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यद्यथा स्थापितं वास्तु तथैव हि कारयेत् ।
अव्यङ्ग' चालितं वास्तु दारुणं कुरुते मयम् ॥१३॥
प्राचीन महापुरुषोंने जो वास्तु स्थापित किया है, उसका यदि जीर्णोद्वार किया जाय तो जैसा पहले हो वैसा ही करना चाहिये | जी वास्तु यदि अंगहीन न हुआ हो तो ऐसे वास्तु को चलायमान करने से बड़ा भयंकर भय उत्पन्न होता है ||१३||
अथ तथालयेत् प्राज्ञ- जीर्ण व्यङ्ग' च दूषितम् ।
श्राचार्य शिल्पिभिः प्राज्ञैः शास्त्रदृष्टया समुद्धरे ॥ १४॥
यदि प्राचीन वास्तु जीर्ण हो गया हो अथवा अंगहीन होकर दीपवाला हो गया हो उसका विद्वान् आचार्य और शिल्पियों की सलाह लेकर शास्त्रानुसार उद्धार करना चाहिये ||१४||
जीर्णवास्तु पातन विधि
स्वर्ण रौप्यजं वापि कुर्याernaut वृषम् । तस्य शृङ्गेण दन्तेन पतितं पातयेत् सुधी
प्रासादमण्डने
॥१५॥
इति जीर्णोद्वार विधिः ।
जीर्णोद्वार के आरंभ के समय सोना अथवा चांदी का हाथी अथवा वृषभ बनायें । उस हाथी के दांत से अथवा वृषभ के श्रृंग से जीवास्तु को शिवे । उसके बाद बुद्धिमान freat सब गिरा देवें ||१५||
महादोष -
auri ares चैr कीलकं सुषिरं तथा ।
fer after area महादोषा इति स्मृताः ॥ १६॥
देवालय में चुना उत्तर जाने से मंडलाकार लकीरें दीखती हों, मकड़ी के जाले लगे हों, फोले लगी हों, पोलाल हो गया हो, छिद्र पड गये हों, सांध दीख पड़ती हों और कारागृह बन गया हो, तो ये महादोष माने गये हैं ||१६||
शिल्पिकृत महादोष -
"feast regrete प्रायहीनः शिरोशुरू: 1.
ज्ञेया दोषास्तु चत्वारः प्रासादाः कर्मदारुणाः ॥" अप० सू० ११०