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अथ जिनेन्द्रप्रासादाध्यायः
५८-तुष्टिपुष्टिदप्रासाद----
तद्रूपं च प्रकर्सव्य ---मुरुशृङ्ग च पञ्चमम् । तुष्टिपुष्टिदनामोऽयं प्रासादो जिनवल्लभः ॥१२६||
इति तुष्टिपुष्टिदप्रासादः ।।५।। अष्टापदप्रासाद के भद्र के ऊपर चार के बदले पांच उराग चढावें तो तुष्टिपुष्टिव नामका प्रासाद होता है । यह जिनदेव को प्रिय है ॥१६॥
शृंग संख्या--भ २० बाकी पूर्ववत् कुल २२५ शृंग और तिलक ४ कोरो जिनप्रासाद प्रशंसा
प्रासादाः पूजिता लोके विश्वकर्मणा भाषिताः ।
चतुर्विशाविभक्तीनां जिनेन्द्राणां विशेषतः ।।१२७।। उपरोक्त विश्वकर्मा ने कहे हुए चौबीस विभक्ति के जिनेन्द्र देवों के प्रासाद विशेष प्रकार से पूजनीय हैं ॥१२॥
चतुर्दिशि चतुराः धुरमध्ये सुखावहाः ।
भ्रमाश्च विनमाश्चैव प्रशस्ताः सर्वकामदाः ॥१२८॥ चारों दिशाओं में द्वारवाले अर्थात् चार द्वारवाले, भ्रमवाले अथवा बिना भ्रम के जिनेन्द्र प्रासाद नगर में हो तो प्रजा को सुख देने वाले हैं। तथा प्रशस्त हैं और सब इच्छित फल को देने वाले हैं ॥१२८
शान्तिदाः पृष्टिदाश्चैव प्रजाराज्यसुखावहाः । अश्वैर्गजैवलियान-महिपीनन्दीभिस्तथा ॥१२६॥
सर्वश्रिपमाप्नुवन्ति स्थापिताच महीतले । जिनेन्द्रदेवों के प्रासाद शान्ति देने वाले हैं। पुष्टि देनेवाले और राजा प्रजा को पुख देनेवाले हैं। एवं इस पृथ्वी के ऊपर जिनेन्द्र देवों के प्रासाद स्थापित करने से घोडे, हायो, बेल, भैंस और गाय प्रादि की सब सम्पत्तियों को देने वाले हैं ।।१२६॥
नगरे ग्रामे पुरे च प्रासादा ऋपभादयः ॥१३०॥ जगत्या मण्डपयुक्ताः क्रीयन्ते वसुधातले ।। सुलभं दीयते राज्यं स्वर्गे चैवं महीतले ॥१३॥