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________________ २६ रखना बाहिये। इस अनुपात से शिखर सुहावना प्रतीत होता है। गर्भ गृह की मूलरेखा या चौड़ाई से शिखर का उदय साया रखा जाता है । शिखर के बलर अर्थात् नमन की युक्ति साधने के लिए उसके उदय भाग में और स्कन्ध में क्रमशः रेखाओं और कलामों की सूक्ष्म गणना स्थपति सम्प्रदाय में प्रचलित है । उस विषय का संक्षिप्त संकेत मंडन ने किया है। रेखाओं और कलाओं का यह विषय अपराजित पृच्छा (श्र. १३६-१४१) में भी पाया है । खेद है कि यह अभी तक स्पष्ट न होने से इस पर अधिक प्रकाश डालना सम्भव नहीं । मंडन का कथन है कि खरशिला से कलश तक बीस भाग करके धाठ या या ६ भाग में मंडोवर की कंचाई और शेष में शिखर का उदम रखा जाता है। शिखर के गुमट नुमा उठान को पद्मकोश कहा जाता है। (४/२३) पद्मकोश की आकृति लाने के जियेन ने प्रति सप्त रोति से एक युक्ति कहीं है (चतुर्ग होम सूत्रेण सपादः शिखरोत्रयः (४१२३) इसके अनुसार शिखर की मूलरेखा से चौगुना सूत्र लेकर यदि नये प्राप्त irat free at her मानकर गोल रेखायें खींची जय हो जहां वे एक दूसरे को काटती हों वह शिखर का अंतिम विन्दु हुआ । शिखर को मूल रेखा से उसकी (मूल रेखा की ) सवाई जितनी ऊंचाई पर एक रेखा खींची. जायं तो वह शिखर का स्कन्ध स्थान होगा। इस स्कन्ध और पद्मकोश के अंतिम बिन्दु तक की ऊंचाई के सात भाग करके एक भाग में ग्रीवा, १३ भाग में आमलक शिला, १३ भाग में पद्मपत्र (जिन्हें प्राजकस लीलोफर कहते हैं), और तीन भाग में कलश का मान रहेगा। द शिखर में शुकनास का भी महत्वपूर्ण स्थान है । शुकमास की ऊंचाई के पांच विकल्प कहें है। छज्जे से स्कन्ध तक के उदय को जब इक्कीस भागों में बांटा जाय तो ६, १०, ११, १२, १३, अंशों तक कहीं भी शुकनास काय किया जा सकता है। शुकनासिका के उदय के पुनः नव भाग करके १, ३, ५, ७, या ६ भागों में कहीं पर भी कम्पासिंह रखना चाहिये। शुकनासा, प्रासाद वा देव मंदिर की नासिका के समान है। शिखर में शुकनासिका का निकलता खाता नीचे के अंतराल मण्डप के अनुसार बनाया जाता है | अंतरात मण्ड को कपिली या कोली मण्डप भी कहते हैं । ( ४१२७) अन्तराल मंडप की गहराई छः प्रकार की बताई गई है। शिखर की रचना में श्रृंग उग (छातिमा शृंग), प्रत्यंग और ट्रकों का महत्वपूर्ण स्थान है। एवं भिन्न भिन्न प्रकार के शिखरों के लिए उनकी गणना लग २ की जाती है। इसी प्रकार सवंग, तिलक और सिह ये भी प्रकारान्तर के अलंकरण हैं जिन्हें प्रासाद के शिक्षर का भूषण कहा जाता है और इनकी रचना भी शिखर को विभिनता प्रदान करती है । मंडन के अनुसार प्रासाद के शिखर पर एक हिरण्यमय प्रासाद पुरुष की स्थापना की जाती है । कलश, दण्ड, चौर ध्वजारोपण के संबंध में भी विवरण पाया जाता है । कहे गए हैं। गर्भ गृह किए जा सकते हैं और पांचवें अध्यायों में वे राज्य यादि पच्चीस प्रकार के प्रासादों के लक्षण के कारण से कोरण तक प्रासाद के विस्तार के ४ से ११२ तक प्रावश्यकतानुसार भाग उन्हीं भागों के अनुसार फालनाओं के अनेक भेद किए जाते हैं । प्रासादों के नाम और जातियां उनके शिखरों के अनुसार कही गई है। वस्तुतः इन भेदों के आधार पर प्रासादों की सत्रों जातियां कल्पित की जाती हैं। गर्भगृह, प्रसाद भित्ति, भ्रमरणी या परिक्रमा और परिक्रमा मिति यह प्रसाद का विन्यास है । इनमें प्रासादभिसि परिक्रमा और परिक्रमा भित्ति तीनों को बौड़ाई समान होती है । यदि दो हाय की प्रासाद भित्ति, वो हाथ की परिक्रमा और दो हाम की भ्रम भिति करें तो गर्भ गृह चार हाथ का होना चाहिए। परिक्रमायुक्त प्रासाद दस हाथ से कम का बनाना ठीक नहीं । प्रासादों के वैराज्य मावि पस्वीस भेद नागर जाति के कहे जाते हैं। मध्याय में विशेषतः शिखरों के अनेक भेदापभेदों को व्याख्या करते हुए केसरी
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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