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अब्डमोऽध्यायः
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सोलह स्तंभ बाला और तोरणों से शोभायमान बनावें । तथा मंइप के मध्य में वेदिका और पांच, पाठ अथवा नव यज्ञ कुण्ड बनावें ॥४१ से ४३|| यज्ञकुण्ड का मान
हस्तमात्रं भवेत् कुण्डं मेखलायोनिसंयुतम् ।
आगमैर्वेदमन्त्रैश्च होमं कुर्याद् विधानतः ॥१४॥ तोन मेखला और योनि से युक्त ऐमा एक हाथ के मानका पजगत ननाथें । जसमें पागम और वेद के मंत्रों से विधिपूर्वक होम करें ॥४॥ माहुति संख्या से कुण्डमान
अयुते हस्तमात्र स्थात् लक्षा? तु द्विहस्तकम् । त्रिहस्तं लक्षहोमे स्याद् दशलक्षे चतुष्करम् ॥४शा विंशलो पञ्चहस्तं कोरबद्ध पटकर मतम् । अशीतिलक्षेऽद्रिकर कोटिहोमे कराष्टकम् ॥४६॥ प्रहपूजाविधाने च कुण्डमेककर मवेत् ।।
मेखलात्रितयं वेद-रामयुग्माङ्गुलैः क्रमात् ॥४७॥* दस हजार प्राहुति के लिये एक हाथ का, पचास हजार पाहुति के लिये दो हाथ का, एक लाख पाहुति के लिये तीन हाथ का, दस लाख पाहुति के लिये चार हाय का, तीस लाख पाहुति के लिये पांच हाय का, पचास लाख पाहुति के लिये छह हाथ का, अस्सी लाख प्राप्ति के लिये सात हाथ का और एक करोड़ पाहुति देना हो तो पाठ हाथ का कुण्ड बनावें । ग्रहपूजा मादि के विधान में एक हाथ के मान का कुल बनावें । कुण्ड की तीन भेखला क्रमशः चार, तीन और दो अंगुल के मान को रखें ।।४५ से ४७॥ विशानुसार कुण्डों को प्राकृति--
"प्राच्याश्चतुष्कोणभगेन्दुखण्ड--त्रिकोणवृत्ताअभुजाम्बुजानि । अष्टानिशक्रेश्वरयोस्तु मध्ये, वेदासि वा वृत्तमुशक्ति कुण्डम् ॥ २॥
इति मंडपकुंडसिद्धी पूर्व दिशा में समचोरस, अग्निकोण में योन्याकार, दक्षिण दिशा में अर्द्ध चन्द्र, नै*. स्यकोण में त्रिकोण, पश्चिमदिशा में गोल, वायुकोण में छह कोण, उत्तर में अष्टदल एयाकार • विशेष जानने के लिये देखो अपराजिता सूत्र १४, । प्रा०२०