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er जिनेन्द्रप्रासादान्यायः
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कर्णे क्रमद्वयं कार्यं रथे भद्रे तथोद्गमः । सुपार्श्वनाम विशेयः गृहराजः सुखावहः ||३७|| इति सुपा जिनवल्लभप्रासादः ॥ १० ॥
प्रासाद की समचोरस भूमि का दस भाग करें। उनमें से दो भाग का फोरम, डेढ़ भाग का प्रतिक बनावें । ये दोनों अंग enalra निकलता रक्खें। भद्रार्ध डेढ भाग का रखें, उसके दोनों बगल में दो कपिला भद्र के मान की बनायें। भद्र का निकाला एक भाग का रखें । कोणो के ऊपर दो क्रम चढ़ावें, तथा प्रतिक और नत्र के ऊपर डोढोया (उद्गम ) बनायें । ऐसा प्रसादराज सुपार्श्वनाम का है, यह सुख देने वाला है
।। ३५ ३७ ।।
संख्याको ५६, एक शिखर कुल ४७ श्रृंग ।
११- श्रीवल्लभप्रासाद---
रथो शृङ्गमेकं तु भद्रे चैवं चतुर्दिशि । श्रीaartaar नाम प्रासादो जिनवल्लमः || ३८ ||
इति श्रीवल्लभप्रासादः ॥ ११॥
सुपार्श्वजिनवल्लभ प्रासाद के प्रतिक के ऊपर एक एक श्रृंग और भद्र के ऊपर एक एक उरुग चढ़ाने से श्री वल्लभ नाम होता है, यह जिन देव को प्रिय है । ३
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रंग संख्या- कोशी ५६, प्रतिको
भने ४, एक शिखर,
कुल ६० श्रृंग |
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१२- चन्द्रप्रमवल्लभ शीतलप्रासाद
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चतुरस्त्रीकृते
क्षेत्रे द्वात्रिंशत्पदभाजिते । भागो भवेत् कर्णः प्रतिकर्णस्तथैव च ||२६|| ari ragni नन्दिका कर्णिका पदा । समदलं च कर्तव्यं चतुर्दिक्षु व्यवस्थितम् ||४०||