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प्रासावमारने
ईशानकोन की वेदी के कपर देवका शय्यासन रक्खें । उनके चरण उत्तर दिशा में रक्खें । सिर भाग के पास कलश और परख के स्थान के पास कमंडनु रक्खे ॥५८||
व्यजनं दक्षिणे देशे दर्पण वामतः शुमम् ।
रत्नन्यासं ततः कुर्याद् दिक्पालादिकपूजनम् ॥५६॥ देवकी दाहिनी पोर पंखा और बायीं ओर दर्पण रखना शुभ है। पीछे माठ दिशामों - में रत्न को स्थापित करके दिक्पाल प्रादि की पूजा करें ||५||
श्राग्नेयां गणेशं विद्या-दीशानेग्रहमण्डलम् ।
नैश्च त्ये जास्तुपूजा च वायव्ये मातरः स्मृतः ॥६॥ ___ अग्निकोम में गणेश, ईशानकोन में मवह मंडल, नैऋत्य कोन में वास्तुपूमा और बाययकोन में माहदेवता की स्थापना करें ।।६।। रत्नन्यास
वचं वैडूर्यकं मुक्ता-मिन्द्रनीलं सुनीलकम् ।
पुष्परागं च गोमेदं 'प्रवालं पूर्वतः क्रमाद ॥६१।। वन (हीरा), वैडूर्य, मोती, इन्द्रनील, सुनील, पुष्पराग, गोमेद और प्रवाल, ये । पाठ रत्न पूर्वादि सृष्टिकम से रक्खें ॥६१६ धातुन्यास
सुवर्य रजतं ज्ञान कास्य रीतिं च सीसकम् ।
बङ्गं लोई च पूर्वादौ सृष्टया धातूनिह न्यसेत् ॥६२॥ सोना, चांदी, तांबा, कांसी, पीतल, सोसा, कलाई और तोह ये पाठ भातु पूषि सृष्टिकम से रक्खें ।।२।। पौषधिन्यास----
*वजी बह्निः सहदेवी विष्णुकान्तेन्द्रनारुखी ।
शंखिनी ज्योतिष्मती चैवेश्वरी तान् क्रमान् न्यसेत् ॥६॥ पराजितपृच्या सूत्र १४६ श्लो. १५ में 'पा' पाई। १. 'चन्द्र पूर्वादिषु यजेत्' इति पाठान्तरे ।