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ऽष्टमोऽध्यायः
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वसी । तो वह शिक), देवी, विष्णुकान्ता, इन्द्रवारुणी, शंखाहुली, ज्योतिष्मती ( मालकांगनी ) और शिवलिंगी, ये माठ पौषधियां पूर्वादि दिशामों में चष्टिकम से रक्खें ॥३॥ धान्यन्यास
यवो ब्रीहिस्तथा कङ्गु-जूर्णाह्वा च तिलैयुताः ।
शाली मुद्गाः समाख्याता गोधूमाव क्रमेख तु ||६|| जब, धोहि, कंगु, जुमार, तिल, शालो, मूग और गेहूं, मे पाठ धान्य पूर्वादि दिशाओं में कृष्टिकम से रक्खें। प्राचार्य और शिल्पियों का सम्मान
यह वाभरणं पूजा वस्त्रालङ्कारभूषणम् ।
तत्सर्व शिल्पिने दद्याद् आचार्याय तु याचिकम् ॥६॥ देवसंस्कार के लिये जो वस्त्र और अलंकार आदि आभूषण बढाया जाता है, वे सब शिल्पिको देना चाहिये और प्राचार्य को यज्ञ संबंधी सब वस्तु देनी चाहिये |६||
ततो महोत्सव कुर्यान्नृत्यगीतैरनेकशः ।
नैवेद्यारात्रिकं पूजा-मनापासादिकं तथा ॥६६॥ पोछे अनेक प्रकार के नृत्य और गीत पूर्वक महोत्सव करें, नैवेद्य चढ़ावें, आरती करें पौर अंगन्यास ( मुद्रा न्यास ) आदि करें॥६६॥ ।
क्षीरं चौद्रं घृतं खण्डं पक्वाभानि बहून्यपि ।
षडरसस्वादुभत्याणि सन्मानं परिकल्पयेत् ।।६७।। दूध, शहद, घी, खांड और अनेक प्रकार के पकवान, तथा षड्रस के स्थाय वाले भोजन पदार्थ, ये सन्मान पूर्वक देव के प्रागे रखने चाहिये ।।६७॥
विप्राणां सम्प्रदायैश्च वेदमन्त्रैस्तथागमैः ।
सकलीकरणं जीवन्यासं कृत्वा प्रतिष्ठयेत् ॥६॥ पीछे ब्राह्मण प्राने सम्प्रदाय के मनुसार वेद त्रों से तया मागम मंत्रों से सकलीकरण करके देवमें जीवन्यास करें। पोले पहिडित करें ॥३॥
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