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________________ tr] जिनेन्द्र प्रासादाध्यायः विभक्ति ग्यारहवीं । 'पोडशांशः प्रकर्तव्यः कर्णस्त्रयं रथस्त्रयम् । भद्राएँ 'दिपदं वत्स ! चतुर्दिनु नियोजयेत् ॥ ५४ ॥ निर्गमं पदंमानेन स्वहस्ताङ्ग लमानतः । शृङ्गं च तिलकं कर्णे रथे मद्रे चैवोद्गमः || ५५ || श्रेयांसवल्लभो नाम प्रासादश्च १६- श्रेयांस जिनवल्लभप्रासाद--- मनोहरः । इति श्रजिनवल्लभप्रासादः ॥ १६॥ प्रासाद की समचोरस भूमिका सोलह भाग करें। उनमें तीन भाग का कोण, तीन भाग का प्रतिक और दो भाग का भद्रार्थ बनायें। इसके अंगों का निकाला प्रासाद के पद के अनुसार हस्तांगुल मान का रक्खें। मर्थात् जितने हाथ का प्रासाद हो, उसने अंगुल निकलता रक्खें। कोण और प्रतिकरण के ऊपर एक एक श्रृंग और एक एक तिलक चढ़ावें । तथा भद्र के ऊपर उदगम बनायें। ऐसा श्रं यांस जिनवल्लभ नाम का सुंदर प्रासाद है ।।५४ से ५ श्रृंगसंख्याको ४, प्रतिको ८, एक शिखर कुल १३ ग । तिलक संख्याको ४ प्रतिक = | २०- सुकुलत्रासाब तद्रूषे तत्प्रमाणे च चत्वारि भद्रके || ५६ || सुकुलो नाम विज्ञेयो प्रासादो जिनवल्लभः । १६५ इति सुकुल प्रासादः ॥ २०॥ मान और प्रमाण कर के प्रासाद के अनुसार जानें । विशेष यह है कि भद्र के ऊपर एक एक श्रृंग चढाने से सुकुल नाम का प्रसाद होता है। वह जिन देव को है ॥५६॥ 'ग संख्या- कर्णे ४, प्रतिक भद्रे ४, एक शिखर, कुरु १७:१ २१- कुलनंदन प्रसाद उष्टकं कुर्यात् प्रासादः कुलनन्दनः || ५७|| श्री पांसजिनवल्लभ प्रासाद के भद्र के ऊपर पाठ उरुशृंग चढ़ाने से कुलनन्दन नाम का प्रसाद होता है ||४७|| संख्याको ४, ८, भद्र ८, एक शिखर, कुल २१ । तिलक १२ १. 'महादशीय": 3. 'Feat I'
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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