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उष्टमोऽध्यायः
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पूर्वोत्तर दिशा (ईशान कोन ) अथवा पश्चिम दक्षिण दिशा (नैऋत्य कोन ) मैं प्रासाद टेदा हो तो दिङ्मूढ दोष नहीं माना जाता। जैसे तीर्थ स्थान में प्रासाद के मूल और अमूह का दोष नहीं माला आता ॥६
'पूर्वपश्चिम दिङ्मूढं वास्तु स्त्रीनाशकं स्मृतम् ।
दक्षिणोत्तरदिए मूढं सर्वनाशकरं भवेत् ॥" अप० ० ५२ पूर्व पश्रिम दिशा का वास्तु अग्नि और वायु कोनमें दिङ्मूढ हो तो स्त्री का विनाश कारक है। दक्षिणोतर दिशा का वातु भी अग्न्द्रि और वायुकोन में दिड्यूट हो तो सर्व विनाश कारक है। दिङ्मूढ का परिहार---
सिद्धायतनसीथेषु नदोना सामेषु च ।
स्वयम्भवाणलिङ्गेषु तत्र दोषो न विद्यते ॥१०॥ सिद्धायतन अर्थात् सिख पुरुषों का निर्धारण, अग्नि संस्कार, जल संस्कार अथवा भूमिसंस्कार हुमा हो ऐसे पवित्र स्थानों में, तथा च्यवन, अन्म, दीक्षा ज्ञान और मोक्ष संस्कार हुआ हो, ऐसे तीर्थस्थानों में, नदी के संगम स्थान में, बनाया हुआ प्रासाद तथा स्वयंभू और वाण लिंगों के प्रसाद, ये दिङ्मुढ हों तो दोष नहीं है ॥१०॥ अव्यक्त प्रसाद का चालन
अव्यक्त' मृण्मयं चाल्यं त्रिहस्तान्तं तु शैलजम् ।
दाज पुरुषाहि अत ऊवं न चालयेत् ॥११॥ यदि अव्यक्त जीर्ण प्रासाद मिट्टी का हो तो गिरा करके फिर बनावें, पाषाण का हो तो तीन हाथ तक और लकड़ी का हो तो प्राधे पुरुष के मान सक ऊंचा रहा हो तो चलायमान करें। इससे अधिक ऊंचाई में रहा हो तो चलायमान न करें ॥११॥ महापुरुष स्थापित देव
विषमस्थानमाश्रित्य मन्नं यत्स्थापितं पुरा ।
तत्र स्थाने स्थिता देवा भग्नाः पूजाफलप्रदाः ॥१२॥ प्राचीन महापुरुषोंने जो देव स्थापित किये हैं, वे विषमासन वाले हों; अथवा खंडित हों तो भी पूजनीय हैं । क्यों कि उस स्थान पर देवों का निवास है, इसलिये वे देवमून्तियां पूजन का फल देनेवाली हैं ॥१२॥ १. 'स्वतंतुऐमा पराजिपण्या सूत्र ११% में पाठ है। प्रा०१६
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