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________________ अथ प्रासादमण्डने तृतीयोऽध्यायः प्रासावधारिणी खरशिला अतिस्थूला' सुविस्तीर्णा प्रासादधारिणी शिला । अतीवसुदृढा कार्या इष्टिकांचूर्णवारिभिः ॥१॥ प्रासाद को धारण करनेवाली जो प्राधार शिला है, यह अगती के दासा के ऊपर और प्रथम भिट्ट के नीचे जो बनायी जाती है, उसको खरशिला कहते हैं । वह प्रतिस्थूल और अच्छी तरह विस्तारवाली छनायें, तथा इट, चूना और पानी से बहुत मजबूत बनावें ॥१॥ खरशिला का मान "प्रासादच्छन्दमस्पोचे दृवखरशिलोत्तमा । एकहस्ते पादहस्तः पश्चान्तेऽङ्गुलवृद्धितः॥ अर्धाङ्गलं तदूर्वे तु नवान्तं सुदृढोत्तमा । पादवृद्धि पुनर्दद्याद् हस्ते हस्ते तथा पुनः ।। हस्तानां विशतिर्यावदर्द्धपादा तदूध्यतः । विंशत्यङ्गलपिण्डा प शताद्धे तु खरा शिला !" प्रप० सू० १२३ प्रासादतल के ऊपर बहुत मजबूत और उत्तम खरशिला बनायें। वह एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद में छ: अंगुल के उदयवाली बनायें । पीछे दो से पांच हाथ तक के प्रासाय में प्रत्येक हाथ एक २ मंगुल, छह से नव हाथ तक प्राधा २ अंगुल, दस से तीस हाथ तक पाव २ अंगुल और इनतीस से पचास हाथ तक के विस्तार वाले प्रासाद में प्रत्येक हाथ एक २ अब बढ़ा करके बनावें । इस प्रकार पचास हाथ के प्रासाद के लिये लगभग वीस अंगुल के ऊंचाई की खरशिला होनी चाहिये । हारार्णव अध्याय १०२ में कहा है कि "प्रथमभिट्टस्याधस्तात् पिण्डो वर्ण (कूर्म : शिलोत्तमा । तस्य पिण्डस्य चार्थेन खरशिलापिण्डमेय च ॥" प्रथम मिट्ट के नीचे कूर्मशिला की मोटाई से अर्धमान को स्वरशिला की मोटाई रक्खें । (१) प्रतिस्पुमातिविस्तीणा । (२) 'इष्टका' । प्रा०६
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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