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________________ तृतीयोऽध्यायः ६६. शाखा के रूप "कालिन्दी बामशाखायो दक्षिणे चैव जाह्नवी । गङ्गातनयायुग्म-मुभयो,मदक्षिणे ।। गन्धर्वा निर्गमे कार्या एकभागा विचक्षणः । तत्सूके खेल्बशाखा च सिंहाखा व भागिका ॥ नन्दी च वामशाखायां कालो दक्षलताश्रितः । - यक्षाः स्युरन्तशाखायां निधिहस्ताः शुभोदयाः ।।' अ५० सू० १३२ बांयी द्वार शाखा के द्वारपाल को बांयी और यमुना और दाहिनी ओर गंगा, सचा वाहिनी द्वार शाखा के द्वारपाल को बांयी ओर गंगा और दाहिनी मोर यमुना देवी का रूप बनाना चाहिये । गंधर्व शाखा के समसूत्र में स्वस्वशाखा रक्खें, इन दोनों का निर्मम भी एक भाग रक्खें । सिंहशाला का निर्गम भी एक भाग रक्खें । हाप में निधि को धारण किये हुए बोयो शाखा में नंदी और दाहिनी शाखा में काल नाम के यक्षों के रूप बनावें। पञ्चशाला--- पत्रशाखा च गन्धर्वा रूपस्तम्भस्तृतीयकः । चतुर्थी खल्वशाखा च सिंहशाखा च पञ्चमी ॥३॥ इति पञ्चशाखाः । पहली पशाखा, दूसरी गान्धर्वशाखा, तीसरा रूपस्तंभ, चौथी खल्वशाखा मौर पांचवीं सिंहशाखा है। पञ्यशाला का मान "शाखाविस्तारमानं च बभि विभाजयेत् । एकभागा भवेच्छाला रूपस्तम्भो द्विभागिकः ॥ निर्गमश्चैकभागेन रूपस्तम्भः प्रशस्पते । कोशिका स्तम्भमध्ये च उभयोमवक्षिणे ।। गन्धर्वा निर्गमे कार्या एकभागा विचक्षणैः । तत्सूत्र खल्वशाखा च सिंहशाखा च भागिका ।। सपायः साधभागो वा रूपस्तम्भः प्रशस्यते । उत्सेवस्थाष्टमांशेन शस्तं शाखोदरं मतम् ॥" अप० सू० १३२ पंचशाखा के विस्तार का छह भाग करें। उनमें से एक २ भाग की चार शाखा और दो भाग का रूपस्तम्भ बनावें । रूपस्तम्भ का निर्गम एक भाग रखें, इसके दोनों तरफ एक २
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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