Book Title: Prasad Mandan
Author(s): Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 245
________________ १६६ विभक्ति बारहवीं । चतुरस्रीकृते क्षेत्रे द्वाविंशपदभाजिते । पदानां तु चतुर्भागाः कर्णे चैवं तु कारयेत् ||५८|| कोशिका पदमानेन प्रतिरथस्त्रिभागकः । aftaar भागमनि भद्रा भि कर्णे क्रमत्रयं कार्यं प्रतिकर्णे क्रमद्वयम् । त्रिकूट नन्दीकर्णे च ऊर्ध्वे तिलकशोभनम् ||६०॥ भद्रे भृत्रयं कार्य-मष्टौ प्रत्यङ्गानि च । २२- वासुपूज्यजिन प्रासाद वासुपूज्यस्तदा नाम वासुपूज्यस्य वल्लभः ||६१॥ eft वाजिप्रासादः ॥२॥ eatre भूमि के बाईस भाग करें। उन में चार भाग का कोण, कर्णानंदी एक भाग, तीन भाग का प्रतिरय, भद्रनन्दी एक भाग और दो भाग का भद्रार्थ रक्खें । काणे के ऊपर तो कम, प्रतिक के ऊपर दो क्रम कोणी और मंदी के ऊपर त्रिकूट और उसके ऊपर तिलक, भद्र के ऊपर तीन तीन उरुशृंग और साठ प्रत्यंग चढ़ावें। ऐसा वासुपूज्य नामका प्रासाद वासुपूज्य जिन को प्रिय है ।।५८ से ६१ ॥ शृग संख्या- कोरणे १०८, प्रतिरथे ११२, नंदी पर ८, भद्रनंदो पर ८ भद्रं १२ प्रत्यंग में एक शिखर कुल २५७ । तिलक- १६ दोनों नंदी के ऊपर। २३- रत्नसंजयप्रासाद JRAN तद्रूपे च प्रकर्त्तव्यः कणों तिलकं न्यसेत् । traiजयनामोऽयं गृहराजसुखावहः ||६२|| इति रत्नराजयप्रासादः ||२३|| ऊपर एक तिलक बढ़ाने से रत्नसंजय नाम का वासुपूज्यप्रासाद के कोसी के क्रम प्रासाद होता है । यह प्रासाद राजसुख कारक है ॥५२॥ संख्या पूर्ववत् २५७ और तिलक २० को ४, दोनों मन्दी पर १६ । -धर्मवप्रासाद तद्रूपे तत्प्रमाणे च चतुर्थकम् । धर्मदस्तस्य नामायं पुरे वै धर्मवर्धनः || ६३ || इति धर्मप्रासादः ॥२४॥

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