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________________ ४- श्रमृतोद्धवप्रसाद - तद्रूपे तत्प्रमाणे च रथे कर्णे विलकं न्यसेत् । अमृतोद्भवनामोऽयं सर्वदेवेभ्यः कारयेत् ||२१|| इत्यमृतोद्भवप्रासादः ||४ तल और स्वरूप रत्नकोटि प्रासाद के अनुसार जानें विशेष यह है कि कोण श्रीर प्रतिरथ के ऊपर एक एक तिलक भी चढ़ावें। जिससे श्रभृतोद्भव नाम का प्रासाद होता है। यह सब देवों के लिये बनावें | ||२१|| संख्या- पूर्ववत् २०६ । तिलक संख्याको ४ प्रतिकर कुल १२ । PRO प्रासादमवने प्रासद विभक्ति चौथो । साद ५- अभिनन्दन जिनवल्लभ-क्षितिभूषणप्रासः चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे पोडशपदभाजिते । कर्ण भागद्वयं कार्य प्रतिकर्णस्तथैव च ||२२|| उपरथी विभागश्च मद्रार्धं यमेव च । कर्णे च क्रमचत्वारि प्रतिकर्णे क्रमत्रयम् ||२३| उपरथे क्रमद्वौ च ऊर्ध्वे तिलकशोभितम् । द्वादश उरुपङ्गाणि प्रत्यङ्गानि च पोडश ॥ २४ ॥ चितिभूषणनामोऽयं प्रासादश्चाभिनन्दनः । इत्यभिनन्दन जिनवल्लभः क्षितिभूषणप्रासादः ||५|| प्रासाद की समचौरस भूमिका सोलह भाग करें। उनमें से दो भाग का कोण, दो भाग का प्रतिरथ, दो भाग का उपरथ और दो भाग का भद्रार्ध बनावें। को के ऊपर बार क्रम प्रतिरथ के ऊपर तीन क्रम, उपरथ के ऊपर क्षे कम और एक तिलक चढ़ावें। चारों तरफ के भद्र के ऊपर बारह उरुशृंग और सोलह प्रत्यंग चढ़ावें । ऐसा अभिन्नदन् जिन वल्लभ क्षितिभूषण नाम का प्रासाद है २२ से २४|| संख्याको १७६, प्रतिरथे २१६, उपरचे ११२, भद्र १२, प्रत्यंग १६ एक शिखर, कुल ५३३ श्रृंग तिलक उपरथे ।
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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