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________________ -. - ...........-- २४ .. चौड़ाई ये प्राधी रखनी चाहए। इस कार या लत में मीचे की ओर जी कई पर बनाये आले हैं उन्हें दर्दरी कहा जाता था, गुमट के भीतरी भाग को वितान और ऊपरी भाग को सम्बशा कहते हैं। विवान में देरी या घरों की संख्या विषम रखने का विधान है। इसके अनंतर मंदिर के द्वार का सविस्तर बर्णन है (३१३७-६६) । वार के चार भाग होते हैं प्रधान नीने देहली या उदुम्बर, दो पाश्र्व स्तम्भ और उनके अपर उत्तरंग या सिरदल । इन चारों को ही शिल्पी अनेक अलंकरणों से युक्त करने का प्रयत्न करते थे। देवगढ़ के दशावतार मंदिर का अलंकृल द्वार एक ऐसी कृति है जिसकी साज-सज्जा में शिस्पियों ने अपने कौशन की पराकाष्ठा दिखाई है। प्रायः गृप्त युग में उसी प्रकार के द्वार बनते रहें । दान : यान: मध्यकालीन मंदिरों में द्वार निर्माण कला में कुछ विकास और परिवर्तन भी हुमा । मंडन के अनुसार उदुम्बर मा देहनी की नौड़ाई के तीन भाग करके दीम में मन्दारक और दोनों पाश्मों में पास पासिंहमूख बनाने पाहिए मन्दारक के लिए प्राचीन शब्द सन्सारक भी था (अंग्रेजी फेस्ट्रन)। गोल सन्तानक में पनपत्रों से मुक्त मृणाल को प्राकृति उरी आती थी। ग्रास या सिंह मुखको कीतिधवत्र या की समान भी कहने थे ! रानी भोगों पर पार्न सम्भों के नीचे तलरुपक (हिन्दी-सलकड़ा) नाम के दो प्रलंकरण बनाये जाते हैं । तलकड़ों के बीच में देटली के सामने की भोर पीच के दो भागों में अर्धचन्द्र और उसके दोनों ओर एक-एक गंगारा बनाया जाता है । गगारों के पास में शेखों को और पनपत्र की आकृति उत्कीर्त की जाती हैं। द्वार की यह विशेषता गुप्त युग से ही प्रारम्भ हो गई थी, जैसा कालिदास ने मेघदूत में वर्णन किया है (बारोपानले लिखितवपूषी संखपीच दृष्ट्वा , उत्तर मेघ-१७) पारक या मंगारा इन की व्युत्पत्ति स्पष्ट नहीं है । यहाँ पृष्ट ५६ और वास्तुसार में पृ. १४० पर मारक का वित्र दिया गया है। बार की ऊंचाई से उसकी चौड़ाई प्राधी होनी चाहिए । और यदि चौड़ाई में एक कला या सोलहवाका दिया जाय तो द्वार की शोभा कुछ अधिक हो जाती है , द्वार के उत्तरंग या सिरदल भाम में उस देव की मूर्ति बनानी था जिसकी गर्भगृह में प्रतिष्ठा हो। इस नियम का पालन प्रायः सभी मंदिरों में पाया । इस मूर्ति को ललाट-विम्ब भी कहते थे। द्वार के दोनों पार्श्व स्तम्भों में कई फालना या भाग बनाये जाते थे जिन्हें संस्कृत में शाखा कहा गया है। इस प्रकार एक शाख, विशाख, पंच शाहल, सप्स शाख, और नब के पान स्तम्भ मूक्त द्वार बनाये जाते थे। इन्ही के लिए तिमाही, पंचसाही. यादि. शब्द हिरवी में अभी तक प्रचलित हैं । सूत्रधार मंडन ने एक नियम यह बताया है कि गर्भगृह की दीवार में जितनी कालमा या अंग बनाये जोय उतनी ही द्वार के गर्न स्तम्भ में शाखा रखनी चाहिए (शारदाः स्युर्रम लुल्यकाः १६) । द्वार स्तम्भ की सजावट के लिए कई प्रकार के अलंकरमा प्रयुक्त किये मासे थे । उन में रूप या स्त्री पुरुषों की प्रतिया मुख्य पी। जिस भाग में ये प्राकृतियां उकेरी हाली थीं उसे रूप स्तम्भ या रूप शाखा कहते थे । पुरष संक्षक और स्त्री संजक सालानों का उल्लेख मडम ने किया है । इस प्रकार की शाखायें गुप्तकालीम मंदिर धरों पर, भी मोलती हैं । अलंकरणों के अनुसार इन शाखाओं के और नाम भी मिलते हैं जैसे-पाला, सिंह शाखा, .. गन्धर्म शाखा, खल्व शाखा प्रादि । खल्व शाखा पर जो अलंकरण बनाया जाता था वह महर मावि बलों ..... के उठते हुए गोल प्रतानों के सहदा होता था। बाबू के विमलबसही प्रादि मंदिरों में तथा प्रत्यत्र भी बडके हैं। सस्य सब प्राचीन था और उसका अर्थ फलिनीलता या मटर माधि की देस के लिए प्रयुक्त होता था। प्रासाद मंडन के चौथे अध्याय में प्रारम्भ में प्रतिमा की ऊंचाई बताते हुए फिर जिन्दर निर्माए का ब्योरे बार वर्णन किया गया है । देव प्रासादों के निर्माण में शिखरों का महत्वपूर्ण स्थान मा । मंदिर के वास्तु में नाना प्रकार के शिखरों का विकास देखा जाता है। शिखरों की अनेक जातियां शिल्प प्रमों में कही
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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