________________
TANTR
ऽष्टमोऽध्यायः
१५१
.............
प्राश्रम और मठ
प्रासादस्योत्तरे याम्ये वथाग्नौ पश्चिमेऽपि वा ।
यतीनामाश्रमं कुर्यान्मठं तद्वित्रिभूमिकम् ॥३३॥ प्रासाद के उत्तर अथवा दक्षिण दिशा में, तथा अग्निकोन में या पिछले भाग में यतियों का प्राश्रम तथा ऋषियों का मठ, दो या तीन मंजिल बनावें ॥३३॥ .
द्विशालमध्ये षड्दारुः पट्टशालाने शोभिता । ।
मसवारणमने च तवं पट्टभूमिका ।।३४॥ पाश्रम के दोशाला के मध्य में षड्दार ( आमने सामने की दीवार में दो दो स्तंभ और उसके ऊपर प २ एक २ पाट, मेला गड्तार कहा जाता है ! लें । द्विशाला के प्रागे सुशोभित पट्टशाला ( बरामक्ष ) बनावें और उसके आगे कटहरा बनायें। उसके ऊपर पट्टभूमिका ( चंद्रशाला-खुली छत ) रक्खें ॥३४॥ स्थान विभाग
कोष्ठागारं च वायव्ये बहिनकोणे महानसम् । पुष्पगेहं । तथेशाने नैऋत्ये पात्रमायुधम् ॥३॥ सत्रागारं च पुरतो वारस्यां च जलाश्रयम् ।। मठस्य' पुरतः कुर्याद् विद्याव्याख्यानमण्डपम् ॥३६||
इति मः। मडके वायुकोने में धान्म का कोठार, अग्निकोने में रसोड़ा, ईशान कोने में पुष्पग्रह (पूजोपगरण), नैऋत्य कोने में पात्र और प्रायुध, प्रागे के भाग. में यज्ञशाला और पश्चिम दिशामें जलस्थान बनावें । एवं मठ के प्रागे पाठमाला और व्याख्यान मंडप बनावें ॥३५-३६।। प्रतिष्ठा मुहूर्त--
पूर्वोक्ता सप्तपुण्याह-प्रतिष्ठा सर्वसिद्धिदा 1
रवौ सौम्यायने कुर्याद् देवानां स्थापनादिकम् ॥३७॥ प्रथम अध्ययन के श्लोक ३६ में जो सात पुण्य दिन कहे गये हैं। उनकी प्रतिष्ठा सर्वसिद्धि को देनेवाली है । जब सूर्य उस रायन में हो तब देवों को प्रतिष्ठा प्रादि शुभ कार्य करना चाहिये ॥३६॥ १. 'मस्योपरितः ।