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________________ तृतीयोऽध्यायः ६७ दोनों द्वार ज्येष्ठ हैं। गांधारी और सुभगा ये दोनों द्वार मध्यम हैं और सुप्रभा द्वार कनिष्ठ है। आठ शाखावाला द्वारा मुकुली, छह शाखावाला मालिनी, चार शाखावाला गांधारी, तीन शाखावाला सुभगा दो शरखावाला सुप्रभा और एक शाखावाला स्मरकोति नाम का द्वार है । न्यूनाधिक शाखामान - सार्धम वा कुर्याद्धीनं तथाधिकम् । दोषविशुद्धयर्थं स्ववृद्धी न दुषिते ||२७|| १ द्वार शाखा के मान में शुभ श्राय न थाती हो तो एक, डेढ़ अथवा प्राधा अंगुल न्यूनाधिक करके श्रेष्ठ ग्राम लानी चाहिये । प्राय दोष की शुद्धि के लिये शास्त्रीय मान में इतना न्यूनाधिक परिवर्तन किया जाय तो दोष नहीं है ।। ५० ।। त्रिशाला चतुर्भागाङ्कितं कुर्याच्छाखाविस्तारमानकम् । मध्ये द्विभागिकं कुर्यात् स्तम्भं पुरुषसञ्ज्ञकम् ||५८ || aster भवेच्छा पार्श्वतो भागभागिका । निर्गमे चैकभागेन रूपस्तम्भः प्रशस्यते ॥५६॥ शाखा के विस्तार का चार भाग करें। उनमें से दो भाग का रूप स्तंभ बनावें । यह स्तंभ पुरुष संज्ञक है। इसके दोनों तरफ एक २ भाग की शाखा रक्खें। यह शाखा स्त्री संक्षक है । रूप स्तंभ का निर्गम एक भाग का रखना श्रेष्ठ है ॥५६॥ शाखा स्तंभ का निर्गम एकांश सार्ध पादोनद्वयमेव च । द्विभागं निर्गमे कुर्यात् स्तम्भं द्रव्यानुसारतः ॥ ६० ॥ द्रय की अनुकूलता के अनुसार शाखा के स्तंभ का निर्गम एक डेढ़ पोना दो अथवा दो भाग तक रख सकते हैं ॥६०॥ शाखोवर का विस्तार और प्रवेश पेटके विस्तरं कार्यं प्रवेशस्तु युगांशकः । कोशिका स्तम्भमध्ये तु भूपणार्थं हि पार्श्वयोः ||६१॥ (१) हासो वृद्धिर्न दुष्यति ।'
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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