________________
प्रासादमडने
२४-वृषभप्रासाद
द्वाविंशत्या विभक्ते च द्विभागा भित्तिका भवेत् । भ्रमणी तत्समा चैव पुनभित्तिश्च तत्समा ॥५॥ शतमूलपर्दैनः कर्तव्यो लक्षणान्वितः । कर्णप्रतिस्थरथो-परथा द्विद्विविस्तराः ॥६॥ भद्रनन्दी भवेद् भागं वेदांशो भद्रविस्तरः ।
भागो मद्र निर्गभः स्यावा पूर्वस्पिताः ॥६॥ यह वृषभ प्रासाद को समचोरस भूमिका बाईस भाग करें। उनमें से दो माग की बाहर की दीवार, दो भाग की भ्रमणो, दो भाग को गर्म की दीवार और दस भाग का गभारा रखें। बाहर के अगों में--कोरण, प्रति रथ, रथ और उपरथ, ये प्रत्येक दो दो भाग के विस्तार वाले रक् । भद्रनन्दो एक भाग की रक्खें और पूरा भद्र चार भाग का रक्खें । भद्र का निर्गम एक भाग का रक्खें। बाकी के सब प्रग समदल बनावें ॥५८ से ६०॥
कणे द्विशृङ्ग तिलकं शिखरं षोडशांशकम् । शृङ्गवयं प्रतिस्थे प्रत्यङ्ग विभागिकम् ।।६१॥ रथे शृङ्गवर्य कुपोच्छ कोर्षे चोरुमञ्जरी । द्वे द्वे भृक्षे उपरथे उत्शृङ्गं षडंशकम् ॥६२|| भद्रनन्धो भवेच्छ ग वेदांशा चोरुमबरी । द्विभागं भद्रशृङ्ग व कर्तव्यं च मनोरमम् ॥६३॥ सप्तनक्त्यण्डकयुक् काव्यो लक्षणान्वितः । वृषभो नाम विख्यात ईश्वरस्य सदा प्रियः ॥६४॥
इति वृषभप्रासादः ॥२४॥ शिखर का विस्तार सोलह भाग का करें। कोणों के ऊपर दो श्रृंग और एक तिलक, प्ररथ ऊरर दोश्रृंग, उसके ार तीन तीन भाम का प्रत्यंग, रथ के ऊपर तीन भंग, उपरथ के ऊपर दो दो शृंग, भद्रनन्दी के ऊपर एक शृंग और भद्र के ऊपर चार उरुशृंग चढ़ावें । पहला उरुग पास भाग का, दूसरा छह भाग का, तीसरा चार भाग का और चौथा दो भाग का रवखें । सत्तानवे ग वाला और सब लक्षण काला, ऐसा यह वृषभ नाम का प्रसाद ईश्वर को सर्वदा प्रिय है ।।६१ से ६४॥
मग संख्या-कोणे, प्रत्यंग ८, प्ररथे १६ रघे.२४. उपरथे १६ भद्रनन्दी पर भद्रं १६ और एक शिखर, एवं कुल ६७ शृंग । तिलक संख्या-४ कोण पर।