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________________ पञ्चमोऽध्यायः prospe दिशा के द्वार का नियम एकद्वारं भवेत् पूर्व द्विद्वार पूर्व पश्चिमे । त्रिद्वार मध्यजं द्वारं दक्षिणास्यं विवर्जयेत् ॥६।। प्रासाद का यदि एक द्वार रखना हो तो पूर्वदिशा में ही रक्खें । दो द्वार रखना हो तो पूर्व पश्चिम दिशामें रक्खें । तीन द्वार रखना हो तो दो द्वार के बीच में मुख्य द्वार रक्खें । परन्तु दक्षिणाभिमुख वाला मुख्य द्वार नहीं रखना चाहिये । ऐसा द्वार नहीं बनावे जिससे प्रवेश में उत्तर मुख रहे || चतुर चतुर्दिच शिवममजिनालये ।। होमशालायां कर्त्तव्यं क्वचिद् राजगृहे तथा ॥१०॥ शिव, ब्रह्मा और जिनदेव, इनके प्रासादो में चारों ही दिशाओं में द्वार रक्खें जाते हैं । एवं माशाला गोरमी राजमहल में गो विमानों में द्वार रक्खें जाते हैं ।।१०।। अपराजितपुचछा सूत्र १५७ में श्रिद्वारके विषय में विशेषरूप से लिखते हैं कि "पूर्वोत्तरयाम्ये व पूर्वापरोत्तरे तथा । याम्यापरोतरे शस्तं विद्वारं विविधं स्मृतम् ॥" पूर्व उत्तर और दक्षिण पूर्व पश्चिम और उत्तर तथा दक्षिण पश्चिम और उत्तर, इस प्रकार तीन प्रकार के विद्वार प्रशस्त हैं। "पूर्वापरे स्थाद् विद्वारं दूषच्च याम्योत्तरे। एकद्वार च माहेन्द्य चतुरिं चतुर्दिशम् ॥" अप० सू० १५५१ प्रासाद में दो द्वार बनाना हो तो पूर्व और पश्चिम दिशा में बनावें । परन्तु उत्तर और दक्षिण दिशा में नहीं बनावें, क्योंकि यह दोष का है । यदि एक ही द्वार बनाना हो तो पूर्व दिशा में ही बनायें और धार द्वार बनाना हो तो चारों दिशा में बनावें। "पूर्वे च भक्तिदं द्वारं मुक्तिदं वरुणोदसम् । पाम्योत्तरे शिवे द्वारे कृते दोषो महद्भयम् ।।" अप० सू० १५७ पूर्वदिशा का हार भक्ति देनेवाला है और पश्चिम दिशा का द्वार मुक्ति को देनेवाला है। शिव प्रासाद में यदि उत्तर और दक्षिण दिशा में द्वार किया जाय तो बड़ा दोष और भय करने वाला है। २. 'होमश.ला चतुरा' पाठान्तरे । मा०१३
SR No.090379
Book TitlePrasad Mandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size7 MB
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