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________________ चतुर्थोऽध्यायः शयनं चापि निर्दिष्टं पद्म वै दक्षिणे करे । fer करे वामे कारयेद्धदि संस्थितम् ॥" यह सुवर्णपुरुष देवालय का जीवस्थान है, इसलिये उसको देवालय में स्थापना करने का स्थान कहता है- यह छज्जा के प्रवेश में शिखर के मध्य भाग में अथवा उसके ऊपर, शुकनास के प्रतिम स्थान में, वेदी के ऊपर प्रौर दो माल के मध्य गर्भ में स्थापन करना चाहिये । यह हृदrade (जीव) विधि है । इसको तांबे के पलंग के ऊपर रेशम की शय्या बिछा कर उसके ऊपर शयनना चाहिये। उसके दाहिने हाथ में कमल और बांये हाथ में ध्वजा रखकर यह हाथ छाती के ऊपर रखना चाहिये । ८७ प्रमाणं तस्य वक्ष्यामि प्रासादादी समस्तके | यावच्छतार्थं हस्तादेः कल्पयेच यथाक्रमम् ॥ वृद्धिरङ्गलास् यावन्मे प्रकल्पयेत् । एवंविधं प्रकर्तव्यं सर्वकामफलप्रदम् ।। हेमजं तारणं वापि ताम्रजं वापि भागशः । कलशे चाम्बुपूर्णे तु सौवर्णं पुरुषं न्यसेत् ॥ पर्यङ्कस्य चतुःपत्सु कुम्भाश्चत्वार एव च । हिरण्यनिधिसंयुक्ता आत्माभिरङ्किताः ॥ एवमारोप देवं यथोक्तं वास्तुशासने | तस्य नैव भवेद् दुःखं यावदाभूत सम्प्लवम् !!" श्रम सुदर्श पुरुष का प्रमाण कहता है-- एक हाथ से पचास हाथ तक के प्रासाद के लिये प्रत्येक हाच प्राधा २ अंगुल बढ़ा करके बनायें | यह सोना, चांदी प्रथवा तांबा का बनाकर जलपूर्ण कलश में स्थापन करें। पीछे उसको पलंग के ऊपर रखें। इसके पश्चात् अपने नाम वाली सुवर्णमुद्रा से भरे हुए चार कलश पलंग के चारों पायों के पास रखें। इस प्रकार सुवर्णपुरुष को स्थापित करने से जब तक जगत विद्यमान रहे, तब तक किसी प्रकार का दुःख देवालय बंधाने वाले को नहीं होता है । कलश की उत्पत्ति और स्थापना -- arera समुत्पन्नं प्रासादस्याग्रजातकम् । माङ्गल्येषु च सर्वेषु कलशं स्थापयेद् युधः || ३६॥ जब देवों ने क्षीरसमुद्र का मंथन किया, तब उसमें से चौदह रत्न प्राप्त हुए थे। इन चौदह रत्नों में एक काम कुम्भ नाम का श्रेष्ठ कलश भी प्राप्त हुमा था। यह प्रासाद के प्र
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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