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मिट्टमान
शिलोपरि भवेद् भिङ्ग-मेकहस्ते युगाङ्गुलम् | अर्धाङ्गुला भवेद् वृद्धि-र्यावद्धस्तशताद्ध कम् ||२||
खरशिला के ऊपर मिट्ट नाम का थर बनावें । एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद को चार अंगुल के उदय का बनायें। पीछे दोसे पचास हाथ तक के प्रासाद के लिये प्रत्येक हाथ भाषा २ अंगुल बहा करके बनायें || २ ||
प्रकारन्तर से भिट्टमान
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मशीन मान क्रमात् । पञ्चदिग्विंशतिर्यावळताच विवद्धयेत् ॥ ३ ॥
एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद को चार अंगुल का भिट्ट बनायें। पीछे दो से पांच हाथ तक के प्रासाद को प्रत्येक हाथ एक २ अंगुल छह से दस हाथ तक के प्रासाद को प्रत्येक हाथ पौन २ अंगुल, ग्यारह से बीस हाथ तक के प्रासाद को प्रत्येक हाथ श्राधा २ अंगुल और इक्कीस से पचास हाथ तक के प्रासाद को प्रत्येक हाथ पाव २ अंगुल बढ़ा करके भिट्ट का उदय रक्खें ॥३॥ यही मत क्षीराव, अपराजित पृच्छा वास्तुविद्या और वास्तुराज आदि शिल्पग्रन्थों में दिया गया है।
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एक द्वित्रीणि विट्टानि हीनहीनानि Frater प्रमाणस्य चतुर्थ शेन
प्रासादमण्डने
कारयेत् । निर्गमः || ४ ||
atrian कहा है कि
इति भट्टमानम् ।
उपरोक्त कथन के अनुसार भिट्टका जो उदयमान धाया हो, उसमें एक, दो अथवा तीन भिट्ट बना सकते हैं । परन्तु ये एक दूसरे से होनमान का बनाना चाहिये । राजसिंहकृत वास्तुराज में कहा है कि "युगांशहलं द्वितोयं तदर्वोच्चं तृतीयकम् ।" अर्थात् प्रथम भिट्ट से दूसरा भिट्ट पौन भाग का, और तीसरा भिट्ट भाषा उदय में रक्खें तथा अपने २ उदय का चौथा भाग बराबर निर्गम रक्खें ॥४॥
"प्रथमं निर्गमं कार्यं चतुर्थांश महामुने ! |
द्वितीयं तृतीयांशेन तृतीयं च तदर्धतः ॥"
थम भोट का निर्गम *पने चौथे भाग, दूसरे भिट्टका निगम अपने तीसरे भाग पौर तीसरे भिट्टका निर्गम अपने उदय से प्राधा रक्खें ।