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प्रासादमदने
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व्यक्ताव्यक्त प्रासाद...
व्यक्ताव्यक्तं गृहं कुर्याद भिन्नामिन्नस्य भूचिकम् । यथा स्वामिशरीरं स्यात् प्रासादमपि तादृशम् ।।१६।।
इति भिन्नदोषाः। उपरोक्त मिन्मा और अभिन्न दोषवाली देवमूर्तियों के लिये व्यक्त और अध्यक्त प्रासाद बनावें । अर्थात् भिन्न दोष रहित देयों के लिये प्रकाश वाले और भिन्न दोषवाले देवों के लिये अंधकारमय प्रासाद बना । जैसे स्वामी अपने शरीर के अनुकूल गृह बनाता है, वैसे देवों के अनुकून प्रासाद बनाना चाहिये ।।१६।। प्रपराजित पृच्छा सूत्र ११० में कहा है कि
"व्यक्ताव्यक्तं लयं कुर्यादभिन्नभिन्न मूर्तयोः ।
मूत्तिलक्षण स्वामो प्रासादं तस्य तादृशम् ॥" भिन्न दोहों से रहित शिव ग्रादि की देव मूर्तियों के लिये व्यक्त (प्रकाशवाले ) प्रासाद अनाचे प्रौर भिन्न दोपकाली गोरी प्रादि की देव मूर्तियों के लिये प्रत्यक्त (अंधकारमय) प्रासाद बनायें। महामर्मदोष......
'भिन्नं चतुर्विध ज्ञेय-मधा मिश्रकं मतम् । मिश्रकं पूजितं तत्र मिन्नं चे दोपकारकम् ॥२०॥ छन्दभेदो न कर्तव्यो जातिभेदोऽपि वा पुनः ।
उत्पद्यते महामर्म जातिभेदकृते सति ।।२१।। भिन्नदोप चार प्रकार के और मिश्रदोष मा प्रकार के हैं। उनमें मिश्रदोष पूजित { शुभ ) हैं और भिन्नदोष दोपकारक हैं । छंदभेद-जैसे छंदों में शुरु लघु यथावस्थान न होने से छंद दूषित होता है, वैसे प्रासाद की अंगविभक्ति नियमानुसर न होने से प्रासाद दूषित होता है। जातिभेद-प्रासाद की अनेक जातियों में से पीठ आदि एक जाति को और शिखर प्रादि दूसरी जाति का बनाया जाय तो जातिभेद होता है। ऐसा जतिभेद करने से बड़ा मर्मदोष उत्पन होता है ।२०-२१॥
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१. भिन्नदोष जानने के लिये देखो अपराजित पृच्छा सूत्र ११. मौर मिश्रदोष जानने के लिये देखो
मप० सूत्र ११४ श्लो०१ से है।
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