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जो देव तस्य है वही वैविक भाषा में प्रगिल सस्य के नाम से प्रभिहित किया जाता है । कहा है'अग्निः सर्वा घेषता' म जिसने घेच है भरिम सबका प्रतीक है। भग्नि सर्व देवमय है । सृष्टि की जितनी दिव्य यो समष्टिगत पालियां हैं उन सबको प्राणाग्मि इस मनुष्य देन में प्रतिष्ठित रखती है। इसी तश्व को लेकर देव प्रासादों के स्वरूपका विकास प्रा। जिस प्रकार यज्ञवेदी में ग्नि का स्थान है उसी प्रकार देव की प्रतिष्ठा के लिए प्रासाद की कल्पना है। वैध साक्षात्कार का महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक प्राणी उसे अपने ही भीतर प्राप्त कर सकता है । जो देव पारा मिनी के विशाल अंतराल में व्याप्त है यही प्रत्येक प्राणी के अंतः. करण में है। जैसा कालिदास में कहा है
'वेदान्तेषु यमाहुरेकपुरुषं व्याप्य स्थित रोदसी,
अंतर्यश्य मुमुक्षुमिनियमितप्राणादिभिग्यते । प्रति प्राय और मम हम वो महसी शक्तियों को नियम बद्ध करके अपने भीतर ही उस वक्तत्व का जो सर्वध व्या है न किया जा सकता है । इस प्रयास्म नियम के आधार पर भागवतों ने विशेषतः देवप्रासादों के भौतिक रूप की कल्पना और उनमें से उस देवतत्व' की उपासना के महत्वपूर्ण शास्त्र का निर्माण किया विक्रम की प्रभा शताब्दी के मंगभग भागवतों का यह दृष्टिकोण उभर कर सामने आ गया और सद-- मुसार ही देव मंदिरों का निर्माण होने लगा।
इस सम्बन्ध में कई मान्यताएं विशेष रूप से सामने आई। उनमें एक तो यह थी कि यद्यपि मनुष्यों को कल्पना के अनुसार देव एक है किन्तु वे सब एक ही भूल भूत शक्ति के रूप हैं और उनमें केवल नामों का मन्तर है। यह वही पुराना बैदिक सिद्धान्त पा जिले ऋग्वेद में 'यो देवानां नामया एक एक', अथवा 'एक समिधा भाषा अन्तिम वाक्यों द्वारा कहा गया था । नामों के सहस्राधिक प्रपंच में एक सूत्रता लाते हए भागवतों ने देवाभिवेन को विकी संज्ञा दी ! 'देवेष्टि व्याप्नोति इति विधाः', इस निर्वचन के अनुसार यह संशा सर्वषा लोकप्रिय और मामई। इसी प्रकार बासुदेव प्रादि प्रमेक नामों के विषय में भी उदारष्टि से इस प्रकार के मिषन किए गए जिनमें मामों के ऐतिहासिक या मानवीय पक्ष को गौण करके उनके देवात्मक या दिव्य पक्ष को प्रधानता मिली । उदाहरण के लिए वासुदेव शब्द की व्युत्पत्ति विषणुपुराण में इस प्रकार है
सर्वासी समस्तं - बसस्पति वै यतः । ततः स वासुदेवैति विवद्भिः परिपश्यते ।। (११२११२) सर्वाणि तत्र भूतानि वसन्ति परमात्मनि ।' भूतेषु च स सर्वात्मा वासुदेवस्ततः स्मृतः ।। (६१५1८०)
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इसीको महाभारत में इस प्रकार कहा गया है
छादयामि जगत्सर्व भूत्वा सूर्य इबाशुभिः । सर्वभूताधिवासम वासुदेवः ततः स्मृतः ।।
(शान्तिपर्व, ३४१५४१) बासनात्सर्वभूतानां वसुस्वाद अयोनितः । बासुपस्ततो वेदाः.........
उच्चोमपर्व , (७०।३)