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यदि प्रासाद दिङ्मूढ हो गया हो, नष्टछंद हो अर्थात् यथा स्थान प्रासाद के अंगोपांग न हो, प्राय हीन हो और ऊपर का भाग भारो व नीचे का पतला हो तो उन्हें प्रासाद के चार भयंकर महादोष शिल्पिकृत माना है। भिन्न और अभिन्न दोष--
भिषदोपकर यस्मात् प्रासादमठमन्दिरम् ।
म्भामिर्जालकैार रस्मिवातैः प्रमेदितम् ॥१७॥ प्रासाद ( देवालय ), मठ (पाश्रम) और मंदिर (गृह), इनका गर्भगृह यदि भूषा (लंबा अलिद) से, जालियों से अथवा दरवाजे से प्राते हुए सूर्य की किरणों से वेधित होता हो तो भिन्न दोष माना जाता है ।।१७॥ अपराजितपुच्छा सूत्र ११० में कहा कि
"भूषाभिलिकेद्वार-भों यत्र न भिद्यते । .
प्रभिन्म कथ्यते तच्च प्रासादो बेश्म वा मठः ।" प्रासाद, गृह प्रौर मड का गर्भगृह मूषा, आलि और द्वार से प्राते हुए सूर्य किरणों से भेदित न होता हो तो यह अभिन्न कहा जाता है। देबों के मिनदोष
प्रमाविष्णुशिवाकोला मिल्नं दोपकर नहि ।
जिनगौरीगणेशानां गृहं मिन्नं विवर्जयेत् ॥१८॥ ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सूर्य, इनके प्रासादों में भिन्नदोष हो तो वे दोष कारक नहीं है। परंतु जिमदेव, गोरी और गणेश के प्रासादों में भिन्न दोष हो तो दोष कारक है, इस लिये इन्हें भिन्न दोष वाले प्रासाद नहीं बनावें ॥१८॥ पपराजिलपृच्छा सूत्र ११० में अन्य प्रकार से कहा है कि
"ब्रह्मविष्णुरवीणां च शम्मोः कार्या यदृच्छया । गिरिवाया जिनादीनां मन्वन्तरभुवां तथा ।। एतेषां च सुराणां च प्रासादा भिन्नजिताः ।
प्रासादमठवेश्मान्यभिन्नानि शुभवानि हि ॥" ब्रह्म, विष्णु, सूर्य और शिव, इनके प्रासाद भिन्न अथवा अभिन्न अपनी इच्छानुसार बनावें । परन्तु गौरीदेवी, जिनदेव पीर मन्वंतर में होने वाले देव, इनके प्रासाद भिन्न दोष में रहित बनावें । प्रासाद, मठ और घर से भिन्न दोष रहित बनाना शुभ है।