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________________ २१ मन्दिर या प्रासाद को देवता का भावाय माना गया। तब यह कल्पना हुई कि देवता के स्थान पर निरंतर असुरों की पक दृष्टि रहती है । प्रतएव असुरों के निवारण या शांति के लिए पूजा-पाठ करना Mrates है। प्रासाद--मंडन में इस प्रकार के चौदह शान्ति कर्म या शान्ति गये हैं । यथा (१) जिस दिन भूमि परीक्षा करने के लिए उसमें खाकर्म किया जाय, (२) जिस दिन कूर्म शिला की स्थापना की जाय (३) जिस दिन शिलान्यास किया जाय (४) जिस दिन तल निर्माण या तल-विन्यास के लिए सूत्र -मापन या सूत्रपातन (सूत्र- छोड़ना) द्वारा पदों के निशान लगा आय; (2) fre दिन म से नीचे के घर का पहला पत्पर, जिसे खुर-शिला कहते हैं (फारसी पाथर वाकन्वाज) रक्खा जाय; (६) जिस दिन मन्दिर द्वार की स्थापना की आय; (७) जिस दिन मंडप के मुख्य स्तम्भ की स्थापना की मंडप के स्तम्भों के ऊपर भारपट्ट रखा जाय; (2) जिस दिन शिखर की चोटी पर (१०) जिस दिन गर्भ गृह के शिखर के लगभग ale में gearer ar arfसका की ऊंचाई तक पहुँच कर कंपा सिंह को स्थापना की जाय; (११) जिस दिन शिखर पर हिरण्यमय प्रासादप की स्थापना की जाय (१२) जिस दिन घण्टा या तूमट पर श्रामलक रक्खा जाय, (१३) fte for enter feer के ऊपर Fat को स्थापना की जाय; (१४) और जिस दिन कलश के बराबर मंदिर पर ध्वजा किया जाय 1 और संख्या ३ को कुछ लोग अलग मानते हैं किन्तु य द कूर्मशिला को एक ही पद माना जाय तो उनकी सूची में केवल १३ शान्ति कर्म होते हैं और तब चौदहवां शान्ति देद-प्रतिष्ठा के अवसर पर करना आवश्यक होगा (१२३७०३८) जाय; (4) जिस दिन चला रखी जाय; विभाग किए जा सकते हैं। इसका प्रसाद के गर्भ गृह की माप एक हाथ से पचास हाथ तक कही गई है। कुंभकया जाय कुंभ or per free इसके अतिरिक्त गर्भ गृह की भिति के बाहर होना चाहिए। जाम आदि बिभिन घरों का निर्गम तथा पीठ एवं छज्जे के जो निर्गम हों उन्हें भी सम सूत्र के बाहर समझना चाहिए । गर्भगृह समरेखा में चौरस भी हो सकता है, किन्तु उसी में फालना या खांचे देकर प्रसाद में तीन-पांव सात बा यह है कि यदि प्रसाद के गर्भगृह की लम्बाई आठ हाथ है तो दोनों ओर दो-दो हाथ के कोण भाग रख कर कोष में चार हाथ को भित्ति को खाया देकर थोड़ा श्रागे निकाल दिया जा सकता है। इस प्रकार का प्रासाद तीन अंगों वाला का उड़ीसा को शब्दावली में त्रिरथ प्रासाद कहा जायगा । इसी प्रकार दो कोरा, दो खाँचे और एक मितिरथ चाला प्रासाद देवरथ प्राभाद होता है । दो को दो-दो उपर और एक रथ युक्त प्रासाद सुप्तांग, गुवं दो कोया चार-चार उपस्थ एवं एक रथका युक्त प्रासाद नवांग या नयस्य प्रासाद कहलाता है ( १६३१ ) इन फालनाओं या सानों के अनुसार ही प्रासाद का सम्पूर्ण उत्सेध या उदय खड़ा किया जाता है। अतएव प्रासाद रचनाओं में फालना का सर्वाधिक महत्व है । बुरशिला से लेकर शिखर के ऊपरी भाग तक जितने पर एक के ऊपर एक उठते जाते हैं उनका विभाग इन्हीं फालनाओं के अनुसार देखा जाता है । प्रासाद के एक-एक पार्श्व को उar कहते हैं । प्रत्येक की fafa neपना कोण, प्रतिभद्र और बीच वाले भद्रांश पर ही निर्भर रहती है।साद की ऊंचाई में जहां-जहां फालनामों के जोड़ मिलते हैं वहीं ऊपर से नीचे तक बरसाती पानी के बहाव के लिए बारीक नालियां काट दी जाती हैं जिन्हें वारिमार्ग वा सलिलानार कहते हैं । भद्र, फालना ( प्रतिभद्र ) पर कर्ण या कोसा की सामान्य माह के विषय में यह नियम बरता जाता है कि भद्र चार हाथ का हो तो दोनों मोर के प्रतिभद्र या प्रतिरथ दो-दो हाथ के और दोनों कया को भी दो हाथ सरक जाते हैं पर्यात् कर्ण मोर फालना से मन की लम्बाई दुहुनो होनी है |
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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