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अथ जिनेन्द्रप्रासादाध्यायः
रत्नसंजयप्रासाद के भद्र के ऊपर चौथा एक उग अधिक चढ़ाने मे धर्मद नामका प्रासाद होता है, वह नगर में धर्म को बढ़ाने वाला है ॥६॥
शृंगसंख्या-कोरो १०८ प्रतिरथे ११२, कोणी पर ८, नंदी पर ८, भद्रे १६ प्रत्यंग , एक शिखर कुल २६१ ग । तिलक पूर्ववत् २० ।।
विभक्ति तेरहवीं। २५--धिमलवल्लभप्रासाद
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे चतुर्दिशतिभाजिते । पदेन जयभागेन कर्णस्तत्र विधीयते ॥६॥ तज्ञेयः प्रतिकर्णः कोणिका नन्दिका पड़ा ।
भद्रा तु चतुर्भागं निर्गम भागमेव च ॥६॥ समनिर्गमं रथं शेयं कर्त्तव्यं चतुरो दिशि । कणे शृङ्गनपं कार्य प्रति कर्णे 'द्वयमेव च ॥६६।। नन्दिका कोणिकायां च शृङ्गकूटं सुशोभितम् । भद्रे चैवोरुचत्वारि चाटौं प्रत्यङ्गानि च ॥६७॥ विमलपलमनामोऽयं प्रासादो विमलप्रियः ।
इति विमलजिनवल्लभप्रासादः ॥२१॥ समचोरस भूमि का चौबीस भाग करें । उन में तीन भाग का कोण, तीन माग का प्रतिकर्ण, कोरिणका और नंदिका एक एक भाग, और चार भाग का भद्रार्ध बनावें । भद्र का निर्गम एक भाग रणखें । रथ और कर्ण का निर्गम समदल रखें । कोरो के ऊपर तीन शृंग, प्रतिकरण के कार को शृंग, मंदिया एका के ऊपर एक और एक एक कूट, भद्र के ऊपर चार उहशृग और पाठ प्रत्यंग चहा। यह विमरजिनाम्लभ ना ! प्रासाद बिमलमिन को प्रिय है ।।६४ से ६७॥
मुंगसंख्या-कोणे १२, प्रतिरथे १६, कोणी पर ८, नंदी पर, ६, अझै १५, प्रत्यंग , एक शिश्वर कुल ६६ भृग । कूट १६ । २६-मुक्तिप्रासाद
बद्रपे च प्रकर्तव्यो रथं विलकं दापयेत् ॥६८।। १. 'हरका