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________________ ३४ प्रासादमडने परस्पर दृष्टिवेध ब्रह्मा विष्णुरेकनाभि-म्यादोषो न विद्यते । शिवस्याग्रेऽन्यदेवस्य दृष्टिवेधे महद्भयम् ॥३०॥ ब्रह्मा और विष्णु ये दोनों देव एक नाभि में हों अर्थात् उनका देवालम प्रापस में सामने हो तो दोष नहीं है । परंतु शिबके सामने दूसरे देवका दृष्टिवेध होता हो तो बड़ा भय उत्पन्न होता है ॥३०॥ दृष्टिवेध का परिहार प्रसिद्धराजमार्गस्य प्राकारस्यान्तरेऽपि वा। स्थापयेदन्यदेवांश्च तत्र दोषो न विद्यते ॥३१॥ शिवालय और अन्य देवों के देवालय, इन दोनों के बीच में प्रसिद्ध राजमार्ग {माम रास्ता ) हो, अथवा दीवार हो तो दोष नहीं है ॥३१॥ शिवस्नानोदक शिवस्नानोदकं गूढ-मार्गे चण्डमुखे सिपेत् । दृष्टं न लक्ष्येत्तत्र हन्ति पुण्यं पुराकृतम् ॥३२॥ शिद का स्नानजल गुप्त मार्ग से घण्डमरण के मुख में मिरे, इस प्रकार स्नान का जल निकलने की गुप्त नाली रखना चाहिये । दिखते हुये स्नान जल का उल्लंघन ( लांघना ) नहीं करना चाहिये। क्योंकि स्नान जल का उल्लंघन करने से पूर्वकृत पुण्य का नाश होता है ||३२|| चंडगण शिवस्नानोपक पी रहा है FIRRIOR (१) जिने। (२) स्नानं । चंडनाय गणदेव का स्वरूप अपराजित पृमछा सूत्र २०८ में मिला है कि-स्पूल शरीर बाबा, भयंकर मुख छाला, ऊध्र्वासन बैठा हुमा और दोनों हाथ से स्नान बल पीता हुमा, ऐसा सस्प बना करके पीठिका के जल स्थान के नीचे स्थापन किया जाता है, जिससे स्नान का बल उसके भूख में होकर बाहर गिरे। इस स्नान जल के उच्छिष्ट होत्राने पर उसका यदि कभी उल्लंघन हो जाए तो दोष महीं माना बावा, ऐसा शिल्पियों का कहना है।
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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