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________________ प्रासादमएबने तैयार हुए प्रासा के शिखर को ध्वमा रहित देखकर असुर ( राक्षस ) उसमें रहने की इच्छा करते हैं । इसलिये देवालय ध्वजा रहित नहीं रखना चाहिये ॥४॥ ध्वजओच्छ्रायेण तुम्यन्ति देवाश्च पितरस्तथा । दशाश्वमेधिकं पुण्यं सर्वतीर्थधरादिकम् ॥४६॥ देवालय के अपर ध्वजा चढ़ाने से देय और पितर संतुष्ट होते हैं। तथा दशाश्वमेध यज्ञ करने से पौर समस्त भूतल की तीर्थयात्रा करने से जो पुण्य होता है, यही पुण्य प्रासाद के ऊपर ध्वजा चढ़ाने से होता है ॥४६11 पञ्चाशत् पूर्वतः पश्चाद-आत्मानं च तथाधिकम् । शतमेकोतरं सोऽपि तारयेन्नरकाावात् ॥५०॥ इति ध्वजलक्षणं पुण्याधिकारः । इति श्री सूत्रधारमणबनविरचिते प्रासादमण्डने वास्तुशास्त्रे प्रतिमाप्रमाणरष्टिपदस्थानशिखरमजाकलशलक्षणाधिकारश्चतुर्थोऽध्यायः ॥ '. या पढ़ानेवाले के वंश की पहले की पचास और पीछे को पचास, तथा एक अपनी इस तरह कुल एकसी एक पीढी के पूर्वजों को नरकरूपी समुद्र से यह घ्या लिरा देती है प्रति उदार करती है ॥५०॥ इति श्री पंरित भगवानदास जैन विरचित प्रासाद मण्डन ग्रन्थ के चौथा-- अध्ययन की सुबोधिनी नाम्नी भाषाटीका समाप्ता ॥ u- awaaw
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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