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१.५
कर्णे द्विशृङ्ग' तिलकं शिखरं सूर्य [विस्तरम् । तिलके द्वे नन्दिकायां प्रत्यङ्ग तु द्विभागिकम् ||४२॥
त्रयं प्रतिरथे पडभागा चोरुमञ्जरी । तिलके द्वे पुनर्नन्द्यां गुरुशृङ्ग युगांशकम् ||४३|| चोरुमञ्जरी ।
नयां च शृङ्गतिके त्रिभागा द्विभागं भद्रशृङ्ग च अर्धे चार्षे च निर्गमः ॥ ४४ ॥
कोणे के ऊपर दी श्रृंग और एक तिलक चढ़ावें । शिखर का विस्तार बारह भाग का रक्खें । कनन्दो के ऊपर दो तिलक और दो भाग का प्रत्यंग चढ़ायें। प्रतिरथ के ऊपर तीन श्रृंग और नंदी के ऊपर दो तिलक चढ़ावें । भद्रनन्दी के ऊपर एक श्रृंग और एक तिलक चढ़ावें । भद्र के ऊपर चार उरु म चढ़ावें, उनमें पहला उत्शृंग छः भाग, दूसरा चार भाग, तीसरा तीन भाग और चोथा दो भाग का रक्खें। ये उरुगों का निर्णय विस्तार से भाघा रक्ख ||४२ से ४४||
रत्नकूटस्तदा नाम शिवलिङ्गेषु कामदः । प्रशस्तः सर्वदेवेषु राज्ञां तु जयकारणम् ||४५||
प्रासादमeat
संख्याको
८,
प्रत्यंग प्रतिरथे २४, भद्र नन्दी पर भ१६, एक शिखर कुल ६५ ग और तिलक कोणे ४, कोणी पर १६, प्ररथ नदी पर १६ और भद्र नन्दी पर कुल ४४ तिलक |
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इति रत्नकूटप्रासादः ॥ १६ ॥ ऊपर कहे हुए स्वरूप बाला रत्नकूट प्रासाद शिवलिंग के लिये बनायें तो सब इच्छित फल को देने वाला है । सब देवों के लिये बनावें तो भी प्रशस्त है और राजाओंों को विजय कराने वाला है ||४५॥
१७- वैडूर्य प्रासाद
' तृतीयं रेखter कर्तव्यं सर्वशोभनम् ।
वैर्यश्च तदा नाम कर्त्तव्यः सर्वदैवते ॥४६॥
इति वैडूर्यप्रसाद : 11१७॥
इस प्रासाद का तलमान और स्वरूप रत्नकः प्रासाद के अनुसार है। विशेष यह है कि फोटो के फ़ार से तिलक निकाल करके उसके बदले एक
तीसरा श्रृंग चढ़ावें । सब