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________________ RamaAQ-ms -PargRWMAHun --F AMIRRIERM प्राचीन समय में जब महादेव ने अंधक नाम के देस्य का विनाश किया, उस समय परिश्रम से महादेव के ललाट में से पसीना को बिन्दु पृथ्वी के ऊपर पड़ो। इस बिन्दु से एक अत्यन्त भयंकर भूत उत्पन्न हुआ । उसको देवों ने शोध ही पकड़ करके पृथ्वी के ऊपर इस प्रकार से औंधा गिरा दिया, कि उसकी दोनों जानु और हाथ को दोनों कोन्ही वायु और पग्नि कोने मैं, चरण नैऋत्य कोने में और मस्तक ईशान को में में रहा ॥६६-६७।। चत्वारिंशत्रुताः पञ्च वास्तुदेहे स्थिताः सुराः । देव्योऽष्टी बाह्यगास्तेषां बसनाद्वास्तुरुच्यते ||६|| इस पौंधे पड़े हुए वास्तुपुरुष के शरीर पर पैंतालीस देव स्थित हो गये और उसके चारों कोने पर पाठ देवियां भी स्थित हो गई । इस प्रकार तरेपन (५३) देव उस भूत के शरीर पर निवास करते हैं, इसलिये उसको वास्तु पुरुष कहते हैं ||९८॥ अधोमुखेन विज्ञप्ती त्रिदशान घिहितो बलिम् । तेनैव पलिना शान्ति करोति हानिमन्यथा ||६|| आमादमानादीनां प्रारम्भे परिवर्तने । वास्तुकर्मसु सर्वेषु पूजितः सौख्यदो भवेत् ॥१०॥ अधोमुख करके रहा हुमा वास्तु पुरुष देवों को विनति करता है कि-जो मनुष्य मेर र बैठे हुए देवों को विधिपूर्वक बलि देवेगा, तो उस बलिके प्रभाव से मैं उसको शान्ति प्रदान करूंगा और बलि नहीं देने पर तो हानि करूंगा। इसलिये प्रासाद और भवन प्रादि के सब वास्तु कर्म के प्रारम्भ से सम्पूर्ण होने तक सब वास्तु कर्म में वास्तु पूजन करने से सुखशांति होवेगी ।।२६-१०॥ एकपदादितो वास्तु-वित्पदसहस्रकम् । द्वात्रिंश-मण्डलानि स्युः क्षेत्रतुल्याकृतीनि च ॥१०॥ एक पदसे लेकर एक हजार पद तक का वास्तु बनाने का विधान है। वास्तुपूजन के बत्तीस मंडल हैं, वे क्षेत्र की प्राकृति के अनुसार प्राकृति वाले हैं ॥१०१|| A एकाशीतिपदो. वास्तु-श्चतुःपष्टिपदोऽथवा । सर्वास्तुविभागेषु पूजयेन्मण्डलद्वयम् ।१०२॥ Immarma A सविस्तार जानने के लिये देखें। अपराजित पृच्छा मुख ५७ प्रौर ५८व।
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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