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________________ अंग C 22 १७६ प्रासादम कर्णे शृङ्गद्वयं कार्यं शिखरं सूर्यविस्तरम् । नन्दिकायां तु तिलकं प्रत्यङ्ग च द्विभागिकम् || ३४ || शृङ्गद्वयं प्रतिरथे उरुशृङ्ग पर्डशकम् | शृङ्गद्रयं नन्दिकाया-मुरःशृङ्ग युगांशकम् ॥३५॥ द्विभागं भद्रशृङ्ग तु भृङ्गार्थे चैत्र निर्गमः । कर्णे प्रतिरथे चैव ह्युदान्तरभूषितम् ||३६|| इन्दनीलस्तदा नाम इन्द्रादिसुरपूजितः । भः सर्वदेवानt शिवस्यापि विशेषतः || ३७ ॥ इति इन्द्रनील प्रासादः ||१३|| कोणे के ऊपर दो श्रृंग चढ़ावें । शिखर का विस्तार बारह भाग रहीं । नन्दी के ऊपर एक तिलक चढ़ावें और दो भाग के विस्तार वाला प्रत्यंग चढावें । प्रतिरथ के ऊपर दोग पहला भाग विस्तार में रखलें । नन्दी के ऊपर एक रंग चढ़ावें । दूसरा उस्टंग विस्तार में चार भाग का और तीसरा उग विस्तार में दो भाग का रक्खें। इन उगों का निर्गम विस्तार मे श्राधा रक्खें। कोरणा और प्रतिरथ उदकान्तर वाला बनायें । ऐसा इन्द्रनील प्रासाद इन्द्रादि देवों से पूजित है, यह सब देवों को और विशेष कर शिवजी को प्रिय €113 2011 १४- महानील प्रासाद- संख्याको फै प्रतिरथे १६ भद्र नदी के ऊपर म भने १२ प्रत्यंग ८, एक शिखर, कुल ५३ श्रृंग और तिलक क नन्दी पर कर्णे नन्दी (कन्यां ?) तथा शृङ्ग रेखोर्थे तिलकं तथा । महानीलस्तदा कर्त्तव्यः नाम सर्वदेवते ॥ ३८ ॥ इति महानीलप्रसादः ॥ १४॥ १. 'यू' शुद्ध पाद मालुम होता है । उस स्थान पर 'मे' ऐसा पाठ चाहिये जिसे शृंगों की संख्या ठीक मिल जाय |
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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