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तृतीयोऽध्यायः
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शिवे द्वारं भवेज्येष्ठं कनिष्ठं च जनालये । मध्यमं सर्वदेवानां सर्वकल्याणकारकम् ॥ उचममुक्यान पादोन मध्यमानकम् । तस्म होनं कनिष्ठं च विस्तारे द्वारमेव च ॥ एवं ज्ञानं यदा शास्वा पा द्वारं प्रतिष्ठितम् ।
नागरं सर्वदेवानां सर्वदेवेषु दुर्लभम् ।।" प्रति विश्वकर्मकते क्षीरावे मारपृष्ठिते शताये पञ्चमोऽध्यायः । एक से चार हाथ तक प्रत्येक हाथ सोलह २ अंगुल को, पांच से दश हाथ तक चार २ अंगुल को, ग्यारह से बीस हाथ तक तीन २ अंगुल की, इक्कीस से तीस हाय तक दो २ अंगुल को और इकतीस से पचास हाथ तक एक अंगुत की वृद्धि करके द्वार बनाना चाहिये। है मुनि ! यह क्षीराव में नागर जाति के द्वार का मान कहा । उसमे से दसवां भाव कम करें तो स्वर्ग के और अधिक करें तो पर्वत के प्राश्रित प्रासाद के द्वारका मान होता है । शिवालय में ज्येष्ठ द्वार, मनुष्यालय में कनिष्ट द्वार और सब देवों के प्रासादों में मध्यम द्वार बनाना चाहिये । यह सब कल्याण करने वाला है। उदय से प्राधा विस्तार रक्खें तो यह उत्तम मान का द्वार माना जाता है। इसमें उत्तम मान के विस्तार का चतुर्थीश कम रक्खें तो मध्यम मान का और इसमें भो मध्यम मान के विस्तार का बशि कम रक्खें तो कनिष्ठ मान का द्वार माना जाता है । ऐसा समझ करके ही सब देवों के लिये यह नागर जाति का द्वार बनाना चाहिये । भूमिजाविप्रासावका द्वारमान
एकहस्ते सुरागारे द्वार सूर्याङ्गुलोदयम् । सूर्याङ्गला प्रतिकरं पृद्धिः पञ्चकरावधि ।।४७| पञ्चाङ्गला च सप्तान्तं नवान्तं सा युगाङ्गुला । द्वथङ्ग ला तु शतान्तिं वृद्धिः कार्या करं प्रति ॥४८॥
" इति भूमिजप्रासादद्वारमानम् । एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद के द्वार का उदय बारह अंगुल, पीछे पांच हाथ तक प्रत्येक हाथ बारह २ अंगुल, छह और सात हाथ तक पांच २ अंगुल पाठ और तब हाथ तक चार २ अंगुल, दस मे पचास हाथ तक के प्रासाद के द्वार का उदय दो २ अंगुल बढ़ा करके रक्खें । ( उदय से प्राधा विस्तार रखना चाहिये । विस्तार में उदय का सोलहवां भाग बढ़ाने से अधिक शोभायमान होता है ) -४८॥