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प्रासादमखने
छाया भेद
प्रासादोच्छायविस्तारा-जगती बामदक्षिणे ।
आयामेदा न कर्तव्या यथा लिङ्गस्य पीठिका ॥२८॥ प्रासाद के उदय और विस्तार के अनुसार बाथों और दाहिनी और अगती शास्त्रमान के अनुसार रखना चाहिये । ऐसा न करें तो छायादोष होता है, क्योंकि जैसे शिवलिंग की पीठिका रूप जगती है, वैसे प्रासाद रूप लिंग की जगतीरूप पीठिका है ॥२८॥ देवपुर, राजमहल और नगर का मान
जंगत्यां त्रिचतुःपञ्च-गुणं देवपुर विधा । . एकद्विवेदसाहस्त्र-ईस्तैः स्याद् राजमन्दिरम् ॥२६॥ कलाष्टवेदसाहस्र-हस्तै राजपुरं समम् ।
दैर्य तुल्यं सपादांशं साधांशेनाधिकं शुभम् ॥३०॥ असी में तीन, घ.२ अवः सभा जु देवर का नाम है। एक, दो अथवा चार हजार हाथ का राजमहल का मान हैं और सोलह आठ अथवा चार हजार हाथ का राजपुर ( राजधानी वाला नगर) का मान हैं । ये दरेक का तीन २ प्रकार का मान जाने। लंबाई में विस्तार के बराबर अथवा सवाया तथा डेटा मान का रखना शुभ है ।।२६-३०॥ राजनगर में देवस्थान
द्वादश त्रिपुराणि स्यु-देवस्थानानि चत्वरे । षट्त्रिंशत् षड्भिया पायदष्टोचरं शतम् ॥३१॥ पुरं प्रासादगृहै। स्थात् सौधैर्जालगवाक्षकः । कीर्तिस्तम्भैर्जलारामै-माहेश्च' शोभितम् ॥३२॥
' इति देवपुरराजपुराणि । राजनगर के चौरास्ते में बारह त्रिपुर (छतीस.) देवस्थान हैं । छत्तीस से छह २ बढ़ाते हुए एकसौ आठ तक बढ़ावें, उतने देवस्थान है। यह नगर देव प्रासादों से, जाली और गवाक्षवाले राजमहलों से और गृहों से कोत्तिस्तंभों से कूमां, बावड़ी प्रादि जलाश्रयों से, किला और मंडपों से शोभित होता है ।।३१-३२।।