SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : १३० सप्तविंशति मण्डप ---- सप्तविंशति ये user विश्वकर्मणा । तलैस्तु विषैस्तुनः नः वन्नैः समैस्तथा ॥ २६ ॥ 1 rest areatara द्विद्विस्तम्भविवद्धनात् । 0 यावत् षष्टिश्चतुषु क्ताः सप्तविंशतिमण्डवाः || २७॥ श्री विश्वकर्मा ने जो सत्ताईस प्रकार के मंडप कहे हैं उनके तल सम मथवा विषम कर सकते हैं, परन्तु क्षरण ( खंड ? ) और स्तंभ ये सम संख्या में ही रखना चाहिये। पहला मंडप बारह स्तंभ का है। पीछे दो २ स्तंभ की द्वि चौसठ स्तंभ तक बढ़ाने से सत्ताईस मंडप होते है ।। २६-२७।। विशेष जानने के लिये देखें समरांगण सूत्रधार प्रध्याय ६७ और अपराजित पृच्छा सूत्र १८६ वां । इन दोनों में प्रथम मंडप चौसठ स्तंभों का लिखा है, पीछे दो २ स्तंभ घटाने से सत्ताईसव मंडप बारह स्तंभ का बनाने को कहा है। Meera air षोडशाला BNO ના તપમ एभ દુઃશી ૨૭ दो प्रासादमवडने Broch चैत्रा स्वपशोन मेकाले ऽष्टास्रमुच्यते । कलासः क्षेत्रषभागास्तत्परंशेन संयुतः ॥ २८ ॥
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy