः ।
कोत्तरसहस्त्र स्या-च्छ नाणां च शताद्ध के ॥३२॥ मेरु प्रासाद पांव हाथ से न्यून नहीं बनाया जाता। पांय हाय के विस्तार वाले मेरु प्रासाद के ऊपर एकमा एक अंग बढ़ाये जाते हैं । यह पांव हाथ से एक २ हाथ पचास हाथ तक बढ़ाने से पैलालीस भेद होते हैं । बढ़ाये हुए प्रत्येक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद के ऊपर १. 'हम्बावन बान्तक म्'. इति पालान्तरे। २. 'श्रीवत्साम्बुपयान्विताः ।' ३.पहा पञ्चांडी नाही आधि चार२ क्रम समझने का है।
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क्रमशः बीस २ श्रृंग अधिक चढाये जाते हैं। जैसे-~-पांच हाथ के विस्तार बाले मेरु प्रसाद के ऊपर एक सौ एक, छह हाथ के प्रासाद के ऊपर एकसौ इक्कीस, सात हाथ के प्रासाद के ऊपर एकसो इकतालीस, इस प्रकार बीस २ शृग बहाते हुए पचास हाथ के मेरु प्रासाद के ऊपर एक हजार एक शृंग हो जाते हैं ।।३१-३२॥ विमान नागर प्रासाद
केसरिप्रमुखाः कर्णे विमानमुरुगकम् । तथैव मूलशिखरं पञ्चभूमिविमानकम् ।।३३।। पिमाननागरा जाति-स्तदा प्रारुद्राहता । .
एवं भोकभङ्गाणि सम्मनन्ति बहन्यपि !!३४।। जिस प्रासाद के कोने के ऊपर केसरी आदि के अनेक म हों, और भद्र के ऊपर उरुग हों, तथा मूल शिखर पोत्र भूमि ( माल ) वाला विमानाकार हों, इसको विद्वानों ने विमाननागर जाति का प्रासाद कहा है । इसके ऊपर अनेक शृग और उरुम होते हैं ॥३३-३४॥ *१-श्रीमरुप्रासाद और २-हेमशीर्ष मेरुप्रासाद
श्रीमलष्टमागः स्या-देकोत्तरशताण्डकः !
हेमशीषों दशांशश्च युतः सार्धशताण्डकैः ॥३५॥ पहला श्रोमेरुप्रासाद पाठ तलविभक्ति बाला और एकसौ एक शृग वाला है। दूसरा हेमशीर्ष मेरुप्रासाद दश तल विभक्तिवाला और डेढसौ गवाला है ।।३।। ३-सुरवल्लभ मेरुप्रासाद
भागैदिशभियुक्तः सार्ध द्विशतसंयुतः : सुरवल्लभनामा तु प्रोता श्रीविश्वकर्मणा ॥३६॥ कणों द्विभाग एकांशा कोणी साधः प्रतिस्थः ।
अर्धाशा नन्दिका भद्र--मधं भागेन सस्मितम् ॥३७॥ तीसरा सुरवल्लभ नाम का मेरु प्रासाद बारह तल विभक्ति वाला और दोसौ पचास { ढाईसौ ) शृगवाला है । ऐसा श्री विश्वकर्माजी ने कहा है । कोना दो भाग, कोणी एक भाग,
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. येन मे प्रासाद का स्वरूप सविस्तर जानने के लिए देशो अपराजित महा मुत्र, १८०
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प्रतिरथ डेढ़ भाग, कोणी आधा भाग और भद्रार्ध एक भाग, इस प्रकार बारह भाग की तल
विभक्ति है ।।३६-३७॥
४- भुवनमण्डन मेरुप्रासाद
त्रिशतं पञ्चसप्तत्या--धिक प्राण्डकैः सह । भक्तश्चतुर्दशशिस्तु नाम्ना वनमण्डनः ॥३८॥ कोणः कोणी प्रतिरथो नन्दी मद्रार्धमेव च । साश्चतुर्दशविभाजिते
॥३६॥
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मण्डन नाम का मेरुप्रासाद तीनसो पचहत्तर श्रृंगवाला है। इसके तलका ate विभाग करें। उनमें से को दो भाग, कोणी एक भाग, प्रतिरथ दो भाग, कोणी श्राधा भाग और भद्रार्ध देव भाग रक्खें ॥३५-३६॥
५- रत्नशीर्ष मेरुप्रासाद-
वाकवेयुग्मांशा वेदा. रत्न शीर्षो भवेन्मरुः
६-- किरणोद्भव मेरुप्रासाद----
सामने
कर्णादिभागतः । पञ्चशतैकशृङ्गकैः ॥४०॥
पांचवां रत्नशीर्ष मेरु प्रासाद के तलका बत्तीस भान करें। उनमें से पांच भाग का कोना, एक भाग की कोनी, चार भाग का प्रतिरथ दो भाग की नन्दी और चार भाग का मद्रा रक्खें। इस प्रसाद के ऊपर पांचसी एक श्रृंग हैं ||४०||
गुयुग्म चन्द्र द्व पुराणशैर्विभाजिते । किरोमेरुre
७- कलहंस मेरुप्रासाद
संपादषट्शताएढकः ॥४१॥
formate प्रासाद के तल का अठारह भाग करें। उनमें से तीन भाग का
कोरा, एक भाग को कोणो, दो भाग का प्रतिरथ, एक भाग की नन्दी और दो भाग का भद्रार्ध रक्खें | इस प्रासाद के ऊपर छसी पच्चीस रंग हैं ॥४१॥
रामचन्द्र द्वियुग्मांश नेत्रे विंशतिभाजिते
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नाम्ना कमलहंसः स्यात् सार्घसप्तशताण्डकः ॥४२॥
सात कमलहंस नाम मेरु प्रासाद के तलका बीस भाग करना चाहिये। उनमें से
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षष्ठोऽध्यायः
तीन भाग का कंमा एक भाग की कोनी, दो भाग का प्रतिरथ, दो भाग की नंदी और दो भाग का भद्रार्ध रक्खें। इस प्रासाद के ऊपर सातसौ पचास श्रम है || ४२||
८- स्वर्णकेतुमेरुप्रासाद
भागैः कर्णादिगर्भान्तं
'वेदार्थसार्थव्ये कशः ।
च स्वर्णकेतुः स्यात् पञ्चसप्तशृङ्गः ॥४३॥
पाठवां स्वर्णकेतु नामके मेरु प्रासाद के तलका बाईस भाग करें। इनमें से चार भाग का कोना, आधे भाग की कोणी, साढ़े तीन भाग का प्रतिरथ, एक भाग की मंदी और दो भाग का भद्रार्थ बनावें । इस प्रासाद ऊपर पाठसौ पच्चहत्तर शृंग है ॥४३॥
E-वृषभध्वज मेरुप्रासाद
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वेदे करामयुग्मांश ने जिन विभाजिते वृषभध्वजमेरुश्च
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काकसहस्रवान् ||४४॥
ari वृषभध्वज मेरु प्रासाद के तलका चौबीस भाग करें। इनमें से चार भाग का कोना, एक भाग की कोनी, तीन भाग का प्रतिरथ, दो भाग की नन्दी और दो भाग का भद्रार्ध रखें। यह प्रसाद एक हजार एक श्रृंग वाला है।
सभ्रम भ्रमहीन महामेरु मद्वयम् । सान्धारेषु raisi भद्रे चन्द्रावलोकनम् ||४५||
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उपरोक्त नव महामेरु प्रासाद भ्रम (परिकमा ) वाले अथवा विना भ्रमवाले बनायें जाते हैं । एवं दो श्रमवाले भी बनाये जाते हैं। यदि दो भ्रमवाले सान्धार मेरु प्रासाद बनाया जाय तब उसके भद्र में चंद्रावलोकन करना चाहिये अर्थात् प्रकाश के लिये जाली या गवाक्ष बनाना चाहिये ||४||
राज्ञः स्यात् प्रथमो मेरु-स्ततो हीनो द्विजादिकः ।
विना राशोऽन्यवर्णेन कृते मेरो महद्भयम् ||४६ ॥
१. 'वेदासाद' विसायः । २. 'ऽन्यदज ।'
इति नवमेरुलक्षणम् ।
इति श्री सूत्रधार मण्डनविरचिते प्रासादमण्डने वास्तुशास्त्रे केसर्यादि प्रासादजाति लक्षणे पञ्चचत्वारिंशन्मेरुलक्षणे षष्ठोऽध्यायः ॥६॥
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प्रासादमरखने
मेरुप्रासाद राजालोग बनावें । धनिक लोग मेरुप्रासाद से न्यून प्रासाद बनावें, अर्थात् मेप्रासाद नहीं बनावें। यदि बनावें तो राजा के साथ बनायें ! राजा के बिना अकेले पनिक धारा बनाया हुमा मेरुप्रासाद बड़ा भयकारक माना है ।।४६|| इति श्री पंडित भगवानदास जैन द्वारा अनुवादित प्रासादमराइन का केसर्यादिप्रासाद लक्षणनाम का छठा अध्याय की सुबोधिनी नामकी
भाषाटीका समाप्ता ॥६॥
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अथ प्रासादमण्डने सप्तमाऽध्यायः मंडप विधान-----
रत्नगर्भावनं सूर्यचन्द्रतारावितानकम् ।
विचित्रं मण्डपं येन कृतं तस्मै नमः सदा ॥१॥ लगे हुए रत्नबाले तथा सूर्य चंद्रमा और तारे जैसा तेजस्वी वितान ( गुम्बद का पेटा भाग चांदनी) वाले, ऐसे अनेक प्रकार के मण्डपों को जिसने रचना की है, उनको हमेशा नमस्कार है ॥१॥ गर्भानमंडप ----
कर्णगृढा विलोक्याश्च एकत्रिद्वारसंयुताः ।
प्रासादाग्रे प्रकर्तव्याः सर्वदेवेषु मण्डयाः ॥२॥ गूढ़ कोना वाला अर्थात् दीवार बाला अथवा विना दीवार वाला खुला, तथा एक अथवा तीन द्वारवाला, ऐसा मंडप सब देवों के प्रासाद के आगे किया जाता है ।।२।। जिनप्रसाद के मंडप-----
गूढस्त्रिकस्तथा नृत्पः क्रमेण मण्डपास्त्रयः ।
जिनस्याग्रे प्रकर्तव्याः सर्वेषां तु बलायकम् ॥३॥ जिनदेव के गर्भगृह के आगे गूढ मण्डप, इसके प्रागे चौकी वाले त्रिकमडप और इसके मागे नृत्य मंडप, इस प्रकार अनुक्रम से तीन बनाने । बाकी सब देवों के गर्भगृह के मागे बलाणक बनावें ॥३॥ मंडपके पांच मान
समं सपादं प्रासादात साधं च पादोनद्वयम् ।।
द्विगुणं वा प्रकस यं मण्डपं पञ्चधा मतम् ॥४॥ मंडर का नाप प्रासाद के बराबर, सवाया, डेठा, पौने दुगना अथवा दुगना किया जाता है । ये मंडप के पांच प्रकार के नाप है ॥४॥
अपराजितपृच्छा सूत्र १८५ में सवा दो गुणा और ढाई गुणा ये दो प्रकार का अधिक नाप मिलाकर सात प्रकार के मंडप के नाप लिखे हैं ।
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प्रासाद और मंदपों का तलदर्शन
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सप्तमोऽध्याय:
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प्रासादमान से मंडप का नाप--
समं सपादं पञ्चाशत्पर्यन्तं दशहस्तकान (त:) । दशान्तं पञ्चतः साधं द्विपादोनं चतुष्करे ॥५॥ त्रिहस्ते द्विगुणं द्वये क-हस्ते कुर्याच्चतुष्किकाम् ।
प्रायेण मण्डपं साधं द्विगुणं प्रत्यलिन्दकैः ॥६॥ दश हाथ से पचास हाथ तक के प्रासाद को समान अथवा सवाया, पांत्र हाथ से यश हाथ तक के प्रासाद को डेढा, चार हाथ के प्रासाद को पौने दो गुना और सीन हाथ के विस्तार वाले प्रासाद को दुगुना मंडप बनाना चाहिये। दो और एक हाथ के प्रासाद को सिर्फ चौकी बनावें । प्रायः करके मण्डप का प्रभाग डेहा या दुगना मलिन्द के अनुसार जानना चाहिये ।५-६।। गुमट के घंटा कलश और शुकनास का मान---
मण्डपे स्तम्मपट्टादि-मध्यपट्टानुसारतः ।
शुकनाससमा घण्टा न्यूना श्रेष्ठा न चाधिका ॥॥ मण्डप में स्तंभ और पाट प्रादि सब गर्भगृह के पट्ट आदि के अनुसार रखना चाहिये । मण्डप के गूमट के घंटा कलश की ऊंचाई शुकमास के बराबर रखना चाहिये । कम या अधिक नहीं रखनी चाहिये ॥७॥
अपराजितपृच्छा सूत्र १८५ श्लोक १० में लिखा है कि-'शुकनाससमा घण्टा न न्यूना न ततोऽधिका।' प्रर्थात् गुमट के प्रामलसार कलश की ऊंचाई शुकनास के बराबर रक्खें। न न्यून न अधिक रक्खें। मंडप के समविषम तल
मुखमएडपसबाटो यदा भिस्यन्तरे भवेत् ।
न दोषः स्तम्भपट्टाध : समं च विषमं तलम् ॥८॥ गर्भगृह और मुखमंडप के बीच में यदि भित्त (धार) का अंतर हो तो मंडप में स्तंभ, पट्ट और तल ये समविषम किया जाय, तो दोष नहीं है । अर्थात् अपर के श्लोक में कहा है किगर्भगृह के पट्ट स्तंभ के अनुसार बराबर में मंडप के पट्ट स्तंभ आदि रखा जाता है। परन्तु इन दोनों के बीच में दीवार का अंतर हो तो सम विषम रखा जाय तो दोष नहीं माना जाता 11
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*मुखमंडप
नवाष्टदशभागेषु घिमिश्चन्द्रावलोकनम् ।
हस्तकं ध्यागुलीनं वा तय मतदारणम् ॥ गर्भगृह के धागे मुखमंडप है, उसके उदयका साढ़े तेरह, साढे चौदह अथवा साद पंद्रह भाग करें। उनमें से पाठ, नव प्रथया दस भाग का चंद्रावलोकन (खुला भाग ) रखें। तफा प्रासमपट के अपर एक हाथ का प्रथया इक्कीस अंगुल का मनवारण (कठहरा) बनावें ।।६।। FAST सार्थपञ्चांशभक्तः सपाद राजसेनकम् ।
सपादत्र्यंशका केही भागेनासनपटकम् ॥१०॥ U
खुले भाग के नीचे से मंडप के तल तक साढे पांच -~ Jenna भाग करें। उनमें से सवा भाग का राजसेन, सवातीन भाग
की वेदी और एक भाग का प्रासनपट्ट बमावें ॥१०॥ तवं सार्थसप्तांशा यावत्पदृस्य पेटकम् ।
सार्थपञ्चाशकः स्तम्मः पादोनं भरणं भवेत् ॥११॥ Here भागा भरणं वापि सपादं सात: शिरः ।
प्रासनपट्ट के ऊपरसे पाटके तलभाग तक साढे सात भाग करें। उनमें से साढे पांच भाग का स्तम्भ रक्खें । उसके ऊपर पोन अथवा प्राधे भाग को भरणी और इसके ऊपर सवा या डेढ भागकी शिरावटी रखें ।।१।। पट्टो द्विभागस्तस्पोचे कर्तव्यश्छायकोदयः ॥१२॥ त्रिमार्गः ललिवं छाययावत्' पट्टस्य पेटकम् । अधाशो| कपोतालि-विभागः पत्रिस्तरः ॥१३॥
शिरावटी के ऊपर दो भामका पाट रक्के । उसके ऊपर तीन भाग निकलता और पाटके पेटा भाग तक नमा हमा सुन्दर छज्जा बनावें। उसके ऊपर माथे भाग की
केवाल बना ; पाटका विस्तार दो भाग रक्खें ॥१२-१३|| मुखमंडप विशेष आमकारी के लिए देखो अपराजितपक्ष सब १८४ श्लोक ५ से १३ तक १. तपेट पट्टपेटकम् ।
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सप्तमोऽध्यायः
स्तंभ का विस्तारमान और भेद
प्रासादात् दशरुद्रार्क-भागेन स्तम्भविस्तरः ।
वेदाष्टरविविंशत्यः कर्णा वृत्तस्तु पञ्चधा ॥१४॥ प्रासाद के दसवां, ग्यारहवां अधवा बारहवां भागके बराबर स्तंभ का विस्तार (मोटाई) रक्खें। तथा चार, पाठ, बारह और वीस कोना काला और गोल, ऐसे पांच प्रकार के स्तंम हैं ॥१॥
अपराजितपुच्या सूत्र १८४ श्लोक ३५ में तेरहयां और चौदहा भाग के बराबर भी स्तंभ का विस्तार रखना लिखा है। प्राकृति से स्तंभसंज्ञा
"चतुरखा रथका भरमा जसंसाः ! ধনানা: সনি সেখাহী জাগ: प्रासनोर्वे भवेद् भद्र-मकरसंस्तु स्वस्तिकाः ।
प्रकर्तव्या पञ्चविधाः स्तम्भाः प्रासादरूपिणः ।}" अप० सू० १८४ पार कोना वाला चतुरस्त्र, भवाला भद्रक, प्रतिरथवाला बर्द्धमान, पाठ कोना पाला प्रष्टान और पापन के कार से भद्र और प्रा3 कोना वाला स्वस्तिक नाम का स्तंभ कहा जाता है। मे पांच प्रकार के स्तंभ प्रासाद के अनुसार बनाना चाहिये । क्षौरानग्रंथ के अनुसार स्तंभ का विस्तार मान
"एकहस्ते तु प्रासादे स्तम्भः स्याच्चतुरङ्गलः । द्वो हस्ते चागुलं सप्त विहस्ते च नवाङ्गलः ॥ तस्योवं दशहस्तानां हस्ते हस्ते च द्वधनुला । सपादाङ्गला वृद्धिः स्यात् विशदस्ते यदा भवेत् । अङ्गलेका ततो वृद्धिश्चत्वारिंशश्च हस्तके ।
तस्योपं च शताद्धं च पादोनमडगुलं भवेत् ।।" . एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद का स्तंभ चार अंगुल, दो हाथ के प्रासाद का स्तंभ सात अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद का स्तंभ नब अंगुल, पार से दश हाँध के प्रासाद का स्तंभ प्रत्येक हाम दो दो अंगुल, ग्यारह से श्रोस हाय के प्रासाद का स्तंभ प्रत्येक हायसवा सवा अंगुल, इकतीस से चालीस हाथ के प्रासाद का स्तंभ प्रत्येक हाथ एक एक अंगुल और इकतालीस से
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पच्चास हाथ के विस्तार वाले प्रासाद का स्तंभ पौन पौन अंगुल बढाकर स्तंभ का विस्तार करना चाहिये। स्तंभका अन्य विस्तार मान
"एक हस्ते तु प्रासादे स्तम्भः स्याच्चतुरङ्गलः । सप्ताङ्गलच द्विहस्ते विहस्ते तु नवाङ्गलः ।। द्वादशाङ्गलविस्तारः प्रासादे चतुर्हस्तके । चतुर्हस्तादितः कृत्वा यावद् द्वादशहस्तकम् ।। सार्धामुला भवेद् वृद्धिः प्रतिहस्ते विवद्धयेत् । द्वादशहस्तस्योवं तु यावत् शिद्धरतकम् ।। अङ्गलेका ततो वृद्धि हस्ते हस्ते प्रदापयेत् । प्रत उध्वं ततः कुर्याद् यावत्पश्चाशद्धस्तकम् ॥ अर्धाङ्गला भवेद् वृद्धिः कर्तव्या शिल्पिभिः सदा । उच्द्रयं चतुगुणं प्रोक्त-मेतरस्तम्भस्य लक्षणम् ।।"
HिRIMदीपावे। एक हाथ के प्रासाद में स्तंभ का विस्तार चार अंगुल, दो हाथ के प्रासाद में सात अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद में नव अंगुल और चार हाय के प्रासाद में बारह अंगुल रक्खें । पीछे पांच हाथ से बारह हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाय डेढ डेढ अंगुल, तेरह हाथ से तीस हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाथ एक एक अंगुल और इकतीस से पचास हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाथ प्राधा प्राधा अंगुल बढा करके स्तंभ का विस्तार रखें और विस्तार से चार मुणो स्तंभ की ऊंचाई रक्खें। प्राग्नीव मंडप---
द्वारा स्तम्भवेद्याचा प्रारमीत्रो मण्डपो भवेत् ।
द्विदिस्तम्भविशुद्धया च षोडशैवं प्रकीर्तिता ॥१५॥ प्रासाद के द्वारके आगे दो स्तभवाली प्रथम वेदी है, वह प्रामग्रीय मंडप है। उनमें दो २ स्तंभ बढ़ाने से सोलह प्रकार का प्राग्रीव मंडप होता है ।।:५॥
विशेप जानने के लिये देखो अपराजितपूच्छा सूत्र १८८ श्लोक १ से ११ पाठ जाति के गढ मंडप
मितिः प्रासादव गूढे मण्डपेऽष्टविधेषु च । चतुरस्त्रः सुमद्रव तश प्रतिरथान्वितः ॥१६॥
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मुखभद्रयुतो वापि द्वित्रिप्रतिरथैर्युतः ।
कर्णोदकान्तरेणाथ भद्रोदकविभूषितः ॥१७॥ माठ प्रकार के मूढ मंदपों की भी दीवार प्रासाद के दीवार जैसी बनावें प्रति प्रसाद की दीवार जितने थरयाली हों उतने घरवाली और रूपों की प्राकृति वाली हो तो रूपों की प्राकृति बाली गूढ मंडप की दीवार बनानी चाहिये । वे समबोरस, सुभद्र और प्रतिरथ बाला, मुखभद्र पौर दो या तीन प्रतिरथ वाला, कर्ग जलान्तर वाला अथवा भद्र जलान्तर वाला, ऐसे पाठ प्रकार के गूढ मंडप हैं ॥१६-१७॥
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गूढमण्डप की फालना--
कर्ण तो द्विगुण भद्रं पादोनप्रतिकर्णकः ।
भद्रा मुखभद्रं च शेष पवसु भाजितम् ।।१०॥ कोने से दुगुणा भद्र और पोन भाग का प्रतिरथ रदखें, भद्र से प्राधा मुखभद्र रखखें। बाको नंदी प्रादि घट्ट अथवा पाठवें भाम की रक्खें ।।१८।।
दलेनार्थेन पादेन दलस्य निर्गमो भवेत् ।
मूलप्रासादवद् भाटे पीठजलादिमेखला ॥१६॥ फालनामों का निर्गम अपना चौथा अथवा प्राधा भाग का रखें तथा पीठ अंधा प्रादि को मेखलाएं मुख्य प्रासाद के जैसी बाहर निकलती हुई बनावें ॥१६॥
गशक्षणान्वितं भद्र-मथ जालकसंयुतम् ।
गूढोऽथ कर्णगूढो पा भद्रे चन्द्राबलोकनम् ॥२०॥ गूठ मंडप के भद्र में. जाली अथवा गवाक्ष बनावें । कोने गुप्त (अंधकार मय) रक्खें अर्थात् दीवार बनावें अथवा भद्र में चंद्रावलोकन (खुला भाग) रक्खें ॥२०॥ ::. :: त्रिबारे चैकवावेऽथ मुखे कायर्या चतुष्किका । गूढे प्रकाशके वृत्त मधोंदयं करोटकम् ॥२१॥
इत्पष्टगृहमण्डपाः मूढ मंडप में तोन अथवा एक द्वार बनावें और द्वारके प्रागे चौकी मंडप बनावें। मंडप को गोलाई के विस्तार मान से प्राधे मान का करोटक (गूमट) का उदय रक्खें ॥२१॥
विशेष जानने के लिये देखें अप० सू० १८७ वद्ध मानादि अष्टमंडप । गुमटके उपयका तीन प्रकार---
"अर्थोदयश्च यत्रोक्लो वामन उदयो भवेत् ! कृते चैव भवेच्छान्तिः सर्वयज्ञफलं लभेत् । अधोदयश्च नवधा द्वौ भागी परिवर्जयेत् । अनन्त उदयो नाम सर्वलोकसुखावहः ।। प्रोदयश्च नवधा त्रयभामान परित्यजेत् । वाराह उदयो नाम अनन्तफलदायकः ॥" ज्ञानरत्नकोशे।
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गुमट का अदय विस्तार से प्राधे मानका खखें, यह वामन नाम का उदय कहा जाता है. यह सब.यज्ञों के फल को देने वाला है और शान्तिदायक है। जदय का नब भाग कर, उन में से दो भाग कम करके सात भाग का उदय रक्खें, उसको अनन्त नाम का उदय कहते हैं, यह सब लोगों के लिये सुख कारक है । नघ भाग में से तीन भाग कम करके छह भाग का उदय रखें, उसको वाराह नाम का उदय कहते हैं । यह अनन्त फल को देने वाला है । गुमट का न्यूनाधिक उदय फल---
"उदयाच समाख्याता अनन्त फलदायकाः । तने देशे भवेच्छान्ति-रारोग्यं च प्रजायते ।। उदये ही नाम ये केचित् क्रियते मण्डपा भुवि । तत्र मारी महाग्याधी राष्ट्रमनभयं भवेत् ।। दुभिक्षं चातिरोन च राजा व नियते तथा ।
धनं निष्फलतां याति शिसिनो नियन्ते ध्रुषम् ।।" इति ज्ञानरत्नकोशे । उदय का जो मान बतलाया है, उसी मान के अनुसार कार्य करने से वह अनन्त फल को देने वाला, देश में शान्ति करने वाला और आरोग्यता को बढ़ाने वाला है। यदि ये मंडप कहे हुए उदय के मान से होन कर तो देश में महामारी, अनेक प्रकार की व्याधियां, देश भंग का भय, भयंकर दुभिश, राजा को मृत्यु, धनको निष्फलता और शिल्लियों को मृत्यु, इत्यादि उपद्रव होने का भय है। भारह पोको मंडप
. एकत्रिवेदषट्सप्ता-चतुष्क्यस्त्रिकाये ।
भने भद्रं विना पार्ने पायोरयतस्तथा ।। २२।। भगतस्त्रिचतुष्क्यश्च तथा पाच दयेऽपि च ।
मुक्तको चतुम्के चेदिति द्वादश मण्डपाः ॥२३॥ गूढमंडप के प्रागे एक, तीन, चार, ह, सात और नव चौकी वाले, ये छह प्रकार के मंडप हुए, उनमें छट्ठा नव चौकी वाले मंडप के मागे एक चौको हो ७, अथवा प्रागे चौको म हो परन्तु दोनों बगल में एक एक चौकी हो ८, सथा दोनों बगल में और प्रागे एक एक चौकी हो २, अषया पापे तोन चौको हो, अति तीन तीन चौकी वाली चार लाईन हो १०, इसके दोनों बगल में एक २ चौको हो ११ अथवा दोनों बगल में और मागे एक २ चौकी हो १२, ऐसे बारह प्रकार के चौकी मंस्प हैं ।।२२-२३॥
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सभा मंडप के उत्क्षिप्त वितान का मीतरी कलामय दृश्य
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सप्तमोऽध्यायः
अपराजित पृच्छा सूत्र १८० में विशेषरूप से कहा है कि
jai के एक चौकी वाला सुभद्र १, तीन चौकी वाला किरीटीर, तीन बोको के श्रागे एक चौको, ऐसा चार चोको वाला हुंदुभी ३, तीन २ चौकी को दो लाईन, ऐसा यह वाला प्रान्त ४, छह चौकी के आगे एक चौकी ऐसा सात चौकी वाला मनोहर कामद ५,
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प्रासादमखने
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तीम २ चौकी की तीन लाईन ऐसा नव चौकी वाला शान्त नाम का मंडप कहा जाता है ॥६॥ शालमंडर के आगे एक चौको हो तो नंद ७, शान्तमंडप के प्रामे चौको न हो, परन्तु दोनों बगल में एक २ चौकी हो तो सुदर्शन ८, शान्तमंडप के प्रागे और दोनों बगल में एक २ चौकी हो तो रम्यक ६, तीन २ चौकी वाली धार लाईन हो तो सुनाभ १०, सुनाम मंडर के दोनों बाल में एक २ पोकी हो तो वह ११, शोर सिह मंडप के प्रागे एक चौकी हो तो सूर्यात्मक नामका मंडप १२ कहा जाता है । इन महयों के ऊपर गुमट अथवा संवरणा किया जाता है।
गूढस्याग्रे प्रकर्तव्या नानाचतुष्क्रियान्विताः । चतुरखादिभेदेन वितानहुभियुताः ॥२४॥
इति द्वादशत्रिकायाः ।
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सामोऽध्यायः
१२६
ऐसे ये बारह प्रकार के मंडप मूढ मंडप के प्रागे अनेक प्रकार के चौकी वाले किये आते हैं। तथा ये मंडप समचोरस प्रादि प्राकृति वाले और अनेक प्रकार के वितान (चंदोवा) वाले होते हैं ॥२४॥
नत्यमण्डप
विकाने रङ्गभूमिर्या तत्रैव नृत्यमण्डपः ।
प्रासादाग्रेज्य सर्वत्र प्रकुर्याच विधानतः ॥२५॥ चौकी मंडप के आगे जो रंगभूमि है, उसी भूमि के ऊपर ही नृत्य मंडप किया जाता है । ऐसा सत्र प्रासादों के आगे बनाने का विधान है ॥२५॥
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सप्तविंशति मण्डप ----
सप्तविंशति
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तलैस्तु विषैस्तुनः नः वन्नैः समैस्तथा ॥ २६ ॥
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rest areatara द्विद्विस्तम्भविवद्धनात् ।
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यावत् षष्टिश्चतुषु क्ताः सप्तविंशतिमण्डवाः || २७॥
श्री विश्वकर्मा ने जो सत्ताईस प्रकार के मंडप कहे हैं उनके तल सम मथवा विषम कर सकते हैं, परन्तु क्षरण ( खंड ? ) और स्तंभ ये सम संख्या में ही रखना चाहिये। पहला मंडप बारह स्तंभ का है। पीछे दो २ स्तंभ की द्वि चौसठ स्तंभ तक बढ़ाने से सत्ताईस मंडप होते है ।। २६-२७।।
विशेष जानने के लिये देखें समरांगण सूत्रधार प्रध्याय ६७ और अपराजित पृच्छा सूत्र १८६ वां । इन दोनों में प्रथम मंडप चौसठ स्तंभों का लिखा है, पीछे दो २ स्तंभ घटाने से सत्ताईसव मंडप बारह स्तंभ का बनाने को कहा है।
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चैत्रा स्वपशोन मेकाले ऽष्टास्रमुच्यते । कलासः क्षेत्रषभागास्तत्परंशेन संयुतः ॥ २८ ॥
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सप्तमोऽध्यायः
क्षेत्र के विस्तार के प्राये का छह भाग करें, उनमें से एक भाग कम करके बाकी पांच भाग के मान की प्रष्टास्त्र की एक भुजा का मान आने । यदि षोडशास्र बनाना हो तो क्षेत्र के विस्तार का छह भाग करें। उनमें से एक भाग का छठा भाग विस्तार के छठे भाग में जोड़ देने से जो मान हो, यही मानको षोडवाल की एक भुजा का मान होता है ।।२।। वितान (चंबोवा-गूमट)
अष्टास्त्र षोडशास्त्र च वृत्तं कुर्यात् तदूर्ध्वतः ।
उदगं रिलमान पाच हप्तका बगेद ॥२६॥ मंडप के चंदोवा का उदय बनाने की क्रिया इस प्रकार है । प्रथम पाट के ऊपर अष्ट्रास बना कर उसके ऊपर षोडशास्त्र बनावें और षोड़शास्त्र के ऊपर गोलाई बनावें। मंडप के विस्तार से प्राधा वितान का उदय सखें । उदय में पांच छह अथवा सात घर बनावें ॥२९।। वितान (गूमट) के थर
कर्ण दर्दरिका सप्त-भागेन निर्गमोन्नता' । रूपकण्ठस्तु पञ्चांशो द्विभागेनात्र निर्गमः ।।३०।।
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गावापानी
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प्राचार का सामना करना
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१. "निर्गमोन्छ यः ।'
२. विभागोभत ।'
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प्रासादमखने
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___ कादरिका का थर सात भाग के उदय में और सात भाग निर्गम में रक्खें। रूपकंठ का उदय पांच भाग मोर निर्गम दो भाग रखखें ॥३०॥
विद्याधरैः समायुक्तं पोडशाष्टदिवाकरः ।
निःस्वामिक दलातुल्यै विराजितम् ।।३१॥ पाठ, दारह, सोलह, चौबीस अथवा बत्तीस विद्याधरों से युक्त सुन्दर वितान बनावें ॥३१॥
विद्याधरः पृथुत्वेन सप्तांशो निर्गमो' दश ।
तदुचे चित्ररूपाश्च नर्तक्यः शालमजिकाः ॥३२॥ विद्याधर का थर विस्तार में सात भाग और निर्गम में दस भाग रखें। उसके अपर अनेक प्रकार से नृत्य करती हुई, अनेक स्वरूप वाली देवांगना रक्खें ॥३२॥
गजतालुस्तु पटसार्धा प्रथमा द्वितीया तु षट् ।
तृतीया सार्धपञ्चांशा कोलानि त्रीणि पंच बा ||३३|| प्रथम गजलानु साढे छह भाग, दुसरा गजताल छह भाग और तीसरा गतानु साढे पांच माग का रक्खें । तीन अथवा पांच कोल का थर दनावें ॥३३।।
मध्ये वितानं कर्तव्यं चित्रवर्णविराजितम् ।
नाटकादिकथारूपै-नानाकारविराजितम् ॥३४॥ मड के मध्य में वितान ( चंदोदा ) अनेक प्रकार के चित्रों से शोभायमान बनावें तया संगीत और नृत्य करती हुई देवांगनामों से और पुराणादि के अनेक प्रकार के कथारूपों से मुशोभित बनावें ॥३४॥ वितान संख्या
एकादशशतान्येव वितानानां प्रयोदश ।
शुद्धसङ्घाटमिश्राणि क्षिप्तोत्क्षिप्तानि यानि च ॥३५॥ __ ग्यारहसौ तेरह प्रकार के वितान हैं। वे शुद्ध संघाट (समतल वाले ), संषामित्र सम विषम तल बाला, क्षिप्त ( नोचे भाग में लटकते घरों वाला) और उरिक्षम (ऊपर उठी हुई गोलाई वाला) ये चार प्रकार के वितान हैं ॥३५॥
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१. सिगमोदयः ।
२. 'मुस्पशोभिताः ।
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सप्तमोऽध्यायः
अपराजित पृच्छा सूत्र. १६६ में श्लोक ४ में विज्ञान के मुख्य तीन प्रकार लिखे हैं । देखो"faarara fafearfरण क्षिप्तान्युत्क्षिप्रकाभि व 1
समलानि ज्ञेयानि उदितानि far कम तु ॥" क्षिप्त, उत्क्षिप्त श्रोर समतल ये तीन प्रकार के विज्ञान कहे हैं।
वर्ण और जाति के चार प्रकार के वितान
१३३
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"पयको नाभिच्छन्दका सभामार्गस्तृतीयकः ।
मन्दारक इति प्रोक्तो वितानाश्च चतुर्विधाः ।" अप० सू० १८६ श्लो०६ पद्मक, नाभिच्छंद, सभामार्ग और मन्दारक के चार प्रकार के वितान हैं। rant froजातिः स्यात् क्षत्रियो नाभिच्छन्दकः ।
सभामा भवेद्द वैश्यः शुद्रो मन्दारकस्तथा ॥" लो० ७
ब्रह्मण जाति का पद्मक, क्षत्रिय जातिका नाभिछेद, वैश्यजातिका सभामार्ग और शूद्रजातिका मंदारक नामका वितान हैं।
"शक: बेतव: स्यात् क्षत्रियो रक्तवकः ।
फिर अपराजित पृच्छा सूत्र १६० में भी चार प्रकारके वितान कहे है
"वितानांच प्रवक्ष्यामि भेदैस्तच चतुविधम् ।
पद्मकं नाभिच्छन्दं च सभा मन्दारकं तथा । लो० १ शुद्ध छन्दसंघाटो भित्र उद्धिन एव च ।
एतेषां सन्ति ये मेदाः कथयेताच ममागतः ॥ श्र०
सभामार्गो भवेत् पीतो मन्दारः सर्ववर्णकः ॥" इलो० ८
सफेद व का पद्मक, लाल वर्ग का नाभिछंद, पीले व का सभामा और अनेक व का मंदारक है |
चार प्रकार के वितानों को कहता हूं। पद्मक, नाभिच्छंद, सभा और मन्दारक इन नार प्रकार के वितान के शुद्ध, संघाट, भिन्न और उद्भिन्न ये चार भेद हैं । उसको संक्षेप से कहता है । " एकत्वे च भवेच्छुद्धः संघाश्च द्विमिश्ररणात्।
त्रिमिश्रा तथा भिन्ना उद्भिश्चतुरविताः ॥ श्र० ३
एकही प्रकारकी प्राकृति वाले शुद्ध, दो प्रकार की मिश्र प्राकृति वाले संघाट, तीग प्रकार को प्राकृति वाले भिन्न और चार प्रकार की प्राकृति वाले उद्भिश कामके वितान है। "पद्मनाभं सभाप सभामन्दारकं तथा । कमलोद्भवमादयाल
मिश्रकाणां चतुष्टयम् ॥" ०४
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१३४
वितान हैं । " किन्तु इसमें इसकी प्राकृतियों का वर्णन नहीं लिखा है।"
पचनाम, सभापद्म, सभामन्दारक और कमलोद्भव ये चार मिश्र जाति के
वितानानि विचित्राणि वस्त्र चित्रादिमेदवः । शिल्पिलोके प्रवर्तन्ते तस्मादूयानि लोकतः || ३६ ||
मण्डपेषु च सर्वेषु पीठान्ते रङ्गभूमिका । कुर्यादुत्तानपट्टन चित्रपापायजेन च ||३७||
जैसे अनेक प्रकार के चित्र माथि से विभिन्न प्रकार के वस्त्र हैं, वैसे ही शिल्पशास्त्र में अनेक प्रकार के वितान है । वे अन्य शास्त्रों से विचार करके बनायें ||३६||
रंगभूमि
बलाणक का स्थान-
इति मण्डपाः ।
समस्त मंडपों की पीठ के नीचे की जो भूमि है, वह रंग भूमि कही जाती है । यह बड़े लंबे चौड़े पाषाणों से तथा अनेक प्रकार के चित्र विचित्र पाषाणों से बनाने चाहिए ||३७||
प्रसादम
जगतीपादविस्तीर्ण पादपादेन वर्जितम् । शालालिन्देन गर्मेण प्रासादेन समं भवेत् ||३६||
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मलाणं देवगेहात्रे राजद्वारे गृहे पुरे ।
जलाश्रयेऽथ कर्त्तव्यं सर्वेषां मुखमण्डपम् ||२८||
देवालय के द्वार के धागे तथा प्रवेश द्वारके ऊपर, राजमहल, गृह, नगर और जलायम ( बावडी, तालाब आदि ) इन सब द्वार के प्रागे मुखमंडप ( बलायक ) किया जाता है ||३||
बलाक का मान
प्रासाद में बलाक का स्थान
बलाक का विस्तार जगतो का चौथा भाग का श्रथवा दोघे का चौथा भाग न्यून, शाला और मलिंद के मान से, प्रासाद के गर्भमान के अथवा प्रासाद के मान के बराबर बनावें ||३६||
उसमे कन्यसं मध्ये मध्यं ज्येष्ठं तु कन्यसे । एक द्वित्रिचतुःपञ्च - रससप्तपदान्तरे
॥४०॥
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सप्तमोऽध्यायः
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ज्येष्ठमान के प्रासाद में कनिष्ठ माल का, मध्यममान के प्रासाद मैं मध्यम मान का और कनिधमान के प्रासाद में ज्येष्ठमान का बलासक किया जाता है। यह प्रासाद से एक, दो तीन, चार, पांच, छह अथवा सात पद के अन्तर से (दूर ) बनाया जाता है . १४013
मूलपासादवद् द्वारं मण्डपे च बलाणके ।
न्यूनाधिकं न कर्तव्यं दैर्ये हस्ताङ्गुलाधिकम् ॥४१॥ मंडप का द्वार और बलारएक का द्वार मुख्य प्रासाद के द्वार के बराबर रखना चाहिये । यदि बढ़ाने की आवश्यकता हो तो द्वार की ऊंचाई में हस्तांगुल ( जितने हाथ का हो उतने अंगुल ) बढ़ा सकते हैं । यह नीचे के माग में बताना पाहिद, क्यों कि न तो सब रानसूत्र में रखा जाता है ऐसा शास्त्रीय कथन है ।।४।। उत्तरंग का पेटा भाग
पेटकं चौसरङ्गानां सर्वेषां समसूत्रतः ।
अङ्गणेन समं पेटं जगत्याश्चोतरङ्गाजम् ।।१२।। ___ सब उत्तरंग का पेटा भाग ( उत्तरंग के नीचे का भाग) समसूत्र में रखना चाहिये और अगली के द्वार के उत्तरंग का पेटा भाग प्रासाद के प्रांगन जगती के मथला बराबर रखना चाहिये ।।४२॥
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पांच प्रकार के बालाणक
जगत्यो चतुष्किका' वामनं तद् बलाणकम् ।
पामे च दक्षिणे द्वारे वेदिकामसवारणम् ॥४३॥ जगतो के आगे की चौकी के ऊपर जो बलारणक किया जाता है, वह वामन नामका बलाणक कहा जाता है । उसके बायीं और दाहिनी मोर के द्वार पर वैदिका और मतवारण किया जाता है ।।४३॥
ऊर्धा भूमिः प्रकर्तव्या नृत्यमण्डपस्त्रतः । मत्तवारणं वेदी च वितानं तोरणैर्युता ॥४४॥
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पपराजित छ सूत्र १२२ श्लोक १० में एक से पाट पदकेतरे भी बमामा लीखा है। १'पतुष्की या'।
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प्रासापमण्डने
बलाक को अर्धभुमि नृत्यमंडप के समसूत्र में रखनी चाहिये तथा मसवारण, बेक्षी, वितान और तोरणों से शोभायमान बनानी चाहिए ॥४४॥
राजद्वारे बलाणे च पञ्च वा सप्तभूमिकाः ।
तद्विमानं बुधैः प्रोक्तं पुष्करं वारिभध्यतः ।।४५|| राजद्वार के ऊपर जो गव अथवा सात भूमिवाला बलाणक किया जाता है, उसको विद्वान् शिल्पी विमान अथवा उत्तुंग नामका बलाणक कहते हैं। सपा जलाश्रय के बलाणक को पुष्कर नामका बलाणक कहते हैं ॥४॥
हर्यशालो गृहे वापि कलव्यो गोपुराकृतिः । एकभूम्मात्रिभूम्यन्तं गृहारद्वारमस्तके ॥४६॥
इति पंचबलाणकम् । गृहद्वार के भागे एक, दो अथवा तीन सुमिवाला ओ बलाणक किया जाय, उसका नाम हर्म्यशाल है । वह गोपुराकृति वाला बनाया जाता है । ( किले के द्वार के ऊपर जो बलाणक किया जाता है, उसको गोपुर नाम का बलातक कहते हैं)। कौन २ देव के प्रागे बलाणक करना---
"शिवसूर्यो ब्रह्मविष्णू चण्डिका जिन एव च।
एतेषां च सुराणां च कुदिरे बलाणकम् ।।" पप सू० १२३ ।। शिव, सूर्य, ब्रह्म, विष्णु, चंडिका और जिन, इन देवों के प्रागे बलाणक बनाना चाहिए । संवरणा---
संबरणा प्रकर्तच्या प्रथमा पञ्चपण्टिका ।
चतुर्षण्टाभिवृद्धधा च पादेकोतरं शतम् ||४७।। मंडप आदि के ऊपर गुमटी के स्थान पर संघरणा को जाती है। प्रथम संबरणा पांच घंटी को है । आगे प्रत्येक संवरण की चार चार घंटो की वृद्धि से एक सौ घंटी तक बढ़ाया जाता है ।।४७॥
पञ्चविंशति रित्युक्ताः प्रथमा बसुभागिका । वेदोत्तरं शतं यावत् वेदशा द्धिरिष्यते ||४||
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उपरोक्त घंटिका की संख्यानुसार संवरणा परुषीस प्रकार की हैं। उन में प्रथम संदरणा को भूमि का पाठ पाठ भाग करें। पीछे प्रत्येक संचरण में चार चार भाग एक सौ बार भाग तक बढ़ाने चाहिये ||४८
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वामदक्षिणे ।
भद्रा रथिका water रथिका
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तवकम् ॥४६॥
are को रचिका के मान का दोनों तरफ तवंग बनायें । रचिका, घंटा, कूट और तवंग, ये विस्तार से श्रावा उदय में खलें ॥४६॥
पुचिकारा (१६.
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पुष्पिका नाम की प्रथम सं
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प्रासादमाने
प्रथम संवरणा...
कलाकूटान्विता पूर्ण पञ्चमिः कलशैयुता । भागतुल्यैस्तथा सिंहै-रेवमन्याश्च लक्षिताः ॥५०॥
इति मण्डपोलसंवरणाः। इति श्री सूत्रधार मण्डनविरचिते प्रासादमण्डने मण्डपबलाणक
संवरणाधिकारे सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
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सप्तमोऽध्यायः
प्रथम सवरणा सोलह कूट और पांच घंटाकलश वाली है । तथा कर्ण और उनम के के ऊपर सल भाग के सुल्य (पाठ) सिंह रक्खें । इस प्रकार अन्य संवरणा बनायी जाती है ॥५॥ पच्चीस संवरणा के नाम
"पुष्पिका नन्दिनी चैव दशाक्षा देवसुन्दरी । कुलतिलका रम्या च उद्भिमा घ नारायणी ।। नलिका बम्पका चैव पयाख्या च समुद्भवा । त्रिदशा देवगांधारी रत्नगर्भा चूडामणिः ॥ हेमकूटा चित्रकूटा हिमाख्या गन्धमादिनी । मन्दरा मालिनी स्याता के लासा रत्नसम्भवा ॥ मेरु कूटोलवा स्याताः संख्यया पञ्चविंशतिः ।"
अप० सूत्र १६३ श्लोक २ से ५ पुष्पिका, नन्दिनी, दशक्षिा, देवसुन्दरी, कुलतिलका, रम्या, उद्भिशा, नारायणी, नलिका, चम्पका, एमा, समुद्भवा, त्रिदशा, देवगान्धारी, रत्नगर्भा, चूडामणि, हेमलटा, चित्रकूटा, हिमाख्या, गन्धमादिनी, मन्दरा, मालिनी, कैलासा, रत्नसंभवा और मेस्कटा, ये ये पच्चीस संयरणा के नाम हैं।
मानरत्नकोश नाम के ग्रन्थ मैं बत्तीस संवरणा लिखा हैं । उनके नाम भी अन्य प्रकार के हैं। घंटिका को संख्या प्रासाद के मानानुसार लीखी है । जैसे-एक या दो हाथ के प्रासाद के ऊपर पांच घंटिका बाली संघर, तीन हाय के प्रासाद के ऊपर नक, पार हाथ के प्रासाद के कपर तेरह, इस प्रकार पचास हाथ के प्रासाद के ऊपर एकसौ उनतीस घंटिका बहाना लोखा है । तथा घंटिकामों की संख्यानुसार बत्तीस संवरण के नाम लीखे हैं। जैसे-पांच घंटावालो पचिनो, नव धंदावालो मेदिनी, तेरह घंटावाली कलशा, इस प्रकार एकसो उनतीस घंटावालो राजवर्धनी है। प्रथमा पुष्पिका संवरणा
"चतुरस्रीकृते क्षेत्रे अष्टधा प्रतिभाजिते । उच्छयः स्याध्यतुभांगेः सर्वासामोदयः ।। मूलकूटोद्भवाः कर्णा द्विभागैः पृथग् विस्तरा। भागोदया विधातव्याः कूटा वै सर्वकामदाः॥"
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मासामगबने
प्रथम संवरणा को समबोरस भूमिका पार भाग करें, उसमें चार भाग संवरणा का उपम रखें। सब संवरणा विस्तार से प्राधी उदय में रखें । कर्ण के कपर मूल घटा दो भाग विस्तार वाली और एक भाग का उदयबाली बनावें एवं कूटा भी विस्तार से प्राषा उदय में रक्खें।
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१८ वीं शतादि से माधुनिक समय की संवरणा शैली ।
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तद्पा भद्रकूटाश्व शृङ्गाकटास्तवर्धतः । सिंहस्थाना कसंघण्टी बहरण्टी तदूर्ध्वतः ।। संवरणागर्भमूले रथिका दूध सविस्तरा | भागका चोदये कार्य भागा पक्षतङ्गिका ।। सदूचे उदूमो भाग-स्तवलोचे च कूटकः । सिंह वै उद्मोद्यं तु उरोधण्टा भागोपरि ।। तदुपरि सिंहस्थानं भागकं च विनिर्गतम् । तस्योपरि मूलघण्टा द्विभागा च भागोच्छया ॥ अष्टसिहः पञ्चघण्टेः टैरेवं द्विरष्टभिः ।
चतुभिर्मूलकूटा पुष्पिका नाम नामतः ।" ..."छज्जा के उदम के अर्धमान का कोने कोने के ऊपर घंटिका रक्खें। उसके जैसा भद्र का कूट बना व इससे आधे भाग का शृंगकूट रक्खें । कर्ण घंटी पर सिंह रवरखें । उसके ऊपर कोच में बड़ो घंटो रक्खें । संवरणा के गर्भ के मूल में दो भाग के विस्तार वाली रथिका बनावें और यह उदय में एक भाग को रक्खें । इसके दोनों तरफ तवंगा एक एक भाग की रक्खें और रपिका के ऊपर एक भाग उदय वाला उद्गम बनावें । तवंगा के अपर कूट रखें । उद्गम और बडी कर्णधंटी के ऊपर सिंह रक्खें, उसका निर्गम एक भाग रक्खें । उसके ऊपर दो भाग के विस्तारवाली और एक भाग का उदय वाली मूलघंटा रवखें। पाठसिंह ( चार कर्ण और चार भद्र के उद्गम पर) पांच बछो घंटो, सोलह कूट और चार मूलकूट वाली प्रथम पुष्पिका नाम की संवरशा होती है। दूसरी मन्दिनी नाम को संवरणा
"सवङ्गक्टयोर्मध्ये तिलक द्वय शाबिस्तरम् ।। भागोययं विधातथ्यं संघाटभूषितम् ।। तबङ्गरथिकाश्चैव विभागोदयिनः स्मृताः । अष्टचत्वारिंशतकूटा मूले स्युः पूर्ववतथा ।। नवधष्टा समायुक्ता स्थाई द्वादशसिंहतः । नन्दिनी नामविख्याता कर्तव्या शान्तिमिच्छता ॥ कार्या तिलकवृद्धिश्च यावत्क्षेत्रं वेदास्रकम् । मण्उपदलनिष्काम भक्तिभागैस्तु कल्पना ।।
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मकान
मण्डपकमभागतः । पासा युक्तिविधातव्या मरकुटान्तकल्पना ।।"
सवंग और कूटके मध्य में दो भाग के विस्तारवाला और एक भाग के उदय वाला तलके भूषणरूप तिलक बना नवंगा और रथिका ये दोनों दो भाग के उदयवाले बनावें । अमतालीस कुटा, लघघण्टा और बारह सिंह वाली नन्दिनी नाम की संवरा शांति की इच्छा रखने वाले बनावें । समचोरस क्षेत्र के भागों में तिलककी वृद्धि करनी चाहिये । मंडप को विस्तार से प्राधा उदय में रक्खें । भूमि के बारह भाग को कल्पना
करें। संवरसाय भिन्न और उद्भिन्न ११ बारमी भारी की भी संधी पनी सती.
होतो हैं । मण्डप के अनुक्रम भाग से पचीसवों मेहकुटा नाम को संघरणा तक इस प्रकार युक्ति से अन्य संवरणायें बनावें।
इति श्री मंडनसूत्र धार विरधित प्रासादमंडन के मंडप बलायक संव. रमा लक्षणवाला सातवां अध्याय की पंडित भगवानदास जैन ने सुबोधिनी नाम को भाषा टोका रचो ॥७॥
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जैसलमेर जैन मंदिर के मंडप की संवरणा
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अथ प्रासादमण्डनेऽष्टमः साधारणोऽध्यायः
sar साधारणोऽध्यायः सर्वलचणसंयुतः ।
विश्वकर्म प्रसादेन
विशेषेसा प्रकथ्यते ||१||
श्री विश्वकर्मा के प्रसाद से सर्व लक्षणों वाला साधारण नाम का यह प्राठवां अध्याय
कुछ विशेषरूप से कहा जाता है ॥१॥
शिवलिंग का न्यूनाधिक मान
'मानं न्यूनाधिकं वापि स्वयंभूवाणरत्नजे ।
घटितेषु विधातव्य-मर्चाल शामतः ॥ २ ॥
स्वयंभूलिंग, बालिंग और रत्नका लिंग, ये मान में न्यूनाधिक हो तो दोष नहीं है। परन्तु घड़ा हुआ शिवलिंग और मूर्ति तो शास्त्र में कहे हुए मानानुसार ही होना चाहिये ||२||
वास्तुदोष -
बहुलेपमन्यले
समसन्धिः शिरोगुरुः । सशन्यं पादहीनं तु तच्च वास्तु विनश्यति || ३॥
अधिक लेपवाला, कम लेपवाला, सांध के ऊपर सांध वाला, ऊपरका हिस्सा मोटा और नीचे पतला, वायवाला और कम नींद वाला, ऐसे वास्तु का शीघ्र ही नाश हो जाता है || ३ ||
निषेधवास्थ्य
अन्य वास्तुच्युतं द्रव्यमन्यत्रास्तुनि योजयेत् ।
प्रासादे न भवेत् पूजा गृहे तु न वसेद् गृही ||४||
feat मकान प्रादि का गिरा हुआ ईंट, चूना, पाषाण और लकड़ी यादि वास्तु द्रव्य, यदि मंदिर में लगावें तो देव प्रपूजित रहें और घरमें लगावे तो मालिक का निवास न रहे। अर्थात् मंदिर और गृह शून्य रहे ||४||
१. 'मा' के स्थान पर 'वृष' होना चाहिये। क्योंकि अपराजित पृथ्या सूत्र० १०६ श्लोक ११ में लिखा है कि देव म्यूनाधिकं वारी रत्नजे व स्वयम्भूति' पर्याद वाण एल और स्वयंभूसिंग के मंदिर में नंदी का are gettes at हो सकता है।
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प्रासादमारने
शिवालय उत्थापनदोष
स्वस्थाने संस्थितं यस्य विप्रवास्तुशिवालयम् ।
अचाल्यं सर्वदेशेषु चालिते राष्ट्रविभ्रमः ॥५॥ अपने स्थान में यथास्थित रहा हुप्रा और ब्राह्मणों से वास्तु पूजन किया हुआ, ऐसे शिवालय को चलायमान नहीं किया जाता। क्योंकि अचल ( चलायमान न हो), को यदि चलायमान किया जाय तो राष्ट्रों में परिवर्तन होता है ॥५॥ जीर्णोद्धार का पुण्य---
वापीकूपतडागानि प्रासादभवनानि . च ।
जीर्णान्युद्धरते यस्तु पुण्यमष्टगुणं लभेत् ॥६॥ वाडी, कुमा, तालाब, प्रासाद ( मंदिर । और भवन, ये जाग हो गये हों तो उनका उद्धार करना चाहिये । जीर्णोद्धार करने से प्रा3 गुना फल होता है ।।६।। जीर्णोद्धार का वास्तु स्वरूप-----
तद्रपं तत्प्रमाणं स्यात् पूर्वमूत्रं न चालयेत् ।
हीने तु जायते हानि-रधिके स्वजनस्यः ' ॥७॥ जोशीद्धार करते समय पहले का वास्तु जिस प्रकार और जिस मानका हो, उसी प्राकार और उसो मानका रखना चाहिये । अर्थात् पहले के मानसूत्र में परिवर्तन नहीं करना चाहिये। प्रथम के मान से कम करे तो हानि होवे और अधिक करे तो स्वजन की हानि होवे
वास्तु द्रव्याधिकं कुर्यान्मृत्काष्ठे शैलजं हि वा ।
शैलजे धातुज वापि धातुजे रत्नजं तथा ॥८॥ जीपीद्धार करते समय प्रथम का वास्तु अल्पद्रव्य का हो तो वह अधिक द्रव्यका बनाना चाहिये । जैसे-प्रथमका वास्तु मिट्टी का हो तो काट का, काष्ठ का हो तो पाषाण का, पाषाण का हो तो धातु का और धातु का हो तो रस्म का बनाना थे यस्कर है ॥८॥ विङमढ दोष
पूर्वोत्तरदिशासूढे मूद पश्चिमदक्षिणे । तत्र मूढममूदं वा यत्र तीर्थ समाहितम् ।।६।।
१. 'तु धनक्षयः।"
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पूर्वोत्तर दिशा (ईशान कोन ) अथवा पश्चिम दक्षिण दिशा (नैऋत्य कोन ) मैं प्रासाद टेदा हो तो दिङ्मूढ दोष नहीं माना जाता। जैसे तीर्थ स्थान में प्रासाद के मूल और अमूह का दोष नहीं माला आता ॥६
'पूर्वपश्चिम दिङ्मूढं वास्तु स्त्रीनाशकं स्मृतम् ।
दक्षिणोत्तरदिए मूढं सर्वनाशकरं भवेत् ॥" अप० ० ५२ पूर्व पश्रिम दिशा का वास्तु अग्नि और वायु कोनमें दिङ्मूढ हो तो स्त्री का विनाश कारक है। दक्षिणोतर दिशा का वातु भी अग्न्द्रि और वायुकोन में दिड्यूट हो तो सर्व विनाश कारक है। दिङ्मूढ का परिहार---
सिद्धायतनसीथेषु नदोना सामेषु च ।
स्वयम्भवाणलिङ्गेषु तत्र दोषो न विद्यते ॥१०॥ सिद्धायतन अर्थात् सिख पुरुषों का निर्धारण, अग्नि संस्कार, जल संस्कार अथवा भूमिसंस्कार हुमा हो ऐसे पवित्र स्थानों में, तथा च्यवन, अन्म, दीक्षा ज्ञान और मोक्ष संस्कार हुआ हो, ऐसे तीर्थस्थानों में, नदी के संगम स्थान में, बनाया हुआ प्रासाद तथा स्वयंभू और वाण लिंगों के प्रसाद, ये दिङ्मुढ हों तो दोष नहीं है ॥१०॥ अव्यक्त प्रसाद का चालन
अव्यक्त' मृण्मयं चाल्यं त्रिहस्तान्तं तु शैलजम् ।
दाज पुरुषाहि अत ऊवं न चालयेत् ॥११॥ यदि अव्यक्त जीर्ण प्रासाद मिट्टी का हो तो गिरा करके फिर बनावें, पाषाण का हो तो तीन हाथ तक और लकड़ी का हो तो प्राधे पुरुष के मान सक ऊंचा रहा हो तो चलायमान करें। इससे अधिक ऊंचाई में रहा हो तो चलायमान न करें ॥११॥ महापुरुष स्थापित देव
विषमस्थानमाश्रित्य मन्नं यत्स्थापितं पुरा ।
तत्र स्थाने स्थिता देवा भग्नाः पूजाफलप्रदाः ॥१२॥ प्राचीन महापुरुषोंने जो देव स्थापित किये हैं, वे विषमासन वाले हों; अथवा खंडित हों तो भी पूजनीय हैं । क्यों कि उस स्थान पर देवों का निवास है, इसलिये वे देवमून्तियां पूजन का फल देनेवाली हैं ॥१२॥ १. 'स्वतंतुऐमा पराजिपण्या सूत्र ११% में पाठ है। प्रा०१६
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यद्यथा स्थापितं वास्तु तथैव हि कारयेत् ।
अव्यङ्ग' चालितं वास्तु दारुणं कुरुते मयम् ॥१३॥
प्राचीन महापुरुषोंने जो वास्तु स्थापित किया है, उसका यदि जीर्णोद्वार किया जाय तो जैसा पहले हो वैसा ही करना चाहिये | जी वास्तु यदि अंगहीन न हुआ हो तो ऐसे वास्तु को चलायमान करने से बड़ा भयंकर भय उत्पन्न होता है ||१३||
अथ तथालयेत् प्राज्ञ- जीर्ण व्यङ्ग' च दूषितम् ।
श्राचार्य शिल्पिभिः प्राज्ञैः शास्त्रदृष्टया समुद्धरे ॥ १४॥
यदि प्राचीन वास्तु जीर्ण हो गया हो अथवा अंगहीन होकर दीपवाला हो गया हो उसका विद्वान् आचार्य और शिल्पियों की सलाह लेकर शास्त्रानुसार उद्धार करना चाहिये ||१४||
जीर्णवास्तु पातन विधि
स्वर्ण रौप्यजं वापि कुर्याernaut वृषम् । तस्य शृङ्गेण दन्तेन पतितं पातयेत् सुधी
प्रासादमण्डने
॥१५॥
इति जीर्णोद्वार विधिः ।
जीर्णोद्वार के आरंभ के समय सोना अथवा चांदी का हाथी अथवा वृषभ बनायें । उस हाथी के दांत से अथवा वृषभ के श्रृंग से जीवास्तु को शिवे । उसके बाद बुद्धिमान freat सब गिरा देवें ||१५||
महादोष -
auri ares चैr कीलकं सुषिरं तथा ।
fer after area महादोषा इति स्मृताः ॥ १६॥
देवालय में चुना उत्तर जाने से मंडलाकार लकीरें दीखती हों, मकड़ी के जाले लगे हों, फोले लगी हों, पोलाल हो गया हो, छिद्र पड गये हों, सांध दीख पड़ती हों और कारागृह बन गया हो, तो ये महादोष माने गये हैं ||१६||
शिल्पिकृत महादोष -
"feast regrete प्रायहीनः शिरोशुरू: 1.
ज्ञेया दोषास्तु चत्वारः प्रासादाः कर्मदारुणाः ॥" अप० सू० ११०
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यदि प्रासाद दिङ्मूढ हो गया हो, नष्टछंद हो अर्थात् यथा स्थान प्रासाद के अंगोपांग न हो, प्राय हीन हो और ऊपर का भाग भारो व नीचे का पतला हो तो उन्हें प्रासाद के चार भयंकर महादोष शिल्पिकृत माना है। भिन्न और अभिन्न दोष--
भिषदोपकर यस्मात् प्रासादमठमन्दिरम् ।
म्भामिर्जालकैार रस्मिवातैः प्रमेदितम् ॥१७॥ प्रासाद ( देवालय ), मठ (पाश्रम) और मंदिर (गृह), इनका गर्भगृह यदि भूषा (लंबा अलिद) से, जालियों से अथवा दरवाजे से प्राते हुए सूर्य की किरणों से वेधित होता हो तो भिन्न दोष माना जाता है ।।१७॥ अपराजितपुच्छा सूत्र ११० में कहा कि
"भूषाभिलिकेद्वार-भों यत्र न भिद्यते । .
प्रभिन्म कथ्यते तच्च प्रासादो बेश्म वा मठः ।" प्रासाद, गृह प्रौर मड का गर्भगृह मूषा, आलि और द्वार से प्राते हुए सूर्य किरणों से भेदित न होता हो तो यह अभिन्न कहा जाता है। देबों के मिनदोष
प्रमाविष्णुशिवाकोला मिल्नं दोपकर नहि ।
जिनगौरीगणेशानां गृहं मिन्नं विवर्जयेत् ॥१८॥ ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सूर्य, इनके प्रासादों में भिन्नदोष हो तो वे दोष कारक नहीं है। परंतु जिमदेव, गोरी और गणेश के प्रासादों में भिन्न दोष हो तो दोष कारक है, इस लिये इन्हें भिन्न दोष वाले प्रासाद नहीं बनावें ॥१८॥ पपराजिलपृच्छा सूत्र ११० में अन्य प्रकार से कहा है कि
"ब्रह्मविष्णुरवीणां च शम्मोः कार्या यदृच्छया । गिरिवाया जिनादीनां मन्वन्तरभुवां तथा ।। एतेषां च सुराणां च प्रासादा भिन्नजिताः ।
प्रासादमठवेश्मान्यभिन्नानि शुभवानि हि ॥" ब्रह्म, विष्णु, सूर्य और शिव, इनके प्रासाद भिन्न अथवा अभिन्न अपनी इच्छानुसार बनावें । परन्तु गौरीदेवी, जिनदेव पीर मन्वंतर में होने वाले देव, इनके प्रासाद भिन्न दोष में रहित बनावें । प्रासाद, मठ और घर से भिन्न दोष रहित बनाना शुभ है।
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प्रासादमदने
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व्यक्ताव्यक्त प्रासाद...
व्यक्ताव्यक्तं गृहं कुर्याद भिन्नामिन्नस्य भूचिकम् । यथा स्वामिशरीरं स्यात् प्रासादमपि तादृशम् ।।१६।।
इति भिन्नदोषाः। उपरोक्त मिन्मा और अभिन्न दोषवाली देवमूर्तियों के लिये व्यक्त और अध्यक्त प्रासाद बनावें । अर्थात् भिन्न दोष रहित देयों के लिये प्रकाश वाले और भिन्न दोषवाले देवों के लिये अंधकारमय प्रासाद बना । जैसे स्वामी अपने शरीर के अनुकूल गृह बनाता है, वैसे देवों के अनुकून प्रासाद बनाना चाहिये ।।१६।। प्रपराजित पृच्छा सूत्र ११० में कहा है कि
"व्यक्ताव्यक्तं लयं कुर्यादभिन्नभिन्न मूर्तयोः ।
मूत्तिलक्षण स्वामो प्रासादं तस्य तादृशम् ॥" भिन्न दोहों से रहित शिव ग्रादि की देव मूर्तियों के लिये व्यक्त (प्रकाशवाले ) प्रासाद अनाचे प्रौर भिन्न दोपकाली गोरी प्रादि की देव मूर्तियों के लिये प्रत्यक्त (अंधकारमय) प्रासाद बनायें। महामर्मदोष......
'भिन्नं चतुर्विध ज्ञेय-मधा मिश्रकं मतम् । मिश्रकं पूजितं तत्र मिन्नं चे दोपकारकम् ॥२०॥ छन्दभेदो न कर्तव्यो जातिभेदोऽपि वा पुनः ।
उत्पद्यते महामर्म जातिभेदकृते सति ।।२१।। भिन्नदोप चार प्रकार के और मिश्रदोष मा प्रकार के हैं। उनमें मिश्रदोष पूजित { शुभ ) हैं और भिन्नदोष दोपकारक हैं । छंदभेद-जैसे छंदों में शुरु लघु यथावस्थान न होने से छंद दूषित होता है, वैसे प्रासाद की अंगविभक्ति नियमानुसर न होने से प्रासाद दूषित होता है। जातिभेद-प्रासाद की अनेक जातियों में से पीठ आदि एक जाति को और शिखर प्रादि दूसरी जाति का बनाया जाय तो जातिभेद होता है। ऐसा जतिभेद करने से बड़ा मर्मदोष उत्पन होता है ।२०-२१॥
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१. भिन्नदोष जानने के लिये देखो अपराजित पृच्छा सूत्र ११. मौर मिश्रदोष जानने के लिये देखो
मप० सूत्र ११४ श्लो०१ से है।
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Sष्टमोऽध्यायः
अन्यदोष फल
द्वारहीने
हने नलीहीने पदे स्थापिते स्तम्भे महारोगं
द्वार मान में हीन हो तो नेत्र की हानि, नाली स्तंभ पदमें रखा जाय तो महारोग होता है ॥२२॥
धनक्षयः । विनिर्दिशेत् ॥ २२ ॥
(जलमार्ग) होन हो तो धन का क्षय और
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स्तम्भच्यासोदये हीने कर्त्ता तत्र विनश्यति । प्रासादे पीठहीने तु नश्यन्ति गजवाजिनः ||२३||
स्तंभ का मान विस्तार में अथवा उदय में हीन हो तो कर्ता का विनाश होता है। 'प्रासाद की पीठ मानमें होन हो तो हाथी घोड़ा प्रावि बाहनों की हानि होती है ||२३|| रथोपरथहीने तु प्रजापीडां विनिर्दिशेत् ।
कर्णहीने सुरागारे फलं क्वापि न लभ्यते ||२४|
प्रासाद के रथ श्रीर उपरय प्रादि अंग मानमें हीन हो तो प्रजा को पीड़ा होती है । यदि कोना मानमे होन हो तो पूजन का फल कभी भी नहीं मिलता || रक्षा
जङ्घाहीने हरेद् बन्धून् कर्तृकारापरादिकान् । शिखरे दीनमाने तु पुत्रपौत्रधनचयः ||२५||
प्रासाद को जंघा प्रमाण से हीन हो तो करने कराने वाले और दूसरे की हानि होती है। ओ शिखर प्रमाण से न्यून हो तो पुत्र, पौत्र और धनकी हानि होती है ।। २५ ।।
प्रतिदीर्घे कुलच्छेदो ह्रस्वे व्याधिर्विनिर्दिशेत् । rearvartataaurta सुखदं सर्वकामदम् ||२६||
शिखर यदि मान से अधिक लंबा हो तो कुल को हानि होती है और मान से छोटा होवे सो रोग उत्पन्न होते हैं । इसलिये शास्त्र में कहे हुए मानके अनुसार ही प्रासाद बनायें तो यह सर्व इच्छित फलको देनेवाला होता है || २६॥
जगत्यां रोपयेच्छाला शालायां चैत्र मण्डपम् । मण्डपेन च प्रासादो यस्तो दोषकारकः ||२७||
इति दोषाः ।
जगती में शाला ( चौकी मंडप ) बनाना, उस शाला में मंडप और भंडप में प्रासाद ग्रस्त हो तो दोषकारक है ॥२७॥
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प्रासादमखने
छाया भेद
प्रासादोच्छायविस्तारा-जगती बामदक्षिणे ।
आयामेदा न कर्तव्या यथा लिङ्गस्य पीठिका ॥२८॥ प्रासाद के उदय और विस्तार के अनुसार बाथों और दाहिनी और अगती शास्त्रमान के अनुसार रखना चाहिये । ऐसा न करें तो छायादोष होता है, क्योंकि जैसे शिवलिंग की पीठिका रूप जगती है, वैसे प्रासाद रूप लिंग की जगतीरूप पीठिका है ॥२८॥ देवपुर, राजमहल और नगर का मान
जंगत्यां त्रिचतुःपञ्च-गुणं देवपुर विधा । . एकद्विवेदसाहस्त्र-ईस्तैः स्याद् राजमन्दिरम् ॥२६॥ कलाष्टवेदसाहस्र-हस्तै राजपुरं समम् ।
दैर्य तुल्यं सपादांशं साधांशेनाधिकं शुभम् ॥३०॥ असी में तीन, घ.२ अवः सभा जु देवर का नाम है। एक, दो अथवा चार हजार हाथ का राजमहल का मान हैं और सोलह आठ अथवा चार हजार हाथ का राजपुर ( राजधानी वाला नगर) का मान हैं । ये दरेक का तीन २ प्रकार का मान जाने। लंबाई में विस्तार के बराबर अथवा सवाया तथा डेटा मान का रखना शुभ है ।।२६-३०॥ राजनगर में देवस्थान
द्वादश त्रिपुराणि स्यु-देवस्थानानि चत्वरे । षट्त्रिंशत् षड्भिया पायदष्टोचरं शतम् ॥३१॥ पुरं प्रासादगृहै। स्थात् सौधैर्जालगवाक्षकः । कीर्तिस्तम्भैर्जलारामै-माहेश्च' शोभितम् ॥३२॥
' इति देवपुरराजपुराणि । राजनगर के चौरास्ते में बारह त्रिपुर (छतीस.) देवस्थान हैं । छत्तीस से छह २ बढ़ाते हुए एकसौ आठ तक बढ़ावें, उतने देवस्थान है। यह नगर देव प्रासादों से, जाली और गवाक्षवाले राजमहलों से और गृहों से कोत्तिस्तंभों से कूमां, बावड़ी प्रादि जलाश्रयों से, किला और मंडपों से शोभित होता है ।।३१-३२।।
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प्राश्रम और मठ
प्रासादस्योत्तरे याम्ये वथाग्नौ पश्चिमेऽपि वा ।
यतीनामाश्रमं कुर्यान्मठं तद्वित्रिभूमिकम् ॥३३॥ प्रासाद के उत्तर अथवा दक्षिण दिशा में, तथा अग्निकोन में या पिछले भाग में यतियों का प्राश्रम तथा ऋषियों का मठ, दो या तीन मंजिल बनावें ॥३३॥ .
द्विशालमध्ये षड्दारुः पट्टशालाने शोभिता । ।
मसवारणमने च तवं पट्टभूमिका ।।३४॥ पाश्रम के दोशाला के मध्य में षड्दार ( आमने सामने की दीवार में दो दो स्तंभ और उसके ऊपर प २ एक २ पाट, मेला गड्तार कहा जाता है ! लें । द्विशाला के प्रागे सुशोभित पट्टशाला ( बरामक्ष ) बनावें और उसके आगे कटहरा बनायें। उसके ऊपर पट्टभूमिका ( चंद्रशाला-खुली छत ) रक्खें ॥३४॥ स्थान विभाग
कोष्ठागारं च वायव्ये बहिनकोणे महानसम् । पुष्पगेहं । तथेशाने नैऋत्ये पात्रमायुधम् ॥३॥ सत्रागारं च पुरतो वारस्यां च जलाश्रयम् ।। मठस्य' पुरतः कुर्याद् विद्याव्याख्यानमण्डपम् ॥३६||
इति मः। मडके वायुकोने में धान्म का कोठार, अग्निकोने में रसोड़ा, ईशान कोने में पुष्पग्रह (पूजोपगरण), नैऋत्य कोने में पात्र और प्रायुध, प्रागे के भाग. में यज्ञशाला और पश्चिम दिशामें जलस्थान बनावें । एवं मठ के प्रागे पाठमाला और व्याख्यान मंडप बनावें ॥३५-३६।। प्रतिष्ठा मुहूर्त--
पूर्वोक्ता सप्तपुण्याह-प्रतिष्ठा सर्वसिद्धिदा 1
रवौ सौम्यायने कुर्याद् देवानां स्थापनादिकम् ॥३७॥ प्रथम अध्ययन के श्लोक ३६ में जो सात पुण्य दिन कहे गये हैं। उनकी प्रतिष्ठा सर्वसिद्धि को देनेवाली है । जब सूर्य उस रायन में हो तब देवों को प्रतिष्ठा प्रादि शुभ कार्य करना चाहिये ॥३६॥ १. 'मस्योपरितः ।
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प्रासादमाखने
प्रतिष्ठा के नक्षत्र
प्रतिष्ठा चोखरामूल पार्द्रायां च पुनर्वसौ ।
पुष्ये हस्ते मृगे स्वातौ रोहिण्यां श्रुतिमैत्रमे ॥३॥ तीन उत्तरा नक्षत्र, मूल, पा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, मृगशीर्ष, स्वाति, रोहिणी, श्रवण और अनुराधा, ये नक्षत्र देव प्रतिष्ठा के कार्य में शुभ हैं ।।३।। प्रतिष्ठा में वर्जनीय तिथि
तिथिरिक्तां कुजं धिप्ण्यं क्रूरविद्धं विधु तथा ।
दग्धातिथिं च गण्डान्तं चरभोषग्रहं त्यजेत् ॥३६।। रिक्तातिथि, मंगलवार, क्रूरग्रह से वेधित अथवा युत नक्षत्र और चंद्रमा, दग्यातिथि, मक्षत्र, मास, तिथि और लग्न आदिका गंडांतयोग, चर राशि और उपग्रह ये सब प्रतिष्ठा कार्य में वर्जनीय हैं ॥३६॥
सुदिने शुभनक्षत्रे लग्ने सौम्यथुतेक्षिते ।
अभिषेकः प्रतिष्ठा च प्रवेशादिकमिध्यते ॥४०॥ शुभदिन में, शुभनक्षत्रमें, शुभलग्नमें, शुभग्रह लग्न में हों अथवा लग्न को देखते हों, ऐसे समय में राज्याभिषेक, देवप्रतिष्ठा और गृह प्रवेश प्रादि शुभकार्य करना चाहिये ।।४।। प्रतिष्ठा मण्डप----
प्रासादाने तथैशान्ये उत्तरे मण्डपं शुभम् । त्रिपञ्चसप्तनन्दैका-दशविश्वकरान्तरे ॥४१॥ मण्डपः स्यात् करैरष्ट--दशसूर्यकलामितैः । षोडशहस्ततः कुण्ड-शादधिक इष्यते ।।४२|| स्तम्भैः षोडशभियुक्तं तोरणादिविराजितम् ।
मण्डपे वेदिका मध्ये पचाष्टनवकुण्ड कम् ॥४३॥ प्रासाद के प्रामे, तथा ईशानकोने में प्रथवा उत्तर दिशा में प्रतिष्ठा का मंडप बनाना शुभ है । यह मंडप तीन, पांच, सात, नव, ग्यारह अथवा तेरह हाथ तक प्रासाद से दूर रखना चाहिये । तथा पाठ, दस, बारह अथवा सोलह हाथ के मान का समचोरस बनाना चाहिये। एवं कुण्डों को विशालता के कारण सोलह हाथ से बड़ा भी मंडप कर सकते हैं। यह मंडप
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सोलह स्तंभ बाला और तोरणों से शोभायमान बनावें । तथा मंइप के मध्य में वेदिका और पांच, पाठ अथवा नव यज्ञ कुण्ड बनावें ॥४१ से ४३|| यज्ञकुण्ड का मान
हस्तमात्रं भवेत् कुण्डं मेखलायोनिसंयुतम् ।
आगमैर्वेदमन्त्रैश्च होमं कुर्याद् विधानतः ॥१४॥ तोन मेखला और योनि से युक्त ऐमा एक हाथ के मानका पजगत ननाथें । जसमें पागम और वेद के मंत्रों से विधिपूर्वक होम करें ॥४॥ माहुति संख्या से कुण्डमान
अयुते हस्तमात्र स्थात् लक्षा? तु द्विहस्तकम् । त्रिहस्तं लक्षहोमे स्याद् दशलक्षे चतुष्करम् ॥४शा विंशलो पञ्चहस्तं कोरबद्ध पटकर मतम् । अशीतिलक्षेऽद्रिकर कोटिहोमे कराष्टकम् ॥४६॥ प्रहपूजाविधाने च कुण्डमेककर मवेत् ।।
मेखलात्रितयं वेद-रामयुग्माङ्गुलैः क्रमात् ॥४७॥* दस हजार प्राहुति के लिये एक हाथ का, पचास हजार पाहुति के लिये दो हाथ का, एक लाख पाहुति के लिये तीन हाथ का, दस लाख पाहुति के लिये चार हाय का, तीस लाख पाहुति के लिये पांच हाय का, पचास लाख पाहुति के लिये छह हाथ का, अस्सी लाख प्राप्ति के लिये सात हाथ का और एक करोड़ पाहुति देना हो तो पाठ हाथ का कुण्ड बनावें । ग्रहपूजा मादि के विधान में एक हाथ के मान का कुल बनावें । कुण्ड की तीन भेखला क्रमशः चार, तीन और दो अंगुल के मान को रखें ।।४५ से ४७॥ विशानुसार कुण्डों को प्राकृति--
"प्राच्याश्चतुष्कोणभगेन्दुखण्ड--त्रिकोणवृत्ताअभुजाम्बुजानि । अष्टानिशक्रेश्वरयोस्तु मध्ये, वेदासि वा वृत्तमुशक्ति कुण्डम् ॥ २॥
इति मंडपकुंडसिद्धी पूर्व दिशा में समचोरस, अग्निकोण में योन्याकार, दक्षिण दिशा में अर्द्ध चन्द्र, नै*. स्यकोण में त्रिकोण, पश्चिमदिशा में गोल, वायुकोण में छह कोण, उत्तर में अष्टदल एयाकार • विशेष जानने के लिये देखो अपराजिता सूत्र १४, । प्रा०२०
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प्रासावमएडने
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और ईशानकोणमें प्रष्टकोण, ये पाठ पूर्वदिशासे ईशानकोरण तक आठ दिवालों के कुण्ड हैं। तथा पूर्व और ईशान के मध्य भाग में नवां मावार्य कुण्ड गोल अथवा समचोरस बनावें।
विशेष जानने के लिये देखें मंडप डसिद्धि आदि ग्रह।' मंडल
एकद्वित्रिकरं कुर्याद् धेदिकोऽपरि मण्डलम् ।
ब्रह्मविष्णुस्त्रीणां च सर्वतोभद्रमिध्यते ॥४८॥ वेदिकाके आर एक, दो अथवा तीन हाथ के मानका मंडल बनायें । ब्रह्मा, विष्णु और सूर्य की प्रतिष्ठा में सर्वतोभद्र नामका मंडल बनावें ॥४ti
भद्रं तु सर्वदेवानां भवनाभिस्तथा त्रयम् ।
लिङ्गोद्भवं शिरस्यापि लतालिङ्गोद्भवं तथा ॥४६॥ मब देवों की प्रतिष्ठा में भद्र नाम का मंडल, तथा नबनाभो अथवा तीन नाभि वाला लिगोद्भव मंडल बनावें । शिव को प्रतिष्ठा में लिंगोद्भत्र तथा लतालिङ्गोद्भव नाम का मंडल बनावें ॥४॥
भद्रं च गौरीतिलकं देवीनां पूजने हितम् ।
अर्धचन्द्रं तडागेषु चापाकारं तथैव च ॥१०॥ सब देवियों की पूजन प्रतिष्ठा मे भद्र और गौरीतिलक नाम का मंडल बनावें। तथा तालाव की प्रतिष्ठा में प्रर्धचंद्र चापाकार मंडरल बनावें ॥५०॥
दक्षाभं स्वस्तिकं चैव वापीपेषु पूजयेत् ।
पीठिकाजलपट्टषु योन्याकारं तु कामदम् ॥५१॥ वावडी और कुत्रों की प्रतिष्ठा में टंकाभ और स्वस्तिक मंडल का पूजन करें। पीठिका और जलबट्ट की प्रतिष्ठा में योनि के प्राकार का मंडल पूजने से सब कार्य सिद्ध होते हैं ।।५।।
गजदन्तं महादुर्गे प्रशस्तं मण्डलं यजेत् ।
टङ्काम चतुरस्त्रं च गजदन्तं महायतम् ॥५२॥ बड़े किले की प्रतिष्ठा में गजदंत नामका मंडल पूजन करना प्रशस्त है । टंकाम मंडल का प्राकार चोरस है और गजदंत महल का प्राकार लंबा है ॥५२॥
विख्यातं सर्वतोभद्रं क्षेपमन्योऽन्यलोकतः । पूर्वादितोरणं प्लक्ष-यज्ञावटपिप्पलैः ॥५३॥
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इष्टमोऽध्यायः
१५५
सब मंडलों में सर्वतोभद्र नामका मंडल प्रसिद्ध है, उसका तथा अन्य मंडलों का स्वरूप प्रत्यशास्त्र (अपराजित पृच्छा सूत्र - १४८ ) से जानें। यज्ञमंडप में पूर्वादि दिशाओं में अनुकम से पीपला, गुलर, बरगद और पीपल के पत्तों का तोरण बांधे ५३॥
ऋत्विजसंख्या
द्वात्रिंशत् षोडशाष्टौ च ऋत्विजो वेदपारगः । कुलीनानङ्गसम्पूर्णान् यज्ञार्थमभिमन्त्रयेत् ॥ ५४ ॥
करने वाले बसीस, सोलह श्रथवा माठ ऋत्विज आमंत्रित होना चाहिये। ये सब वेदों के ज्ञाता हों, कुलवान हों और अंगहीन न हों ||१४||
देवtara fafe
जलेन च ॥ ५६ ॥
auster त्रिभागेन चोचरे स्नानमण्डपम् | स्थण्डिलं वालुकं कृत्वा शय्यायां स्वापयेत् सुरम् ॥५५॥ पञ्चगव्यैः कषायैश्च वल्कलैः क्षीरवृक्षजैः । स्नापयेत् पञ्चकलशैः शतवारं मंडप की चारों दिशा में तीन २ भाग करें, प्रर्थात् मंडप का नव भाग करें। (श्राठ दिशा के मठ और एक मध्य वेदी का भाग जानें ) । इनमें उत्तर दिशा के भाग में स्नान मंडप बनावें । उसमें रेतीका शुद्ध स्थंडिल (भूमि) बनाकर उसके ऊपर शय्या में देव की स्थापना करें। पीछे पंचगव्य से, कषाय बर्ग को औषधियों से और क्षीरवृक्षों की छालों के चूर्ण से स्नात्रजल तैयार करें, उससे पांच २ कलश एक्सो बार भर करके देवको स्नान करावें ।।५५-५६ ॥ arendra.. वादि-गीतमङ्गल निःस्वनै ।
वस्त्रेणाच्छादयेवदेवं वेद्यन्ते मण्डपे न्यसेत् ||५७||
स्नान किया के समय वेदमंत्रों के उच्चारणों से, वाज की ध्वनियों से और मांगलिक गीतों से urera cवनिमान करें। स्नान के बाद देवको वस्त्रसे श्राच्छादित करके, पीछे ईशानकोन की वेदी के ऊपर स्थापित करें ॥५७॥
देवशयन
तन्पमारोपयेद् वेद्या-मुत्तराट्री न्यसेत् ततः । कलशं तु शिरोदेशे पादस्थाने कमण्डलुम् ||२८||
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१५६
प्रासावमारने
ईशानकोन की वेदी के कपर देवका शय्यासन रक्खें । उनके चरण उत्तर दिशा में रक्खें । सिर भाग के पास कलश और परख के स्थान के पास कमंडनु रक्खे ॥५८||
व्यजनं दक्षिणे देशे दर्पण वामतः शुमम् ।
रत्नन्यासं ततः कुर्याद् दिक्पालादिकपूजनम् ॥५६॥ देवकी दाहिनी पोर पंखा और बायीं ओर दर्पण रखना शुभ है। पीछे माठ दिशामों - में रत्न को स्थापित करके दिक्पाल प्रादि की पूजा करें ||५||
श्राग्नेयां गणेशं विद्या-दीशानेग्रहमण्डलम् ।
नैश्च त्ये जास्तुपूजा च वायव्ये मातरः स्मृतः ॥६॥ ___ अग्निकोम में गणेश, ईशानकोन में मवह मंडल, नैऋत्य कोन में वास्तुपूमा और बाययकोन में माहदेवता की स्थापना करें ।।६।। रत्नन्यास
वचं वैडूर्यकं मुक्ता-मिन्द्रनीलं सुनीलकम् ।
पुष्परागं च गोमेदं 'प्रवालं पूर्वतः क्रमाद ॥६१।। वन (हीरा), वैडूर्य, मोती, इन्द्रनील, सुनील, पुष्पराग, गोमेद और प्रवाल, ये । पाठ रत्न पूर्वादि सृष्टिकम से रक्खें ॥६१६ धातुन्यास
सुवर्य रजतं ज्ञान कास्य रीतिं च सीसकम् ।
बङ्गं लोई च पूर्वादौ सृष्टया धातूनिह न्यसेत् ॥६२॥ सोना, चांदी, तांबा, कांसी, पीतल, सोसा, कलाई और तोह ये पाठ भातु पूषि सृष्टिकम से रक्खें ।।२।। पौषधिन्यास----
*वजी बह्निः सहदेवी विष्णुकान्तेन्द्रनारुखी ।
शंखिनी ज्योतिष्मती चैवेश्वरी तान् क्रमान् न्यसेत् ॥६॥ पराजितपृच्या सूत्र १४६ श्लो. १५ में 'पा' पाई। १. 'चन्द्र पूर्वादिषु यजेत्' इति पाठान्तरे ।
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ऽष्टमोऽध्यायः
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वसी । तो वह शिक), देवी, विष्णुकान्ता, इन्द्रवारुणी, शंखाहुली, ज्योतिष्मती ( मालकांगनी ) और शिवलिंगी, ये माठ पौषधियां पूर्वादि दिशामों में चष्टिकम से रक्खें ॥३॥ धान्यन्यास
यवो ब्रीहिस्तथा कङ्गु-जूर्णाह्वा च तिलैयुताः ।
शाली मुद्गाः समाख्याता गोधूमाव क्रमेख तु ||६|| जब, धोहि, कंगु, जुमार, तिल, शालो, मूग और गेहूं, मे पाठ धान्य पूर्वादि दिशाओं में कृष्टिकम से रक्खें। प्राचार्य और शिल्पियों का सम्मान
यह वाभरणं पूजा वस्त्रालङ्कारभूषणम् ।
तत्सर्व शिल्पिने दद्याद् आचार्याय तु याचिकम् ॥६॥ देवसंस्कार के लिये जो वस्त्र और अलंकार आदि आभूषण बढाया जाता है, वे सब शिल्पिको देना चाहिये और प्राचार्य को यज्ञ संबंधी सब वस्तु देनी चाहिये |६||
ततो महोत्सव कुर्यान्नृत्यगीतैरनेकशः ।
नैवेद्यारात्रिकं पूजा-मनापासादिकं तथा ॥६६॥ पोछे अनेक प्रकार के नृत्य और गीत पूर्वक महोत्सव करें, नैवेद्य चढ़ावें, आरती करें पौर अंगन्यास ( मुद्रा न्यास ) आदि करें॥६६॥ ।
क्षीरं चौद्रं घृतं खण्डं पक्वाभानि बहून्यपि ।
षडरसस्वादुभत्याणि सन्मानं परिकल्पयेत् ।।६७।। दूध, शहद, घी, खांड और अनेक प्रकार के पकवान, तथा षड्रस के स्थाय वाले भोजन पदार्थ, ये सन्मान पूर्वक देव के प्रागे रखने चाहिये ।।६७॥
विप्राणां सम्प्रदायैश्च वेदमन्त्रैस्तथागमैः ।
सकलीकरणं जीवन्यासं कृत्वा प्रतिष्ठयेत् ॥६॥ पीछे ब्राह्मण प्राने सम्प्रदाय के मनुसार वेद त्रों से तया मागम मंत्रों से सकलीकरण करके देवमें जीवन्यास करें। पोले पहिडित करें ॥३॥
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प्रासावदेव म्यास
प्रासादे देवतान्यासं स्थावरेषु पृथक पृथक ।
खरशिलायां वाराहं पौन्यां नागकुलानि च ॥६॥ प्रासाद के थरों और अंगोपांगों में अलग २ देवों का म्यास करके पूजन करें। खरशिला में वाराह देव और भीट के घर में नागदेव का न्यास करें ।।६।।
प्रकुम्मे जलदेवांश्च पुष्पके किंसुरांस्तथा ।
'नन्दिनं जाड्यकुम्भे च कर्णाज्यां स्थापयेद्धरिम् ॥४०॥ कुम्भ के घर में जलदेव, पुष्पकंठ के घर में किन्नरदेव, बायकुम्भ में नदीदेव, और कारणका के घर में हरिदेव का न्यास करें ॥७०||
गणेशं गजपीठे स्या-दश्वपीठे तथाश्विनौ ।
नरपी नरांश्चैत्र धर्मा च खुरके पजेत् ॥७१॥ गपीठ में गणेश, अश्वमोठ में दोनों अश्विनीकुमार, नरपीठ में नरदेव और खुरा के पर मैं पृथ्वोदेवी का न्यास करके पूजन करें ।।७१।।
भद्रे संध्यात्रयं कुम्भे पार्वती कलशे स्थिताम् ।
कपोताल्यां च गान्धर्वान् मनिकायां सरस्वतीम् ।।७२॥ भद्र के कुम्भ में तीन संध्यादेवी, कला के घर में पार्वतीदेवी, केवाल के घर में गांधर्षदेक और मांधी के घर में सरस्वती देवी का न्यास करें ।।७।।
जवायां च दिशिपाला-निन्द्रमुद्गमे संस्थितम् ।
सावित्री भरलीदेशे शिरावव्यां च देविकाम् ॥७३।। जंघा के घर में दिक्पाल, उनम के घर में इन्द्र, भरणी के घर में सावित्री और शिराबटी के घर में भाराधार देवी कान्यास करे ॥७३॥
विद्याधरान् कपोताल्या-मन्तराले सुसंस्तथा ।
पर्जन्यं कूटच्छाधेच ततो मध्ये प्रतिष्ठयेत् ॥७॥ केवाल के घर में विद्याधर, अंतराल के घर में किन्नरादि सुर और छज्जा के परमें पर्जन्य ( मेघ ) देव, इनका न्यास करें। अब भीतर के मध्य भाग में देवों का न्यास कहते हैं ॥१७॥ १. 'नन्दिनी'। २. 'स्रष्टार कुम्भके' अप० सु. १५ श्लो० ८ ।
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ऽष्टमोऽध्यायः
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शाखयोश्चन्द्रसूयौं च त्रिमूर्तिश्चोत्तरङ्गके ।
उदुम्बरे स्थितं यक्ष-मश्विनावद्ध चन्द्र के ॥७॥ द्वारशालाओं में चंद्र और सूर्य, उनरंग में त्रिमूति ( ब्रह्मा, विष्णु और शिव ), देहली में यक्षों और अर्धचंद्र (शंखावटी) में दोनों अश्विनीकुमारों का न्यास करें ।।७।।
कौलिकायां धराधार क्षिति चोचामपसके ।
स्तम्भेषु पर्वतांश्चैष-माकाशं च करोटके ॥७६।। कोलिका में धराधर, उत्तानपट्ट ( बडा पाट ) में क्षिति, स्तंभ में पर्वत और मूबद में माकाश, इन देवों का न्यास करें ॥७६||
मध्ये प्रतिष्ठषेद् देवं मारे जाह्नवीं तथा । शिखरस्योरुभाषु पञ्च पञ्च प्रतिष्ठयेत् ।।७७॥ ब्रह्मा विष्णुस्तथा पूर्य ईश्वरी च सदाशियः ।
शिखरे चेश्वरं देवं शिखायां च सुराधिपम् ॥७॥ गर्भगृह में स्वदेव, मगर मुखबाली नाली में गंगाजी, शिखर के उरुगों में ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य, पार्वती और सदाशिव, इन पांच २ देवों का त्यास करके पूजन करें। शिखर में ईश्वर देवका और शिखा सुराधिप (इन्द्र) का न्यास करें 11७७-७८॥
ग्रीवायामम्बरं देव-मण्डके च निशाकरम् ।
यमार्श पनपत्रे च कलशे च सदाशिवम् ||६॥ शिखर को श्रीवा में अंबरदेव, शृगों में तथा प्रामालसार में निशाकर (चंद्रमा }, पात्र और पशिला में पाक्ष देव, और कला में सदाशिव, इन देवों का न्यास करें ॥७॥
सद्यो वामस्तथाधोर-स्तत्पुरुष ईश एव च । कर्णादिगर्भपर्यन्त पञ्चाङ्ग तान् प्रतिष्ठयेत् ।।८०॥
इति स्थावर प्रतिष्ठा। सद्य, वामन, अधोर, तत्पुरुष और ईश, इन पांच देवों का कोने से लेकर गर्भपर्यन्त पांच अंगों में ( करणे, प्रतिरथ, रथ, प्रतिभद्र और मुखभद्र में ) न्यास करें11८०॥ प्रतिष्ठितदेव का प्रथम दर्शन--
प्रथमं देवतादृष्टे-दर्शयेदन्तर्धाहितम् । विप्रकुमारिका वास्तु-ततो लोकान् प्रदर्शयेत् ।।१।।
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प्रतिक्षा के दिन रात्रि में देवालय बंध होने के बाद प्रातःकाल खोलने के समय देवका प्रथम दर्शन ब्राहास कुमारी केरे, बाद में दस लोग दर्शन करें ।।८। सूत्रधार पूजन
'इत्येवं विविधं कुर्यात् सूत्रधारस्य पूजनम् । भूवित्तवस्त्रालङ्कार-मिहिभ्यश्च वाहनः ॥२॥ अन्येषां शिल्पिनां पूजा कर्तव्या कर्मकारिणाम् ।
स्वाधिकारानुसारेण वस्त्रैस्ताम्बूलभोजनः ॥८॥ अच्छी तरह विधि पूर्वक देव के प्रतिष्ठित होने के बाद भूमि, धन, वस्त्र और असंकारों से तथा गाय, मैंस और घोड़ा आदि वाहनों से सूत्रधार को सम्मान पूर्वक पूजा करें। एवं काम करने वाले अन्य शिल्पिों की भी उनके योग्यतानुसार वख, तांदल और भोजन आदि से सम्मान पूर्वक पूजा करें ॥८२-८३।। देवालयय निर्माण का फल
काठपाषाणनिर्माण-कारिणो यत्र मन्दिरे ।
अक्तेऽसौ च तत्र सौख्यं शङ्करनिदशैः सह ||४|| काष्ठ अथवा पाषाण प्रादिका प्रासाद जो बनवाता है, वह देवलोक में महादेव तथा अन्य देवों के साथ सुखको भोगता है ॥८४॥ सूत्रधार का आशिर्वाद
पुण्यं प्रासाइज स्वामी प्रार्थयेत् पत्रधारतः । सूत्रधारो वदेत स्वामिन् ! अक्षयं मवतात् तव ।।८॥
इति सूत्रधारपूजा। देवालय बनवाने वाला स्वामी सूत्रधार से प्रासाद बंधवाने के पुण्य की प्रार्थना करें, तब सूत्रधार प्राशीर्वाद देखें कि--'हे स्वामिन् देवालय बंधवाने का तुम्हारा पुण्य अक्षय हो' ||८ प्राचार्य पूजन
प्राचार्य पूजनं कृत्वा वस्त्रस्वर्णधनैः सह । दानं दद्याद् द्विजातिभ्यो दीनान्धदुर्वलेषु च ॥८६॥
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१. 'इस्यनन्तरतः'।
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सर्वेषां धनमाधारः प्राणीनां जीवनं वित्ते दते प्रतुष्यन्ति मनुष्याः पितरः सुराः ||८७ ||७||
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इति प्रतिष्ठाविधिः । प्रतिष्ठाका कार्य समाप्त होने के बाद वस्त्र और सुध आदि धन से आचार्य की पूजा करें। पीछे ब्राह्मणों को तथा दीन, ग्रंथ और दुर्बल मनुष्यों को दान देवें। क्योंकि सब प्राणियों कामाधार धन हैं, और यही प्राणियों का श्रेष्ठ जीवन हैं। धन का दान देने से मनुष्य, पितृदेव और मध्य देव संतुष्ट होते हैं |८६-८७
जिनवेव प्रतिष्ठा
प्रतिष्ठा वीतरागस्य
जिनशासनमार्गतः । नवकारैः सूरिमंत्रैश्व सिद्ध केवलिभाषितैः ॥ ८८ ॥
atar देव की प्रतिष्ठा जैन शासन में बतलाई हुई विधि के अनुसार, सिद्ध हुए केवलज्ञानियों ने कहे हुए नवकार मंत्र और सुरिमंत्रों के उच्चारण पूर्वक करनी चाहिये
१६१
ग्रहाः सर्वज्ञदेवस्य पादपीठे प्रतिष्ठिताः । येनानन्तविभेदेन मुक्तिमार्ग उदाहृताः ॥८६॥ जिनानां मातरो या पक्षियो गौतमादयः । सिद्धाः कालत्रये जाताश्चतुर्विंशतिमूर्तयः ॥ ६० ॥
सर्वदेव के पादपीठ ( पचासन) में नवग्रह स्थापित करें। ये जिनदेव अनन्त भेदों से मुक्ति मार्ग के अनुगामी कहे गये है | जिनदेव की माता, यक्ष, पक्षिणी और गौतम श्रादि गणधर आदि की मूर्तियां तथा तीन काल में सिद्ध होनेवाले चौबीस २ जिनदेव की मूर्तियां है
|
इति स्थाप्या जिनावासे त्रिप्राकारं गृहं तथा ।
aaj शिखरं मन्दारकं स्वष्टापदादिकम् ॥ ६१ ॥
२. 'नदोश्वरं ।' ७.० २१
मूर्तियां जिनालय में स्थापित करें। जिनालय समवसरण वाला, सवरणा वाला.
शिखर वाला, गुम्बद वाला और अपद वाला बनाया जाता है ।। ६१ ।।
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प्रासादमडने
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प्रासादो वीतरागस्य पुरमध्ये सुखावहः । नृणां कल्याणकारी स्याचतुर्दिा प्रकल्पयेत् ।।१२।।
इति जिनप्रतिष्ठा वीतरागदेव का प्रासाद नगर में हो तो सुखकारक है, तथा मनुष्यों का कल्याण करने वाला है। इसलिये चारों दिशा में ये बनाने चाहिये ॥२॥ जलाश्रय प्रतिष्ठा
माधादिपञ्चमासेषु वापीकूपादिसंस्कृतम् । तडागस्य चतुर्मास्यां कुर्यादापाढमार्गयोः ॥१३॥ असंस्कृतं जलं देवाः पितरो न पिबन्ति तत् ।
संस्कृते तृप्तिमायाति तस्मात् संस्कारमाचरेत् ||६|| याबड़ी और को प्रादिको प्रतिष्ठा मोल संक्राति का मास छोड़कर भाष प्रादि पांच मास में करें। तालाव की प्रतिष्ठा चौमासे के चार मास प्राषाढ़ और मार्गशीर्ष, ये वह मास में करें । जलाश्रयों के जन्म का संस्कार न किया जाय तो उसका जल पितृदेव पीते नहीं हैं। संस्कार किये जल से ही पितृदेव तृप्त होते हैं । इसलिये जल का संस्कार अवश्य करना चाहिये ।।६३-६४
जलाश्रय बनवाने का पुण्य ----
जीवन वृक्षजन्तूनां करोति यो जलाश्रयम् ।
दत्ते या स लभेत्सोख्य-मुच्या स्वर्गे च मानवः ||५|| अल, वृक्ष और सब जीवों का जीवन है । इसलिये जो मनुष्य जलाश्रय बनवाता है, वह मनुष्य जगल में धनधान्य से पूर्ण ऐहिक सुखों को, तथा स्वर्ग के सुखों को प्राप्त करता है और मोक्ष पाता है |शा वास्तुपुरुषोत्पत्ति
पुरान्धकाधे रुद्र-ललाटात् पतितः चितौ । स्वेदस्तस्मात् समुद्भूतं भूतमत्यन्तं दुस्सहम् ॥१६॥ गृहीत्वा सहसा देवै-यस्तं भूमावतोमुखम् । जानुनी कोणयोः पादौ रक्षोदिशि शिवे शिरः ॥१७॥
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प्राचीन समय में जब महादेव ने अंधक नाम के देस्य का विनाश किया, उस समय परिश्रम से महादेव के ललाट में से पसीना को बिन्दु पृथ्वी के ऊपर पड़ो। इस बिन्दु से एक अत्यन्त भयंकर भूत उत्पन्न हुआ । उसको देवों ने शोध ही पकड़ करके पृथ्वी के ऊपर इस प्रकार से औंधा गिरा दिया, कि उसकी दोनों जानु और हाथ को दोनों कोन्ही वायु और पग्नि कोने मैं, चरण नैऋत्य कोने में और मस्तक ईशान को में में रहा ॥६६-६७।।
चत्वारिंशत्रुताः पञ्च वास्तुदेहे स्थिताः सुराः ।
देव्योऽष्टी बाह्यगास्तेषां बसनाद्वास्तुरुच्यते ||६|| इस पौंधे पड़े हुए वास्तुपुरुष के शरीर पर पैंतालीस देव स्थित हो गये और उसके चारों कोने पर पाठ देवियां भी स्थित हो गई । इस प्रकार तरेपन (५३) देव उस भूत के शरीर पर निवास करते हैं, इसलिये उसको वास्तु पुरुष कहते हैं ||९८॥
अधोमुखेन विज्ञप्ती त्रिदशान घिहितो बलिम् । तेनैव पलिना शान्ति करोति हानिमन्यथा ||६|| आमादमानादीनां प्रारम्भे परिवर्तने ।
वास्तुकर्मसु सर्वेषु पूजितः सौख्यदो भवेत् ॥१०॥ अधोमुख करके रहा हुमा वास्तु पुरुष देवों को विनति करता है कि-जो मनुष्य मेर र बैठे हुए देवों को विधिपूर्वक बलि देवेगा, तो उस बलिके प्रभाव से मैं उसको शान्ति प्रदान करूंगा और बलि नहीं देने पर तो हानि करूंगा। इसलिये प्रासाद और भवन प्रादि के सब वास्तु कर्म के प्रारम्भ से सम्पूर्ण होने तक सब वास्तु कर्म में वास्तु पूजन करने से सुखशांति होवेगी ।।२६-१०॥
एकपदादितो वास्तु-वित्पदसहस्रकम् ।
द्वात्रिंश-मण्डलानि स्युः क्षेत्रतुल्याकृतीनि च ॥१०॥ एक पदसे लेकर एक हजार पद तक का वास्तु बनाने का विधान है। वास्तुपूजन के बत्तीस मंडल हैं, वे क्षेत्र की प्राकृति के अनुसार प्राकृति वाले हैं ॥१०१|| A
एकाशीतिपदो. वास्तु-श्चतुःपष्टिपदोऽथवा । सर्वास्तुविभागेषु पूजयेन्मण्डलद्वयम् ।१०२॥
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A सविस्तार जानने के लिये देखें। अपराजित पृच्छा मुख ५७ प्रौर ५८व।
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प्रासादमण्डने
वास्तु पूजन के बत्तीस मंचलों में से इक्यासीपद का और चौसठ पद का, ये दो मंडल पूजने चाहिये ॥१०२।। वास्तुपुरुष के ४५ देव
ईशो मूर्धनि पर्जन्यो दक्षिणकर्णमाश्रितः ।
जयः स्कन्धे महेन्द्राद्याः पञ्च दक्षिणबाहुगाः ॥१०३॥ 'महेन्द्रादित्यसत्याश्च भृश अाकाशमेव च ।
बास्तुपुरुष चक्र--
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मात्रियदि
पदा
Karवत
भाभाका
राम
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Judai
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वास्तुपुरुष के मस्तक पर ईश देव, दाहिने कान पर पर्जन्यदेव, दाहिने स्कंध पर जयदेव और दाहिनी भुजा पर इन्द्र मादि पांच-इन्द्र, सूर्य, सस्य भृश और आकाश देव स्थित हैं ।।१०३||
वह्निर्जानुनि पुषाद्याः सप्त पादनलीस्थिताः ॥१०४॥ *विशेष जानने के लिये देखें राजबल्लभ मडम अध्याय २. १. 'महेन्द्रः सूर्यः सत्यश्च ।'
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उक्टमोऽध्यायः
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पुषाथ वितथश्चैव गृहक्षतो यमस्तथा ।
गन्धर्वो भृङ्गराजश्च मृगः सप्त सुरा इति ॥१०॥ पग्निकोण में जानुके इ.पर अग्नि देव और दाहिने पैर को नलीके ऊपर पूषा आदि सात देव-पुषा, वितथ, गृहक्षत, यम, गान्धर्व, भृगराज और मृग, ये सात देव स्थित है ।।१०४-१०५१
पादयोः पितरस्तस्मात् सप्त पादानलीस्थिताः । दौवारिकोऽथ सुग्रीवः पुष्पदन्ती जलाधिपः 11१०६।। 'असुरशीषपक्ष्माश्च रोगो जानुनि संस्थितः ।
नागो मुख्यश्च भन्नाटः सोमो गिरिश्च बाहुगाः ।।१०७॥ दोनों परके ऊपर पितृदेव, बायें पैरकी नली पर दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदंत, जलाधिप (वरुष), असुर, शोष, और पापयक्ष्मा ये सात देव स्थित है । नाग, मुरुया, मलाट, कुबेर और गिरि (शैल), ये पांच देव बाबी भुजा पर स्थित हैं ।।१०६--? ०७१
अदितिः स्कन्धदेशे च वामे कर्णे दितिः स्थितः ।
द्वात्रिंशद्बाह्यमा देवा नाभिपृष्ठे स्थितो विधिः ।।१०।। मायें स्कंध पर अदिति देव और बायें कान पर दितिदेव स्थित है। इस प्रकार बत्तीस देव वास्तुपुरुष के बाह्य अंगों पर हैं। मध्य नाभि के पृष्ठ भाग में ब्रह्मा स्थित है ।।१०।।
अयमा दक्षिणे वामे स्तने तु पृथिवीधरः ।
विवस्वानऽथ मित्रश्च दक्षवामोरुगावुभौ ॥१०॥ दाहिने स्तन पर अर्यमा और बायें स्तन पर पृथ्वीधर देव स्थित है । दाहनी अरु पर विवस्वान और बायीं ऊरु पर मित्रदेव स्थित है ॥१०६11
आपस्तु गलके बास्तो-रापवत्सो हृदि स्थितः ।
सावित्री सविता तद्वत कर दक्षिणमाश्रिती ॥११०॥ वास्तुपुरुष के गले पर आपदेव, हृदय के कार प्रापवत्स देव स्थित हैं। दाहिने हाथ पर सावित्री और सविता ये दो देवियां स्थित हैं ।।११०॥
इन्द्र इन्द्रजयो मेढ़े रुद्रोऽसौ वामहस्तके ।
रुद्रदासोऽपि तव इति देवमयं वपुः ॥११॥ १. 'शेष ।' २. 'सावित्र' ।
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मेढ़ (लिंग) स्थान पर इन्द्र और इन्द्र जय देव स्थित हैं। बायें हाय पर रुद्र और रुद्रदास देव स्थित हैं । इस प्रकार कुल पैंतालीस देवमय वास्तुपुरुष का शरीर है ॥११॥ वास्तुमंडल के कोने की पाठ वेधियां---
ऐशान्ये चरकी बाह्य पीलीपीछा च पूर्वदिक् । विदारिकाग्निकोणे च जम्मा याम्यदिशाश्रिता ॥११२॥ नैऋत्ये पूतना स्कन्दा पश्चिम वायुकोणके ।
पापराक्षसिका सौम्येऽयमेवं सर्वतोऽर्चयेत् ॥११॥ वास्तुमंडल के बाहर ईशानकोने में उत्तर दिशा में चरको और पूर्व में पोलीपीच्या. अग्निकोने में पूर्व में विदारिका और दक्षिण में जम्मा देवी, नैऋत्यकोने में दक्षिण में पूतना और पश्चिम में स्कन्दा, वायुकाने में पश्चिम में पापराक्षसिका और उत्तर में प्रर्यमा देवी का भ्यास करके पूजन करे ॥११२-१सा
देवीः करान यमादींश्च भाषान्नैः सुरयामिषैः । अपरान् घृतपक्वान्नैः सर्वान् स्वर्णसुगन्धिभिः ॥११४||
___इति वास्तुपुरुषविन्यासः । देवियों को और यम आदि क्रूर देवों को माषाम, सुरा और आमिष से और बाकी के सब देवों को प्रत, पक्यान, सुबर्ण और सुगंधित पदार्थों से पूजना चाहिये ।।११४।। शास्त्र प्रशंसा_एकेन शास्त्रेण गुणाधिकेन,
विना द्वितीयेन पदार्थसिद्धिः । तस्मात् प्रकारान्तरतो विलोक्य,
____ मणिगुणात्योऽपि सहायकाक्षी ॥११॥ इस ग्रन्थ के कर्ता श्रीमानसूत्रधार का कहना है कि-शिल्पशास्त्र अनेक हैं। उनमें यह एक ही शास्त्र अधिक गुणवाला होने पर भी दूसरे शिल्पशास्त्र देखे बिना पदार्थ की सिदि नहीं होती, इसलिये प्रकारान्तर से दूसरे शिल्पग्रन्थ भी देखने चाहिये । जैसे-अकेला मरिंग थधिक गुरगवाला होने पर भी इतनी शोभा नहीं देता मिलनी सुवादि अन्य पदों के साथ मिलाने से देता है। इसी प्रकार शिल्प के अनेक शास्त्र देखने से शिल्पी शिल्पशास्त्र का विद्वान् होता है ।।११५}}
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अष्टमोऽध्यायः
१६७
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अन्तिममंगल---
श्रीविश्वकर्म गणनाथमहेशचण्डी
श्रीविश्वरूपजगदीश्वरसुप्रसादात् । प्रासादमण्डनमिदं रुचिरं चकार,
श्रीमएडनो गुणवतां भुवि सूत्रधारः ॥११६।। इति श्रीवत्रधारमण्डनविरचिते वास्तुशास्त्रे प्रासादमण्डने
अष्टमोऽध्यायः समाप्तः । सम्पूर्णोऽयं ग्रन्थः । श्री विश्वकर्मा, गणपति, महेश, चंडीदेवी और विश्वस्त्ररूप धी जगदीश्वर की कृपा से जगत के विद्वानों में सुप्रसिद्ध मंडन नाम का सूत्रधार है। उसने प्रासाद निर्माण विधि का यह प्रासाइमंडन नाम का शास्त्र मानंद पूर्वक बनाया ॥११॥
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इति श्री पंडित भगवानदास जैन ने इस प्रासादमंडन के प्रायवे अपाय को सुबोधिनी नामक भाषादीका समाप्त की।
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परिशिष्ट नं.-१ केसरी आदि २५ प्रासाद ।
(अपराजितपुच्छा सूत्र १५६ ) विश्वकर्मोवाच---
सान्धारांश्च ततो वक्ष्ये प्रामादान पर्वतोपमान् ।
शिखरधिविधाकार-काण्डच विभूषितान् ॥१॥ पर्वत के जैसे शोभायमान, अनेक प्रकार के शिखरवाले और अनेक भृगों से विभूषित, ऐसे सान्धार जातिके प्रासादों को कहता हूं। ऐसा विश्वकर्मा कहता है ||१||
आयः पञ्चाण्डको ज्ञेयः केसरी नाम नामतः ।
तावदन्तं चतुर्थ द्वि-विदेकोतरं शतम् ॥२॥ प्रथम केसरी नाम का प्रासाद पांच गो वाला है । पीछे प्रत्येक प्रासाद के ऊपर चार २ शुग बढाने से पच्चीसवें अंतिम मेरु प्रासाद के ऊपर एक सौ एक शृग होजाता है ।।२।। पच्चीस प्रासादों का नाम----
केशरी सर्वतोभद्रो नन्दनो नन्दशालिकः । नन्दीशो मन्दरश्चैत्र श्रीवत्सश्चामृतोङ्गवः ॥३॥ हिमवान् हेमकूटश्च कैलासः पृथिवी जयः । इन्द्रनीलो महानीलो भूधरो रत्नकूटकः ॥४॥ बैड्यः पनरागश्च बनको मुकुटोज्ज्वलः । ऐरावतो राजहंसो गरुडो पभस्तथा ॥॥ मेरुः प्रासादराजः स्याद् देवानामालयो हि सः ।
संयोगेन च सान्धारान् कथयामि यथार्थतः ॥६॥ १. नकभूषितान् ।' २. 'सावन्तश्चतुरो वृदिः ।
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परिशिष्ठे केसरीप्रासादः
केसरी, सर्वतोभद्र, नन्दन, नन्दशालिक, नन्दीश, मंदर, श्रीवत्स, अमृतोद्रव, हिमवान्, हेमकूट, कैलाश, पृथिवीजय, इन्द्रनील, महानील, भूधर, रत्नकूटक, वैडूर्य, पद्मराग, वज्रक, मुकुटोज्ज्वल, ऐरावत, राजहंस, गरुड, वृषभ और मेरु ये पचीस प्रासाद सांधारजाति के हैं । उसका प्रनुपसे यथार्थ वर्णन किया जाता है ||३ से क्ष
'दशहस्ताद बस्तान प्रासादो भ्रमसंयुतः | पत्रिंशान्तं निरन्धारा घाट्य वेदादितः ||७||
यदि प्रासाद का मान दस हाथ से न्युन नहा तो वह प्रसाद भ्रम (परिक्रमा) वाला बना सकते है । एवं चार हाथ से छत्तीस हाय तक के मान का प्रसाद fear भ्रमका भी बना सकते हैं ||७||
पञ्चविंशतिः सन्धाराः प्रयुक्ता वास्तुवेदिभिः । भ्रमहीनास्तु ये कार्या: शुद्रच्छन्देषु नागराः ||८|
१६६
वास्तुशास्त्र के विद्वानों ने ये साम्बार (परिक्रमा वाले) पचीस प्रासाद शुद्ध नागर जाति के कहे हैं, वे भ्रम रहित भी बना सकते हैं |||
१- केसरीप्रासाद
चतुरस्रीकृते क्षेत्रे प्रष्टाष्टकविभाजिते । भागभागं भ्रमभित्ति-द्विभागो देवतालयः ॥६॥
सान्धार जाति के प्रासाद की समोरस भूमि के आठ २ भाग करें, उनमें से एक भाग की मी एक २ भाग को दो दीवार और दो भागका गमारा बनाना चाहिये ||
निरन्धारे पदा भित्ति र गर्भ प्रकल्पयेत् । मध्यच्छन्दश्च वेदास्रो बाह्य कुम्भायतं भृगु ||१०||
यदि प्रसाद निरंवार बनाना हो तो प्रासाद के मान के पौधे भागको दीवार और प्रा मानका गंभारा बनाना चाहिये। जैसे- श्राठ हाथ के मानका प्रासाद है, तो उसका चौथा भाग दो २ हाथ की दीवार और चार हाथ का गभारा बनायें | मध्य में गभारा समचोरस रक्खें । गमारा के बाहर कुंभा की लंबाई के मानको कहता हूं ॥०॥
१. 'दशहस्तावधी नास्ति ।'
२. गधारेके चारों तरफ फेरी देने के लिये परिक्रमा बनी हो ऐसे प्रासादों को सांधार प्रासाद कहा जाता है और परिक्रमा बनी हुई न होवे तो निरंधार प्रासाद कहा जाता है ।
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प्रासादमएडने
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क्षेत्राधे च भवेद् भद्रं भद्राय कर्णविस्तरः । कर्णस्याप्रमाणेन कर्तव्यो भद्रनिर्गमः ||११||
प्रासाद की भूमिके नाप से प्राधा भद्रका विस्तार रक्खें। इससे प्राधे मामका कोणा का विस्तार रक्खें। कोणे के प्राधे मान का भद्रका निर्गम रखखें ॥११॥
चतुष्कर्णेषु ख्यातानि श्रीवत्सशिखराणि च । राथकोद्गमे च पञ्चैव केशरी गिरिजाप्रियः ॥१२॥
इति केसरीप्रासादः ||१|| प्रासाद के चारों कोनों के ऊपर एक २ श्रीवत्स अंग चढ़ावें, तथा भद्रके ऊपर रथिका और उद्गम बनावें । इस प्रकार का केसरी नामका प्रासाद पार्वती देवी को प्रिय है ॥१२॥
शृग संख्या चार कोणे ४ और एक शिखर एवं कुल ५ शृंग। २-सर्वतोभद्रप्रासाद
क्षेत्रे विभक्ते दशधा गर्भः षोडशकोष्ठकै । भित्ति भ्रमं च मित्तिं च भागभागं प्रकल्पयेत् ॥१३॥
प्रासाद की समचोर भूमिका दस २ भाग करें। उनमें से मध्य
गभारा कुल सोलह भाग का रक्खें । बाकी एक भाग की दीवार, एक भाग की प्रमपी और एक भागको दूसरी बाहर की दीवार रक्खें ।।१३|
द्विभागः कर्ण इत्युक्तो भद्रं षड्भागिकं तथा ।
निर्गमं चैकमागेन भामिका पार्वक्षोभणा ॥१४॥ दो २ भाग का कोणा और छभागका भद्र का विस्तार रक्खें । भद्र का निर्गम एक भाग रखें और भन के दोनों तरफ एक २ भाग की एक २ कोणी बनावें ॥१४॥
कधिका चार्धभागेन भागाध भद्रनिर्गमम् ।
मागत्रयं च विस्तारे सुखमद्र' विधीयते ॥१५॥ भद्र के दोनों तरफ प्राधे २ भाग की एक २ करिणका भी बनाना-इस का और कोणीया का निर्गम पाधा भाग और भद्र कार्गम आधा भाग, इस कार कुल एक भाग भद्र का निर्गम जानें । भद्रका विस्तार छ भाग रखना ऊपर लिखा है, उनमें से दो कोणी और
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परिशिष्टे केसरीप्रासादः
१७१
दो कणिका का तीन भाग छोड़ करके बाकी तीन भाग रहे उतना मुखभद्र का विस्तार सखें ॥१५॥
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४-नविशालप्रासाद
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भद्रके ऊपर पांच २ उम करें। कोहे के ऊपर दो २ एवं कुल आठ श्रृंग चढायें मामलसार और कलश वाला श्रीवत्स शिखर बनावें ||१६||
संख्या- प्रत्येक कोण पर २-२ और एक शिखर एवं कुलग
३- नंदनप्रासाद---
मद्रे वै तद्गमाः पञ्च कानि च । श्रीवत्सशिखरं कार्य घण्टाकलशसंयुतम् ||१६||
इति सर्वतोभद्रप्रासादः ॥२॥
इति नन्दनप्रासादः ॥ ३॥ यह नन्दन प्रासाद का मान और स्वरूप सर्वतोभद्र प्रासाद के अनुसार जानें। फर्क इतना कि भद्र के गवाक्ष और उद्रम के ऊपर एक २ उग चढ़ायें | इसको बनानेवाला स्वामी मानन्द में रहता है और सब पापों का नाश करता है ।। १७ ।।
श्रीari मद्रमारूढं रथिकोद्गमभूषिते । नन्दने नन्दति स्वामी दुरिति धत्रम् ॥१७॥
संख्या--चार को चार भद्रे और एक शिखर एवं कुल १३ श्रृंग ।
तस्यैवं भद्रोर्थे शृङ्ग भद्रं तस्यानुरूपतः 1 नन्दिशालो गुणैर्युक्तः स्वरूपो लचणान्वितः || १८ ||
इति नन्दिशाल प्रासादः ॥४ इस नन्दिशालप्रसाद का तलमान और स्वरूप नन्दन प्रासाद के अनुसार जानें | विशेष अधिक चढ़ावें तो यह नन्दिशाल प्रासाद सब गुणों से
इतना कि भद्र के ऊपर एक २ उप
भी
युक्त अच्छे लक्षणवाला सुन्दर बनता है ॥ १८ ॥
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एक शिखर, एवं कुल १७ श्रृंग ।
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१७२
प्रासापमएपने
५-नन्दीशप्रासाद
त्रिभागं च भवेद् भद्र भद्रार्ध प्ररथस्तथा । कणे शृङ्गद्वयं भद्रे एकैकं प्ररथे तथा ॥१६॥
इति नन्दीशप्रासादः | यह नन्दीशप्रासाद का मान और स्वरूप सर्वतोभद्र प्रासाद के अनुसार जानें। विशेष यह है कि----छ: भाग का भद्र है. उसके बदले तीन भाग का मद्र और डेढ़ २ भाग का प्रतिरथ बनावें । कोणे के ऊपर दो २, भद्र के ऊपर एक २ और प्रतिरथ के ऊपर एक २ शृंग चढ़ावें ॥१६
भृगसस्या-कोणे ८, प्ररथे ८, भद्रे ४ और एक शिखर, एबं कुल २१ शृंग।
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६-मंदरप्रासाद---
द्वादशांशस्तु विस्तारो मूलगर्भस्तदर्धतः । भागमागं तु कर्तव्या द्वे भित्ती चान्धकारिका ॥२०॥ वर्णप्ररथभद्रा कारयेद् द्विद्विभागतः । प्ररथः समनिष्कासो भद्रं भागेन निर्गमम् ।।२१॥ कर्णे द्वे भद्रके द्वे च चैकं प्रतिरथे तथा । सघण्टा कलशा रेखा रथिकोद्गमभूषिताः ॥२२॥
इति मन्दरप्रासादः ॥६॥ प्रासाद को समचौरस भूमिका बारह भाग करें। उनमें से छः भाग का गभारा बनावें, तथा एक २ भाग की दोनों दीवार और एक २ भाग की भ्रमणी (परिक्रमा ) बनावें । गभारे के बाहर के भाग में कोगा, प्ररथ और भद्रा ये सब दो २ भाग का रक्खें । उसका निर्गम समदल रक्खें और भद्रका निर्गम एक भाग रक्खें। कोणे के ऊपर दो २ शृंग, भद्रके ऊपर दो २ उरुशुम और प्रतिरथ के ऊपर एक २ शृग चढ़ावें। मामलसार, कलश, रेखा, गवाक्ष और उद्गम, ये सब शोभायमान बनावें ।।२० से २२।।
शृगसंख्या-कोणे ८, प्ररथे ८ भद्रे च और एक शिखर, एवं कुल २५ शृगा
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७-श्रीवृक्षप्रासाद
चतुर्दशांशविस्तारे गर्भश्चशिविस्तरः । भागभागं भ्रमो भित्ति-बाह्यभितिस्तु भागिका ॥२३॥ कर्णे शृङ्गद्वयं कुर्या-च्छिखरं चाष्टविस्तरम् । प्ररथः कर्णमानेन तिलकं शृङ्गकोपरि ॥२४॥ नन्दिकायां च तिलकं भद्रे शृङ्गत्रयं भवेत् । श्रीवृक्षस्तु समाख्यातः कर्त्तव्यस्तु श्रियः पतेः ॥२॥
इति श्रीवृक्षप्रासादः ॥७॥ प्रासाद को समचोरस भूमिका चौदह भाग करें। उनमें से पाठ भागका गभारा, एक भागकी दीवार, एक भागको भ्रमणी और एक भागको बाहर की दीवार, इस प्रकार भीतर का मान होता है । बाहर का मान मंदर प्रासाद के अनुसार होता है। विशेष इतना कि-दो भाग का कोशा, दो भागका प्रतिरथ, एक भागकी नंदी, और दो भाग का भद्राय रखखें। कोणेके ऊपर दो शृंग, प्रतिरथ के ऊपर एक शृंग ओर एक तिलक चढ़ायें । शिखर का विस्तार पाठ भाग का रखें । मंदीके ऊपर एक २ तिलक रक्खें । भद्रके ऊपर तीन २ उरुग चढ़ावें । ऐसा श्रीवृक्षप्रासाद का स्वरूप है, वह विष्णु के लिये बनावें ॥२३ से २५॥
मृगसंख्या-कोरणे ८, प्रतिरपे ८, भद्रे १२, एक शिखर, एवं कुल २६ शृंग । तिलक संख्या-प्रतिरथे ८ और नदीपर म एवं कुल १६ तिलक । +-अमृतोद्भवप्रासाद---
कणे भृङ्गत्रयं कुर्यात् प्ररथः पूर्वकल्पितः । अमृतोद्भवनामोऽसी प्रासादः सुरपूजितः ॥२६॥
___ इति अमृतोद्भवप्रासादः ॥८॥ यह प्रासाद का तलमान और स्वरूप श्रीवृक्षप्रासाद के अनुसार जानें । विशेष इतना कि-कोण के ऊपर तीन शृङ्ग चढ़ावें, बाकी प्रतिरथ आदि के अपर श्रीवृक्ष प्रासाद की तरह जानें । ऐसा अमृतोद्भवप्रासाद देवा से पूजित है ॥२६।।
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प्रासादमरहने
शृंगसंख्या-कोणे १२, प्रतिरथे ८, भद्र १२, एक शिखर, एवं कुल ३३ श्रृंग, तिलक संख्या-प्रतिरये ८ पोर नन्दी पर ६, कुल १६ तिलक । -सिवान् प्रासान....
देशले प्रतिरथे त्वमृतोवसस्थितौ । हिमवान् ?' उसमृङ्ग पूज्यः सुरनरोरगैः ॥२७॥
इति हिमवान् प्रासाद: nul यह प्रासाद का तलमान और स्वरूप अमृतोद्भव प्रासाद के अनुसार जाने । विशेष यह है कि-पढरे के ऊपर तिलक के बदले शृंग अर्थात् यो ग चढ़ावें और भद्रके ऊपर से एक उरुशृंग कम करके दो उरुग रक्खें । ऐसा हिमवाद नामका प्रासाद देव, मनुष्य और नागकुमारों से पूजित है ॥२७॥
शृगसंख्या--को १२, प्रतिरथे १६, भद्रे, एक शिखर, एवं कुल ३७ ग मौर तिलक ८ नंदी के ऊपर। १०-हेमकूट प्रासाद---
उरुशृङ्गत्रयं भद्रे नन्दिका तिलकाविता । हेमकूटस्तदा नाम प्रकर्तव्यस्त्रिमूर्तिके ॥२८॥
इति हेमकूटप्रासादः ॥१०॥ यह प्रासादका सलमान और स्वरूप हिमवान् प्रासाद के अनुसार जानें । विशेष यह है कि-भद्र के ऊपर तोहरा रुम और नंदी के ऊपर दूसरा तिलक चढ़ा। यह हेमकूट नामका प्रासाद ब्रह्मा, विष्णु और महेश, यह त्रिमूक्ति के लिये बनावें ॥२८॥
मुंगसंख्या- कोणे १२, प्रतिरथे १६, भद्रे १२, एक शिखर, एवं कुल ४१ ग और १६ तिलक नन्दी के ऊपर। ११-कैलास प्रासाव---
नन्दिकानान्ततः शृङ्ग रेखाश्च तिलकोत्तमाः । कैलासश्य सदा नाम ईश्वरस्य सदा प्रियः ॥२६॥
इति कैलासप्रासादः ॥११॥ यह प्रासाद का मान और स्वरूप हेमकूट प्रासाद के अनुसार जाने । विशेष यह है किनन्दी के ऊपर दो तिलक हैं, उसके बदले एक शृंग और उसके ऊपर एक तिलक पहा ।
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परिशिष्टे सरीप्रासादः
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तपा कोणे के ऊपर तीन श्रृंग हैं, उसके बदले दो शृग और उसके अपर तिलक बढ़ाना पाहिये । ऐसा कैलास मानका प्रासाद ईश्वर को हमेशा प्रिय है ॥२६॥
. भृगसंख्या--कोणे, पढरे १६, नंदी पर ८, भद्रं १२, एक शिखर, एवं कुल ४५ शृंग पार तिलक कोमे और नदी के ऊपर । १२-पषिनीजय प्रासाद
रेखोघे तिलकं त्यक्त्वा शृङ्ग तत्रैव कारयेत् । पृथ्वीजयस्तदा नाम कर्तव्यः सर्वदैवते ॥३०॥
इति पृथ्वीजयप्रासादः ॥१२॥ यह प्रासाद का.तसमान और स्वरूप कैलासप्रासादकी तरह जानें । विशेष यह है किकोणेके पर का तिलक हार के सयो बाहरे गढा ऐसा पृथ्वीजय नामका प्रासाद
सब देवों के लिये बनावें ||३०|| ..... गसंख्याकोणे १२, प्रतिरथे १६, नंदी के ऊपर ८, भद्रं १२, एक शिखर, एवं कुल ४ग और तिसक ८ नदी के कार !
षोडशशिकविस्तारे विभाग का विस्तरः । नन्दिका बैकमागेन द्वयंशः प्रतिरथस्तथा ॥३१॥ पुनर्नन्दी भवेद् भागं भद्रं वेदांशविस्तरम् ।
समस्तं समनिष्कासं भद्रे भागो विनिर्गमः ॥३२॥ प्रासाद को समझोरस भूमि का सोलह भाग करें। उनमें से दो भाग का कोरण, एक मागकी नन्दी, दो भागका प्रतिरप, एक भाग को दूसरी नन्दी और दो भागका भद्रार्ध बनावें । ये सब अंगोका निर्गम समबल और भद्रका निर्मम एक भाग रक्खें ॥३१-३२॥
चतुष्टयंशको गर्भो वेष्टितो भीचिभागतः ।
बालभीचिर्भवेद् भागा द्विभागा च भ्रमन्तिका ॥३३॥ सोलह भाग में गभारे का विस्तार पाठ भाग ( समचौरस ६४ भाग ) करें गभारे को दीवार एक भाग, प्रमणी दो भाग और बाहर की दीवार एक भाग रक्खें ।।३३।।
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प्रासादम
कर्णे शृङ्गद्वयं कार्यं शिखरं सूर्यविस्तरम् । नन्दिकायां तु तिलकं प्रत्यङ्ग च द्विभागिकम् || ३४ || शृङ्गद्वयं प्रतिरथे उरुशृङ्ग पर्डशकम् | शृङ्गद्रयं नन्दिकाया-मुरःशृङ्ग युगांशकम् ॥३५॥ द्विभागं भद्रशृङ्ग तु भृङ्गार्थे चैत्र निर्गमः । कर्णे प्रतिरथे चैव ह्युदान्तरभूषितम् ||३६|| इन्दनीलस्तदा नाम इन्द्रादिसुरपूजितः । भः सर्वदेवानt शिवस्यापि विशेषतः || ३७ ॥
इति इन्द्रनील प्रासादः ||१३||
कोणे के ऊपर दो श्रृंग चढ़ावें । शिखर का विस्तार बारह भाग रहीं । नन्दी के ऊपर एक तिलक चढ़ावें और दो भाग के विस्तार वाला प्रत्यंग चढावें । प्रतिरथ के ऊपर दोग पहला भाग विस्तार में रखलें । नन्दी के ऊपर एक रंग चढ़ावें । दूसरा उस्टंग विस्तार में चार भाग का और तीसरा उग विस्तार में दो भाग का रक्खें। इन उगों का निर्गम विस्तार मे श्राधा रक्खें। कोरणा और प्रतिरथ उदकान्तर वाला बनायें । ऐसा इन्द्रनील प्रासाद इन्द्रादि देवों से पूजित है, यह सब देवों को और विशेष कर शिवजी को प्रिय €113 2011
१४- महानील प्रासाद-
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प्रतिरथे १६ भद्र नदी के ऊपर म भने १२ प्रत्यंग ८, एक शिखर, कुल ५३ श्रृंग और तिलक क नन्दी पर
कर्णे नन्दी (कन्यां ?) तथा शृङ्ग रेखोर्थे तिलकं तथा । महानीलस्तदा कर्त्तव्यः
नाम
सर्वदेवते ॥ ३८ ॥
इति महानीलप्रसादः ॥ १४॥
१. 'यू' शुद्ध पाद मालुम होता है । उस स्थान पर 'मे' ऐसा पाठ चाहिये जिसे शृंगों की संख्या ठीक मिल जाय |
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परिशिष्टे केसरीप्रसादः
यह महानील प्रासाद का तलमान और स्वरूप इन्द्रनील प्रासाद के अनुसार जानें विशेष वह है कि - नन्दी के ऊपर से तिलक हटा करके उसके बदले श्रृंग रक्खें। ऐसा महानील प्रासाद सब देवों के लिये बनावें ||३८ ला
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संख्याको ४, नंदी पर प्रत्यंग प्रतिरथे १६, नन्दी पर १२ और एक शिखर, कुल ५७ श्रृंग और तिलक ४ को ।
१५- भूषरप्रासाद-
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कार्य शृङ्ग च तिलकं रेखामध्ये प्रशस्यते । भूधरस्प समाख्यातः प्रासादो देववालयः || ३६॥
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इति भूधरप्रासादः ॥ १ ॥
यह प्रसाद का मान मौर स्वरूप महानील प्रासाद के अनुसार जानें विशेष यह कि कोने के ऊपर एक अधिक चढ़ावें तो यह भूधर नाम का प्रासाद देवोंका स्थानरूप
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होता है ||३६||
कोरणे ।
रंग संख्या--- कोसी, बाकी पूर्ववत् जानें तिलक ४
१६- रत्नकूट प्रासाद ---
earer यथा प्रोक्तं द्विभागं वर्धयेत् पुनः । पूर्ववदलसंख्यायां भद्रपार्श्वे द्विनन्दिके ||४०|| द्विभागं वाह्यभित्तिश्च शेषं पूर्वप्रकल्पितम् । तलच्छन्दमिति ख्यात-मूर्ध्वमानयतः शृणु ॥ ४१ ॥
यह रत्नकूट प्रासाद का मान और स्वरूप भूधर प्रासाद के अनुसार जानें विशेष यह कि तल मानमें दो भाग बढ़ावें अर्थात् ठारह भाग करें। तथा भद्र के दोनों तरफ एक २ भाग की दूसरी नन्दी बनायें। और बाहर की दीवार दो भागकी रक्खें। बाकी सब पहले के अनुसार जानें। अब ऊर्ध्वमान सुनिये ||४०-४१ ।।
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१.५
कर्णे द्विशृङ्ग' तिलकं शिखरं सूर्य [विस्तरम् । तिलके द्वे नन्दिकायां प्रत्यङ्ग तु द्विभागिकम् ||४२॥
त्रयं प्रतिरथे पडभागा चोरुमञ्जरी । तिलके द्वे पुनर्नन्द्यां गुरुशृङ्ग युगांशकम् ||४३|| चोरुमञ्जरी ।
नयां च शृङ्गतिके त्रिभागा द्विभागं भद्रशृङ्ग च अर्धे चार्षे च निर्गमः ॥ ४४ ॥
कोणे के ऊपर दी श्रृंग और एक तिलक चढ़ावें । शिखर का विस्तार बारह भाग का रक्खें । कनन्दो के ऊपर दो तिलक और दो भाग का प्रत्यंग चढ़ायें। प्रतिरथ के ऊपर तीन श्रृंग और नंदी के ऊपर दो तिलक चढ़ावें । भद्रनन्दी के ऊपर एक श्रृंग और एक तिलक चढ़ावें । भद्र के ऊपर चार उरु म चढ़ावें, उनमें पहला उत्शृंग छः भाग, दूसरा चार भाग, तीसरा तीन भाग और चोथा दो भाग का रक्खें। ये उरुगों का निर्णय विस्तार से भाघा रक्ख ||४२ से ४४||
रत्नकूटस्तदा नाम शिवलिङ्गेषु कामदः । प्रशस्तः सर्वदेवेषु राज्ञां तु जयकारणम् ||४५||
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प्रत्यंग प्रतिरथे २४, भद्र नन्दी पर भ१६, एक शिखर कुल ६५ ग और तिलक कोणे ४, कोणी पर १६, प्ररथ नदी पर १६ और भद्र नन्दी पर कुल ४४ तिलक |
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इति रत्नकूटप्रासादः ॥ १६ ॥ ऊपर कहे हुए स्वरूप बाला रत्नकूट प्रासाद शिवलिंग के लिये बनायें तो सब इच्छित फल को देने वाला है । सब देवों के लिये बनावें तो भी प्रशस्त है और राजाओंों को विजय कराने वाला है ||४५॥
१७- वैडूर्य प्रासाद
' तृतीयं रेखter कर्तव्यं सर्वशोभनम् ।
वैर्यश्च तदा नाम कर्त्तव्यः सर्वदैवते ॥४६॥
इति वैडूर्यप्रसाद : 11१७॥
इस प्रासाद का तलमान और स्वरूप रत्नकः प्रासाद के अनुसार है। विशेष यह है कि फोटो के फ़ार से तिलक निकाल करके उसके बदले एक
तीसरा श्रृंग चढ़ावें । सब
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परिशिष्टे केसरीपासादः
१७६
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शोभायमान बनावें । यह बैडूर्य नाम का प्रासाद सब देवों के लिये बनाना चाहिये ॥४६॥
श्रृंगसंख्या-कोने ९२, प्रत्यंग ८, प्रतिरये २४, भद्रनंदी पर ८, भद्र १६ एक शिखर, एवं कुल ६६ मुंग। तिलक संख्या-कर्णनंदी पर १६, प्रतिरथ नंदी पर १६ और भद्रनन्दी पर ८, एवं कुल ४० तिलक। १५-पपरागप्रासाद
तथैव दिलकं नन्या शृङ्गयुग्मं तु संस्थितम् । परामसदा नाम सर्वदेवमुखावहः ॥४७||
___ इति परागप्रासादः ||१८|| इस प्रासाद कामान और स्वरूप वैडूर्यप्रासाद की तरह समझे। विशेष यह है कि---- कोणे के ऊपर से तीसरा शृंग हटा करके उसके बदले में तिलक चढ़ावें और भद्र नंदी के ऊपर जो एक तिलक और एक श्रृंग है, उसके बदले दो श्रृंग रक्खें। ऐसा पद्मराग नाम का प्रासाद सब देवों के लिये सुख कारक है ।।४७]
__ शृगसंख्या-कोरणे, प्रत्यंग ८, प्रतिरये २४, भद्र नंदी पर १६, भद्र १६, एक शिखर, एवं कुल ७३ शृंग । तिलक संख्या-कोरणे ४, कर्णनदी पर १६ प्रतिरथ नंदी पर १६ एवं कुल ३६ तिलक।
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१६-वकप्रासाद
रेखोये च ततः शृंगं कर्तव्यं सर्वशोभनम् । पचासवेति नामासौ शक्रादिसुरवल्लभः ॥४८॥
इति बजप्रासादः॥१६॥ इस प्रासाद का मान और स्वरूप पद्मराग प्रासाद की तरह जाने । विशेष यह है किकोणे के ऊपर से तिलक हटा करके उसके बदले में शृग बढ़ायें ! यह बजक प्रासाद इन्द्र प्रादि देवों को प्रिय है ||xci
शृगसंख्या-कोरणे १२, प्रत्यंग ८, प्रतिरथे २४, भद्रनंदी पर १६ भद्र १६, एक शिखर, कुल ७७ शृंग। तिलक संस्था करण नंदी पर १६, प्रतिरथ नन्दी पर १६, कुल ३२ सिलक । २०-मुकुटोज्ज्वलनासाद---
'मकी विशतिथा क्षेत्रे विभागः कर्णविस्तरः । सार्थमा भनन्दी कणवत्प्ररथस्तथा ॥४६॥
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पुनर्नन्दी सार्धभागा भागा वै भद्रनन्दिका । वेदांशो भद्र विस्तार एकभागस्तु निर्गमः 11५०।। द्विभागा बाह्यमित्तिश्च द्विभागा च भ्रमन्तिका । तत्समा मध्यमित्तिश्च गर्भोऽटांशः प्रकल्पितः ॥५१॥
इस प्रासाद की समभोरस भूमिका बौस भाग करें। उनमें से दो भाग का कोणा, हेद भाग को नंदी, दो भाग का प्ररथ, डेढ भाग की नंदो, एक भाग की भरनन्दी और चार भाग का भद्र का विस्तार रक्खें। भद्र का निर्गम एक भाग का रक्खें। दो भाग बाहर की दीवार, दो भाग की भ्रमणी, दो भाग की गभारे की दीवार और पाठ भाग का मभारा रखें ||४६ से ५१॥
कणे द्विशृङ्ग तिलकं रेखा द्विसप्तविस्तरा । नन्द्यां शृङ्गं च तिलकं प्रत्यङ्ग सर्वतः :१५२।। भूङ्गत्रयं प्रतिकणे सप्तांशा चोरुमञ्जरी । नन्यां शृङ्ग च तिलक-मुरुङ्ग षडंशकम् ।।५३।। भद्रनन्यां तथा शृङ्ग-मिधुभागोरुमञ्जरी । भद्रभृङ्ग द्विभार्ग स मुकुटोज्ज्वल उच्यते ।।५४||
इति मुकुटोज्ज्वल प्रासादः ॥२०॥
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रेखा का विस्तार चौदह भाग का रखखें । कोणे के ऊपर दो शृंग, और एक तिलक, कर्णनंदी के ऊपर एक अंग और एक तिलक, अपर प्रत्यंग, प्ररथ के ऊपर तीन भंग, नंदीके ऊपर एक शृंग और एक तिलक, भद्रनन्दी के ऊपर एक शृंग और भद्र के ऊपर चार भंग चढ़ावें । पहला उहग सात भाग का, दूसरा उरुग : भाग का, तीसरा उरुग पांच भाग का और चौथा उरुग दो भाग का रक्खें। ऐसा मुकुटोज्ज्वल प्रासाद है ।।५२ से ५४।।
शृगसंख्या-कोरणे ८, प्रत्यंग ८, कर्णनन्दी पर ८, प्ररथे २४, नंदी पर ६, भद्रन्दी पर ८, भद्रे १६, एक शिखर, कुल ८१ श्रृंग। तिलक संख्या कोणे ४, कानन्दी पर ८, प्ररथनन्दो पर ८ कुन २० तिलक ।
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परिशिष्टे केसरीप्रासादः
२१-ऐरावतप्रासाद --
रेखोचे च ततः कर्तव्यं सर्व कामदम् । ऐरावतस्तदा नाम शादिसुरवल्लभः ॥५था।
. इत्यै रावतप्रासादः ॥२१॥ इसका तलमान और स्वरूप मुकुटोज्ज्वल प्रासाद के अनुसार जाने । विशेष यह है किकोणे के ऊपर का तिलक हटाकर के उस जगह ,म रक्खें। यह सब इच्छित फल देनेवाला है । ऐसा ऐरावतप्रासाद इन्द्रादि देवों के लिये प्रिय है ॥५५॥
शृंग संस्था- कोणे १२, नंदी पर ८, प्रत्यंग ८, प्ररथे २४, नंदीवर ८, भद्रनन्दी पर , भद्र १६, एक शिखर, कुल ८५ शृंग । तिलक संख्या-कर्णनन्दी पर ८, प्रति मन्दी पर ८, कुल १६ तिलक । २२-राजहंसप्रासाद
तथैव तिलकं कुर्याद् भद्रकणे तु शृङ्गकम् । राजहंसः समाख्यातः कर्तव्यो ब्रह्म मन्दिरे ।।५।।
इति राजहंसप्रासादः ॥२२॥ इसका तलमान और स्वरूप ऐराबत प्रसाद के अनुसार आने । विशेष यह है किकोरो के ऊपर तीसरा शृंग के.बदले में एक तिलक चढ़ावे, अर्थात् दो शृंग और एक तिलक बहावें । तया भद्रनंदा के जार एक श्रृंग बढावें । ऐसा राजहंस प्रासाद का स्वरूप है, वह ब्रह्मा के लिये बनावं ।।५।।
ग संख्या-कोरणे ८. प्रत्यंग , कर्ण नन्दी पर ८, प्ररथे २४, प्ररथ नंदी के ऊपर ८, भद्रनन्दी के ऊपर १६, भद्र १६ और एक शिखर, कुल ८६ भृग। तिलक संख्या-कोरणे ४, कर्ण नंदी पर ८. प्ररथनं दी पर , एवं कुल २० तिलक । २३-पक्षिराज (गरुड) प्रासाद
रेखोये च ततः शृङ्ग कर्तव्यं सर्वकामदम् । पचिराजस्तदा नाम व्यः स श्रियः पतेः ।।५७।।
इति पक्षिराजप्रासादः ॥२३॥ इस प्रासाद का मान और स्वरूप राजहंस प्रासाद के अनुसार जाने । विशेष यह किकोणे के कार का तिलक हटा कर के उसके बदले शृंग चढ़ावें । ऐसा पक्षिराज प्रासाद विष्णु के लिये बनाना चाहिये ।। ५७॥
श्रृंगसंख्या-कोरा १२, प्रत्यंग, कर्णनदी पर ८, प्ररथे २४, प्ररयनन्दी पर ८, भनंदो पर १६, भद्रे १६ और एक शिखर, एवं कुल ६३ ऋग । तिलक संख्या कर्णनन्दी पर ८ और प्ररथ नन्दी पर , एवं कुल १६ तिलक ।।
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प्रासादमडने
२४-वृषभप्रासाद
द्वाविंशत्या विभक्ते च द्विभागा भित्तिका भवेत् । भ्रमणी तत्समा चैव पुनभित्तिश्च तत्समा ॥५॥ शतमूलपर्दैनः कर्तव्यो लक्षणान्वितः । कर्णप्रतिस्थरथो-परथा द्विद्विविस्तराः ॥६॥ भद्रनन्दी भवेद् भागं वेदांशो भद्रविस्तरः ।
भागो मद्र निर्गभः स्यावा पूर्वस्पिताः ॥६॥ यह वृषभ प्रासाद को समचोरस भूमिका बाईस भाग करें। उनमें से दो माग की बाहर की दीवार, दो भाग की भ्रमणो, दो भाग को गर्म की दीवार और दस भाग का गभारा रखें। बाहर के अगों में--कोरण, प्रति रथ, रथ और उपरथ, ये प्रत्येक दो दो भाग के विस्तार वाले रक् । भद्रनन्दो एक भाग की रक्खें और पूरा भद्र चार भाग का रक्खें । भद्र का निर्गम एक भाग का रक्खें। बाकी के सब प्रग समदल बनावें ॥५८ से ६०॥
कणे द्विशृङ्ग तिलकं शिखरं षोडशांशकम् । शृङ्गवयं प्रतिस्थे प्रत्यङ्ग विभागिकम् ।।६१॥ रथे शृङ्गवर्य कुपोच्छ कोर्षे चोरुमञ्जरी । द्वे द्वे भृक्षे उपरथे उत्शृङ्गं षडंशकम् ॥६२|| भद्रनन्धो भवेच्छ ग वेदांशा चोरुमबरी । द्विभागं भद्रशृङ्ग व कर्तव्यं च मनोरमम् ॥६३॥ सप्तनक्त्यण्डकयुक् काव्यो लक्षणान्वितः । वृषभो नाम विख्यात ईश्वरस्य सदा प्रियः ॥६४॥
इति वृषभप्रासादः ॥२४॥ शिखर का विस्तार सोलह भाग का करें। कोणों के ऊपर दो श्रृंग और एक तिलक, प्ररथ ऊरर दोश्रृंग, उसके ार तीन तीन भाम का प्रत्यंग, रथ के ऊपर तीन भंग, उपरथ के ऊपर दो दो शृंग, भद्रनन्दी के ऊपर एक शृंग और भद्र के ऊपर चार उरुशृंग चढ़ावें । पहला उरुग पास भाग का, दूसरा छह भाग का, तीसरा चार भाग का और चौथा दो भाग का रवखें । सत्तानवे ग वाला और सब लक्षण काला, ऐसा यह वृषभ नाम का प्रसाद ईश्वर को सर्वदा प्रिय है ।।६१ से ६४॥
मग संख्या-कोणे, प्रत्यंग ८, प्ररथे १६ रघे.२४. उपरथे १६ भद्रनन्दी पर भद्रं १६ और एक शिखर, एवं कुल ६७ शृंग । तिलक संख्या-४ कोण पर।
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परिशिष्टे केसरीत्रासादः
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२५-मेवप्रासाद
कणे शृङ्गप्रयं वैष एकोतरशताण्डकः | मेरुश्चापि समाख्यातः कसंख्यश्च त्रिमूर्तिके ॥६५॥
यह मे प्रासाद का मान और स्वरूप वृषभ प्रासाद के अनुसार जाने । विशेष यह है कि-वृषभ प्रासाद के कोणो के पर का तिलक हटा कर के उसके बदले शृंग चढ़ावे । यह एक सौ एक श्रृंग वाला मेरु प्रासाद ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लिये बनावें ॥६५॥
शृग संख्या-कोरणे १२, प्रत्यंग ८, प्ररथे १६, रथे २४, उपरथे १६, भद्रनन्दी के ऊपर ८, भद्र १६, और एक शिखर, एवं कुल १०१ ग मेरप्रासाव को प्रदक्षिणा का फल
सर्वस्प हेममेरोश्च यत्पुण्यं त्रिप्रदक्षिणः । कुते शैलेष्टकाभिश्च तत्पुण्यालभतेऽधिकम् ॥६६॥
सम्पूर्ण सुवर्णमय मेह को तीन प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य होता है, उस पुण्य से भी अधिक पुण्य पाषाण अथवा ईट के बने हुवे मेरु प्रासाद की प्रदक्षिणा करने से होता है ।।६।।
हरो हिरण्यगर्भश्च हरिदिनकरस्तथा ।
एते देवाः स्थिता मेरौ नान्येषां स कदाचन ॥६७॥ इति श्रीसूत्रसन्तानगुणकीर्तिप्रकाशप्रयोतकारे श्रीभुवनदेवाचार्यो___ क्तापराजितपृच्छाया केसदिसान्धारप्रासादनिर्णयाधिकारी
___नामैकोनपष्टयु त्तरशततमं सत्रम् ॥ महादेव, ब्रह्मा, विष्णु और सूर्य, इन देवों को मेरु प्रासाद में प्रतिष्ठित किये जाते हैं। अन्य दूसरे देवों को कभी भी उसमें प्रतिष्ठित नहीं करना चाहिये ।।६७।
इति पंडित भगवानदास जैन अनुवादित केसरी प्रादि पवीस सांधार प्रासाद निर्णयाधिकार समाप्त ।
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परिशिष्ट नं. २
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अथ जिनेन्द्रप्रासादाध्यायः।
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जय उवाच
शृणु तात ! महादेव ! यन्मया परिपृच्छयते ।
प्रासादांश्च जिनेन्द्राणां कथयसि कि मां प्रभो ॥१॥ हे महादेव ! पिता मैंने आपको जिनेन्द्र के प्रासादों का वर्णन करने का कहा था, उसको हे भगवन् ! भाप सविस्तार कहेंगे ? ॥१॥
किं तले किश्च शिखरं कि द्विपञ्चाशदुत्तमाः । समोसरणं किं तात! किं स्यादष्टापदं हि तत् ॥२॥ .
महीधरो मुनिपरो द्विधारिणी सुशोभिता । है तात ! उत्तम बावन जिनालय किस प्रकार के हैं ? तथा उनके तथा शिखरों की रचना कैसी है । समवसरण, अष्टापद, महीधर, मुनिवर और शाभायमान द्विधारिणी प्रासादों को रचना कैसी है ? उसका प्राय वर्णन करें ॥२॥ श्रीविश्वकर्मोवाच
शृणु वत्स ! महाप्राज्ञ यन्त्रया परिपृच्छयते ।
प्रासादांश्च जिनेन्द्राणां कथयाम्पहं तच्छ एणु ।।३।। श्री विश्वकर्मा अपने जयनाम के पुत्र को सम्बोधन करके कहते हैं कि--हे महा बुद्धिमान पुष ! तुमने जिनेन्द्रों के प्रासादों का वर्णन के लिये पूछा, उसको विस्तार पूर्वक कहता हूँ, सुनो ॥३॥
प्रासादमध्ये मेवो भद्रप्रासादनागराः ।
अन्तका द्राविडाश्चैव महीधरा लतिनास्तथा ॥४॥ उत्तम जाति के प्रासादों में मेरुप्रासाद, नागर जाति के भद्रप्रसाद, अंतकप्रासाद, द्राविड प्रासाद, महीधर प्रासाद और लतिन जाति का प्रासाद, ये उत्तम जाति के प्रासाद है ।।४।।
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अब जिनेन्द्रप्रसादाभ्यायः
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सलनिर्माण
प्रासाददीर्घतो व्यासो भिसिवाह्य सुराजये । षोडशाशहरे भागं शेषं च द्विगुणं भवेत् ।।५।। प्रथमे नश्मे चैव द्वितीये चतुरो भवेत् । अयं विधिः प्रकर्शव्यो भागं च द्विव्यंशं भवेत् ॥६॥
तत्र युक्ति प्रकर्तव्यो प्रासादे सर्वनामतः । शिवमुखे मया श्रुतं भाषितं विश्वकर्मणा |७||
मण्डोवर के बाहर के भाग तक प्रासाद की लम्बाई और चौड़ाई का गुणाकार करके उसको सोलह से भाग दे, जो शेष रहे उसको दुगुणा करना..................!
प्रथमा विभक्ति। १-कमलभूषण (ऋषभजिनवल्लभ) प्रासादचतुरस्रीकृते क्षेत्र द्वात्रिंशत्पदभाजिते । कर्णभागत्रय कार्य प्रतिकर्षस्तथैव च ॥ उपरथस्त्रिभागश्च भद्रा बेदभागिकम् ।। नन्दिका कर्णिका चैव चैकभागा व्यवस्थिता ॥६॥
प्रासाद की सममी रस भूमिका बत्तीस भाग करें, उनमें से तीन भाग का कोण, तीन भाग का प्रतिरय, तीन भाग का उपरथ और चार भाग का भद्रार्ध रक्खें । कीरिंगका और नन्दिका एक २ भाम की रक्खे ।।८।। कणे च क्रमचत्वारि प्रतिकणे क्रमत्रयम् । उपरथे द्वयं शेयं कायां क्रमद्वयम् ॥१०॥ विंशतिरुरुशृङ्गाणि प्राङ्गानि च पोडश । कणे च केसरी दयानन्दनं नन्दशालिकम् ॥११॥ प्रथमक्रमो नन्दीश ऊचे तिलकशोभनम् । कमलभूषणनामोऽयं ऋषभजिनवल्लभः ॥१२॥
इति ऋषभजिनवल्लभः कमलभूएणप्रासादः 1१।।
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कोणे के ऊपर चार'क्रम, प्रतिकर्ण के ऊपर तीन कम, उपरष और नन्दिरों के आर दो २ क्रम चड़ावें चारों दिशा के भद्र के आर कुल बोस उरुशृंग पहा । तपा सोलह प्रत्यंग कोने पर चढ़ावें । कोसा के अपर नीचे से पहला कम नन्दिश, दूसरा नन्दशालिक, तीसरा नंदन और चौथा केसरो क्रम चढ़ावें और उसके ऊपर एक शोभाषमान तिलक
चढ़ावें । सः ऋषशिल को पा लभूषण नामका प्रासाद है ।।१० से १२॥
श्रृंगसंस्था-कोरणे २२४, प्रतिकर्णे २५०, उपरये १४, नन्दिनों के ऊपर ४३२, भद्र २०, प्रत्यंग १६, एक शिखर, कुल १११७ अंग और चार तिलक कोणे के ऊपर ।
विभक्ति दूसरी। २-प्रजितजिनवल्लभ-कामदायकप्रासाद---
चतुरस्रीकृते क्षेत्रे द्वादशपदमाजिते । कर्णमागद्वयं कार्य प्रतिकर्णस्तथैव च ॥१३॥
भद्रार्ध च विभागेन चतुर्दिक्ष व्यवस्थितम् । कर्णे क्रमप्रय कार्य प्रतिकणे क्रमद्वयम् ॥१४॥ अष्टौ चैवोरुशृङ्गाणि ह्यष्टौ प्रत्यङ्गानि च । कणे च केसरी दद्यात् सर्वतोभद्रमेव च ॥१५॥ नन्दनमजिते देयं चतुष्कर्णेषु शोभितम् । कामदायकप्रासादो जितजिनवल्लभः ॥१६॥
इति अजित जनवल्लभः कामदायकप्रासादः ॥२॥ प्रासाद को समशेरस भूमिका बारह भाग करें, उनमें से दो भागका कोण, दो भाग का प्रतिकर्ण और दो भाग का भद्रा रक्खें । कोणे के ऊपर तीन क्रम, प्रतिकर्स के ऊपर दो कम,
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१. इस प्रकरण में किसी श्लोक में कम और किसी श्लोक में 'कम' ऐसे दो प्रकार के शब्दों का प्रयोग
प्राचीन प्रतियों में देखने में प्राता है। मैंने प्रायः कर्म के स्थान पर क्रम शमा प्रयोग ठीक समझकर किया है। बाकी दोनों शब्द ठीक है । क्रम कहने से शृगों का अनुक्रम और कर्म (काम) कहने से मृगों का समूह प्रथं होता है। काम का समूह प्रथं सोने चांदी के वरण मनाने शलों में प्रचलित है।
ये मोग१६.बरग के समूह को एक काम बीमते । २. मना साधभागेन नन्दी तु पापभागिका ।' पाठान्तरे।
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अथ जिनेन्द्रप्रासादाण्याय
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पाठ उभंग और पाठ प्रत्यंग कोने पर चढ़ावें । कोगों के ऊपर केसरी, सर्वतोभद्र और मंदन ये तीन कम चढ़ायें । ऐसा प्रजितजिनको बल्लम कामदायक नाम का प्रासाद है ॥१३ से १६ ।।
. ऋगसंख्या-कोणे १०८, प्रतिकणे ११२, भद्र ८, प्रत्यंग ८ और एक शिखर, कुल २३७ मुंग।
तोसरी विभक्ति । ३-संभवजिनवल्ल्भ-रस्नकोटिप्रासाव--
चतुरस्रीकृते क्षेत्रे नवभागविमाजिते । भद्रा सार्धमागेन चैकमागः प्रतिरथः ॥१७॥ कर्णिका नन्दिका पादा सार्थको विवरण ।। कर्णे क्रमद्वयं कार्य प्रतिकणे तथैव च ॥१॥ 'केसरीसर्वतोभद्र-क्रमद्वयं व्यवस्थितम् । कणिकानन्दिकयोश्च जमेकैकं कारयेत् ॥१६॥ षोडश उस्माणि चाष्टौ प्रत्यङ्गानि च । रत्नकोटिश्च नामायं प्रासादः संभवे जिने ॥२०॥
इति संभवाजिनवल्लभो रत्नकोटिप्रासाब: ।।३।। प्रासाद' को समचोरस भूमिका नव भाग करें। उनमें से डेढ़ भाग का भद्रार्थ, एक भाग का प्रतिरथ, करणी और नन्दिका पाव पाव भाग की और कोण हे भाग का रक्खें । कोणे के ऊपर और प्रतिकर्ण के ऊपर दो दो क्रम केसरी और सर्वतोभद्र पढ़ायें। करणी और नन्दिका के ऊपर एक एक श्रृंग चढ़ावें। चारों दिशा के भद्र के उपर सोलह उरुग और पाठ श्यंग कोने पर चलावें । ऐसा संभवाजिन को यल्लभ रत्नकोटि नाम का प्रासाद
है।।१७ से २०॥ शृंगसंख्या-कोरणे ५६, प्रतिकणे ११२, कणीपर ८, नंदीपर ८, उहग १६, प्रत्यंग ८. और एक शिखर, कुल २०६ भंग |
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१. 'प्रथमकमकेसरी चवितोयं च धीवत्सकम्'
२, शनवर्ष '
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४- श्रमृतोद्धवप्रसाद -
तद्रूपे तत्प्रमाणे च रथे कर्णे विलकं न्यसेत् । अमृतोद्भवनामोऽयं सर्वदेवेभ्यः कारयेत् ||२१||
इत्यमृतोद्भवप्रासादः ||४
तल और स्वरूप रत्नकोटि प्रासाद के अनुसार जानें विशेष यह है कि कोण श्रीर प्रतिरथ के ऊपर एक एक तिलक भी चढ़ावें। जिससे श्रभृतोद्भव नाम का प्रासाद होता है। यह सब देवों के लिये बनावें | ||२१||
संख्या- पूर्ववत् २०६ । तिलक संख्याको ४ प्रतिकर कुल १२ ।
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प्रासादमवने
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विभक्ति चौथो ।
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५- अभिनन्दन जिनवल्लभ-क्षितिभूषणप्रासः चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे पोडशपदभाजिते । कर्ण भागद्वयं कार्य प्रतिकर्णस्तथैव च ||२२|| उपरथी विभागश्च मद्रार्धं यमेव च । कर्णे च क्रमचत्वारि प्रतिकर्णे क्रमत्रयम् ||२३| उपरथे क्रमद्वौ च ऊर्ध्वे तिलकशोभितम् । द्वादश उरुपङ्गाणि प्रत्यङ्गानि च पोडश ॥ २४ ॥ चितिभूषणनामोऽयं प्रासादश्चाभिनन्दनः ।
इत्यभिनन्दन जिनवल्लभः क्षितिभूषणप्रासादः ||५|| प्रासाद की समचौरस भूमिका सोलह भाग करें। उनमें से दो भाग का कोण, दो भाग का प्रतिरथ, दो भाग का उपरथ और दो भाग का भद्रार्ध बनावें। को के ऊपर बार क्रम प्रतिरथ के ऊपर तीन क्रम, उपरथ के ऊपर क्षे कम और एक तिलक चढ़ावें। चारों तरफ के भद्र के ऊपर बारह उरुशृंग और सोलह प्रत्यंग चढ़ावें । ऐसा अभिन्नदन् जिन वल्लभ क्षितिभूषण नाम का प्रासाद है २२ से २४||
संख्याको १७६, प्रतिरथे २१६, उपरचे ११२, भद्र १२, प्रत्यंग १६ एक शिखर, कुल ५३३ श्रृंग तिलक उपरथे ।
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अथ जिनेन्द्रप्रासादाध्यायः
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चतुरस्रीकृते क्षेत्रे चतुर्दश विभाजिते ||२५|| कर्णो द्विमागिको ज्ञेयः प्रतिकस्तथैव च । निर्गमस्तत्समो ज्ञेयो नन्दिका भागविश्रुता ||२६|| भद्रा व द्विभागेन कर्त्तव्यं च चतुर्दिशि । कर्णे क्रम कार्यं प्रतिकर्णे तथैव च ||२७|| भद्र चैवोचत्वारि तथाष्टौ प्रत्यङ्गानि च । नन्दिकायां कूटं सुमतिजिननामतः ||२८||
६- सुमतिजिनवल्लभ प्रसाद
७- पद्मप्रभजिन प्रासाद
安码表
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इति सुमतिजिनवल्लभप्रासादः ||६|| reate after चौदह भाग करें, उनमें से दो भाग का कोना, दो भाग का प्रतिरम, एक भाग की नन्दी और दो भाग का भद्रार्थ बनायें । कोना और प्रतिरथ का दिर्गम समदल रक्खें फोने के ऊपर दो क्रम, प्रतिरथ के ऊपर दो कम, प्रत्येक भद्र के ऊपर चार उरुग आठ प्रत्यंगशृंग और नदी के ऊपर एक श्रीवत्सशृंग तथा एक कूट चढायें | यह सुमतिजिन नाम का प्रसाद है ।।२५ से २५।।
श्रृंग संख्या- कोने ५६ प्रतिर ११२, भद्र १६, प्रत्यंग, ८, नंदी के ऊपर ८, एक शिखर कुल २०१ श्रृंग | चार कूट नंदों पर 1
विभक्ति छी ।
चतुरखीकृते क्षेत्रे विशधा प्रतिभाजिते । arit arrai at प्रतिकर्णस्तथैव च ||२६| after नन्दिका भागाद्रार्धं चतुर्भागकम् । कर्णे श्रमद्वयं कार्य प्रतिकर्णे तथैव च ॥ ३० ॥ केसरी सर्वतोभद्रं क्रमद्वयं व्यवस्थितम् । afari शृङ्गकूटं नन्दिकायां तथैव च ॥३१॥ मद्रे चैवोचत्वारिष्टौ प्रत्यङ्गानि च । पद्मवनमनामोऽयं जिनेन्द्रे पद्मनायके ||३२||
इति पद्मप्रभजिन प्रासादः ॥७३
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प्रासादमएडने
प्रासाद को समधोरस भूमि का पीस भाग करें। उनमें से दो भाग का कोना, दो भाग का प्रतिरथ, कारणका एक भाग, नंदी एक भाग और भन्नार्थ चार भाग का रक्खें । कोना और प्रतिरष के ऊपर केसरी और सर्वतोभा ये ही क्रम पढ़ाई। कलिका और नंदी के ऊपर एक एक शृंग पोर एक एक कट चढ़ाएं, यह पचप्रभजिनदेव को वल्लभ ऐसा पपस्लभ नाम का प्रासाद है ॥३९ से ३२||
गतांकष्टा-को १६, सिर १११ का , नदी पर ८, भने १६ और प्रत्यंग + एक शिखर कुल २०६ श्रृंग और प्रा. कूट-चार कणिका और चार नयी पर । -पपरागप्रासाद
पलवलभसंस्थाने कसंध्यः पचरागकः । रथो तिलकं दद्यात् स्वरूपो लक्षणान्वितः ॥३३॥
इति परागप्रासाद इस प्रासाद का मान और स्वरूप ऊपर के पद्मवल्लभ प्रासाद के अनुसार जानें। विशेष यह है कि-प्ररथ के अार एक एक तिलक भी चढाये, जिसे पद्मराग नाम का प्रासाद होता है ॥३३॥ ६-पुष्टिवर्धनप्रासाद---
तपे च प्रकर्तव्यः कर्णोघे तिलक न्यसेत् । दृष्टिवद्धननामोऽयं तुष्टिं पुष्टिं विवर्धयेत् ॥३॥
इति पुष्टिवर्धन प्रासावः ॥ इस प्रासाद का मान मोर स्वरूप पदम राग प्रासाद के अनुसार जाने । विशेष यह है कि कोणे के ऊपर एक एक तिलक भी पढाने से तुष्टि पुष्टि को बढ़ाने वाला पुष्टिवर्धन नाम का प्रासाद होता है ॥३४॥
विभक्ति सातवीं। १०-सुपार्वजिनवल्लभप्रासाद
दशभागीकृते क्षेत्रे कर्णोऽस्य च द्विभागिकः । प्रतिकर्णः सार्धभागो निर्गमे सत्सम भवेत् ।।३।। भद्रा च सार्धभागं कपिले भद्रमानयोः । निर्गमें पदमानेन चतुर्दिच च योजयेत् ॥३६॥
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er जिनेन्द्रप्रासादान्यायः
१०
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कर्णे क्रमद्वयं कार्यं रथे भद्रे तथोद्गमः । सुपार्श्वनाम विशेयः गृहराजः सुखावहः ||३७|| इति सुपा जिनवल्लभप्रासादः ॥ १० ॥
प्रासाद की समचोरस भूमि का दस भाग करें। उनमें से दो भाग का फोरम, डेढ़ भाग का प्रतिक बनावें । ये दोनों अंग enalra निकलता रक्खें। भद्रार्ध डेढ भाग का रखें, उसके दोनों बगल में दो कपिला भद्र के मान की बनायें। भद्र का निकाला एक भाग का रखें । कोणो के ऊपर दो क्रम चढ़ावें, तथा प्रतिक और नत्र के ऊपर डोढोया (उद्गम ) बनायें । ऐसा प्रसादराज सुपार्श्वनाम का है, यह सुख देने वाला है
।। ३५ ३७ ।।
संख्याको ५६, एक शिखर कुल ४७ श्रृंग ।
११- श्रीवल्लभप्रासाद---
रथो शृङ्गमेकं तु भद्रे चैवं चतुर्दिशि । श्रीaartaar नाम प्रासादो जिनवल्लमः || ३८ ||
इति श्रीवल्लभप्रासादः ॥ ११॥
सुपार्श्वजिनवल्लभ प्रासाद के प्रतिक के ऊपर एक एक श्रृंग और भद्र के ऊपर एक एक उरुग चढ़ाने से श्री वल्लभ नाम होता है, यह जिन देव को प्रिय है । ३
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रंग संख्या- कोशी ५६, प्रतिको
भने ४, एक शिखर,
कुल ६० श्रृंग |
१६१
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१२- चन्द्रप्रमवल्लभ शीतलप्रासाद
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चतुरस्त्रीकृते
क्षेत्रे द्वात्रिंशत्पदभाजिते । भागो भवेत् कर्णः प्रतिकर्णस्तथैव च ||२६|| ari ragni नन्दिका कर्णिका पदा । समदलं च कर्तव्यं चतुर्दिक्षु व्यवस्थितम् ||४०||
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प्रासादमडने
श्रीवत्स केसरी चैव सर्वतोभद्रमेव च । कर्णे चैव प्रदातव्यं रथे चैवं तु तत्समम् ॥४१॥ नन्दिका कणिकायां च द्वे द्वे शृङ्गं च विन्यसेत् । भद्रे चैचोर चत्वारि प्रत्यङ्गं जिनमेव च ॥४२॥ शीतलो नाम विज्ञेयः सुश्रियं च विवर्धकः । चन्द्रप्रभस्य प्रासादो विज्ञेयश्च सुखावहः ॥४३॥
___ इति चन्द्रप्रभवल्लभः शीतलप्रासादः ॥१२॥ प्रासाद की समचौरस भूमि का बत्तीस भाग करें। उन में से पांच भाग का कोण, पाच भाग का प्रतिकर्ण, चार भाग का भद्रार्ध, कोणो और नन्दिका एक एक भाग की रक्खें । ये सब अंम समचौरस बनावें । कोण और उपरथ के ऊपर श्रीवत्स, केसरी और सर्वतोभद्र शृंग चढ़ावें । कोणो और नन्दिका के ऊपर दो दो श्रीवत्सग, भद्र के ऊपर चार धार उरुग चढ़ावें और चौबीस प्रत्यंग चढ़ावें । ऐसा शीतल नाम का प्रासाद लक्ष्मी को बढ़ाने वाला है और चन्द्रप्रभाजन को प्रिय है और मुख कारक है ॥३१ से ४३॥
शृंगसंरूपा-कोरणे ६० प्रतिकर १२०, कोणीपर १६, मंदो पर १६, भद्र १६, प्रत्यंग २४, एक शिखर, कुल २५३. शृग । १३--श्रीचन्द्र प्रासाद--
सद्पे च प्रकर्तव्यो रथोचे तिलक न्यसेत् । श्रीचन्द्रो नाम विज्ञेयः सुरराजसुखावहः ॥४४॥
इति श्रीचन्द्रप्रसादः ॥१३|| शीतलप्रासाद के प्रतिकरण के ऊपर एक एक तिलक भी चढ़ावें तो श्री चंद्र नाम का प्रासाद होता है, यह इन्द्र को सुखकारक है ॥४४॥
नंग संख्या पूर्ववत् २५३ और तिलक र प्रतिकरों। १४-हितुराजप्रासाद--
नन्दिका कणिकायां च ऊर्ध्वं तिलकं शोभनम् । हितुराजस्तदा नाम सुविधिजिनवल्लभः ॥४५॥
इति सुविधिजिनवल्लभः हितुराजप्रासादः ॥१४॥
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ऊपर के श्रीचन्द्रप्रसाद को कोणी और नन्दी के ऊपर एक २ तिलक चढाने से सुविधिहिमाल साहितुराज नाम का प्रसाद होता है ।।४५
__ गसल्या पूर्ववत् २५३ । तिलक-कोणी पर ८, प्रतिकर्ण पर ८, नन्दो पर ८, कुल २४ ।
विभक्ति नवौं । १५-पुष्पवंतत्रासाद.---
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे चतुर्विशतिमाजिते । मद्राय त्रिपद वत्स ! रथी कर्णाश्च वत्समः ॥४६॥ निर्गमस्तस्प्रमाणेन सर्वशोभासमन्वितम् । रथे करों तथा भद्र शृङ्ग तिलकं न्यसेत् ॥४७॥ पुष्पदन्तस्तदा नाम सुविधिजिनवल्लभः । कार्यः सुविधिनाथाय धर्मार्थकाममोक्षदः ॥॥
इति पुष्पदंतप्रासादः ॥१५॥ ... प्रासाद को समचोरस भूमि का चौबीस भाग करें, इनमें से कोण, प्रतिरथ, उपरथ और भाई, ये सब तीन तीन भाग का रखें । और निर्गम में ये सब समदल रक्लै । भद्र के कर दो उरुशृंग चढावें । कोना, प्रतिस्थ प्रौर उररय ये तीनों के ऊपर दो दो शृंग और एक एक तिला चढ़ाने से पुदर नाम का प्रासाद होता है । यह सुविधि जिन को वल्लभ है। ऐसा प्रासाद बनाने से धर्म अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है ।।४६ से ४१
शुग संख्या कोणे ८, प्रतिकणे १६ उपरथे १६, भद्रे ८ एक शिखर कुल ४६ शृंग। तिलक संख्या-कोणे ४ प्रतिकणे ६, उपरथे । कुल २० तिलक ।
विभक्ति बसी । १६-शीतलजिनप्रासाद
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे चतुर्विशतिभाजिते । कर्णश्चैव समाख्यात-चतुर्भागश्च विस्तृतः ॥४६॥ प्रतिरथस्त्रपभागो भद्रार्ध भूतभागिकम् ।
रथेपणे च भृङ्गक तवें तिलकं द्वयम् ॥५०॥ प्रा०२५
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द्वादश उर: भृङ्गाणि प्रत्यङ्गानि सतोऽष्टमः । शीतलश्च तदा नाम प्रासादो जिनवल्लमः ॥ ५१ ॥
इति शीतल जिनप्रासादः ॥१६॥
प्रासाद की सम चोरस भूमिका चीबोस भाग करें। उनमें से चार भाग का कोण, तीन भाग का प्रतिरथ और पांच भाग का भद्रार्ध बनायें। कोण और प्रतिक के ऊपर एक एक श्रृंग प्रीर दो दो तिलक, चारों भद्र के उपर कुल बारह उग तथा आठ प्रत्यंग चढ़ावें | ऐसा शीतल नाम का प्रासाद शीतल जिनकी प्रिय है ४ से ५१ ॥
संख्या--को ४, प्रतिक भने १२ प्रत्यंग ८, एक शिखर, कुल ३३ श्रृंग । तिलक को ८ प्रतिक १६. कुल २४ तिलक ।
१७ कतिदायक प्रासाद---
वषे वत्प्रमाणे च कर्तव्यः पूर्वमानयः । edit च द्वयं शृङ्गे प्रासादः कीर्त्तिदायकः || ५२॥
sia कीर्तिदायकप्रासादः ||१७|| ऊपर के शीतल जिन प्रासाद के कोर के ऊपर का एक तिलक कम करके उसके बदले चढ़ाने से कीर्तिदायक नाम का प्रासाद होता है ॥ ५२ ॥
प्रतिक
भद्रे १२ प्रत्यंग एक शिखर, कुल ३७ श्रृंग ।
संख्याको
free- की ४, प्रतिक १६ ।
सावभवदने
१८- मनोहर प्रासाद---
'कर्णे सप्त प्रतिकर्णे पञ्च मनोहरदायकः । anti च कर्तव्यः स्वरूयो लक्षणान्वितः ॥ ५३॥
इति मनोहरप्रासादः ॥१८॥
ऊपर के प्रासाद के अनुसार मान और स्वरूप जानें। विशेष यह है कि कोखे के ऊपर एक केसरी क्रम और दो श्रवत्सग तथा प्रतिक के ऊपर एक केसरी क्रम बढ़ाने से मनोहर नाम का प्रासाद होता है ॥५३॥
संख्याको २८ प्रतिक ४० भई १२ प्रत्यंग ८ एक शिखर, कुलग
१. 'कर सह प्रतिकर प्रासादश्य मनोहर: '
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tr] जिनेन्द्र प्रासादाध्यायः
विभक्ति ग्यारहवीं ।
'पोडशांशः प्रकर्तव्यः कर्णस्त्रयं रथस्त्रयम् ।
भद्राएँ 'दिपदं वत्स ! चतुर्दिनु नियोजयेत् ॥ ५४ ॥ निर्गमं पदंमानेन स्वहस्ताङ्ग लमानतः । शृङ्गं च तिलकं कर्णे रथे मद्रे चैवोद्गमः || ५५ || श्रेयांसवल्लभो नाम प्रासादश्च
१६- श्रेयांस जिनवल्लभप्रासाद---
मनोहरः ।
इति श्रजिनवल्लभप्रासादः ॥ १६॥ प्रासाद की समचोरस भूमिका सोलह भाग करें। उनमें तीन भाग का कोण, तीन भाग का प्रतिक और दो भाग का भद्रार्थ बनायें। इसके अंगों का निकाला प्रासाद के पद के अनुसार हस्तांगुल मान का रक्खें। मर्थात् जितने हाथ का प्रासाद हो, उसने अंगुल निकलता रक्खें। कोण और प्रतिकरण के ऊपर एक एक श्रृंग और एक एक तिलक चढ़ावें । तथा भद्र के ऊपर उदगम बनायें। ऐसा श्रं यांस जिनवल्लभ नाम का सुंदर प्रासाद है ।।५४ से ५
श्रृंगसंख्याको ४, प्रतिको ८, एक शिखर कुल १३ ग । तिलक संख्याको ४ प्रतिक = |
२०- सुकुलत्रासाब
तद्रूषे तत्प्रमाणे च चत्वारि भद्रके || ५६ || सुकुलो नाम विज्ञेयो प्रासादो जिनवल्लभः ।
१६५
इति सुकुल प्रासादः ॥ २०॥
मान और प्रमाण कर के प्रासाद के अनुसार जानें । विशेष यह है कि भद्र के ऊपर एक एक श्रृंग चढाने से सुकुल नाम का प्रसाद होता है। वह जिन देव को है ॥५६॥ 'ग संख्या- कर्णे ४, प्रतिक भद्रे ४, एक शिखर, कुरु १७:१
२१- कुलनंदन प्रसाद
उष्टकं कुर्यात् प्रासादः कुलनन्दनः || ५७||
श्री पांसजिनवल्लभ प्रासाद के भद्र के ऊपर पाठ उरुशृंग चढ़ाने से कुलनन्दन नाम का प्रसाद होता है ||४७||
संख्याको ४, ८, भद्र ८, एक शिखर, कुल २१ । तिलक १२ १. 'महादशीय": 3. 'Feat I'
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विभक्ति बारहवीं ।
चतुरस्रीकृते क्षेत्रे द्वाविंशपदभाजिते । पदानां तु चतुर्भागाः कर्णे चैवं तु कारयेत् ||५८|| कोशिका पदमानेन प्रतिरथस्त्रिभागकः । aftaar भागमनि भद्रा भि कर्णे क्रमत्रयं कार्यं प्रतिकर्णे क्रमद्वयम् । त्रिकूट नन्दीकर्णे च ऊर्ध्वे तिलकशोभनम् ||६०॥ भद्रे भृत्रयं कार्य-मष्टौ प्रत्यङ्गानि च ।
२२- वासुपूज्यजिन प्रासाद
वासुपूज्यस्तदा नाम वासुपूज्यस्य वल्लभः ||६१॥ eft वाजिप्रासादः ॥२॥ eatre भूमि के बाईस भाग करें। उन में चार भाग का कोण, कर्णानंदी एक भाग, तीन भाग का प्रतिरय, भद्रनन्दी एक भाग और दो भाग का भद्रार्थ रक्खें । काणे के ऊपर तो कम, प्रतिक के ऊपर दो क्रम कोणी और मंदी के ऊपर त्रिकूट और उसके ऊपर तिलक, भद्र के ऊपर तीन तीन उरुशृंग और साठ प्रत्यंग चढ़ावें। ऐसा वासुपूज्य नामका प्रासाद वासुपूज्य जिन को प्रिय है ।।५८ से ६१ ॥
शृग संख्या- कोरणे १०८, प्रतिरथे ११२, नंदी पर ८, भद्रनंदो पर ८ भद्रं १२ प्रत्यंग में एक शिखर कुल २५७ । तिलक- १६ दोनों नंदी के ऊपर।
२३- रत्नसंजयप्रासाद
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तद्रूपे च प्रकर्त्तव्यः कणों तिलकं न्यसेत् । traiजयनामोऽयं
गृहराजसुखावहः ||६२||
इति रत्नराजयप्रासादः ||२३|| ऊपर एक तिलक बढ़ाने से रत्नसंजय नाम का
वासुपूज्यप्रासाद के कोसी के क्रम
प्रासाद होता है । यह प्रासाद राजसुख कारक है ॥५२॥
संख्या पूर्ववत् २५७ और तिलक २० को ४, दोनों मन्दी पर १६ । -धर्मवप्रासाद
तद्रूपे तत्प्रमाणे च चतुर्थकम् । धर्मदस्तस्य नामायं पुरे वै धर्मवर्धनः || ६३ ||
इति धर्मप्रासादः ॥२४॥
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अथ जिनेन्द्रप्रासादाध्यायः
रत्नसंजयप्रासाद के भद्र के ऊपर चौथा एक उग अधिक चढ़ाने मे धर्मद नामका प्रासाद होता है, वह नगर में धर्म को बढ़ाने वाला है ॥६॥
शृंगसंख्या-कोरो १०८ प्रतिरथे ११२, कोणी पर ८, नंदी पर ८, भद्रे १६ प्रत्यंग , एक शिखर कुल २६१ ग । तिलक पूर्ववत् २० ।।
विभक्ति तेरहवीं। २५--धिमलवल्लभप्रासाद
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे चतुर्दिशतिभाजिते । पदेन जयभागेन कर्णस्तत्र विधीयते ॥६॥ तज्ञेयः प्रतिकर्णः कोणिका नन्दिका पड़ा ।
भद्रा तु चतुर्भागं निर्गम भागमेव च ॥६॥ समनिर्गमं रथं शेयं कर्त्तव्यं चतुरो दिशि । कणे शृङ्गनपं कार्य प्रति कर्णे 'द्वयमेव च ॥६६।। नन्दिका कोणिकायां च शृङ्गकूटं सुशोभितम् । भद्रे चैवोरुचत्वारि चाटौं प्रत्यङ्गानि च ॥६७॥ विमलपलमनामोऽयं प्रासादो विमलप्रियः ।
इति विमलजिनवल्लभप्रासादः ॥२१॥ समचोरस भूमि का चौबीस भाग करें । उन में तीन भाग का कोण, तीन माग का प्रतिकर्ण, कोरिणका और नंदिका एक एक भाग, और चार भाग का भद्रार्ध बनावें । भद्र का निर्गम एक भाग रणखें । रथ और कर्ण का निर्गम समदल रखें । कोरो के ऊपर तीन शृंग, प्रतिकरण के कार को शृंग, मंदिया एका के ऊपर एक और एक एक कूट, भद्र के ऊपर चार उहशृग और पाठ प्रत्यंग चहा। यह विमरजिनाम्लभ ना ! प्रासाद बिमलमिन को प्रिय है ।।६४ से ६७॥
मुंगसंख्या-कोणे १२, प्रतिरथे १६, कोणी पर ८, नंदी पर, ६, अझै १५, प्रत्यंग , एक शिश्वर कुल ६६ भृग । कूट १६ । २६-मुक्तिप्रासाद
बद्रपे च प्रकर्तव्यो रथं विलकं दापयेत् ॥६८।। १. 'हरका
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११
धासावमलने
कर्णिकायां च द्वे श्रङ्ग प्रासादो जिनबालभः । मुक्तिदो नाम विज्ञ यो भुक्तिमुक्तिप्रदायकः ॥६९ll
इति मुक्तिधासायः ॥२६॥ विमलजिनयल्लभ नाम के प्रतिरथ ऊपर एक एक तिलक और दोनों मंदीयों के ऊपर कुट के बदले शृंग चढावें। जिससे मुक्तिद नामका प्रासाद होता है, यह जिनदेव को प्रिय है मौर वैभवादि भोगसामग्री और मुक्ति को देने वाला है ॥६॥
ग गया---भोगणे १२, तिरले १६, कोणी पर १६, नंदी पर १६, भद्रे १६, प्रत्यंग ८, एक शिखर, कुल ८५, शृंग और तिलक ८ प्रतिरप पर।
विभक्ति चौदहवीं । २७-अनन्त चिनप्रासाद--
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे विशविपदमाजिते । त्रीणि त्रीणि ततस्त्रीणि नन्दी पदेति भद्रके ।।७०॥ निर्गम पदमानेन त्रिषु स्थानेषु भद्रके । .. कणे क्रमवयं कार्य रथोषं तत्सम भवेत् ॥७॥ भद्रे चैवोरुचत्वारि नन्दिकायां क्रमवयम् । अनन्तजिनप्रासादो धनपुण्यश्रियं लभेत् ।।७।।
इत्यमन्तजिमप्रासादः ॥२७॥ प्रासाद को समचोरस भूमिका बीस भाग करें। उनमें तीन भाग का कोना, तीन भाग का उपरथ, तीन भाग का भद्रा और भद्रनन्दी एक भाग जाने। इन पंगों का निकाला एक भाग का रक्खें । कोस और रय कार तीन तीन क्रम, भद्र के अपर पार उरुग मोर भद्र नन्दी के ऊपर दो क्रम बढ़ाये । ऐसा अनन्ताजनप्रासाद धन, पुण्य और लक्ष्मी को देने वाला है ।।५० से ७२।।
ग संख्या कोणे १०८, प्ररथे २१६, नंदी पर ११२, भने १६, एक सिखर, कुल ४५३ शृंग। २८-सुरेन्द्र प्रासाद
अनन्तस्य संस्थाने रथोचे तिलकं न्यसेत् । सुरेन्द्रो नाम विज्ञेयः सर्वदेवेषु बमः ॥७३॥
मप्रासादः ॥२६॥
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अथ जिनेन्द्रप्रसादाध्यायः
मनन्तजिन प्रासाद के प्ररथ के ऊपर एक २ तिलक चढ़ाने से सुरेन्द्र नाम का प्रासाद होता है, यह सर्व देवों के लिए प्रिय है ।१७३!! श्रृंग संख्या-पूर्ववत् ४५३ और तिलक ८ प्ररथे।
विभक्ति पन्द्रहवीं । २६-धर्मनायजिनप्रासाद---
चतुरस्रीकते क्षेत्रे चाटाविंशतिभाजिते । कई स्थं च भद्रा युगमार्ग विधीयते !!१!! निर्गमं तरप्रमाणेन द्विभागा नन्दीकोणिका । केसरी सर्वतोभद्रं रथे कर्णे च दापयेत् ॥७॥ तदूर्वे तिलक देयं सर्वशोभान्वितं कृतम् । नन्दिका कर्णिकायां च शृङ्गो शृङ्गमुत्तमम् ||७६॥ भद्रे चैवोरुचत्वारि चाष्टौ प्रत्यङ्गानि च । धर्मदो नाम विख्यातः पूरे धर्मविवर्धनः ||७७॥
इति धर्मनाथजिनप्रासादः ॥२९॥ प्रासाद को समचोरस भूमि का अट्ठावीस भाग करें। उनमें चार भाग का कोण, चार भाग का प्ररथ, 'जार भाग का भद्रार्ध, एक भाग की कोणी, और एक भाग को भद्रनंदी बनावें । ये सब अंग समदल रक्खें। कोण और प्ररथ के ऊपर केसरी और सर्वतोभद्र ये दो क्रम बहावें और उसके कार शोभायमान एक एक तिलक चढ़ायें । कोणी और नन्दी के ऊपर दो दो श्रृंग चढ़ावें । भद्र के ऊपर चार उरुग और आठ प्रत्यंग चढावें । ऐसा धर्म को देने वाला धर्मद नाम का प्रासाद नगर में धर्म को बढाने वाला है ।।७४ से ७७॥
मग संख्या-कोरणे ५६, प्ररथे ११२, कोणी पर १६, नंदी पर १६, भद्रे १६, प्रत्यंग, ८ एक शिखर, कुल २२५ शृंग और तिलक ४ कोणे और ८ प्ररपे कुल १२ । ३०-धर्मवृक्षणासाब---
तद्र पे तत्त्रमाणे च कर्तव्यः सर्वकामदः । स्थोषे च कृते शृङ्ग धर्मवृक्षोऽयं नामतः ||७||
इति धर्मवृक्षप्रासादः ॥३०॥
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....ustannumAniamsACE
२००
प्रासादमारने
.........
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धर्मनाथ प्रासाद के प्ररथ के ऊपर तिलक के बदले में एक एक शृंग चढाने से धर्मवृक्ष नाम का प्रासाद होता है ।।६।।
श्रृंग संख्या-कोणे ५६:प्ररथे १२०, कोणी पर १६. नंदी पर १६ भद्र १६, प्रत्यंग ८० एक शिखर, कुल २३३ और तिलक ४ कोहो ।
विभक्ति सोलहवीं । ३१-शान्तिजिन अथवा श्रीलिंग प्रासाद----
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्र द्वादशांशबिभाजिते । कणों भागद्वयं कार्यः प्रतिकर्णस्तथैव च ॥७॥ भद्रार्ध सार्धभागेन नन्दिका चार्धभागिका । कर्णे क्रमवयं कार्य प्रतिकणे सथैव च ॥५०॥ नन्दिकायां शृङ्गकूट-मुरुशृङ्गाणि द्वादश । शान्तिनामश्च विज्ञयः सर्वदेवेभ्यः कारयेत् ॥१॥ श्रीलिङ्ग च तदा नाम श्रीपतिषु सुखावहः ।
इति शान्तिवल्लभः श्रीलिङ्गप्रासादः ॥३१॥ प्रासाद को समचोरस भूमिका बारह भाग करें। उनमें दो भाग का कोण, दो भाग का प्रतिकणं, डेढ भाग का भद्राध और प्राधे भाग की भद्रनंदी करें। कोण और प्रतिकर्ण के कार दो दो क्रम, भद्रनंदो के ऊपर एक शृंग और एक कूट, चारों भद्रों के ऊपर बारह उरुशृंग वढावें । ऐसा शांति नामका प्रासाद जानें, यह सब देवों के लिये बनावें । इसका दूसरा माम श्रोलिङ्ग प्रासाद है, वह विष्णु के लिये सुखशयक है ।।७६ से ६॥ .
शृंगसंख्या-कोणे ५६, प्ररथे ११२ भद्रनंदी पर ८, भद्रं १२, एक शिखर, कुल १८६ भृग और कूद नंदो पर। ३२-कामवायक प्रासादउरुशृङ्ग पुनदद्यात् प्रासादः कामदायकः ||२||
इति कामदामकः ।।३२॥ शांतिनाथ प्रासाद के भद्र के ऊपर एक उमभंग अधिक चढ़ाने से कामक्षायक प्रासाद होता है ।।८।।
श्रृंग संख्या-भद्र १६ बाको पूर्ववत् कुल-१६३ शृंग।
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श्रथ जिनेन्द्रप्रासादाध्यायः
विभक्ति सत्रहवीं ।
३३- कु· युजिनवल्लभ कुमुदप्रासाद---
चतुरस्रीकृते क्षेत्रे कर्णः स्यादेकभins
after a भगा निर्गमं पद्मानेन
प्रा० २६
चाष्टभागविभाजिते ।
प्रतिकर्णस्तथैव च ॥ ८३ ॥
त्रिपदं मद्रविस्तरम् । स्थापयेश्च चतुर्दिशि || ८४ ॥
कर्णे च केसरी दद्यात् तदर्थे तिलकं न्यसेत् । तत्सदृशं प्रतिकर्णे नन्द्यां तु तिलकं न्यसेत् ||५|| भद्रे च श्रृंगमेकं तु कुमुदो नाम नामतः । वल्लभः सर्वदेवानां जिनेन्द्रकु थुवन्लभः ||८६ ॥
इति कुंथुनाथयल्लभः कुमुदप्रासादः ||३३||
प्रासाद की समत्रोरस भूमिका पाठ भाग करें। उनमें कोण और प्रतिक एक एक भाग का, भद्रार्ध देव भाग और भद्रनन्दो यात्रा भाग बनायें । भद्र का निर्गम एक भाग रक्खें, इस प्रकार चारों दिशा में व्यवस्था करें। कोण और प्रतिक के ऊपर एक एक केसरी
'ग और उसके ऊपर एक एक तिलक चढावें । भद्रनंदो के ऊपर तिलक और भद्र के ऊपर एक उरुशृंग चढावें । यह कुretreat प्रासाद सर्वदेवों को और कुंथुजिनदेव को वल्लभ है ||८३ से ८६ ॥
संख्याको २०, प्रर ४०, भने ४, एक शिखर, कुल ६५ । तिलक संख्याकोशी ४, प्रये, और नदी पर कुल २० तिलक |
३४ - शक्तिदप्रासाद----
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पंच प्रकर्तव्यं रथे तिलकं दापयेत् ।
शक्तिदो नाम विशेयः श्रीदेवीषु सुखावहः ||८७ll
इति शक्तिदप्रासादः ||३४|
कुमुदप्रासाद के प्ररथ के ऊपर एक २ तिलक अधिक चढ़ाने से शक्ति नाम का प्रशसाद होता है। वह लक्ष्मीदेवी को सुखकारक है ||८||
संख्या- पूर्ववत् ६५ और तिलक को ४, प्ररथे १६. नंदी पर 5 कुल २८ ।
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प्रासादमण्डने
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३५-हर्षणप्रासादकोंचे शृङ्ग दातव्यं प्रासादो हर्षणस्तथा ।
इति हर्षणप्रासादः ॥१३॥ शक्तिद प्रासाद के कोरणे के ऊपर एक २ शृंग अधिक बढ़ाने से हर्षण नामका प्रासाद होता है।
शृंगसंख्या--कोणे २४, रथे ४०, भद्रे ४, एक शिखर, कुल ६६ श्रृंग तिलक पूर्ववत् २८ । ३६-भूषणप्रासादकोषे तिलक या प्रासादो भूपणस्तथा ॥८॥
___ इति भूषणप्रासादः ॥३६॥ हर्षणप्रासाद के कोरणे के ऊपर एक तिलक अधिक चढ़ाये तो भूषण नामका प्रसाद होता है ||८८ शृंगसंख्या-पूर्ववत् ६६ और तिलक ३२॥
विभक्ति अठारहवीं । ३७-अरनायजिनवल्लभ-कमलकन्दप्रासाद
चतुरस्त्रीकते क्षेत्रे चाष्टभागविभाजिते । कर्णो द्विभागिको वे यो भद्रा व द्विमागिकम् ॥८६॥ कर्णे च शृङ्गमेकं तु केसरी च विधीयते । भद्रे चैवोद्गमः कार्यों जिनेन्द्रे चारनाथके ।।६०|| इति त्वं विद्धि भो यत्स ! प्रासादो जिनयन्लभः । कमलकन्दनामोऽयं जिनशासनमार्गतः ॥११॥
इति अरनाथ जिनवालभः कमलकन्दप्रासादः ।।३७॥ प्रासाद की समचोरस भूमिका पाठ भाग करें। उनमें दो भाग का कोण और दो भाग का भद्रार्ध रनावें। कोणे के ऊपर एक २ केसरी शृंग चढावें और भद्र के ऊपर उद्म बनावें । ऐसा अरनाथ जिन के लिये कमलकन्द नाम का प्रासाद हे यत्स ! तू जान IEE से ६१॥
शृङ्गसंख्या-कोरणे २०, एक शिखर, कुल २१ शृंग।
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अथ जिनेन्द्रप्रासादाध्यायः
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३८-श्रीशैलप्रासादकणे च तिलकं ज्ञेयं श्रीशैल ईश्वरप्रियः ।।
इति श्रीशैलप्रासादः ॥३८॥ कमलकन्द प्रासाद के कोणे के ऊपर एक २ तिलक भी बढ़ाने से श्रीशैल नाम का प्रासाद होता है, वह ईश्वर को जिय है।
मुंगसंख्या-पूर्ववत् २१ और तिलक ४ को । ३६-अरिनाशन प्रासादभद्रे चैवोरुचत्वारि प्रासादस्त्वरिनाशनः ॥६२||
इत्परिनाशनप्रासादः ॥३६॥ श्रीशैलप्रासाद के भद्र के ऊपर एक २ अरुQग चढ़ाने से मरिनाशन नामका प्रासाद होता है ॥२॥ शृगसंख्या-कोरण २०, भद्रे ४, एक शिखर, कुल २५ शृंग और तिलक ४ कोणे ।
विभक्ति उन्नीसवीं। . ४०-श्रीमल्लिजिनवल्लभ-महेन्द्रप्रासाद---
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे द्वादशपदभाजिते । कर्थो भागद्वयं कार्यः प्रतिस्थश्च साधे : १६३॥ सार्धभागकं भद्रा चार्धा नन्दीद्वयं भवेत् । करें क्रमद्वयं कार्य प्रतिस्थे तथैव च ॥४॥ द्वादश उरुङ्गाणि स्थापयेच्च चतुर्दिशि । महेन्द्रनामः प्रासादो जिनेन्द्रमन्लिबल्लभः ॥६५||
इति मल्लिजिनवल्लभो महेन्द्रप्रासारः ॥४०॥ प्रासाद की समचोरस भूमिका बारह भाग करें। उनमें दो भाग का कोण, रे भागका प्रतिरथ, डेढ़ भागका भद्रा, कनिंदी और भद्रनन्दी प्राधे २ भाग की करें। प्रतिरथ मोर कोणे के ऊपर केसरी ओर सर्वतोभद्र, ये दो क्रम और भद्र के ऊपर बारह उरुग पढ़ावें। ऐसा महेन्द्र नामका प्रासाद मल्लिजिनेन्द्र को वल्लभ है !!६३ से १५||
शृंगसंख्या-कोणे ५६, प्ररथे ११२, भद्र १२, एक शिखर, कुल १८१ शृंगा
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प्रासादमारने
४१-मानवेन्द्र प्रासादरथोचे तिलकं दद्यान्मानवेन्द्रोऽथ नामतः।
इति मानवेन्द्र प्रासादः ॥४१॥ महेन्द्रप्रासाद के प्रति रथ के ऊपर एक २ तिलक भी चढ़ा तो मानवेन्द्र नामका प्रासाद होता है । शृंगसंख्या पूर्ववत् १८१ प्रौर तिलक ८ प्ररये ।
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४२--पापनाशनप्रासादकर्णोधे तिलकं दधात् प्रासादः पापनाशनः ॥६६॥
इति पापनाशनप्रासादः ।।४।। नाममा के
कोर एक २ तिलक भी बढ़ावें तो पापनाशन नामका प्रासाद होता है ।।६।। शृगसंख्या पूर्ववत् १८१ । तिलक-कोरणे ४, और प्ररथे ८ कुल १२ तिलक ।
विभक्ति बोसवीं । ४३-मानसतुष्टि नामका मुनिसुव्रतमासाद
चतुवीकृते क्षेत्रे चतुर्दशविभाजिते । बाहुवयं रथं कर्ण भद्रा पभागिकम् ||१७|| श्रीवत्सं केसरी देयं कर्णे रथे क्रमद्वयम् । द्वादशैवोस्पृङ्गाणि स्थापयेच चतुर्दिशि ॥६॥ मानसतुष्टिनामोऽयं प्रासादो मुनिसुव्रतः ।
इति मानसतुष्टि नाम मुनिसुव्रतप्रासादः ॥४३।। प्रासाद को समचौरस भूमिका चौदह भाग करें। उनमें दो भागका कोश, दो भागका प्ररथ और तीन भागका भद्राई करें । कोरण और प्ररथ के पर केसरी मौर श्रीवत्स ये दो कम चढ़ावें । तथा भद्र के ऊपर कुल बारह उरुग चढ़ावें । ऐसा मानसतुष्टि नामका मुनिसुव्रत प्रासाद है ।।६७-६८॥
श्रृंगसंख्या--कोरणे २४, प्ररथे ४८, भद्रे १२, एक शिखर, कुल ८५ शृंग। ४४-मनोल्याचन्द्र प्रासाद__ तद्रूपे रथे तिलकं मनोन्याचन्द्रो नामतः ॥६६॥
इति मनोल्याचन्द्रप्रासादः ॥४४||
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मथ जिनेन्द्रप्रासादाध्यायः
मानसन्तुष्टिप्रासाद के प्ररथ के ऊपर एक २ तिलक चढ़ायें तो मनाल्याचन्द्र नामका प्रासाद होता है ॥६॥
और तिलक प्ररथे।
४५-श्रीभवप्रासाद
मनोल्याचन्द्रसंस्थाने कणे न्यसेत् विकसरीम् । श्रीभवनामो विज्ञेयः कर्त्तव्यश्च त्रिभृतये ॥१०॥
इतिश्वीभवनामप्रासादः ।।४५।। मनोल्याचंद्र प्रसाद के कोरणे के ऊपर झूम के बदले में दो केसरी शृंग चड़ावे तो श्रीभवनामका प्रासाद होता है। वह त्रिमूत्ति (ब्रह्मा, विष्णु और शिव ) के लिये बनावें ॥१॥
शृंगसंख्या-कर्णे ४०, प्ररथे ४, म १२, एक शिस्तर, कुल १०१ शृंग, तिलक प्ररथे ।
विभक्ति इक्कीसवीं । ४६-नमिनाजिनप्रासाद----
चतुरस्रीकृते क्षेत्रे पोडशपदभाजिते । को भागत्रयं कार्यः प्रतिकणों द्विभागिकः ॥१०१।। भद्राई त्रिभाग ज्ञेयं चतुर्दिन व्यवस्थितम् । क्रमद्वयं रथे कर्णे ऊर्य तिलकशोभनम् ॥१२॥ भद्रे चैत्रोरुचत्वारि स्थापयेच्च चतुर्दिशि । नमिशृङ्गश्च नामायं प्रासादो नमिवल्लभः ।।१०३||
इति नमिजिनवल्लभप्रासादः ।।४६|| प्रासाद को समचोरस भूमिका सोलह भाग करें। उनमें तीन भाग का कोरण, दो भागका प्रतिरथ और तीन भाग का भद्राई करें। कोण और प्ररय के ऊपर केसरी और सर्वतोमद, ये दो क्रम और भद्र के उपर चारों दिशा में चार चार उस चढायें। ऐसा ममिग नामका प्रासाद श्री ममिनाथ जिनको प्रिय है ।११०१ से १०६।।
अगसंख्या-कारणे ५६, प्ररथे ११२, भद्रे १६, एक शिखर, कुल १८५ शृंग । तिलवकोणे ४ प्ररथे कुल १२ तिलक।
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विभक्ति इक्कीसवों B
सामने
४७- सुमतिकीर्तिप्रासाद --
षड्विंशपदभाजिते ।
चतुस्रीकृते क्षेत्रे कर्णो भागाश्च चत्वारः प्रतिकर्णस्तथैव च ॥ १०४ ॥ भर्दिव्यथितम् । कर्णे क्रमश्रयं कार्य प्रतिकर्णे क्रमद्वयम् ॥१०५॥ द्वादशैवोरुशृङ्गाणि प्रत्यङ्गानि द्वात्रिंशकम् । मन्दिरं प्रथमं कर्म सर्वतोभद्रमेव च ॥१०६ ॥ केसरीं तृतीयं कर्म ऊर्ध्वे मञ्जरी शोभिता । सुमविकीत्तिनामोऽयं नमिनाथस्य वल्लमः ॥ १०५ ॥ इति नमिजिनवल्लभः सुमतिकीतिप्रासादः ॥४७॥ प्रासाद की समोरस भूमिका छब्बीस भाग करें। उनमें चार भाग का कोण पार भाग का प्रश्य और दस भाग का पूरा भद्र करें। कोणे के ऊपर तीन क्रम प्ररथ के ऊपर
कम, भद्र के ऊपर कुल बारह उरुग और बत्तीस प्रत्यंग चढायें | उसके ऊपर शिखर शोभायमान करें, ऐसा सुमतिकीति नामका प्रासाद श्रीनमिनाथ जिनको भय है ।। १०४ से १०७ ।।
श्रृंग ।
श्रृंगसंख्या -कोर १५६, ११२ भद्रे १२ प्रत्यंग ३२, एक शिखर, कुल ३१३ श्रृग । यदि प्रश्थ ऊपर मंदिर और सर्वतोभद्र वे दो कम रखा जाय तो श्रृंगसंख्याकोणे १५६, प्र१ये २७२, भद्र १२, प्रत्यंग ३२, एक शिखर, कुल ४७३ श्रृंग ।
४८- सुरेन्द्रप्रासाद-
तद्रूपे च प्रकर्तव्यो रथे शृङ्गं च दापयेत् । सुरेन्द्र इति नामायं प्रासादः सुखल्लमः || १०८||
इति सुरेन्द्रनामप्रासादः ॥४८॥ सुमतिकति प्रासाद के प्ररथके ऊपर एक शृंग अधिक चढ़ावे ती सुरेन्द्र नामका प्रासाद होता है. वह देवों को प्रिय है || १०८ ॥
संख्याको १५६, र २८०, भद्र १२, प्रत्यंग ३२, एक शिखर कुल ४८१
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अथ जिनेन्द्रप्रासादध्यायः
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४६-राजेन्द्रप्रासाद
तद्रूपे च प्रकर्तव्य उत्शृङ्गाणि' पोडश । पूजनाल्लभते राज्यं स्वर्गे चैवं महीतले ॥१०६।।
इति राजेन्द्रप्राताद: 11४६11 सुरेन्द्रप्रसाद के भद्रके अपर बारह के बदले कोलह उरुग चढ़ाने से राजेन्द्र नामका प्रासाद होता है। उसका पूजन करने से पृथ्वी के ऊपर और स्वर्ग में राज्य प्राप्त होता है ॥१६॥ शृगसंस्पा--भद्र १६ बाकी पूर्ववत, कुल ४८५ Qग ।
विभक्ति बाईसवीं । ५०-नेमेवेश्वर प्रासाद
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्र द्वाविंशपदभाजिते । बाहुरिन्दुर्युम्भरूप-द्वीन्दुभागाः क्रमेण च ।।११०।। भद्रार्ध च द्वयं भागं स्थापयेतु चतुर्दिशि । केसरी सर्वतोभद्र' कर्णे चैवं क्रमद्वयम् ॥१११।। केसरी तिलकं चैव रथोचे तु प्रकीर्तितम् । कर्णिकानन्दिकायां च शृङ्गच तिलकं न्यसेत् ।।११२॥ भद्रे चैबोरचत्वारि प्रत्यङ्गानि च षोडश । नेमेन्द्रेश्वरनामोऽयं प्रासादो नेमिबल्लभः ॥११३।।
इति नेमेन्द्रश्वरप्रासादः ॥५॥ प्रासाद की समचोरस भूमिका बाईस भाग करें। उनमें दो भाग का कोरण, एक भागकी कोणी, दो भागका प्रतिकर्ण, एक भाग कोणी, दो भाग का उपरथ, एक भागको नन्दी और दो भाग का भद्रा रक्खें। कोणे के ऊपर केसरी और सर्वतोभद्र, ये दो क्रम, प्रतिकर्ण और उपरथ के ऊपर केसरो क्रम और एक तिलक, कोणी और नदियों के अपर एक शृंग और एक तिलक, भद्र के ऊपर चार २ उरु,ग, और सोलह प्रत्यंग चढ़ावें । ऐसा नेमेन्द्र श्वर नाम का प्रासाद श्री नेमिनापजिनदेव को प्रिय है ।।११० से ११३॥
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१. 'उसपर पञ्चमम्' । पाठान्तरे ।
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प्रासादमकने
संख्याको ५६, कोणीवर ८ प्ररथे ४०, कोलोवर, उपरमे ४०, नंदी पर, भद्र १६. प्रत्यंग १६, एक शिखर कुल १०३ श्रृंग | तिलक संख्या-- प्रत्ये उपर कनंदी पर ८, प्ररथनंदी पर प, भद्रनंदी पर कुल ४० तिलक ।
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२.०८
५१ - यतिभूषणप्रासाद-----
तत्तुल्यं तत्प्रभा च रथे शृङ्ग ं च दापयेत् । वल्लभः सर्वदेवानां प्रसादो यतिभूषणः ॥ ११४ ॥
इति यतिभूषणप्रासादः ॥५१॥ नेमेश्वर प्रासाद के प्ररथ और उपरथ ऊपर के तिलक के बदले एक एक बढाने से पतिभूषरण नाम का प्रासाद होता है, वह सब देवों को प्रिय है ।। ११४॥
श्रृंगसंख्या प्रथे ४८ उपरथे ४८ बाकी पूर्ववत् कुल २०६ श्रृंग । तिलक कुल २४ तीनों नन्दी पर
५२ - सुपुष्पप्रासाद -
तद्रूपं तत्प्रमाणं च रथे दद्याच्च केसरीम् । सुपुष्पो नाम विज्ञेयः प्रासादः सुरवल्लभः ॥ ११५ ॥
इति सुपुब्वनामप्रासादः ॥५२॥ | यतिभूषण प्रासाद के प्ररथ और उपरण ऊपर के श्रृंग के बदले में एक एक केसरी कम चढ़ाने से सुर नामका प्रासाद होता है। वह देवों को प्रिय है || १०५॥
चंग संस्था-परचे ८०, ऊपरथे ८० बाकी पूर्ववत कुल २७३ । तिलक २४ पूर्ववत् विभक्ति तेईसवीं ।
५३ -- पार्श्व वल्लभप्रासाद
चतुरस्रीकृते क्षेत्रे 'षडविंशपदमा जिते । कर्णा गर्भस्र्यन्तं विभागानां तु लक्षणम् ॥ ११६ ॥ वेदरूपगुणेन्दवो भद्राक्षं तु चतुष्पदम् । श्रीari hai चैत्र रथे कर्णे च दापयेत् ॥ ११७ ॥
१. 'प्रविशति भाजिते । पाठान्तरे । २. 'द्वय' ।
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भय जिनेन्द्रप्रासादाध्यायः
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कर्णिकायां ततः शृङ्ग-मष्टौ प्रत्यङ्गानि च । भद्रे चैवोरुचत्वारि प्रासादः पार्थवल्लभः ॥११॥
इति श्री पाववल्लभप्रासाद ॥५३॥ प्रासाद की समवोरस भूमिका छव्वीस भाग करें। उन में चार भाग का कोरण, एक भाग को कोरणी, तीन भाग का प्रतिरथ, एक भाग की नन्दी और भद्रार्ध चार भाग का रखें ! कोण पौर प्ररथ के ऊपर एक एक केसरीक्रम और एक एक श्रीवत्सग चढ़ावें । कोणी और नन्दी के ऊपर एक एक शृग चढावें । पाठ प्रत्यक्ष और भद्र के ऊपर चार चार उरुग चढावें । ऐसा पार्श्वनाथबल्लभ नाम का प्रासाद है ॥११६ से ११८॥
शृङ्ग संख्या-कोरणे २४, प्ररथे ४८, मद्रे १६ कोणी पर ८, नंदी पर , प्रत्यंग ८, एक शिखर कुल ११३ शृंग। ५४-पद्मावतीप्रासाद--
कर्णे च तिलकं दद्यात् प्रासादस्तत्स्वरूपः । पमावती च नामेति प्रासादो देवीवल्लभः ॥११॥
इति पचायतीप्रासादः ॥५४॥ पाचवल्लभ प्रासाद के कोरणे के ऊपर एक एक तिलक भी चढाये तो पद्मावती नामका प्रासाद होता है। यह देवी को प्रिय है ॥११॥
भृग संख्या पूर्ववत् ११३ । तिलक ४ कोरसे के पर। ५५-रूपवल्लभप्रासाद ----
तद्रपं च प्रकर्तव्यं प्रतिकणे कर्णसारशम् । जिनेन्द्रायतनं चैव प्रासादो रूपवल्लभः ॥१२०॥
इति रूपवल्लभासादः ||५५३ पद्मावती प्रासाद के प्ररथ के ऊपर भी एक एक तिलक 2 चढावे तो रूपवल्लभनामका जिनेन्द्रप्रसाद होता है ॥१२०॥ शृंग संख्या-पूर्ववत् ११३ । तिलक १२ : चार कोणे और पाठ प्ररथे । प्रा०२७
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प्रासादमण्डने
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विभक्ति चौबीसवीं। ५६-वीरविक्रम-महीधरप्रासाद
चतुस्वीकृते क्षेत्रे चतुर्विशतिभाजिते । कर्णस्त्रिभागिको ज्ञेयः प्रतिकर्णश्च तत्समम् ॥१२१।। कणिका नन्दिका भागा भद्रा च चतुष्पदम् । श्रीवत्सं केसरी चैव सर्वतोभद्रमेव च ॥१२२॥ रथे वर्षे च दातव्य-मष्टो प्रत्यङ्गानि च । भद्रे चोरुचत्वारि कर्णिकायां भृकोसमम् ॥१२३॥ वीर विक्रमनामोऽयं प्रासादो जिनवल्लभः ।। महीधरश्च नामायं पूजिते फलदायका ॥१२४॥ इति श्री महावीरजिनवल्लभो धीरविक्रमप्रासादः ॥५३॥
प्रासाद की समचोरस भूमिका चोवीस भाग करें। उनमें कोण और किनारी तीन तीन ग, कोशीको नीम एक भाग और भद्रार्ध चार भाग रमखें । कोण और प्ररथ के ऊपर केसरी और सर्वतोभद्र थे दो क्रम और एक श्रीवत्सQग चढायें, भद्र के ऊपर चार उरुग, तथा कोशो और नंदी के ऊपर एक श्रीवस्सशृग और मा प्रत्यंग चढ़ावें । ऐसा वीरविक्रम नाम का प्रासाद जिनदेव को प्रिय है ।।१२१ से १२४॥
शृगसंख्याकोणे ६०, प्ररथे १२०, प्रत्यंग ८, भद्रे १६, कोणी पर नंदी पर ८, एक शिखर, कुल २२१ शृंग। ५७-अष्टापवासाब
तद्रपे च प्रकर्तव्ये को तिलकं न्यसेत् । अष्टापदश्च नामायं प्रासादो मिनबल्लभः ॥१२॥
द्वत्यष्टापवासादः ॥५४॥ वीर विक्रम प्रासाद के कोरो के पर एक एक तिलक भी चढावें तो प्रष्टापद नामका प्रासाद होता है । वह जिनदेव को प्रिय है ।।१२।।
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शृंग संख्या-पूर्ववत् २२१ । तिलक-४ कोरों के ऊपर।
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अथ जिनेन्द्रप्रासादाध्यायः
५८-तुष्टिपुष्टिदप्रासाद----
तद्रूपं च प्रकर्सव्य ---मुरुशृङ्ग च पञ्चमम् । तुष्टिपुष्टिदनामोऽयं प्रासादो जिनवल्लभः ॥१२६||
इति तुष्टिपुष्टिदप्रासादः ।।५।। अष्टापदप्रासाद के भद्र के ऊपर चार के बदले पांच उराग चढावें तो तुष्टिपुष्टिव नामका प्रासाद होता है । यह जिनदेव को प्रिय है ॥१६॥
शृंग संख्या--भ २० बाकी पूर्ववत् कुल २२५ शृंग और तिलक ४ कोरो जिनप्रासाद प्रशंसा
प्रासादाः पूजिता लोके विश्वकर्मणा भाषिताः ।
चतुर्विशाविभक्तीनां जिनेन्द्राणां विशेषतः ।।१२७।। उपरोक्त विश्वकर्मा ने कहे हुए चौबीस विभक्ति के जिनेन्द्र देवों के प्रासाद विशेष प्रकार से पूजनीय हैं ॥१२॥
चतुर्दिशि चतुराः धुरमध्ये सुखावहाः ।
भ्रमाश्च विनमाश्चैव प्रशस्ताः सर्वकामदाः ॥१२८॥ चारों दिशाओं में द्वारवाले अर्थात् चार द्वारवाले, भ्रमवाले अथवा बिना भ्रम के जिनेन्द्र प्रासाद नगर में हो तो प्रजा को सुख देने वाले हैं। तथा प्रशस्त हैं और सब इच्छित फल को देने वाले हैं ॥१२८
शान्तिदाः पृष्टिदाश्चैव प्रजाराज्यसुखावहाः । अश्वैर्गजैवलियान-महिपीनन्दीभिस्तथा ॥१२६॥
सर्वश्रिपमाप्नुवन्ति स्थापिताच महीतले । जिनेन्द्रदेवों के प्रासाद शान्ति देने वाले हैं। पुष्टि देनेवाले और राजा प्रजा को पुख देनेवाले हैं। एवं इस पृथ्वी के ऊपर जिनेन्द्र देवों के प्रासाद स्थापित करने से घोडे, हायो, बेल, भैंस और गाय प्रादि की सब सम्पत्तियों को देने वाले हैं ।।१२६॥
नगरे ग्रामे पुरे च प्रासादा ऋपभादयः ॥१३०॥ जगत्या मण्डपयुक्ताः क्रीयन्ते वसुधातले ।। सुलभं दीयते राज्यं स्वर्गे चैवं महीतले ॥१३॥
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INTER2008
प्रासादमडने
नगर, ग्राम मोर पुरके मध्य में जगती और मंडप वाले ऋषभ प्रादि जिनप्रासाद पृथ्वीतल में किया जाता है । जिसे स्वर्ग और पृथ्वी में राज्य प्राप्ति सुलभ होती है ॥१२० से १३१॥
दक्षिणोतरमुखाश्च प्राचीपश्चिमदिङ्मुखाः। वीतरागस्य प्रासादाः पुरमध्ये सुखावहाः ॥१३२॥ इति श्री विश्वकर्मकृतज्ञानप्रकाशदीपार्णवे वास्तुविद्यायां
जयपृच्छता जिनप्रासादाधिकारः समाप्तः ॥ दक्षिण, उत्तर, पूर्व और पश्चिम, इन चारों दिशा के मुख वाले वीतराग देव के प्रासाद नगर में हो तो सुख कारक हैं ।।१३२।।
इति पं० भगवानदास जैन कृत शानप्रकाशदीपार्णव के वास्तुविद्या के जिनप्रासादाधिकार की सुबोधिनी माम्नी
भाषादीका समाप्ता ।
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manismewwesaduanwamiALAB
इस ग्रंथ में आये हुये शब्दों का सार्थ अकारादि क्रम ।
अर्कतनया स्त्री, यमुना देवी। अंश प. विभाग, खंड।
अर्चन न, पूजा। अग्नतनन, कार.का भाय ।
प्रर्चा स्त्री. देवमूति । अघोर पु. उपरथ नाम के घर का देव
अर्धचन्द्र पु. प्रासाद की येहली के पाये को गोल प्रम. नपकी संख्या, विङ्ग ।
आकृति, शंम्हावटी, मंडल विशेष, अङ्कित वि०पित किया हुपा।
अर्यमन् पु. वास्तदेव, सर्म, जस्सएकागनी नमन । अङ्गल न. ईच, मांगल।
अलिन्द पु. वरामदा, दालान । अध्रि पु. पैर, धरण, धतुपास।।
अवलम्ब पु. पोलमा, रस्सी के बंधा हुआ मोहे का छोटा प्रविता स्त्री मौकी पांचवी शिला का नाम ।
सा लट्, जिसको शिल्पिवर्ग मांध काम करते प्रनिता स्त्री गर्भरहो मागेाग के मान को कोलो समय अपने पास रखता है। कानाम |
अव्यक्त कि, अप्रकाशित, अंधकार मय, अघटित अएक म. पुन, शिक्षर, प्रामलसार, कलय का
शिवलिंग। पेट, मा
अश्वमेध पु. विशेष का नाम । अदिति पु.तु देखा का नाम ।
प्रदत्थ पु. ब्रहापोपला, पीपल । पति पु. पर्वत, सात की संख्या अधिष्ठान न.भाभार, गती
अश्विन् पु. अश्विनीकुमारदेव, मरचन्द्र के देव
अष्टादश वि. प्रकारह की संस्था । अनन्त पु. व्यासाई के माग के उपयवाला गुबग ।
अमापद.चारों दिशामें माठमाठ सोडीयाला पर्वत । अनिल पु. वायु, वास्तुदेव।
अष्टानक पु. माह कोना वाला संभ मग पु. पारा, कोने के समीप का दूसरा कीमा। अन्तरपान.कलश और केवाल ये होमों परों के बीच
असुर पु. वास्तु देव ।
प्रस पु. कोना, हद। मन्सर अन्तराल ल. देखो मतपत्र, पन्तर अन्धकारिका स्त्री. परिक्रमा, प्रदबिश
प्राकाश न. वास्तुदेव, गुंबन का देव । अधारिफा स्त्री. देखो ऊपर का शब्द ।
प्रागार न. देशलय, घर, स्थान । अपराजित ने, सूत्रसंतान गुणकीति का रवा मा प्रादित्य पु. वास्तुदेव, सूर्य । वास्तुशिल्प का हा ग्रंथ ।
बाद्यसूत्रधार पु. विश्वकर्मा । अपराजिता स्त्री. नींव की छठी शिला का नाम । पाप पु. वास्तुदेव, पानी। अमृतोद्भव पु. केसरी जाति का पाठ प्रासाद । प्रापवत्स पु. बास्तुदेव । अभिषेक पु. देवों का मंत्र पूर्वक स्मान ।
ग्रामलसार पु. शिखर के स्कंध के ऊपर कुमार के प्रम्बर . शिरको ग्रोवाका देव ।
चाक अंसा गोल कलश प्रयुतान, दस हजार की संरूपा।
मामलसारिका स्त्री. प्रामससार के कार को चंद्रिका मर्क पु. सूर्य, बारह की संख्या ।
के कार की गोल प्राकृति !
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सार
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।
माय पु. संशा विशेष जिसे गृहादि शुभाशुभ देखा आतर उरसेघ पू. ऊंचाई। जाता है, माठ की संख्या, लाभ ।
उदक न. पाती, अस। प्रायत बि. लेखाई।
उदच प्रो. उतरविश प्रायतनन. देवालय, थेयों की पंचायतन ।
उदुम्बर न. वारसाखा का नीचला भाग देहली। प्रारात्रिक न. भारती।
उद्गम पु. प्रासाद के दीवार का पाठवां पर जो सीड़ी पार्दा स्त्री. अट्ठा नक्षत्र ।
के मामार वाला है। प्रालय पु. वासस्थान, घर, देवालय |
उमिन पु. चार प्रकार के आतिको माति वाली संत, मासनपट पु. बैठने का आसन, तकीया।
छत का एक भेद ।
उद्भिन्ना स्त्री. सातवौं संदरगा। इन्दु १. चंद्रमा, एक की संख्या ।
उपग्रह पु. नदनों की एक संशा । इन्द्र पू. पूर्वदिशा का स्वामी, दिक्पाल, वास्तुदेव, उपरथ पु. कोने के पास का तीसरा कोना। राम थर का देव ।
उहमञ्जरी स्त्री, उग इन्द्रकील न. समिका जो ना दंड को पाबूत रखने उहशृङ्ग) म. शिखर के भद्र र पढ़ायें के लिये साथ रखा जाता है।
उरङ्ग हुए श्रृंग इन्द्र अब पु. वास्तुदेव
ऊवं त्रि, अंबाई, कार, इन्द्रनील पु. केसरी जाति का तेरहवा. प्रासाद, रत्न उवा स्त्री. बड़ी मूर्ति ।
विशेष । इन्द्र वारुणी स्त्री. बड़ी इन्द्रफला प्रौषधि ।
ऋक्ष न. नक्षत्र, २७ की संख्या । इन्द्रोश पु. संभाविशेष ओ इमारतो काम में देखा
ऋत्विज पु. यस करने वाले, यशवस्ति ।
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इधु पु. पाम की संख्या, बाण. इष्टका | स्त्री. ईट
एकादश वि, ग्यारह की संख्या : সুশিক্ষা
ऐरावत पु. केसरी जाति का २१ चा प्रासाद ।। ईश पु. नंदी थर का देव, वास्तुण, ईशाम कोना का दिपाल, महादेव ।
कङ्ग न. शन्य विशेष, कांग। ईश्वर पु. शिखर की देव, महादेव ।
कटि स्त्री. कमर, घरीर का मध्य भाग । ईश्वरी स्त्री. पौषधि विशेष, शिवलिङ्गी ।
ककन. करणी, मान्यकुमके ऊपर का पर। करणपीठ न. जाध्यम और कशी दो परवानी
प्रासाद की पीठ
कणाली स्त्री. कशी मामा घर उक्षिप्त न. गुबज का ऊंचा उठा हुमा बंदोबा, प्रत । कदाचन प्र. कसी। उत्तरंग ल. वारशा के ऊपर का मथाला । मनीयस् त्रि. छोटा, वधु । उसरा स्त्री. उत्तराफाल्गुनी, उसरापाखा भौर उत्तरा कन्या स्त्री.ठी राशिका माम । भाद्रपद मे सीनों नक्षत।
कपिली स्त्री, कपली, कोलो, शुकमास के दोनों तरफ उत्तानपट्ट पु. बड़ा पार
शिखर के माचार घाला मंस।
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HTRARAMAassassince
सोमाली ती,
प्र मोद मा प र भ पु. मंडोवर का दूसरा पर, कलश । कपोनिका केभान पर।
कुम्भिका रूमी. स्तंभ के नीचे की कुंभी। कर पु. हस्तनक्षत्र, हाथ ।
कुलतिलका स्त्री. पाचहीं संवरमा । करोटक पू, गुं
कंटछाछ म. सज्जा कर्ण न, कोना, पट्टी, सिंहको
कूर्म पु. होना चांदी का कममा, ओ मीथ में रखा कर्णक न, कणी, जो घरों के अपर नीचे पट्टी रखी जाती है।
कर्मशिला स्त्री. कमाए के पियासी पारधी शिला । करणेगूढ पु. खोपा हुया कोना, बंद कोना ।
केसरिन् पु. पांच गाला प्रासाद ।
कैलास पु. कैसरी पाति का पारडई और शम्म करणेदर्दरिका स्त्री. गुंबज के उदय में मीचला पर। कर्णसिंह पु. प्रासाद के कोने पर रखा हुमा सिंह।
जाति का ठारहवां प्रासाद । काली स्त्री. कणी, आयमा के कार का घर।। करिएका स्त्री. घरों के अपर नौधे की पदी, छोटा कोटि स्त्री रोड संख्या, रेखा की एक भुजा
कोना, कोणा और प्ररण के बीच में कोसी को कोट पु. हिला, दुगे । फालना।
कोल न. गुबर के रक्ष में गतालु पर के ऊपर का कर्म न. समुह वाचक, भूगों का समुह । कला पु, मदोवर को तीसरा पर, शिखर के कार कोविद पु. पंडित, मामी । रखा हुमा कलश ।
कोष्ठागार न. कोठार। कलशाकम. कलश का पेट ।
क्षण न, खंड, विभाग। कला स्त्री. रेखा विशेष, सोलडकी संख्या ।
शिति स्त्री. पाटका देवता, पृथ्वी। कलास पृ. सोलह कोना।
क्षितिवल्लभ पु. राज्य मासिका सोलहवां प्रासाद । कषाय पु. पौषधि विशेष
लिस न. लटकती हुई पत। कास्य म.कोसा, धातु विशेष ।
क्षीरम.एष। कामदपीठ न, गमावि रूपयरों से रहिस पीठ। क्षीराव पृ. समुद्र, वास्तुबन्ध विशेष, कारा स्त्री, जेल
क्षेत्र, प्रासादतम। काल पु. दातुष, समय ।
क्षेत्रपाल पु. अमुक मोटिस भूमिका देव । कालन्दी स्त्री, यमुना देवी।
क्षोभरणा स्त्री. कोनी काष्ठ म. लकड़ो। किसुर . किन्नरदेव, पुष्पक के देव ।
खण्ड पु. विभाग, मंजिन, खांड। कोतिवक्त्र न. पासमुख ।
स्वर पु.ट्टा पाय. कोसिस्तंभ पु. विजयस्तंभ, दोरणयाने स्तमा खरशिला स्त्री. जगती के वाया के कार और भौट कोलक न. कोल, 'er
के भी बनी हुई प्रभाव को पारण करनेवाली कुज पु. भगवग्रह।
शिला। कुञ्चिता रुषो. प्रासादमाग के माम को कोली खल्वशाखा स्त्री. बार की मव शाखामों में पोषी पौर
पाठवीं शाखा कुबेर पु. उत्तर दिशा का दिसाम। ' स्वावम. मकान की मोंक।
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खुर । पु. प्रासाद की दीवार का प्रथम पर खुरक । खुरा.
ग्रह पु. नवकी संख्या। ग्रास पु. जलचर प्राणी विशेष । ग्रासपट्टी स्त्री. प्रास के मुखवाला दायरा ग्रोया स्मी, शिखर का स्कंघ मोर मामलसार के नीचे
का भाग । ग्रीवापी, कलश के नीचे का गा।
घट पु. कलश, मामलसार । घण्टा स्वी, कलश, प्रामलसार। घण्टिका स्त्री.छोटी मामलसारिका, संवरण के कलश। धृत न. पी।
ममारकन. देहली के प्रागे पदचद्राति के दोनों
तरफ की फूलपत्ति वली माकृति । गज पु. सातवा वाय, गअपर। गमतालुन. गुंबज के उदय में पकंठ के कार का पर। गजदन्त न.हाथी दांत को प्राकृतिवाला मंडल। गजधर ए. देवालय पोर मकाम ग्रादि बनाने वाला
शिल्पी। गणेश पु. गणपति । गवडान्स पु. सिपि नक्षत्र मादि को संधि का समय गन्धमादन पू. राज्यजातिका बीसवां प्रासाद । गम्धमादिनीपो. बीसी संवरणा। गन्धर्व पु. बास्तुदेव । गन्धर्वा स्त्री. नवशासानों में दूसरी मोर पास्थी शाखा । गरु. केसरी जाति का तेइसकी प्रासाद। गर्भ पु. गर्भगृह । गह्वर न. गुफा। गान्धर्व पु. फेवाल घर का देव । गान्धारी स्त्रो. चार शाखाबासा द्वार। गिरि पु. वास्तुदेव, पर्वत । गुए पु. तान की संस्था, रस्सी, होरी। गुरु पु. बृहस्पति, पांचवां ग्रह । गुह पु. कार्तिक स्वामी। गृक्ष पु. गूढमंडा, दीवार वाल) मंड गृह ने. पर, मकान । गृहक्षल पु. वास्तुदेव गृहिन पु. घरका मालिक । गेह न. घर, मभंगह। गोधूम पू. गेहूं. पाय विशेष । गोपुर न. किला के द्वार आर का मकान । गोमेद व, गोमूत्र के रंग का रल विशेष । हारितिलक न. मंडल विशेष । अन्थि स्त्री. गोठ।
चण्ड पू. महादेव का मादेष, यह शिवगि को अलाबारी
के नीचे स्थापित किया जाता है, जिसे स्नात्र जल उसके मुख में जाकर बाहर गिरता है,
यह स्मात्रजस पीछे दोष का नहीं रहता। चमिछका रुषो. देवी विशेष । चतुरस्त्र बि. समोरस । चतुर्दश स. चौदह की संख्या । चतुहिकका स्त्री, चोको मंप। चत्वरन, पोक, भारता, यज्ञ स्थान । चन्द्र गुहारशाला का देव, चंद्रमा । चन्द्रशाला स्त्री. खुल्ली छत । सन्द्रावलोकन न. खुल्ला भाग । चन्द्रिका स्त्री. यामलसार के ऊपर मौधे कमल को
प्राकृतिकाला माग। चम्पका स्त्री. घशकों संवरणा. चरकी स्त्री. वास्तुचक्र के शाम कोड की देवी । चरभ न. घरलग्न । धाशकार न. धनुष के भाकार वाला मंडल। चार पू. जिसमें पाव पाव भाग सोमह बार बढ़ाया
जाता है, ऐसी संख्या । चित्रकूटा ओ. भारहवीं संघरणा । चित्रा स्त्री. चौदहा नक्षत्र चिन्तास्मन् पु. पाठवा व्यय ।
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चूडामरिण पु. सोलहवीं संबर 1
चुन चुना।
छन्दस् न तल विभाग
छाद्य न धज्जा : छिद्र न छेद।
:
छ
ज
जगती स्त्री. प्रसाद की मर्यादेत भूमि, पीटिका, जङ्घा स्त्री, प्रासाद की दीवार का सातवां पर जम्भा स्त्री. वास्तु के निको की देवी जय पु. वास्तुदेव
जया स्त्री. तीसरी शिक्षा का नाम जलदेव पु. कुमा के घर का देव, वरुण । जलाधिप वास्तु का देव
कुम्भपु.] पीठ के नीचे का हर नीकलता हु
गलताकार थर ।
जानु न छूटना।
जाल म. आलीदार खिड़को
जालक न. मकड़ी का जाला जालोदार खिडकी जाह्नवी स्त्री. गंगा, नानी का देव जिन पु. जैनधर्म के देव, चीबोस की संख्या | जी म. पुराणा ।
जीवन्यास न. देवों की प्राणप्रतिष्ठा । जुर्गा स्त्री. धान्यविशेष, जुवार । ज्योतिष्मती स्त्री, मालकांगनी औषधि विशेष ।
ट
टङ्काभ न यशमंडल विशेष |
प्रा० २५
( २१० )
त
तडाग न. तापाव, सरोवर ।
तत्पुरुष पु. प्रासाद की दीवार के रथ का देव ।
तल न. नीचे का तल भाग ।
नपातु विशेष समा तिथि स्त्री, पंद्रह की संख्या
तोरण व दोनों स्तंभों के बीच में वलयाकार प्राकृति तोरण
.त्रिक पु, चौकी मंडप |
दारु न. काष्ट, लकड़ी, कारीगर दारुण वि. भयंकर ।
दिक स्त्री, दिशा, दश की संख्या । दिक्पाल पु. दिशा के अधिपति देव । दिवसाधन पु. दिशा का शान करने की क्रिया दिङ्मुख वि. प्रासाद, गृह माविका टेढ़ापन | दिङ्मूढ J
दिति पु. वास्तुदेव
दिवाकर पु. बारह की संख्या, सूर्य
दिश स्त्री, दश को संख्या, दिशः । दिशिपाल g. बंधा घर के देव । दीर्घ वि. लंबाई ।
तल्प न शय्या पासून
वि. मजबूत |
तबङ्ग न. प्रासाद के पर प्रादि में छोटी साई के दृष्टि स्त्री, पांख, निगाह |
सोरा वाले स्तंभ शुक्त रूप
त्रिदश पु. दे.
त्रिदशा स्त्री. तेरवीं संचरणा । विधा अ. तीन प्रकार.
त्रिपुरुष पु. ब्रह्मा, विष्णु पोर वि त्रिमूत्ति स्त्री. देखो त्रिपुरुष, उत्तरंग के देव । त्रिंशत् . तीसको संख्या ।
tarang. वैराज्यादि नवयां प्रसाद । पु. त्रैलोक्यविजय पु. राज्यादि पंद्रहवां प्रासाद | त्र्यंश न. तृतीयांश, तीजा भाग ।
द दग्धा स्त्री, तिथि विशेष
दण्द पु. ध्वजा लटकाने का दंड |
दन्त पु. बत्तीस की संख्या, दांत, शिवर दर्पण . पायना, रूप देखने का काम । दल न. फालना, दशाक्षा स्त्री. तीसरी सरला 1
देवगांधारी स्त्री, चौदहवीं संचारला ।
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( २१८ ) देवतायतन पु. देवों की पंचायत
नन्दा स्त्री, प्रथम शिला, वो ईशान प्रथका अग्नि को देवनक्षत्रन, देवारापाले नक्षत्र।
में प्रथम स्थापित किया जाता है। देवपुर. देवनगर
नन्दिन् पु. महादेव का वाहन, बैल, सोह! देवसुन्दरी स्त्री. चौथी संवरणा।
नन्दिनी स्त्री. पंचशाखा वाला द्वार, आपकुम्भका देव, देय वि. संबाई ।
दूसरी संवरणा। बोला स्त्री. झूला । हिंडोला ।
मन्दी स्त्री, कोणी, भद्र के पास की छोटी कोनी। दोबारिक पु. वास्तुदेव ।
नन्दीशपु. केसरी जाती का पांच प्रसाद द्राविड पु. प्रासाद को एक जाति ।
मर पु. नरवर. पुरुष को प्राकृति वाली पट्टी। द्राविकी पु. अधिक मोवालो प्रासाद की दीवार,
नर्तकी स्त्री. नाच करती हुई पुतली। अंधा।
नलिका स्त्री. नवी संबरखा। द्वादश सं. बारह की संख्या
नवनाभिः पु. यज्ञमंडल विशेष ! द्वार न, दरवाजा
नवमङ्गल पु. राज्यादि १६ प्रासाद द्वारपालपु. द्वारका रक्षक, चौकीदार ।
भष्टच्छन्द पु. जिसकी तलविभक्ति पराबर न हो। : . दिरष्ट सं. सोलह की संख्या।
पु. वास्तूदेव साथी।
नागकुल पु. मौट्ट पर के देव ! घनद पु. उसर दिशा का अधिपति कुबेर देव । नागर पु. प्रासाद की एक बासि । धनुः म. नववीं राशि, धनुष्य ।
नागराखी. ऊपर का अर्थ देखो। घरणी स्त्री. गर्भगृह के मध्य होंव में स्थापित नवी नागरी स्त्री. रूपविनाको सादी अंधा। शिला।
नागवास्तू पु.न. शेषनाग चक्र, राहमुख । घराघर पु, कपिसी मंडप के देव ।
नाटय शयु. नटराज। धिष्ाय न.२७की संस्था । नक्षत्र
नाभि श्री. मध्यभाग। धूम पु. दूसरा भाप ।
नाभिच्छन्द पु. दो जाति की मिश्र भाकृति वाली का । धव पु. उत्तर दिशा का एक तारा, तारा ।
नाभिवेधपु. गवेष।
. .. .... ध्वजपु. पहला पाय, ध्वजा।
नारायणी स्त्री. माधवीं संकरण। ध्वजा स्त्री. पसाफा, झंडा, पजा।।
माल म, नाली, पानी नीकलने का परनाला ध्वजादंड पु. ध्वना रखने का दंड, जिसमें या
माली स्त्री, देखो ऊपर का मर्य। लटकाई जाती है।
नासकन.कोमा। ध्वजाधार बजादा रखने का फलाना
निराधार पु. दिना परिकमावाला प्रकार मय प्रासाद चांक्ष. पाडवो माय, काक।
निर्गम पु. बाहर मीकलता हुमा भाग । न
निशाकार पु. भामसार का देव, चंद्रमा । नकुलीश पु. अध्वरेता महादेव। .
निःस्वन पु. शब्द मगर न. गांव, शहर ।
नृत्य पु. नृत्यमंडप, रंगमंडप ।
नेऋत पु. नैऋत्य कोणके अधिपति दिक्पाल । नन्द पु. मेव की संस्था । नन्दन पू. केसरी जाति का तीसरा पौर राज्यादिका दूसरा प्राधाद!
पक्षिराज यु.केसरी बाति का ३वां प्रासाद, नन्दशालिक यु. केसरी बाति का चौथा प्रासाद । पञ्चसं, पांच की संख्या ।
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EMPithan.
( २१६ ) पञ्चगव्य न. पाय का दूध, दही, घी, मूत्र और गोबर। पिशाच पु. क्षेत्रमरिणत के प्राय और व्यय दोनों बराबर पञ्चविंशत् सं पैतीस की संख्या ।।
जानने की संज्ञा । पञ्चदेव पु. ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य ईश्वर और सवासिष पीठ म. प्रासाद को खुरसी, मासन ।
ये पांच देवों का समूहजाग के देव । पीलीपीछ। स्त्री. वास्तुचक के ईशान कोण की देवी । पश्चात् सं. पचास की संख्या ।
पुनर्वस पु. माला नक्षत्र । पट्ट पु. पाचारण का पाट ।
पुरन. गांध, शहर। पट्टभूमिका स्त्री. अपर को मुख्य खुली छत ।
पुरा न. पठारह की संज्ञा पशाला स्त्री, दलामा, रामा ।
पुरुष दु. प्रासाद का जीव, जो सुवर्ण का पुरुष बनाकर पताका स्त्री. १
मामलसार में पलंग पर रखा जाता है। पत्रशाखा स्त्री. द्वार की प्रथम शाखा का नाम ! पुष , वास्तुदेव। पद न. भाग, हिस्सा
पुष्पकठपु, दाता, अंतराल । पनकपु. समतल छत ।
पुष्कर न. जलाश्रय का मंडप, बलाक ! गयकोश पु..
रमाकार।
पुष्पमेह न. पूजनगृह । पद्मपत्र न. पत्तियों के प्राकार धामा थर, दासा ।
पुष्पदन्त पू. वास्तुदेव । पहराग पु, केसरी जाति का १८ यो प्रासाद | पुष्पराग न, पुखराज, रल विशेष । पशिला स्त्री. गुम्बज के कर की मध्यशिला, यह पुष्पिका रू. गुम्बद क पर बना
पुष्पिका स्त्री. गुम्बद के पर बनी हुई प्रथम संघरहा। नीचे लटकती दिखती है।
पुष्य न. पाठया नक्षत्र । पद्मा स्त्री. पद्मशिला, ग्यारहवीं संवरगा।
पूतना स्त्री. वास्तुचक्र के नरक कोण को देवी । साक्ष पु. पापण (वासा) के देव ।
पृथिवीजय पु. केसरी जाति का बारहवां प्रासाद । पधिनी लौ नवशाखापालाद्वार।
पुषिधोधर पु. पास्तुदेव । पबासन न. वेब के बैठने का स्थान, पीठिका है
पृथु वि. विस्तार, चौड़ाई। पर्जन्य पु. वास्तुदेव, ध्वजा का देव।
पेट । न. पाट मादि के नीचे का साल । पर्यपु. पलंग, खाट ।
पेटक पर्वन् म. खादंड की दो चूडी का मध्य भाग ।
पौरपु. दूसरा व्यय का काम। पर्वत पु. स्तंभ का देव। .
पौरुष पु. प्रासाद पुरुष संबंध की विधि । पत्य . पलंग, खाट ।
पौली स्त्री. प्रासाद को पोल के भोरे भीट्ट का पर। पाद पु, शरण, चौथा भाग)
पौष्ण्यम, २७ वा रेवती ममत्र। पापराक्षसी स्त्री, वास्तुचक्र के बायु कोलाकी देवी ।
प्रणाल न. पानी निकलने की नाली, परनाला । पार्वती स्त्री. कलश के देध ।
प्रतिवर्ण म.कोम के समीप का दूसरा कोना। पाव पु. न, एक तरफ, प्रभीष ।
प्रतिभद्र न. मुखभद्र के दोनों तरफ के खांचे। पासवमाछत्रा के ऊपर छाय का एक पर।
प्रतिरथकोनेके समीप का चौथा कोमा। पि वि. जमाई, मोटाई।
प्रतिष्ठा स्त्री. देवस्थापन विधि पितामह पु. ब्रह्मा।
प्रतोली स्त्री. पोल, प्रासादादि के मागे तोरणमा पित पु, वास्तुदेव, पूर्वज, पितर देव ।
दो संभ। जिपति पु. यम, दक्षिण दिशा का विक्पाल । प्रत्यङ्गन, शिखर के कोनेके दोनों सरक संथा पिपल पु. लक्ष, पाकर, पिलखन ।
चतुपाश मानका ।
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( २२० । प्रदक्षिणाली. परिक्रमा. फेरी।
भल्लाद पु.वास्तुदेव । प्रशोत.तीसरा व्ययका माम |
भवन न. प्रासाद, मंदिर, मकान, गृह । प्रभा स्त्री. तेज, प्रकाश
भाराधार पु.शिरावटी घर के पूजनीय वेद । प्रवाल म. मूमा, रलविशेष ।
भिद्रपु. प्रासाद की पीठ के नीचे का पर। प्रवाह पानीका बहाव ।
भित्ति स्त्री. दीवार । प्रवेश परों के भीतर का माम।
भिन्न न, सूर्यकिरणा मादि से भवित गर्भगृह, दोध विशेष, . प्रहार , भूगों के नीचे का पर।
वितान (छ.) की एक आति । प्राक् स्त्री. पूर्वदिया।
भुवनमण्डन पु. वैर ज्यादि चौवहां प्रासाव । प्राकार सिला, कोट, दीवार ।
भूतन. पांच की संख्या, धियादि पांच तत्व। प्राग्ग्रीव पु. प्रासाद के गर्भगृह के मागेका मंडर। भूधर यु. केसरी जाति का पंद्रहवा पोर बंशज्यादि प्राची स्त्री. पूर्वदिया।
___माति को तेरहवां प्रसाद । प्रासाद पु. देवमंदिर, राजमहल ।
भूमि स्त्री, माल, मंजिल । लक्ष पु. वृक्ष विशेष, काकर, पिलखन !
भूमिज | पु. प्रासाद की अति विशेष । प्लव पानीको बहाव ।
भुमिजा
भृङ्गराज पु, पारसुदेव । फरिणमुख न. शेषनामका मुख, यह नींव खोदने के प्रारंभ
भृश पु. वास्तुदेव ।
भ्रम पु. परिक्रमा, फेरी। फालना स्त्री.प्रासाद की दीवार केसांचे।
भ्रमणी स्त्री. परिक्रमा, फेरी । फांसना श्री. प्रासाद की एक आति विशेष
भ्रमन्तिका स्त्री. देखो ऊपर का शब्द !
भ्रमा स्त्री, प्रासाद के 3 भाष के मान को कोली मस: बङ्गन, कलई मामको धातु बला न. कक्षासन बाला मंप, गर्भगृह के बलारणक। भागे का माप, मुखमंन ।
मकर पु. मार के मुखमाली नाली।
मञ्ची स्त्री. प्रासाद से दीवार की अंधा के नीचे राण पू. पांच को संख्या, शिवलिंग ।
और देवाल के ऊपर का पर विशेष । वीजपुर न. कलर के ऊपरका बीजोरा ।
मारी स्त्री. प्रासादका शिखर अथवा न। ब्रह्म पु. ब्रह्मा।
म. ए. ऋषि माश्रम, धर्मगुरु का स्थान । ब्राह्मथन. रोहिणी नक्षत्र
मण्डन पु. एक विद्वान सूत्रधार का नाम, जो १५ नों
शताब्दि में चित्तोट के महाराणाभकाई। भक्ति स्वी, १२ की संख्या ।
के प्राश्रित या प्राभूषण । भग्न वि. संहिता
मण्ड पु. गर्भगृह के मागे का ग्रह। भद्रन, मंडल विशेष, प्रासाद का मध्य भाग ।
मण्डलम गोल प्रादि प्राकार वाली पूजन की माकृति । भद्रक पु. भासा स्तंभ
मण्डुको स्त्री, वाह के ऊपर की पाटली जिसमें भद्रास्त्री नोंद को दूसरी शिलाका नाम, तिथि विशेष । ध्वजा लगाई जाती है। भरा म.प्रासाद की दीवारामौर स्तम के मण्टोवर प. प्रासादकी दीवार।
मत्तवारण न. कटहा।
....
MAHARANAMAks.singanee
भरणी
कार का पर।
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-
:
3
मत्तालम्ब पु. गवात, झरोखा, बाबा, ताक मन्त्र न जान विशेष ।
मध्यस्था स्त्री. प्रासाद के भाग के मान का कोलो
मंडप का नाम |
मनु पु. चौदह की संरुप |
मनोहर पु. पांचवां व्यय का नाम ।
( २२१ )
cant eटकार्ड जाती है । मलय पुं. राज्यादि ड्डा प्रासाद । महानसन रसोई घर, रसोडा । महानोल पु. केसरी जाति का १४वा प्रासाद । महाभोग पु. राज्यादि २४ महीधर पुजा १७व प्रसाद महेन्द्र दु. वास्तुदेव |
प्रासाद ।
मा . मंडप, मंडवा |
मन्दर पु. केसरी जाति का छटा प्रासाद | मन्दरा स्त्री. इक्कसवीं संवरणा।
मन्दारक पू. प्रसाद को एक जात की छत ।
एक नक्षत्र ।
मन्दिर पुं. राज्यादि पनि प्रसाद देवालय मरुत् पु'. वायुदिशा का प्रधिपति, दिपाल 4
मूलक न. पुं. शिखर के नीचे का कोना ।
मर्कटी स्त्रीवा के कार की पाटली, जिसमें मूलरेखा स्त्री, शिखर को सीने के दोनों को के बीच
का नाप, कोना ।
व के चारों तरफ घूमते हैं।
मालिनी स्त्री. छह सालावाले द्वार का नाम, २२ बों
संवरणः ।
माहेन्द्र पुं. राज्य दसवां प्रासाद माहेन्द्री स्त्री. पूर्वदिशा
मुक्ता स्त्री. मोती ।
मुखभद्र न. प्रासाद का मध्य भाग । मुखमण्डप पु. गर्भगृह के प्रागे का मंडप बनाए । मुख्य पु. चक्र के देव ।
मुoलोक न. दमा के ऊपर का एक पर |
मुद्ग पु. मूंग, घाव्य विशेष ।
सूट न. रेडर, तोच्छ ।
मूल म. क्षेत्रफल, क्षेत्र की लंबाई मोर चोदाई का गुणा
कार को २७ से भाग देने से जो शेष बचे वह मूलराशि माना जाता है। दीने का भाग
मातृ स्त्री मातृ देवता |
मार्केटिका स्त्री. तारे के समीप का वो साथ जो मेत्र्थ न मनुराधा नक्षत्र
मित्र पु. वास्तुदेव
मिश्रका स्त्री प्रासाद की एक जाति । मिश्रसंघाटन अंबानीचा बांबा वाया तुम्बद का दोष छ
मीत पु. सूर्य की १२वीं संक्राति १२वीं राशि, मधुली । मोनार्क पु. मीनराशि का सूर्य मीन संक्रान्ति मुकुटज्ज्वल पु. केसरी जाति का २०वां प्रासाद | मुकुली स्त्री. पाठ शाखाकाले द्वार का नाम ।
सूपा स्त्री. लंबा पदि ।
मृगम, मृगशीर्ष नक्षत्र, मकर राशि, वास्तु देव । मृगार्क पुं. मकर राशि का सूर्य मकर संक्राति । मूत् स्त्री मो ।
मेखला स्त्री. दीवार का खांचा ।
मेढ़ पु पुरुष चिन्ह, लिंग ।
मेरु दु. प्रासाद विशेष, एक पर्वत । मेरुकुटोद्धया स्त्री पचीसवीं संवरणा
घ
यक्ष पुं. आप से कम व्यय जानने को संज्ञा देहसी का देव ।
यक्ष्मन् पु'. वास्तुदेव ।
यज्ञाङ्ग १. वृक्ष विशेष, गुलर ।
यम पु. दक्षिण दिशा का दिक्पाल, वास्तुदेव, भरणी
नक्षत्र ।
गर्भगृह ।
यमांश पुं. क्षेत्रफल का नाम विशेष | यमतुल्ली स्त्री. सम्मुख यव पु. जय, धान्य विशेष | यान न, आसन, सवारी,
याम्या स्त्री. दक्षिण दिशा
युग्म न. दो की संख्या
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योगिनी शे पोसठ देवी, योनि स्त्री. मंडल विशेष ।
सूक्ष्य मंडप
रजत न, चांदी, धातु विशेष
रत्नकूट पु. केसरी जाति का सोलहव प्रासाद । रत्नगर्भा स्त्री. पंद्रह संबर 1
र
रंगभूमिस्त्री गर्भगृह के सामने पांच मोगा मंडप रेखा हवी. लांबा, कोना
रोग . वास्तुदेव । रोहिणी स्त्री. घोषा नक्षत्र
रौप्य न चांदी का बना हुआ !
रथिका स्त्री. भद्र का गयाथ, पाला । रन प्रवेश द्वार
( २२२ )
रूपकण्ठ पु. गुम्बद के उदय में दरिका के ऊपर
का पर
ल
शीर्ष दिसत J रत्नसम्भवा स्त्री २४वीं संचरण ।
लक्ष्मीनारायण पु. विष्णुदेव लक्ष्य त. उद्देश्य चिह्न
reg. विशेष प्रकार की गाडी, कोने के समीप का दूसरा लतालिंगोद्भव न मंडल विशेष । कोना, फाजता विशेष | लतिन पुं. प्रासाद की एक जाति
रथा स्त्री. प्रासाद की जाती विशेष ।
लतिना स्वी. प्रासाद की एक जाति ।
रोति स्त्री, पित्तल, धातु विशेष ।
रुचक पु. समोर संभ
रुद्र - ग्यारह की संख्या, वास्तुदेव । रुद्रदास पु. वास्तुदेव,
रूपस्तंभ पु. द्वारशाला के मध्य का भ
<
रम्या स्त्री घडी संदरला ।
रवि . बारह की संख्या, सूर्य रश्मि पु. किरण ।
रस पु. छह को संख्या 1
राक्षस पु. प्राय से *य अधिक जानने की संज्ञा ।
राजगृह न. राजमहल 1
राजपुर न राजधानी का शहर, राजनगर । राजमन्दिर न. राजमहल 1
राजमार्ग पु. सार्वजनिक आम रास्ता । राजसेन न. मएम की पीठ के ऊपर का पर राजहंस पु. केसरी जाति का २२ व प्रसाद राजांना पु. क्षेत्रफल का नाप विशेष
राम पु. तीन की संकपा (राम, परशुराम और राम रासन . सर माय का नाम
राहुल न. शेषनाग का मुह । रिक्ता स्त्री मोह की योगी शिला ४, ९ र १४ वलभी स्त्री प्रासाद की एक जाति ।
तिथि।
वल्कल पु. मोषधि विशेष ।
लय न. मकान, ग्रह
earer स्त्री. eatgatanली प्रासाद को गंभा लिङ्गोद्भवमा
विशेष | लोहपू. धातु विशेष,लोहा | iter
वक्त्र नं. मुख ।
वडा न. हीरा ।
पू. केसरी जाति का १६ म प्रसाद । art स्त्री. भीषधि विशेष, गी वट पु. वृक्ष विशेष, दर बढ़ वरस पु. प्रकाशी कल्पित एक संज्ञा । वपुस् न, शरीर । वराटका स्त्री. प्रासाद की एक जाति । बराल पुं. पास, अलवर जीव विशेष, मगर वरुण पु. पश्चिम दिशा का दिक्पाल, वास्तुदेव | मान पु. प्रतिकर्णवाला स्तंभ |
वसु पु. पाठ की संख्या, माठ देव विशेष ।
वह्नि १. ममिको का दिक्पाल, अग्नि, वास्तुदेव, चित्रक प्रौषधि ।
वह्निभ न. कृतिका लक्षण ।
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वाजिन् पु. परवथर, घोडा का पर।
विशाल पु. वैराज्यादि माठवां प्रासाद | वानरेश्वर पु. हनुमान देन ।
विश्व म, जगत्, तेरह को संस्था । दापी स्त्री. वावडी।
विश्वकर्मन् . जगत की रचना करने वाला देवदामन म. मंडप के व्यास के प्राधे मान के उदपवाला शिल्पी
गुम्बद, प्ररथ का देव, जगती के प्रागे का विष्णुकांता स्त्री. भौषि विशेष अपराजिता बखाणक मंडप ।
विस्तीर्ण वि. विस्तार वायव्य पु. बायकोना
वीतराग पु. रामरहित जिरदेव । बायस'. ध्वांशपाय, कौमा।
वृत्तवि, मोनाई। वाराह पु. मंडप के व्यामा के 3 मान के उपयवाला वृद्धि वि. चढ़ाना । गुम्बद । खरशिला का देव ।
वृष पांचवीं पाय, नंदीगण, वृषण । वारि न. पानी, जल।
वृषभध्वज पु. केसरी जाति का २४ प्रासाद । बारिमार्ग म. दीवार से बारह नोकला हुमा खांचा ।। वेदपु. चार की संख्था। वारुणन, शतभिषा नक्षत्र, .
वेदिका स्वी.पीठ, प्रासाद सादिका प्रासन। वासवान. अमिष्ठा नक्षत्र ।
वेदी श्री. राजसेन के ऊपर का पर, पीठ वास्तु पु. न. निवास स्थान, गृहारंभादि में विशेष प्रकार वेश्मन् म, मंदिर, घर । की देवपूजन विधि।
गुर्ग पु. केसीका मा १७ वा प्रासाद, रत्न विशेष । वाहन म. सवारी, गाडी।
वैधृति पुसत्यावीस योग में से एक योग । विघ्नेश . गणपति, गणेश ।
वैराज्य पु. प्रासाद को एक जाति । विजयानन्द यु. बराम्यादि २२वां प्रासाद ।
वेराटी स्त्री. प्रासाद की कममपत्र बाली दीवार । वित्तथ वास्तु मंडल के देव ।
वैष्णव, श्रवण नक्षत्र । विदारिका स्त्री वास्तुमएइल के प्रग्नि कोने की देवी। व्यक्त वि. प्रकाशवाला ! विद्याधर पुं. गुम्बद में तृस्म करने वाले देवरूप । ध्यङ्ग वि. टेवा फेवाल पर का देव।
व्यजनन पखा। विधि पु. वास्तुमण्डल के देव, ब्रह्मा ।
व्यतिक्रम वि. मर्यादा से मषिक। विषु पु. पन्द्रमा, एक संख्या ]
व्यतिपात पु, ससावीस योग में से एक मोग । विद्ध किं. वेष, कावट।
भ्यय पु. माठ की संख्या, सर्व । विपर्यास पु. विपरीत, उलटा। .
व्यास पु. विस्तार, गोल का समान्तर दो भाग करने विभव पु. सातवां गय ।
पाली रेखा। विमान, राज्यादि साता प्रासाद, राजद्वार के पागे व्योमन् न. अन्य, माकार। का बखाणक भएम।
श्रीही स्त्री. अब, माय विशेष । विमानना स्त्री. प्रासाद को एक जाति । विमाननागरच्छन्दा स्त्री. प्रासाल की एक जाति ।। शक पु. बौदह की संख्या, इन्द्र। विमानपुष्पका स्त्री. रासाद को एक आदि ।
शङ्कर पृ. ईशानकोन, महादेव । विलोक्य पुस्खुला भाग।
पृ. छाया मापक मं। विवस्वन , बास्तुमएडल का देव, पूर्य ।
शशावत. प्रासाद की देहली के मागे की भर'चंद्र विशति सं. बीस की संख्या।
कपाकारवाली शेख और लतामों मासीमास्ति।
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( २२४ ) शंखिनी स्त्री. शंखावली, औषधि विशेष ।
श्रीवृक्ष पु. केसरी जाति का सातवा प्रासाद सपल न. मोगा ।
श्वान पु. चोथा प्राय । शतार्द्ध सं. पचास की संख्या। शम्भुदिशा स्त्री. ईशाम कोन कायनासन शेषनाग की शय्या ऊपर शयम करने
षद सं. छह की संभया वाला विष्णुदेव ।
षड्दार न, दो दो स्तंभ और उसके अपर एक एक पाट। शस्या हश्री. प्रासाद के 3 भाग के मान को कोलीमंडप ।
षष्टि सं. साठ की संख्या। शाखोदर न. शाखा का पेटा भाग ।
षोडश सं. सोलह की संस्था । शाम पु. प्रथम व्यय । शालञ्जिका स्त्री, मांच करती हुई पाषाण की संबरला स्त्री. अनेक छोटे छोटे कलशों वाला गुम्बद । पुतलीयां।
सकलीकरण न. येव प्रतिभा की विधि विशेष । शाला स्त्री. प्रासाद, गमारा. छोटा कमरा, भद, परशाल सबाट पु. तल विभाग।. समदा ।
सत्य पु. वास्तुमंडल का देव । शाली स्त्री, चावल, मान्य विशेष.
सत्रागार न. यशसाला । शिखर न. शिवलिंग के धाकार बाला गुम्बद ।
सदाशिव कलशका देव, महादेव । शिरन. शिखर शिरावटी, प्रासमुख, एक संख्या वाचक। सद्य पु. कोना का देव । शिरपत्रिका स्त्री, ग्रास के मुखवाली पट्टी, दासा।
सन्धि स्त्री, सांथ, जोड। शिरावटी स्त्री. भरणी के कार का पर।
सध्या स्त्री भद्रयर का येव । शिला स्त्री. नींव में प्रथमवार रखी जाती पाषाण शिला। सप्त सं. सात की संख्या 1 शिव पु ईशान कोन. महादेव ।
सप्तविंशति सं. ससावीस की संख्या । शिर्ष न. भरणी के ऊपर का थरशिराबटी।
सभामार्ग पु. तीन प्रकार की प्राकृति वाली छत । शुकदास ने, प्रासाद को नासिका।
सभ्रमा स्त्री प्रसार के माम के मान का फोली मएकप शुक्र . छा ग्रह, यश्नाचार्य।
समुद्भवा स्त्री. बारहवीं संवरणा। शुक्ला स्त्री, नौत्र में प्रथम रखी जाती सातबी शिला। समोसरणन, तीन प्राकारणाली दी। शुष्टिकाकृति स्त्री. हाथी।
सरस्वती स्त्री. मंपिका घर का देवता । शुद्धसद्धाट म, बद का समतल चंदोषा, खत
सर्वतोभद्रपु. केसरी जाति का दूसरा प्रासाद । शृजन. शिखर, छोटे छोटे शिखर के प्राकार पाले सद्धितिलक प. वैराज्यादि प्रासाद। अंडक.
सर्वाङ्गसुन्दर पु. वैराज्यादि २१ का प्रासाद । शेष पु. वारसुमंडल का देव ।
सवित पु. वास्तुमंडल का बेग, सूर्य । शलज पु. पाधारण का बना झुप्रा ।
सहदेवी स्त्री. औषधि विशेष । शैलराज पु. मेह पर्वत ।
सान्धार पु. परिक्रमावाले नागर जाति के प्रासाद। श्रवण न, २२वा नक्षत्र,
सान्धारा स्त्री. प्रासाद की जाति । श्रियानन्द पु. धौथा व्यय ।
सारदारू पु. श्रेष्ठ काष्ठ, श्रीनन्दन पु. राज्यादि चौथा प्रसाद ।
सावित्र पु. वास्तुमंडल का देश : श्रोवत्स . छठा व्यय, प्रसाद विशेष, एक ही सादा सावित्री स्त्री भरणी घर का देवता ।
सिंह पु. तीसरी प्राय, वैराग्यादि प्रसाद
. . ।
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सिंहगाखा स्त्री. मार को नववीं शाखा
स्कस्य पु. शिस्लर के उपर का माग सिंहस्थान न. शुरुमास ।
स्तम्भ पू. श्रभा, स्वंमा, ध्वपादक सिंहा पु. सिंह राशिका सूर्य ।
स्तम्भवेध पु. ध्वाधार, कलाया। सिंहावलोकना स्त्री. प्रासाद को एक जाति । स्तोत्र न. स्तुति । सितशृंग पु. वैराज्यादि १२को प्रासाद ।
स्थ राहल में, प्रतिष्ठ मंडा में पानु परेती) को वेदी सिद्धाश्रम पु. सिद्ध पुलों का निर्धारणस्थान ।
जिसके कार देव को स्नान कराया जाता है। सीसकन, सीसा, पातुविशेष ।
स्थावर म. प्रासाद के पर, शनिबार । सुग्रीव पू वास्तुमंडल का देव ।
स्थूल वि. मोटा। सुनोल न, प्रच्छा मोलम रत्न |
स्नानादक न. स्नान जल, चरथामृत। सुप्रभा स्त्री. दो शाखायामा द्वार का नाम |
स्मरकीति स्वी. एक शाखा आमा द्वार । सुभगा स्त्री. तीन शाखाबाला द्वार ।
स्वयम्भूपू. विना पवित शिवलिन । सुर यु. मसराल घर का देव ।
स्वर्ण न. सोना। मुरवेश्मन्म देवालय, देव मंदिर ।
स्वस्तिक न. वास्तुमंडल विशेष । सुवर्ण म. सोना, धातु विशेष |
स्वाति स्त्री, पतहा नक्षत्र । सुषिर म. छेद, पोलापन । सूत्रधार पु. शिल्ली. मंदिर और मकान आदि बनाने हरि यु. करिएका का देव, विषा वाला कारिगर
हH न. पर मकान । सूत्रारम्भ पु. नींव खोदने के प्रारंभ में प्रथम वास्तुभूमि म्यशाल पु धर के द्वार कार का बलापक
. में कीले ठोककर उसमें सून बांधने का मारम | हस्तपु. तेरहवा नक्षत्र, हाथ। सूयपु. बारह की मिया, बास्तुदेव, द्वारशाखा के क स्तान. एक हाथ की एक अगुज, दो हाथ की सष्ट मो. दाहिनी पौर से गिनना, उत्पत्ति, पृथी ।
यो प्रयुग, इस प्रकार REF मा अरावर सोपान न. सीडी।
अंगुन संख्या। सोम पु. वास्तुमंडल का देव ।
हस्तिनी स्त्री. भात शालावाला वार । सोध पु. राजमहल, हवेली।
पु केसरी जातिका जवप्रासाद । सौभागिनी स्त्री. पाठशे शिला का नाम ।
हिमा स्त्री, १६वौं संवरणा । सौम्य पु.शुभग्रह, बुध ।
हेमकूट पु. केसरी जाति का १५वा प्रासाद । सौम्या स्त्री. उत्तर दिशा।
हेमकूटा स्त्री, एनी संवरणा। स्कन्दा स्त्रो. वास्तुमंडल के कृत्य कोन की देवी।
ह्रस्व वि. छटर, कम होना, न्यून ।
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शुद्धि-पत्रक
पृष्ठ लाईन १३ १३
अशुद्ध गुणी विश्वकम पासाद प्रोर ऽस्ताव
शुद्ध वगुणी विश्वकर्म प्रासाद और यस्ताद बेदाचे
१०२
कुमा
दव
पृष्ठ लाईन अशुद्ध शुख
१३ प्राधादिषु प्राण्यादिषु १११७.१३,१६-२३, इन चारों क्षेत्र के माप में
२०.१६, २१-२३, देवगण मचा नहीं मिलता १२ २२ विमुखे विमुखे .. २३ १५ कुमा
पंस साधत: सार्थतः मूमणीमई भ्रमणीनी यो । को दो भाग की सदूध्दतः सर्वतः दिगविशति विधिशक्ति पादांच
पादास মায়া মনিং सूर्धाधः मूर्धा: काँगका कणिका
समाबें चतुविशति पविशति 18 उदयक ने उदय करने
छाघसस्थाने छाघसस्थाने fभाग
करतो करें हो
जमाव .एसौनी एक एक घंटो भद्राच
मनाई सामों যদিম विस्तर विस्तरा: अपराजिप्रपृच्छा अपराजिता
समुद्धरेद गया हो गया हो
१४६
. ४५: * * . . * * , * * १ . ५ . ** - २ :
समुखरेत
बवावें
सम्मोः कतं व्या वाहिनी और
सम्भोः कसंध्या दाहिनी ओर
गर्भ
गर्म
गर्भ
गर्भ
१५२
भोषाह
भोपपह कुंबसिदि मागत: अधिक
मान उन्छयेरा विखण्डत हस्तानल प्रकीसित बजार
না उच्च बेश त्रिखण्डात हस्ताङ्गल प्रकीत्तितः भवनादेड
मार्ग: अधिक काशका कोशीया उचङ्ग मार्ग
कोलीमों
६३
१२
१७५
१६
भामा
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लाईन
शुद्ध
___ लाईन
२३
( २९७ ) पशुस शुद्ध पृष्ठ चतुष्टय शको बतुष्टपंशको २०८ उरुङ्ग .. इन्दनीस
इन्द्रनील 'ख' के बाद या मोर कोने के २२ मा मेटर- पर से एक
शृग हटा करके उसके २१४ बदले शिक्षक २१५
शुद्ध तस्त्रमा बड़विशषद क्षेवरूष षश्चम
सत्प्रमार অখি वैधरूप
पञ्चम् पुरमभ्ये
३
पुरमध्ये
खंड
खांड शिवगिकी संपारणा
१५० १९२ २५ १९५४
प्रत्यक्ष तिलक दिपद
शिवलिंग की राषरा देव ध्यय का नाम
सिसक दिग्द
२१६
२६ २३
यवका काम
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________________ अनुवाद के महायक ग्रंथ ग्रंथ कर्ता भुवनदेवाचार्य विश्वकर्मा मडल सूत्रधार 1 अपराजितपृच्छा 2 क्षीराव 3 ज्ञानप्रकाश दीपाय 5 সশস মন 5 देवता मुक्ति प्रकरण 6 रूपमंडन 7 समरांगण सूत्रधार छ वास्तुसार 6 मयमतम् 10 शिल्प रत्नम् भाग 1-2 11 विश्वकर्म प्रकाश 12 काश्यप शिल्पम् 13 शिल्प दीपक 14 परिमाण मंजरी 15 जिन संहिता 15 बृहत्संहिता 17 विवेक विलास 18 बृहच्छिल्पशास्त्र 19 प्रासाद मंडन भाग. 1 20 शिल्प रत्नाकर 21 मानसार शिल्पशास्त्र 22 विश्वकर्म वास्तु शास्त्र 23 मुर्त चिन्तामरिंग 24 प्रारंभसिखि कात्तिक 25 সবিস্তাৰাৰ महाराजा भोजदेव ठकर फेरु मय सूत्रधार..... कुमार मुनि विश्वकर्मा महर्षि काश्यप गंगाधर সল সুগাং एक संधि भट्टारक वराह मिहिर जिन दत्त सूरि जगननाथ अंबाराम सोमकुरा अंबाराम विश्वनाथ सोमपुरा नर्मदाशंकर सोमपुरा मान सार ऋषि विश्वकर्मा श्री रामदेवश उदयप्रम देवसूर बसुनंदी